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भारत में विधिक व्यवसाय का विकास का इतिहास क्या है ? इस पर चर्चा।

भारत में विधिक व्यवसाय का विकास का इतिहास क्या है ? इस पर चर्चा।

        भारत में विधिक व्यवसाय का विकास 


Importance of legal Profession [ विधिक व्यवसाय का महत्व :-

       न्याय प्रशासन में अधिवक्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। न्यायाधीशों की सही निर्णय देने में अधिवक्ता सहायता प्रदान करते हैं। अधिवक्ता वाद से सम्बन्धित विधिक सामग्री एकत्रित करके न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों और Legal तर्कों के अनुसार [ legal materials] के आधार पर न्यायाधीश निर्णय देते हैं। अधिवक्ताओं के अभाव में न्यायाधीशों के लिये सही निर्णय देना थोडा जटिल कार्य सिद्ध होगा। 


    न्यायमूर्ति श्री पी० एन० सप्रु के अनुसार अधिवक्ता के अस्तित्व का उचित आँधार यह है कि किसी भी विवाद का प्रत्येक पक्षकार इस स्थिति में होना चाहिये कि वह निष्पक्ष अधिकरण के समक्ष अपने पक्ष को सर्वोत्तम ढंग से और सबसे अधिक प्रभावी ढंग से अपना पक्ष प्रस्तुत कर सके।


          वास्तव में विधि बहुत ही जटिल होती है अधिनियमों एवं विनियमों की भाषा प्रायः बहुत जटिल होती है। जिसे समझना जटिल होता है जिसको समझने के लिये नागरिकों को अधिवक्ता की सलाह लेनी पड़ती है।


            जहा तक अधिवक्ता के सद्‌भाव तथा उचित आचरण का संबन्ध है अधिवक्ता अपने मुवक्किल के हाथों की कठपुतली नहीं होता है जो उनके इशारों अथवा अदेशानुसार अपना आचरण बनाये।


    वाद के निष्पक्ष एवं उचित संचालन के लिये न्यायालय के प्रति जवाब देह होता है। जो फीस देता है अधिवक्ता उसका अभिकर्ता (agent) नहीं होता है। न्याय के उचित प्रशासन में न्यायालय की सहायता करना उसका कर्तव्य होता है। 


          डा०सी०एल० आनन्द ने ठीक लिखा है कि अधिवक्ता न्यायाधीशों के साथ समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखने के उत्तरदायित्व में हिस्सा लेता है। उनका कार्य विवादों को बढावा देना नहीं है बल्कि उन विवादो का समाधान 'ढूंढ़ना है। अधिवक्ता समाज में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने में महत्वपूर्ण भुमिका अदा करते है शान्ति और व्यवस्था समाज के  उत्थान के लिये अत्यंत आवश्यक है। वास्तव में अधिकार एवं स्वतन्त्रता विधि की देन और यह विधि द्वारा आरोपित सीमाओं के अधीन है अधिवक्ता विधि का उल्लघंन करने वाले नागरिकों के अधिकार सौर स्वतन्त्रता की रक्षा प्रतिदिन करते है।



        अधिवक्ता विधि के अनुसार विधि के सुधार में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। उनके अपने अनुभव के कारण विधि के दोषों का ज्ञान होता है। और इस कारण विधि के दोषों को हल करने में उनके सुझाव का विशेष महत्व होता है।


      इस प्रकार विधिक व्यवसाय अत्यन्त सम्मानजनक व्यवसाय है इसका सृजन व्यक्तिगत लाभ के लिये नहीं बल्कि लोकहित के लिये किया गया है। यह मुद्रा अर्जन पेशा नहीं बल्कि प्रशासन का एक यह कारोबार या व्यापार नहीं है इसलिये अधिवक्ता कार्य हेतु याचना या विज्ञापन नहीं कर सकता है। भारतीय विधिक परिषद के नियम 36 से यह स्पष्ट हो जाता है कि अधिवक्ता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कार्य हेतु विज्ञापन नहीं कर सकता है। 

विधि आयोग [Law commission 1:→ 

1958 में विधि आयोग ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में एकीकृत अखिल भारतीय बार की स्थापना की सिफारिश की। इसने Bar को वरिष्ठ अधिवक्ता और अधिवक्ता में विभाजित करने का सुझाव दिया । इसने अखिल भारतीय बार कमेटी 1951 की इस सिफारिश का समर्थन किया की विधि - स्नातक से कम योग्यता के प्लीडर की भर्ती न की जाये। 


अधिवक्ता अधिनियम 1961 [ Advocate Act 19617: सन् 1961 में भारतीय संसद ने अधिवक्ता अधिनियम पारित किया। इसका उद्देश्य विधि-व्यवसाय संबंधी विधि की संकलित और संशोधित करना और Bar Council तथा All India Bar Council के गठन के संबन्ध में उपबन्ध करना है और इस अधिनियम का विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है। 

     यह अधिनियम राज्य विधिक परिषद और भारतीय विधिज्ञ परिषद के गठन कार्य और शक्तियों के संबन्ध में उपबन्ध करता है। BCI वृत्तिक आचरण और शिष्टाचार के मानक का निर्धारण करती है और इसके उल्लघंन पर दण्ड के संबन्ध में भी नियम बना सकती है। यह विधि शिक्षा का स्तर भी निर्धारित करती है।चाहे विज्ञापन परिपन, दलाल, निजी संसूचनाये, निजी संबन्धों द्वारा अनावश्यक साक्षात्कार समाचार पलों से प्रेरित करने वाली टिप्पणियों अथवा जिन मामलों में वह वचन‌बद्ध है अथवा संबन्धित है के संबन्ध में अपने फोटोग्राफ प्रस्तुत करने के रूप में यह सभी वर्णित है। वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से विज्ञापन नहीं कर सकता है। 


            अधिवक्ता न्यायालय का आफिसर होता है और उसका कर्तव्य होता है कि वह न्यायालय के प्रति  आदरपूर्ण रुख या दृष्टिकोण बनाये रखे । According to the Rules of Bar Council of India आपने नाम कि प्रस्तुति तथा न्यायालय के समक्ष अन्य किसी कार्य के दौरान अधिवक्ता को आत्मसम्मान और मर्यादा के साथ आचरण करना चाहिये। 


        हंसराज एस० छुलानी V/S BC of महाराष्ट्र है गोवा AIR 1966 SC 1708 SC में अधिवक्ताओं के  कर्तव्यों को ध्यान में रखकर मत व्यक्त किया है कि न्यायिक प्रशासन में विधिक व्यवसाय न्यायालय के साथ भागीदार होता है। 


भारत में विधि व्यवसाय का विकास: 

भारत में ब्रिटिश शासन से पूर्व विधि व्यवसाय था या नहीं यह बताना कठिन है क्योंकि राजा सर्वोच्च न्यायाधीश था और उसको विधि मत देने का कार्य उसके सभा में उपस्थित मंत्रीगण की सलाह के अनुसार था लेकिन राजा का फैसला अंतिम एवं सर्वमान्य होता था।


परन्तु यह तो निश्चित है कि रूप में व्यवस्थित नहीं था जिस रूप में वर्तमान समय में विद्यमान है। वास्तव में विधि व्यवसाय जिस रूप में वर्तमान समय में विद्यमान है उसका सृजन और विकास ब्रिटिश भारत में हुआ। जबकि हिन्दू और मुस्लिम शासन काल में अधिवक्ता कि संस्था उस रुप में विद्मान नहीं थी जैसे वर्तमान समय में पायी जाती है। वादी की न्यायालय के समक्ष वाद पत्र प्रस्तुत करना पड़ता है और इसके उपरान्त वादी को उसका जवाब देने को कहा जाता है। उसके बाद साक्ष्य के आधार पर न्यायालय निर्णय देता था । अग्नि परीक्षा या दिव्य परीक्षा भी सिद्ध करने का तरीका माना जाता था। 

        R.P. कांगले के अनुसार  कौटिल्य ने भी अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में विधि व्यवसाय का कही भी उल्लेख नही किया है। इसलिये भी यह संभावना व्यक्त की जाती है कि उस समय विधि व्यवसाय का अस्तित्व नहीं था। न्यायामूर्ति आशुतोष मुखर्जी ने इस मत को ठीक नहीं माना है कि हिन्दू काल में विधिक व्यवसाय का अस्तित्व नहीं था उनके मन के अनुसार हिन्दु काल में भी विधिक व्यवसाय का अस्तित्व था।


 नेमबरूसल सेट्टी V/S एम० पी० नरसिम्हा चारी [1916]375-0.699 मुस्लिम काल में वादकारियों का प्रतिनिधित्व वकीलो द्वारा किया जाता था । वाद के मूल्य का कुछ प्रतिशत वकील प्राप्त करता था।


 ब्रिटिश भारत में विधि व्यवसाय: 


जिस रूप में विधि व्यवसाय आज विद्यमान है उसका सृजन और विकास ब्रिटिश काल में हुआ ।उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश काल के प्रारंभ में विधि व्यवसाय पर उचित ध्यान नहीं दिया गया और इस कारण यह व्यवस्थित नहीं था। 


                वास्तव में ईस्ट इण्डिया कपनी को विधि व्यवसाय व्यवस्थित करने में कोई रुचि नहीं थी। ईस्ट इण्डिया कंपनी की बस्तियों में एक समान न्यायिक प्रणाली नहीं थी। न्यायालय कम्पनी द्वारा स्थापित किये गये थे। और वह अपने अधिकार हेक्ट इण्डिया कम्पनी से प्राप्त करते थे। न कि ब्रिटिश सम्राट से।



 ब्रिटिश सम्राट के न्यायालय [ Britiesh kings Courts]: 1726 के चार्टर द्वारा प्रत्येक प्रेसीडेंसी नगर बबई, कलकत्ता और मद्रास में एक मेयर न्यायालय की स्थापना की गयी। ये न्यायालय शाही न्यायालय [Royal Court ] थे अर्थात ये न्यायालय अपनी शक्तियाँ ब्रिटिश सम्राट से प्राप्त करते थे न कि ईस्ट इण्डिया कंपनी से। वास्तव में इस राजपत्र द्वारा भारत में सर्वप्रथम ब्रिटिश सम्राट के न्यायालय की स्थापना हुई । इस राजपत्र का आशय था कि भारत में ऐसे न्यायालय स्थापित किये जाये जिनका स्तर इंग्लैण्ड के न्यायालयों के समतुल्य हो । यह राजपत्र इसलिये भी प्रसिद्ध है क्योंकि इसके द्वारा सर्वप्रथम तीनों ही प्रेसीडेन्सी नगरों सर्वप्रम एक न्याय पद्धति लागू की गयी। ये न्यायालय ऐसी प्रक्रिया का अनुसरण करते थे जो सुनिश्चित थी और अंग्रेजी विधि और प्रक्रिया पर आधारित थी।



       परन्तु इस राजपत्र ने विधि व्यवसाय की सुनियोजित करने पर उचित बल नही दिया। विधि व्यवसाय करने वालों को विनियमित करने के निमित्त इसमें कोई उपबंध नहीं था। बहुत ऐसे व्यक्ति विधि व्यवसाय करते थे जिन्हे विधि का कोई ज्ञान नहीं था । यहाँ तक कि मेयर कोर्ट के न्यायाधीश सामान्य व्यक्ति थे और विधि के विशेषज्ञ नहीं । 


     1726 के चार्टर को दूर करने के लिये एक नया चार्टर 1753 जारी किया गया। इसके द्वारा 1726 के चार्टर में कई संशोधन किये गये परन्तु विधि व्यवसाय को व्यवस्थित करने के लिये कोई महत्वपूर्ण उपबन्ध नहीं रखा गया। इस चार्टर के बाद भी विधि व्यवसाय व्यवस्थित नहीं था।

      विधि व्यवसाय को सुनियोजित करने के लिये Regulating Act 1773-74 का योगदान उल्लेखनीय है। Regulating Act 1773 द्वारा Britiesh king चार्टर जारी करके कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी। इसके परिणाम स्वरूप कलकत्ता में मेयर का न्यायालय समाप्त हो गया। सन् 1801 में मद्रास में भी सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी और 1823 में बंबई में भी सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी। 1774 के राजपत्र  के खन्ड द्वितीय में सुप्रीम कोर्ट की इस बात के लिये सशक्त किया कि वह जितनी संख्या में समझे एडवोकेटो और अटार्नियों को अनुमोदित, स्वीकृत और सूचीबद्ध कर सके। सुप्रीम कोर्ट को इस बात की शक्ति भी प्राप्त थी कि वह युक्तियुक्त कारणों के आधार पर एडवोकेट्स को हटा सकती है।



उपयुक्त सूचीबद्ध एडवोकेट्स और एर्टीनी को यह अधिकार था कि वे किसी भी मुकदमें में पक्षकारों की ओर से कोर्ट में उपस्थित हो सकते थे और उनकी ओर से अभिवचन कर सकते थे। एडवोकेट और अर्टानी के अतिरिक्त अन्य कोई भी न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं हो सकता था । इन उपबंधों से स्पष्ट हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष केवल ऐडवोकेट और अटर्नी ही उपस्थित हो सकते थे। उस समय एडवोकेट शब्द का अर्थ अंग्रेजी और आइरिश वैरिस्टर अथवा स्कोटलैण्ड की फैकल्टी ऑफ एडवोकेट के सदसा तक ही सीमित था। इसीप्रकार एर्टानी शब्द केके अन्तर्गत ब्रिटीश अर्टानी था इस प्रकार भारतीय वकीलों की सुप्रीम कोर्ट में कोई अवसर नही प्रदान किया। लगभग यही स्थिति बबई और सदास के सुप्रीम कोर्ट की थी।


 कंपनी न्यायालय: ईस्ट इण्डिया कंपनी के न्यायालयों में भी विधि व्यवसाय सुवस्थित नहीं था। कम्पनी की अदालतों के लिये विधि व्यवसाय के लिये नियमित व्यवस्था सर्वप्रथम 1793 के बंगाल रेग्युलेशन एक्ट द्वारा की गयी थी। इस Regulation में Sadar Diwani Adalatd को कंपनी की अदालतों के लिये वकीलों की सूची बद्ध करने का अधिकार प्रदान किया। इस Regulation के तहत केवल हिन्दू और मुसलमान ही सूचीबद किये जा सकते है। मद्रास और वंबई के प्रान्तों में भी इसी प्रकार की व्यवस्था की गयी।


लीगल प्रेक्टिशनर्स एक्ट 1846 ने यह स्पष्ट कर दिया कि किसी राष्ट्रीयता या धर्म के व्यक्ति वकील हो संकेंगे। इस एक्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि भारत में ब्रिटिश सम्राट के न्यायालयो में सूचीबद्ध एटार्नी और वैरिस्टिर कम्पनी की सदर अदालतों में उपस्थित हो और अभिवचन कर सके।

    Indian Bar Committee 1923 & Indian Bar Council Act 19261:-

 1923 में सर एडवर्ड चामियर की अध्यक्षता में इण्डियन बार कमेटी गठित हुई। इस कमेटी को अखिल भारतीय स्तर पर बार के गठन और हाइकोर्ट के लिये अखिल भारतीय कौंसिल की स्थापना के संवन्ध में विचार करना और सुझाव देना था । कमिटी कर अखिल भारतीय कर कौंसिल के स्थापना के पक्ष में नहीं थी। इस कमेटी ने यह सुझाव दिया कि सभी हाइ‌कोर्ट के विधि व्यावसायियों का केवल एक वर्ग हो और उसे एडवोकेट का नाम दिया जाये। कुछ निर्धारित शर्तों को पूरा करने पर वकीलों को भी तीनो हाइ‌कोर्ट के मौलिक अधिकार में अभिवचन करने अर्थात प्लीड करने की अनुमति दी जानी चाहिये । कमेटी ने यह भी सुझाव दिया कि प्रत्येक हाइकोर्ट के लिये एक बार कौंसिल का गठन किया जाये और इसे किसी विधि व्यवसायी के विरुद्ध अनुशासन संबन्धी मामले की जाँच करने का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिये। परन्तु कार्यवाही करने के पूर्व इसे जाँच करने और रिपोर्ट प्रस्ताव करने हेतु मामले को बार कौसिल को सौपना चाहिये।

विधि आयोग [Law commission 1:→ 1958 में विधि आयोग ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में एकीकृत अखिल भारतीय बार की स्थापना की सिफारिश की। इसने Bar को वरिष्ठ अधिवक्ता और अधिवक्ता में विभाजित करने का सुझाव दिया । इसने अखिल भारतीय बार कमेटी 1951 की इस सिफारिश का समर्थन किया की विधि - स्नातक से कम योग्यता के प्लीडर की भर्ती न की जाये। 


अधिवक्ता अधिनियम 1961 [ Advocate Act 1961: सन् 1961 में भारतीय संसद ने अधिवक्ता अधिनियम पारित किया। इसका उद्देश्य विधि-व्यवसाय संबंधी विधि की संकलित और संशोधित करना और Bar Council तथा All India Bar Council के गठन के संबन्ध में उपबन्ध करना है और इस अधिनियम का विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है। यह अधिनियम राज्य विधिक परिषद और भारतीय विधिज्ञ परिषद के गठन कार्य और शक्तियों के संबन्ध में उपबंध करता है। BCI वृत्तिक आचरण और शिष्टाचार के मानक का निर्धारण करती है और इसके उल्लघंन पर दण्ड के संबन्ध में भी नियम बना सकती है। यह विधि शिक्षा का स्तर भी निर्धारित करती है।





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