Define company and also give its main characteristics (कंपनी की परिभाषा दीजिए एवं इसके आवश्यक तत्व मुख्य विशेषताओं को बताइए)
कंपनी एक ऐसी संस्था है जो कंपनी अधिनियम के अधीन समामेलित है. कानून की दृष्टि में कंपनी अदृश्य एवं अमूर्त होने के कारण एक कृत्रिम व्यक्ति है. जिसका निर्माण करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों से पृथक वैधानिक अस्तित्व होता है. इसको अविच्छिन्न उत्तराधिकार प्राप्त है तथा इसकी एक सार्व मुद्रा भी होती है ।इसकी पूंजी हस्तांतरण योग्य अंशों में विभक्त होती है तथा सभी अंश धारी इसके सदस्य होते हैं.
कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (20) अनुसार कंपनी का आशय ऐसी कंपनी से है जिसका समामेलन इस अधिनियम या किसी पूर्व अधिनियम के अधीन हुआ है.
एल एच हैने के अनुसार कंपनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका पृथक अस्तित्व एवं स्थाई अस्तित्व होता है और जिसकी एक सार्व मुद्रा होती है.
मार्शल के अनुसार कंपनी एक अदृश्य अमूर्त एवं कृत्रिम व्यक्ति है जिसका अस्तित्व वैधानिक होता है और जो विधान द्वारा निर्मित होती है.
मुख्य न्यायमूर्ति मार्शल ने कंपनी के संबंध में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा है कि संयुक्त स्कंध कंपनी एक ऐसा कृत्रिम व्यक्ति है जो अदृश्य तथा अमूर्त है और जिसका अस्तित्व केवल विधि की दृष्टि से होता है. केवल कानून की कृति होने के कारण इसके केवल वही तत्व होते हैं जो इसे निर्मित करने वाली विधि इसे प्रदान करती है अथवा जो इसके अस्तित्व के लिए परम आवश्यक है. इसकी प्रमुख विशेषताएं शाश्वतता एवं व्यक्तित्व हैं जिनके कारण एक निरंतर बदलने वाले व्यक्तियों के समूह को अपरिवर्तित माना जाता है और वह एक व्यक्ति की भांति कार्य कर सकती है.
निरासित कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 566 के अनुसार संयुक्त स्कंध कंपनी से आशय एक ऐसी कंपनी से है जिसके पास स्थाई चुकता या अंशों मे विभाजित एक निश्चित राशि की नाम मात्र अंश पूंजी होती है जो निश्चित राशि या धारित या हस्तांतरणीय स्टॉक या विभाजित तथा अंशतः एक प्रकार से धारित तथा अंशतः अन्य प्रकार से धारित होती है तथा जो इस सिद्धांत पर आधारित होती है कि उसके अंश या स्टॉक को धारण करने वाले ही उसके सदस्य होंगे, अन्य कोई व्यक्ति नहीं. ऐसी कंपनी को जब सीमित दायित्व सहित अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत किया जाता है तो उसे अंशों द्वारा सीमित कंपनी कहा जाता है.
कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2 की उप धारा (20) मे कंपनी को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार कंपनी से तात्पर्य इस अधिनियम अथवा पूर्वर्ती किसी अन्य कंपनी विधि के अंतर्गत निगमित कंपनी है. इसी अधिनियम की धारा 2 (21) एवं 2 (22) मे क्रमसः गारण्टी द्वारा लिमिटेड कंपनी अथवा अंशों द्वारा लिमिटेड कंपनी को परिभाषित किया गया है.
उल्लेखनीय है कि नए कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2 की उप धारा (62) मे एकल व्यक्ति कंपनी को भी संविधिक मान्यता प्रदान कर दी गई है इसलिए अब कंपनी को व्यक्तियों का समूह मानने की धारणा का कोई औचित्य नहीं रह गया है. एकल व्यक्ति कंपनी एक ऐसी कंपनी होती है जिसमें सदस्य के रूप में एकमात्र व्यक्ति ही होता है. उपरोक्त सभी परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कंपनी एक ऐसा कृत्रिम व्यक्ति है जिसका वास्तविक कारोबार जीवित व्यक्तियों द्वारा कुछ जीवित व्यक्तियों के हित या लाभ के लिए किया जाता है.
कंपनी की प्रमुख विशेषताएं (main characteristic of company): -
कंपनी की प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार है -
( 1) पृथक वैधानिक अस्तित्व: - कंपनी का अस्तित्व अपने सदस्यों से अलग होता है. अतः कंपनी अपने अंश धारियों से किसी भी प्रकार का अनुबंध कर सकती है. एक कंपनी अपने अंश धारियों के प्रति तथा अंश धारी कंपनी के प्रति वाद प्रस्तुत कर सकते हैं. इस प्रकार कोई भी अंश धारी कंपनी के कार्यों के लिए उत्तरदाई नहीं होता भले ही उसने उस कंपनी के सभी अंश क्यों ना ले रखें.
( 2) आयकर से छूट: - कंपनी के अंश धारी की आय कर योग्य नहीं है तो अंश धारी को लाभांश या आयकर से छूट प्राप्त हो जाती है पर इसके लिए उसे आयकर अधिनियम की धारा 194 के अधीन आशय की एक घोषणा कंपनी को देनी होगी कि उसकी आय कर योग्य नहीं है. इस घोषणा के कंपनी को प्राप्त होने पर ऐसे अंश धारी के लाभांश में से आयकर की कटौती नहीं होगी.
( 3) निवेशकों को हानि से संरक्षण: - कंपनी एक निगमित निकाय एवं स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली संस्था है इसलिए उसकी ना तो कोई इच्छा होती है और ना उसका दूषित मन ही हो सकता है ऐसी स्थिति में कंपनी का कोई अपराधिक दायित्व निश्चित नहीं किया जा सकता है परन्तु चूकि भारतीय दंड संहिता की धारा 11 में स्पष्ट रूप से यह उल्लेखित किया गया है कि व्यक्ति के अंतर्गत कोई कंपनी है व्यक्तियों का संगठन भी समाविष्ट है. चाहे वह साधारण खंड अधिनियम 1897 की धारा 2 (42) के अंतर्गत नियमित हो अथवा ना हो. अतः इस धारा को दृष्टिगत रखते हुए कंपनी पर भी आपराधिक दायित्व अधिरोपित किया जा सकता है ताकि कंपनी में पूंजी निवेश करने वाले निवेशकों को हानि के विरुद्ध पर्याप्त संरक्षण प्राप्त हो सके ।
( 4) पूंजी का स्थायित्व तथा कंपनी की स्थिरता: - चूंकि कंपनी द्वारा निर्गमित अंश तथा ऋण पत्र अपेक्षाकृत कम मूल्य के होते हैं इसलिए सामान्य एवं औसत स्तर का व्यक्ति भी कंपनी में अपनी पूंजी का निवेश कर सकता है क्योंकि इसमें उन्हें हानि की संभावना कम रहती है. कंपनी में पूंजी लगाने वाले व्यक्ति को यह सुविधा भी रहती है कि वह अपनी आवश्यकतानुसार अपने अंशों या ऋण पत्रों को बेचकर अपनी पूंजी वापस प्राप्त कर सकता है. अनेक व्यक्ति इस प्रकार के भी होते हैं जो व्यापार में धन लगाकर लाभ अर्जित करना चाहते हैं परंतु प्रत्यक्ष रूप से व्यापार में भाग लेने से डरते हैं ऐसे व्यक्तियों के लिए कंपनी व्यवस्था अत्यंत सुरक्षित एवं लाभदायक रहती है इससे कंपनी की पूंजी को स्थायित्व प्राप्त होता है तथा कंपनी की स्थिरता भी बदस्तूर रहती है.
( 5) केंद्रीकृत प्रबंध: - एक निगमित कंपनी की व्यवस्था उसके स्वामित्व से पूर्णता भिन्न होती है तथा कंपनी की व्यवस्था एवं प्रबंधन में अंश धारियों का प्रत्यक्ष रूप से कोई हाथ नहीं रहता है. कंपनी अपने प्रबंधन के लिए सुयोग्य एवं कुशल व्यक्तियों की नियुक्ति करती है ताकि कंपनी की कार्य क्षमता में उत्तरोत्तर वृद्धि हो सके. किसी नियमित कंपनी के प्रबंधन का दायित्व निर्देशक मंडल पर होता है जो अपनी बैठकों में कंपनी की नीति का निर्धारण करते हैं निर्देशक निरंकुश ना हो सके इसके लिए उनका कार्यकाल सीमित रखा गया है तथा यह व्यवस्था भी की गई है कि यदि वे अक्षम सिद्ध होते हैं या कुप्रबंध को बढ़ावा देते हैं तो उन्हें उनके कार्यकाल से पूर्व भी पदच्युत किया जा सकता है. यद्यपि नए कंपनी अधिनियम 2013 के अंतर्गत कंपनी के निर्देशकों की संख्या न्यूनतम तीन रखी गई है किंतु यदि आवश्यक हो तो इससे अधिक संख्या में भी निर्देशकों की नियुक्ति की जा सकती है.
( 6) सीमित दायित्व: - एक कंपनी गठित करके व्यापार करने का एक बड़ा लाभ यह होता है कि इसमें अंश धारियों का दायित्व सीमित होता है. कंपनी का स्वतंत्र दायित्व होने के कारण यह अपनी संपत्ति की स्वामिनी होती है तथा दायित्वों से आबध्द होती है. सदस्यों का दायित्व केवल उनके द्वारा लिए गए अंशों पर देय धनराशि तक ही होता है. कंपनी के अंश धारी व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से इसके कामों के लिए उत्तरदाई नहीं होते.
( 7) हस्तांतरणीय अंश: - कंपनी की स्थापना का एक उद्देश्य यह होता है कि व्यापारिक लाभ की दृष्टि से इसके अंशों का सरलता से हस्तांतरण किया जा सके. कंपनी अधिनियम की धारा 44 में इसका स्पष्ट प्रावधान है जिसके अनुसार कंपनी के अंतर्नियमों के अनुसार किसी भी सदस्य के अंश या दूसरे हितों का चल संपत्ति की भांति हस्तांतरण किया जा सकेगा. कोई सदस्य अपने अंश को खुले बाजार में बेच कर अपनी पूंजी प्राप्त कर सकता है इससे कंपनी को स्थायित्व प्राप्त होता है एवं पूंजी लगाने वाले को सुविधा होती है.
( 8) सार्वमुद्रा: - प्रत्येक कंपनी की एक सार्वमुद्रा होती है जो विधिक एवं सामूहिक अस्तित्व का प्रतीक है कंपनी के निगमन के साथ ही उसे सार्वमुद्रा के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं।कम्पनी के अंश धारी अनेक स्थानों पर रहते हैं। इस सार्व मुद्रा को अंकित किए बिना कंपनी के किसी भी अनुबंध प्रलेख अथवा अन्य परिपत्रों को विधिक मान्यता प्राप्त नहीं हो सकती ।कंपनी में प्रतिनिधिक व्यवस्था होती है। उसका कार्य संचालन अंश धारियों की ओर से कुछ व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जो संचालक कहलाते हैं.
( 9)निगमित अर्थव्यवस्था: - चूकि कंपनी के अन्तरणीय होते हैं इसलिए इस व्यवस्था में कंपनी कम से कम समय में अधिक से अधिक पूंजी प्राप्त कर लेती है. जब कंपनी का विस्तार होता है तो कंपनी को अधिक पूंजी की आवश्यकता होती है. ऐसी स्थिति में कंपनी अपने सीमा नियमों के अनुसार ऋण पत्रों का निर्गमन भी कर सकती है जिससे कंपनी अपेक्षाकृत कम ब्याज पर आसानी से ऋण प्राप्त कर लेती है कंपनी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के कारण अपनी आस्तियों की भी स्वामी हो सकती है.
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