कानून के अनुसार कंपनी को संवैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त है परंतु वह प्राकृतिक ना होने के कारण उसका कोई भौतिक शरीर व मस्तिष्क नहीं होता है । अतःएक अमूर्त व्यक्ति होने के कारण कंपनी स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकती तथा अपने कार्यों को कुछ वास्तविक व्यक्तियों से ही करवाती है ।जो उसके निर्देशक कहे जाते हैं। कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (34) उप बंधित है कि निर्देशक के रूप में कार्य करने वाला कोई भी व्यक्ति निर्देशक कहलाता है चाहे उसे किसी नाम से ही क्यों ना पुकारा जाता हो। इस प्रकार निर्देशक कंपनी का पदाधिकारी है। इस प्रकार निर्देशकों को व्यक्तियों का एक निकाय कहा जाता है जो कंपनी के कारोबार का संचालन करते हैं और कभी-कभी उन्हें भागी की संज्ञा दी जाती है. निर्देशक कंपनी के प्रबंध के लिए उत्तरदाई होते हैं । उनका कार्य कंपनी के मामलों को निर्देशित करना नियंत्रित करना पर्यवेक्षित करना तथा उनका प्रबंध करना है ।कंपनी के निर्देशकों का स्थान केवल महत्वपूर्ण अथवा अनिवार्य ही नहीं होता वरन उनकी स्थिति उससे भी अधिक महत्व की होती है। लॉर्ड बेबेन के मतानुसार निर्देशकों को कभी अभिकर्ता कहा जाता है कभी न्यासी और कभी प्रबंधक साझेदार। परंतु इसमें से कोई भी स्थिति उनकी शक्तियों और दायित्वों को पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं करती। कंपनी के निर्देशक केवल ऐसा दृष्टिकोण दर्शाते हैं जिससे किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है.
निर्देशक कंपनी का सेवक अथवा कर्मचारी नहीं है। परंतु निर्देशक होने के साथ ही साथ वे उस कंपनी में वेतनभोगी नियोजन भी हो सकते हैं और ऐसी स्थिति में उन्हें वे सभी अधिकार प्राप्त होंगे जो उस कर्मचारी अथवा सेवक को उपलब्ध है.
विभिन्न न्यायालयों ने समय-समय पर संचालकों या निर्देशकों की स्थिति पर प्रकाश डाला है ।निर्देशकों की इस स्थिति का संबंध विभिन्न पहलुओं से है ।निर्देशक कंपनी के संदर्भ में विभिन्न स्थितियों में रखे गए हैं ।वास्तव में निर्देशकों की पूर्ण स्थिति का उल्लेख तो नहीं किया जा सकता परंतु न्यायालय ने उसकी स्थितियों का उल्लेख किया है -
( 1) संचालक कंपनी के अंश धारी होते हैं (Directors as shareholder): - कंपनी का निदेशक वही व्यक्ति हो सकता है जो अंश धारी हो ।अतः प्रत्येक व्यक्ति जो कंपनी का निर्देशक होता है वह कंपनी का अंश धारी भी होता है ।कंपनी के अंश धारी होने के नाते निर्देशक को वे सभी अधिकार प्राप्त होते हैं जो सामान्य रूप से एक अंश धारी को प्राप्त होते हैं ।यदि कोई निर्देशक निश्चित समय तक याचना (Call)का भुगतान नहीं करता तो वह निर्देशक की तरह कार्य नहीं कर सकता है.
( 2) संचालक की प्रशासकीय स्थिति (Directors as administrator): - संचालकों या निर्देशकों द्वारा कंपनी के प्रशासकीय कार्य किए जाते हैं ।निर्देशक मंडल के कार्यकारिणी के स्वरूप के होते हैं ।निर्देशक द्वारा कंपनी के सेवकों की नियुक्ति की जाती है तथा कंपनी का सामान्य प्रशासन उन्हीं के द्वारा चलाया जाता है तथा कंपनी का सामान्य प्रशासन उन्हीं के द्वारा चलाया जाता है ।निर्देशकों को अदत्त पूंजी (unpaid capital) की वसूलीयावी करने के लिए याचना (call) करने का अधिकार है तथा ये ऋण पत्र (debentures) जारी कर सकते हैं ।निर्देशकों को कंपनी के लिए ऋण लेने का भी अधिकार होता है। निर्देशक कंपनी के धन का विनियोग करते हैं तथा अन्य को ऋण भी दे सकते हैं ।उक्त सभी कार्य कंपनी के प्रशासन से संबंधित है। निर्देशकों द्वारा कंपनी हेतु किए गए संविदा कंपनी पर बाध्यकारी होते हैं.
( 3) संचालक कंपनी के न्यासी होते हैं (Directors as trustees): - एक ओर कंपनी के निदेशक कंपनी के अति विश्वास पात्र व्यक्ति होते हैं. कंपनी के अंश धारियों द्वारा उन्हें यह विश्वास अर्पित किया जाता है ।दूसरी तरफ कंपनी का स्वतंत्र तथा भिन्न व्यक्तित्व होने के कारण वे न्यासी की स्थिति में होते हैं ।कंपनी की संपत्ति धन तथा ख्याति निर्देशकों के हाथ में होती है ।निर्देशकों का पुनीत कर्तव्य है कि वह वही कार्य करें जो कंपनी के उद्देश्य के अनुसार हो। निर्देशकों को कंपनी की संपत्ति के संरक्षण में असावधानी नहीं बरतनी चाहिए ।कंपनी के निर्देशकों को कंपनी के हितों के विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिए तथा कंपनी के धन का विनियोग करके खतरे मोल नहीं लेना चाहिए.
निर्देशक उन शक्तियों के संबंध में भी न्यासी होते हैं जिन शक्तियों को वह कंपनी की ओर से प्रयोग करने हेतु प्राधिकृत होते हैं ।इस प्रकार आवंटन की शक्ति अंशों के अंतरण को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने की शक्ति मांग जारी करने की शक्ति मांग के संबंध में धन अग्रिम रूप में देने की शक्ति अंशों को जप्त करने की शक्ति अंशों को समर्पण में स्वीकार करने की शक्ति ऐसी शक्तियां हैं जिन्हें निर्देशक व्यक्ति रूप में धारण करते हैं और परिणाम स्वरूप उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी शक्तियों का प्रयोग सद्भाव पूर्वक संपूर्ण कंपनी के हित के लिए करेंगे.
लॉर्ड जस्टिस लिंडले (Lindley) का मत है कि कंपनी के निर्देशक दृढ अर्थों में यद्यपि कंपनी के न्यासी नहीं होते हैं परंतु विधि ने उन्हें न्यासी की दृष्टि से देखा है ।कंपनी का धन निर्देशकों के हाथ में होता है। वह इस धन को न्यासी की तरह सावधानी से रखते हैं। इस प्रकार निर्देशकों पर उसी प्रकार का आधार होता है जैसा की न्यासी (trustees) पर होता है ।निर्देशकों को सदैव सदभावना पूर्वक कार्य करना चाहिए.
( 4) निर्देशक कंपनी के एजेंट होते हैं (directors are agent of the company): - कम्पनी के निर्देशकों की आवश्यकता कंपनी के व्यापार को चलाने के लिए पड़ती है क्योंकि कंपनी एक कृतिम वैधानिक व्यक्ति होती है और वह स्वयं अपने व्यापार का संचालन नहीं करती। कंपनी का व्यापार चलाना निर्देशकों का कार्य है ।इस कार्य को करते समय कंपनी के निर्देशक उसके अभिकर्ता होते हैं कि कम कि निर्देशक कंपनी के अभिकर्ता होते हैं बहुत पहले ही अर्थात सन्1866 में निर्धारित हो चुका है। न्यायालय ने कहा कि कंपनी का भौतिक शरीर नहीं होता इसलिए वह केवल निर्देशकों के माध्यम से कार्य करती है और उन निर्देशकों के प्रति कंपनी का संबंध केवल स्वामी और अभिकर्ता का होता है.
निर्देशकों के द्वारा की गई संविदा कंपनी पर बाध्यकारी होती है। कंपनी के निर्देशकों को सदैव कंपनी का एजेंट माना जाता है ।फर्गुसन बनाम विल्सन (1866L.R.) के विवाद में चांसरी डिवीजन के निर्णय में यह निश्चित किया गया कि कंपनी केवल संचालकों या निर्देशकों के माध्यम से कार्य करती है। अतः संचालक या निर्देशक कंपनी के अभिकर्ता (agent) होते हैं ।प्रबंध की दृष्टि से निर्देशक कंपनी का अभिकर्ता होता है.
( 5) निर्देशक कंपनी के कर्मचारी होते हैं (directors are servant of the company ): - कंपनी के निर्देशक मात्र न्यासी अंश धारी प्रशासन अथवा अभिकर्ता ही नहीं वरन कंपनी के कर्मचारी भी होते हैं ।निर्देशक अपनी सेवाओं के बदले कंपनी से पारितोषिक भी प्राप्त कर सकते हैं ।कंपनी के निर्देशकों में पारितोषण (remuneration) निर्धारण यदि कंपनी चाहे तो वार्षिक सभा में विशेष प्रस्ताव द्वारा भी कर सकती है ।परिणाम स्वरूप कंपनी तथा उसके निर्देशकों के मध्य एक सेवक और स्वामी के संबंध होते हैं.
एक वाद में यह निर्णय किया गया है कि निर्देशक किसी मालिक के नौकर नहीं होते। अतः उन्हें कंपनी या किसी और का नौकर कहा नहीं जा सकता.
अतः निर्देशक की किसी कंपनी में सही स्थिति क्या होती है यह कहा जाना कठिन है ।सामान्य भाषा में संचालक व्यवसायिक निपुणता युक्त वह व्यक्ति है जो कंपनी के कार्यों के लिए निर्देश में नियुक्त किया जाता है.
वास्तव में निर्देशक ना तो कंपनी के अभिकर्ता होते हैं और ना ही निवासी होते हैं। उन्हें केवल अभिकर्ता या निवासी कहना उचित नहीं है। वह कंपनी के अभिकर्ता न्यासी दोनों ही कहे जा सकते हैं। उन्हें कंपनी के अभिकर्ता के रूप में उन सब व्यवहारों के संबंध में मान्यता दी जाती है ।जिसे वे कंपनी की ओर से करते हैं। इस प्रकार जब वे कंपनी की ओर से संविदा करते हैं तो इस संबंध में वे कंपनी की ओर से अभिकर्ता होते हैं। परंतु उन्हें कंपनी के धन और संपत्ति के संबंध में न्यासी कहा जा सकता है।
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