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Showing posts from November, 2021

अग्रिम जमानत याचिका का क्या अर्थ होता है ? What is the meaning of anticipatory bail petition?

COMPANY अधिनियम 2013 के प्रमुख लक्षण एवं विशेषताएं (give the main characteristics of Company Act 2013.)

Main characteristic of company act 2013 (कंपनी अधिनियम 2013 की प्रमुख विशेषताएं)        कंपनी अधिनियम 2013 में कुल मिलाकर 29 अध्यायों में से 470 धाराएं शामिल है तथा इनमें 7 अनुसूचियां भी दी गई है ।इस प्रकार इस अधिनियम द्वारा कंपनी अधिनियम 1956 की कुल 658 धाराओं की संख्या को घटाकर 470 धाराओं तक सीमित रखा गया है अर्थात 188 धाराएं कम की गई है। अनुसूचियों की संख्या 5 से बढ़ाकर 7 कर दी गई है ।इस नए अधिनियम द्वारा कंपनी विधि में निम्नलिखित परिवर्तन किए गए हैं - ( 1) कंपनी अधिनियम 2013 का मूल उद्देश्य कंपनियों से संबंधित विधि को पूर्णतया संशोधित तथा समेकित कर के वर्तमान विश्व बाजार व्यवस्था में उद्यमियों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना तथा उनकी कानूनी समस्याओं का निवारण करना है ।इसके साथ ही इस ओर भी यथेष्ट ध्यान दिया गया है कि नई कंपनी कानून व्यवस्था यथासंभव पारदर्शी तथा जवाब देह हो तथा निवेशकों तथा कंपनियों से संव्यवहार करने वाले व्यक्तियों के हितों की संरक्षा सुनिश्चित की जा सके। ( 2) कंपनी अधिनियम 2013 की एक विशिष्टता यह है कि इसके द्वारा एकल व्यक्ति कंपनी की संकल्पना को लागू

किन दशाओं में निजी कंपनी सार्वजनिक कंपनी में परिवर्तित की जा सकती है?In a feature situation a private company converted into public company?

कंपनी की परिभाषा (definition of company)  कंपनी को विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार परिभाषित किया है - कंपनी व्यक्तियों का एक ऐसा संघ है जो किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए संगठित हुआ हो।                               (न्यायधीश जेम्स)           कंपनी स्वभाव से ही एक ऐसा कृत्रिम व्यक्ति है जो किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए राज नियम द्वारा अधिकृत या स्थापित किया जाता है।                        (किम्बाल एवं किम्बाल)                कंपनी शब्द का आशय सामान्य उद्देश्यों के लिए निर्मित बहुत से व्यक्तियों के एक संघ से है ।उनमें दो महत्वपूर्ण तत्व समाविष्ट हैं प्रथम यह कि संघ के सदस्य इतने अधिक होते हैं कि उसे सही अर्थ में फर्म या साझेदारी नहीं जा सकता है और दूसरे प्रत्येक संघ में अपने हित व अन्य सदस्यों की सहमति के बिना हस्तांतरित कर सकता है। ऐसे संघ को कानून के अनुसार नियमित किया जा सकता है ।जिसके फलस्वरूप वह एक नियमित संस्था हो जाती है जिसे सामान्यतः स्थाई अस्तित्व वाली सार्व मुद्रा युक्त निगम कहा जाता है ।इसके पश्चात वह अपने सदस्यों से पृथक एवं वैधानिक व्यक्ति माना जाता है। परंतु यदि उ

एक कंपनी के रजिस्ट्रीकरण एवं निगमन की प्रक्रिया निर्मित वादों सहित समझाइए. Explain the process of registration of a company. is a Company Bounds by the pre incorporation contracts?

कंपनी के पंजीकरण संबंधी प्रक्रिया (procedure of registration of a company) किसी कंपनी का पंजीकरण करवाने के लिए कंपनियों के रजिस्ट्रार को एक प्रार्थना पत्र देना पड़ता है ।इस प्रार्थना पत्र के साथ निम्नलिखित अभिलेख (documents) होने चाहिए - (1 ) संगम ज्ञापन (2) संगम अनुच्छेद यदि आवश्यक हो (3) किसी ऐसे करार की प्रतिलिपि जो कंपनी द्वारा किसी व्यक्ति के साथ उसकी प्रबंध निर्देशक पूर्णकालिक निर्देशक या प्रबंध की हैसियत से नियुक्त करने के लिए किया गया हो। इन अभिलेखों के साथ एक घोषणापत्र भी होना चाहिए जिसमें यह घोषणा होती है कि कंपनी अधिनियम की रजिस्ट्रीकरण संबंधी सभी आवश्यकताएँ  पूरी कर ली गई है। ऐसे घोषणा पत्र पर निम्नलिखित में से किसी के हस्ताक्षर होने चाहिए। ( धारा 7 (1) (b))          किसी एडवोकेट के चार्टर्ड अकाउंटेंट लागत लेखापाल या कंपनी सचिव द्वारा जो कंपनी के गठन में लगा हुआ हो और कंपनी के निर्देशक प्रबंधक या सचिव के रूप में अनुच्छेदों में नामित किसी व्यक्ति द्वारा।              जब उपयुर्क्त  दस्तावेज रजिस्ट्रीकरण के लिए प्रस्तुत किए जाते हैं तो रजिस्ट्रार को यह देखना होता है कि वह अधिन

What the position of directors of company. कंपनी के निर्देशकों की स्थिति क्या होती है?

निर्देशक या संचालक (directors) कानून के अनुसार कंपनी को संवैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त है परंतु वह प्राकृतिक ना होने के कारण उसका कोई भौतिक शरीर व मस्तिष्क नहीं होता है । अतःएक अमूर्त व्यक्ति होने के कारण कंपनी स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकती तथा अपने कार्यों को कुछ वास्तविक व्यक्तियों से ही करवाती है ।जो उसके निर्देशक कहे जाते हैं। कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (34) उप बंधित है कि निर्देशक के रूप में कार्य करने वाला कोई भी व्यक्ति निर्देशक कहलाता है चाहे उसे किसी नाम से ही क्यों ना पुकारा जाता हो। इस प्रकार निर्देशक कंपनी का पदाधिकारी है। इस प्रकार निर्देशकों को व्यक्तियों का एक निकाय कहा जाता है जो कंपनी के कारोबार का संचालन करते हैं और कभी-कभी उन्हें भागी की संज्ञा दी जाती है. निर्देशक कंपनी के प्रबंध के लिए उत्तरदाई होते हैं । उनका कार्य कंपनी के मामलों को निर्देशित करना नियंत्रित करना पर्यवेक्षित करना तथा उनका प्रबंध करना है ।कंपनी के निर्देशकों का स्थान केवल महत्वपूर्ण अथवा अनिवार्य ही नहीं होता वरन उनकी स्थिति उससे भी अधिक महत्व की होती है। लॉर्ड बेबेन  के मतानुसार निर्देश

कंपनी के प्रकारों की व्याख्या कीजिए. एक कंपनी के पंजीकरण की प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए. Explain the kinds of a company? Discuss the process of registration of a company.

कंपनी के विभिन्न प्रकार (various kinds of company) संयुक्त स्कंध कंपनियों को अग्रवत् आधारों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है - ( 1) समामेलन के आधार पर (on the basis of Incorporation): - समामेलन के आधार पर कंपनी को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है - ( 1) समामेलित कंपनियां: - समामेलित कंपनियों को पुनः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है - (A ) राजाज्ञा द्वारा - प्रारंभ में कंपनियों का समामेलन रायल चार्टर के अंतर्गत होता था ।इसके अधीन स्थापित कंपनियां विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाई जाती थी तथा इनको कुछ विशेष अधिकार भी दिए जाते हैं ।भारत में इस प्रकार की कोई कंपनी नहीं है ( B ) संसद के विशेष अधिनियम द्वारा: - कुछ कंपनियों की स्थापना संसद में विशेष अधिनियम को पारित करके की जाती है ,जैसे =जीवन बीमा निगम औद्योगिक वित्त निगम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया एवं एयर इंडिया इंटरनेशनल आदि. (C) कंपनी अधिनियम  द्वारा: - वैधानिक कंपनियों को छोड़कर शेष सभी कंपनियों का निर्माण भारतीय कंपनी अधिनियम के द्वारा होता है यद्यपि कुछ विशेष प्रकार की कंपनियों के लिए अलग से अधिनियम है किंतु फिर भी उनका

Define company and also give its main characteristics (कंपनी की परिभाषा दीजिए एवं इसके आवश्यक तत्व मुख्य विशेषताओं को बताइए)

कंपनी की परिभाषा (definition of company): -            कंपनी एक ऐसी संस्था है जो कंपनी अधिनियम के अधीन समामेलित है. कानून की दृष्टि में कंपनी अदृश्य एवं अमूर्त होने के कारण एक कृत्रिम व्यक्ति है. जिसका निर्माण करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों से पृथक वैधानिक अस्तित्व होता है. इसको अविच्छिन्न उत्तराधिकार प्राप्त है तथा इसकी एक सार्व मुद्रा भी होती है ।इसकी पूंजी हस्तांतरण योग्य अंशों में विभक्त होती है तथा सभी अंश धारी इसके सदस्य होते हैं.           कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (20) अनुसार कंपनी का आशय ऐसी कंपनी से है जिसका समामेलन इस अधिनियम या किसी पूर्व अधिनियम के अधीन हुआ है.           एल एच हैने के अनुसार कंपनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम   व्यक्ति है जिसका पृथक अस्तित्व एवं स्थाई अस्तित्व होता है और जिसकी एक सार्व मुद्रा होती है.          मार्शल के अनुसार कंपनी एक अदृश्य अमूर्त एवं कृत्रिम    व्यक्ति है जिसका अस्तित्व वैधानिक होता है और जो विधान द्वारा निर्मित होती है.           मुख्य न्यायमूर्ति मार्शल ने कंपनी के संबंध में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा है

Company and partnership firm, public and private company मे क्या difference है?

कंपनी एवं साझेदारी फर्म में अंतर (difference between company and partnership firm) ( 1) responsibility (दायित्व): - कंपनी के अंश धारियों का सदैव सीमित दायित्व रहता है एवं कंपनी द्वारा लिए गए ऋणों से उनका किसी प्रकार का संबंध नहीं रहता है, लेकिन साझेदारी फर्म में प्रत्येक साझेदार पर उस फर्म द्वारा लिए गए ऋणों के दायित्व का पूरी जिम्मेदारी व्यक्तिगत रूप से रहती है. इसका आशय यह है कि फार्म का ऋण दाता उस फर्म के प्रत्येक साझेदार का ऋण दाता होता है. इसलिए वह चाहे तो अपना संपूर्ण कर्ज एक ही साझेदार से वसूल कर सकता है. ( 2) contract (अनुबंध): - कंपनी के अंश धारी सदस्य अपनी कंपनी से अनुबंध कर सकते हैं परंतु साझेदार अपनी फर्म से किसी प्रकार का अनुबंध नहीं कर सकते हैं. ( 3) अस्तित्व: - कंपनी को वैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त होने का कारण उसका अस्तित्व उसके सदस्यों से पूरी तरह पृथक होता है लेकिन साझेदारी फर्म का सदस्यों से अलग व्यक्तित्व नहीं होता है. ( 4) विनियोजन: - कंपनी को वैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त होने के कारण वह अपनी संपत्ति का विनियोग स्वयं के नाम से कर सकता है परंतु साझेदारी फ

( M a i n doctrine of lifting the corporate veil) निगमन के आवरण को हटाने का प्रमुख सिद्धांत

यद्यपि सालोमन बनाम सालोमन एंड कंपनी लिमिटेड (1897) S.C. 22 के केस में कंपनी के अलग व्यक्तित्व के सिद्धांत को विधिक मान्यता प्रदान करते हुए व्यक्तित्व से पैदा दायित्वों तथा कर्तव्यों पर ही विचार किया जाना चाहिए. अगर कंपनी के पीछे अथवा अंदर कार्य करने वाले व्यक्तियों की कार्यवाहियों पर विचार किया जाता है तो ऐसा करने से निर्मित कंपनी के अस्तित्व की अवहेलना की जाएगी. लेकिन कंपनी से संबंधित परिस्थितियां पैदा हो जाती है जब निगमित कंपनी के पीछे कार्यरत वास्तविक व्यक्तियों के क्रियाकलापों पर विचार करना परम आवश्यक हो जाता है. इसी को निगमन के आवरण को हटाने का सिद्धांत कहते हैं.                       इस सिद्धांत को कंपनी विधि के अधीन सांविधिक मान्यता प्रदान की गई है. कभी-कभी कराधान संबंधी नियमों के उचित प्रशासन हेतु कंपनी के निगमन के आवरण को हटाना जरूरी हो जाता है. इसी तरह जब कभी कोर्ट को यह निर्धारित करना हो कि कंपनी के कृतियों या लोपों के लिए वास्तविक रूप से दोषी कौन है तो कोर्ट इस सिद्धांत को लागू करता है. विजय कुमार अग्रवाल बनाम रतनलाल बागडिया ,A.I.R. 1999 कोलकाता 106 का केस निगमन