यद्यपि सालोमन बनाम सालोमन एंड कंपनी लिमिटेड (1897) S.C. 22 के केस में कंपनी के अलग व्यक्तित्व के सिद्धांत को विधिक मान्यता प्रदान करते हुए व्यक्तित्व से पैदा दायित्वों तथा कर्तव्यों पर ही विचार किया जाना चाहिए. अगर कंपनी के पीछे अथवा अंदर कार्य करने वाले व्यक्तियों की कार्यवाहियों पर विचार किया जाता है तो ऐसा करने से निर्मित कंपनी के अस्तित्व की अवहेलना की जाएगी. लेकिन कंपनी से संबंधित परिस्थितियां पैदा हो जाती है जब निगमित कंपनी के पीछे कार्यरत वास्तविक व्यक्तियों के क्रियाकलापों पर विचार करना परम आवश्यक हो जाता है. इसी को निगमन के आवरण को हटाने का सिद्धांत कहते हैं.
इस सिद्धांत को कंपनी विधि के अधीन सांविधिक मान्यता प्रदान की गई है. कभी-कभी कराधान संबंधी नियमों के उचित प्रशासन हेतु कंपनी के निगमन के आवरण को हटाना जरूरी हो जाता है. इसी तरह जब कभी कोर्ट को यह निर्धारित करना हो कि कंपनी के कृतियों या लोपों के लिए वास्तविक रूप से दोषी कौन है तो कोर्ट इस सिद्धांत को लागू करता है.
विजय कुमार अग्रवाल बनाम रतनलाल बागडिया ,A.I.R. 1999 कोलकाता 106 का केस निगमन के आवरण को हटाने के सिध्दांत से सम्बंधित एक प्रमुख वाद है ।इस मामले मे कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया कि इस सिद्धांत का प्रयोग सामान रूप से कंपनी अधिनियम तथा अन्य वित्तीय कराधान संबंधी विधियों के संदर्भ में किया जाता है परंतु इस सिद्धांत को निम्नलिखित परिस्थितियों में भी लागू किया जा सकता है -
( 1) कंपनी की वास्तविक प्रकृति का निर्धारण करने के लिए: - जहां किसी मामले में न्यायालय को प्रश्न गत कंपनी की वास्तविक प्रकृति का पता लगाना हो तो न्यायालय उस कंपनी के विधिक आवरण को हटाकर उसके पीछे कार्यरत उन वास्तविक व्यक्तियों की गतिविधियों या आचरण का परीक्षण कर सकता है जिनका उस कंपनी पर नियंत्रण है. डेगलर कंपनी लिमिटेड बनाम कॉन्टिनेंटल टायर एंड रबर कंपनी लिमिटेड (1916) 2 A.C. 307 का मामला इस संदर्भ में उल्लेखनीय है जिसे डेगलर कंपनी वाद के नाम से भी जाना जाता है. इस प्रकरण में इंग्लैंड की एक कंपनी ने जर्मनी में स्थित किसी की जर्मन कंपनी द्वारा बनाए गए रबड़ टायरों की बिक्री के व्यापार के लिए स्वयं को इंग्लैंड में निगमित कराया. इस इंग्लिश कंपनी के अधिकांश अंश जर्मन कंपनी ने खरीदे तथा केवल एक अंश को छोड़कर सभी अंश धारक तथा निर्देशक जर्मनी में रहने वाले जर्मन व्यक्ति थे. इस प्रकार इस इंग्लिश कंपनी का वास्तविक नियंत्रण जर्मन लोगों के हाथों में ही था. प्रथम विश्व युद्ध के समय इस कंपनी द्वारा अपने ऋण वसूली से संबंधित वाद में यह आवश्यकता अनुभव की गई कि इस कंपनी की वास्तविक प्रकृति का पता लगाया जाए क्योंकि प्रति वादियों (इस कंपनी का ऋण चुकाने वाले व्यक्ति) द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि यह इंग्लिश कंपनी पूर्ण रूप से जर्मन व्यक्तियों द्वारा संचालित एवं नियंत्रित होने के कारण वह इंग्लैंड के लिए शत्रु कंपनी थी, इसलिए उसे ऋण वसूली का वाद चलाने से रोका जाना चाहिए. अपना निर्णय देते समय लॉर्ड हेल्सबरी द्वारा अवधारित किया गया कि इंग्लैंड में निर्मित प्रत्येक कंपनी को विधि के अंतर्गत विविध अस्तित्व प्राप्त है. लेकिन वास्तविक व्यक्ति ना होने के कारण निगमित कंपनी का ना तो कोई मस्तिष्क हो सकता है और ना विवेक उसके बेईमान या ईमानदार होने का प्रश्न ही नहीं उठता है. लेकिन अगर किसी निगमित कंपनी के निर्देशक या उस पर नियंत्रण रखने वाले वास्तविक व्यक्ति शत्रु देश के नागरिक हो अथवा किसी अन्य देश के निवासी होते हुए भी शत्रु देश के नियंत्रण में कार्यरत हो तो उस कंपनी को शत्रु कंपनी माना जाएगा. इस मामले में इंग्लिश कंपनी शत्रु कंपनी घोषित करते हुए उसके वाद को निरस्त कर दिया गया.
( 2) अनुचित कर मुक्ति का लाभ लिए जाने की आशंका होने पर: - कंपनी के वास्तविक स्वरूप एवं प्रकृति को समझने के लिए न्यायालय को निगमन के आवरण को हटाने के सिद्धांत ऐसी स्थिति में भी लागू करना पड़ता है जब न्यायालय को यह आशंका हो कि कंपनी का निगमन कंपनी की आड़ में कार्य करने वाले व्यक्तियों को कर मुक्ति का अनुचित लाभ उठाने के उद्देश्य से किया गया है. इस सिध्दांत को न्यायालय उस समय भी लागू कर सकता है जब न्यायालय को यह प्रतीत हो कि निगमन सिर्फ कर दायित्व से बचाव के लिए किया गया है.
न्यू होराइजंस लिमिटेड बनाम भारत संघ (1995) 1 S.C.C.478 मामले में उच्चतम न्यायालय ने सह उद्यम निगम का अर्थ स्पष्ट किया तथा आधारित किया कि कंपनी की वास्तविक प्रकृति को सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय को यह अधिकार है कि वह कंपनी की वास्तविक प्रकृति को सुनिश्चित करने के लिए अधिकार है कि वे कंपनी के निगमित आवरण को हटा दें. जब निगमित व्यक्तित्व को न्याय सुविधा या राजस्व के हित के विरुद्ध पाया जाता है तब आवरण को हटाए जाने आवरण को भेदने अथवा आवरण के माध्यम से आकने या देखने के सिद्धांत की सहायता ली जा सकती है.
( 3) किसी कपटपूर्ण उद्देश्य की आशंका होने पर: - जब किसी न्यायालय को यह आशंका हो कि कंपनी का निगमन किसी कपट पूर्ण उद्देश्य के लिए किया गया है तो न्यायालय निगमित कंपनी के स्वतंत्र व्यक्तित्व की ओर ध्यान न देकर कंपनी की वास्तविकता एवं उसके उद्देश्य को जानने के लिए कंपनी पर नियंत्रण रखने वाले वास्तविक व्यक्तियों के बारे में भी विचार कर सकता है.
इस विषय में दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम स्काइपर कंस्ट्रक्शन कंपनी प्राइवेट लिमिटेड A.I.R.1996 S.C.2005 का मामला उल्लेखनीय है इस मामले में प्रत्यर्थी कंपनी ने अपीलार्थी दिल्ली विकास प्राधिकरण से अक्टूबर 1980 में एक भूखंड नीलामी में क्रय किया लेकिन निर्धारित शर्तों के अनुसार प्रत्यर्थी कंपनी ने बोली की धनराशि का भुगतान समय पर नहीं किया तथा बाद में दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा समय समय पर बढ़ाए गए समय पर भी नहीं किया गया. जब इस आवंटन को रद्द करने का प्रस्ताव दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा किया गया तो प्रत्यर्थी कंपनी ने दिल्ली उच्च न्यायालय में आवेदन करके रद्द करण को स्थगित करा लिया परंतु इसी बीच प्रत्यर्थी कंपनी विभिन्न व्यक्तियों को प्रश्न गत भूखंडों को विक्रय करने के लिए एडवांस राशि भी प्राप्त करती रही. दिनांक 29 - 12 - 1990 को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा आदेश पारित करते हुए प्रत्यार्थी को निर्देश दिया गया कि वह 30 दिन के भीतर दिल्ली विकास प्राधिकरण को रुपए 8, 12, 88, 789 रुपए का भुगतान करें तथा भुगतान न किए जाने तक भूखंड पर कोई निर्माण कार्य ना करें. प्रत्यार्थी दिल्ली विकास प्राधिकरण के आदेश का अनुपालन करने में विफल रही तथा उसने उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका प्रस्तुत कर दिया. दिनांक 21 - 1 - 1991 को उच्चतम न्यायालय ने इस शर्त के साथ अंतरिम आदेश प्रदान किया कि प्रत्यार्थी कंपनी 1 माह के भीतर 2.5 करोड़ रुपए तथा दिनांक 8 - 4 - 1991 के पूर्व दूसरी बार भी 2.5 करोड़ रुपए जमा करें. इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय ने यह प्रतिषेधात्मक आदेश भी दिया कि प्रत्याशी कंपनी बिल्डिंग में किसी व्यक्ति का प्रवेश नहीं कराएगी. लेकिन प्रत्यार्थी कंपनी ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को नहीं माना तथा भूखंड के विक्रय हेतु अखबारों में विज्ञापन दिए जाते रहे. दिनांक 25 - 1 - 1993 को उच्चतम न्यायालय द्वारा यह याचिका निरस्त कर दी गई तथा दिल्ली विकास प्राधिकरण ने दिनांक 10 - 2 - 1993 को भूखंड पर दुबारा से कब्जा प्राप्त कर लिया. किंतु दिनांक 29 - 1 - 1991 और प्रत्यार्थी कम्पनी ने प्रस्तावित बिल्डिंग में जगह का विक्रय करने का करार करके विभिन्न पक्षकारों से लगभग ₹140000000 प्राप्त कर लिए थे तथा बाद में भी विभिन्न व्यक्तियों से विक्रय का करार करके ₹110000000 भी प्राप्त कर लिए थे.
उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि निगमन के आवरण के पीछे न्यायालयीन आदेशों की जानबूझकर अवज्ञा करने या भ्रष्ट तथा अवैध साधनों को अपनाने में किन व्यक्तियों का हाथ है यह जानने के लिए न्यायालय कंपनी के आवरण को हटा सकता है. इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कदाचरण की जानकारी होने पर स्वप्रेरणा से कंपनी के निर्देशक तथा उसकी पत्नी के विरुद्ध अवमान कार्यवाहियां की तथा संविधान के अनुच्छेद 129 से अनुच्छेद 142 के अधीन अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए उन पर साधारण कारावास का दंडादेश तथा जुर्माना भी लगाया.
( 4) किसी कल्याणकारी विधायन के अंतर्गत दायित्व से बचने के लिए“: - यदि कोई कंपनी अपना निगमन किसी कल्याणकारी विधान के अंतर्गत अपने दायित्व से बचने के लिए कराती है तो न्यायालय उस कंपनी के निगमन के आवरण को हटाकर इसके वास्तविक उद्देश्य की जांच कर सकता है. एसोसिएटेड रबर इंडस्ट्री लिमिटेड भावनगर A.I.R.-1961 s.c.l. के मामले में एक मुख्य कंपनी ने पूर्ण रूप से अपनी ही पूंजी तथा अतिथियों सहित एक नई कंपनी का निर्माण किया जिसका अंतरित अंशों पर लाभांश प्राप्त करने के अलावा कोई अन्य कारोबार नहीं था. उच्चतम न्यायालय ने कंपनी के वास्तविक उद्देश्य एवं प्रकृति को देखने के लिए निगमन के आवरण को हटाने के सिद्धांत को लागू किया जिसमें न्यायालय ने यह पाया कि मुख्य कंपनी द्वारा नई कंपनी की स्थापना करने का एकमात्र उद्देश्य श्रमिकों को बोनस देने से बचाना था अतः ऐसी स्थिति में यह स्वीकार नहीं किया गया कि यह दोनों कंपनियां प्रथक प्रथक है बल्कि इसके विपरीत यह माना जाएगा कि यह कंपनियां दो नहीं है बल्कि एक ही है.
( 5) कतिपय अन्य मामलों में सिद्धांत का लागू होना - अब यह सुस्थापित हो चुका है कि निगमन के आवरण को हटाने का सिद्धांत सामान्य रूप से कंपनी विधि कर विधि एवं अन्य वित्तीय एवं विधियों के अधीन गठित एवं प्रशासित निगमों के मामलों में लागू होता है. इसी तरह न्यायालीय अवमान के मामलों में विभिन्न प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के मामलों में भी न्यायालय सिद्धांत को लागू करता है. इसके अलावा कंपनी द्वारा कल्प अपराध कार्य किए जाने पर न्यायालय कंपनी के या कंम्पनी के पीछे कंपनी की ओट में कार्य करने वाले वास्तविक व्यक्तियों के दायित्व का निर्धारण करने हेतु भी निगमन के आवरण को हटाने के सिद्धांत को लागू करता है. भारत में अनेक प्राइवेट कंपनियां अपने व्यापारिक या क्रिया कलापों में सुविधाएं प्राप्त करने के उद्देश्य से स्वयं को सरकारी कंपनी के रूप में पंजीकृत कराने को प्रयासरत रहती हैं. ऐसी स्थिति में भी न्यायालय निगमन के आवरण को हटाने के सिद्धांत को लागू करके वास्तविकता का पता लगाता है. कभी-कभी कोई कंपनी अपने मूल स्वरूप को लेकर ऐसी गतिविधियों के समान माना जाता है ऐसी स्थिति में न्यायालय इस सिद्धांत को लागू करके कंपनी की वास्तविकता का पता लगा लेता है.
दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम स्काइपर कंस्ट्रक्शन कंपनी प्राइवेट लिमिटेड ए आई आर 1996 एस सी 2005 के केस में उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि यह पता करने के लिए कि न्यायालय इन आदेशों का उल्लंघन करने वाले या अवैध गतिविधियों या भ्रष्टाचार में कौन-कौन वास्तविक व्यक्ति लिप्त हैं. निगमन के आवरण को हटाने के सिद्धांत का प्रयोग किया जा सकता है. ऐसी दशा में न्यायालय यदि चाहे तो अवैध एवं भ्रष्ट तरीके से कंपनी के निर्देशकों या अधिकारियों द्वारा अर्जित किए गए धन या संपत्ति को कुर्क या जब्त भी कर सकता है. इस मामले में कुछ न्यायालय ने कंपनी के निर्देशकों द्वारा न्यायालय के आदेशों की अवज्ञा करने के लिए अवमान कार्रवाहियां शुरू कर के अनुच्छेद 129 से 25 अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए उन पर साधारण जेल का दंडा देश एवं जुर्माना भी लगाया.
( 6) जहां निगम के आवरण की ओट में कोई एजेंसी या ट्रस्ट कार्यरत हो: - कभी-कभी कंपनी अपने असली स्वरूप को खोलकर ऐसी गतिविधियों (activities) मे लिप्ट रहती है जो किसी अभिकरण अथवा ट्रस्ट के समान होती है. इन रि. एफ.जी.फिल्म्स लिमिटेड में एक ऐसी अमेरिकी कंपनी ने भारत में मानसून नाम की कपटपूर्ण पिक्चर को बनाया जो तकनीकी दृष्टि से ब्रिटिश कंपनी थी। पूंजी 100 पाउंड थी एवं प्रत्येक अंश का मूल्य 1 पाउंड था। इसमें से 90 पाउंड इस अमेरिकी कंपनी के अध्यक्ष के द्वारा धारित है ऐसी हालत में व्यापार मंडल ने कंपनी को ब्रिटिश कंपनी के रूप में पंजीकृत करने से इस आधार पर इनकार कर दिया क्योंकि हकीकत में यह ब्रिटिश कंपनी इस अमेरिकी कंपनी की एजेंट मात्र थी.
इंडिया में अनेक प्राइवेट कंपनियां स्वयं को सरकारी कंपनी के रूप में पंजीकृत कराने की प्रवृत्ति (tendency) रहती हैं जिससे कि उन्हें व्यापारी क्रियाकलापों में अधिक सुविधा हासिल हो सके. अत: कोर्ट इन के आवरण को हटाकर इनकी वास्तविक स्थिति का पता लगाता है.
( 7) कंपनी संबंधी अपराध समान केसों के निर्धारण में: - किसी कंपनी के द्वारा अपराध समान कार्य किए जाने पर कोर्ट कंपनी या उसकी आड़ में कार्यरत वास्तविक व्यक्तियों के दायित्व (liability) के निर्धारण हेतु कभी-कभी कोर्ट को कंपनी के निगमन का आवरण हटाना जरूरी हो जाता है. इस विषय मे न्यू होरीजंस बनाम भारत संघ का केस वर्णित है. इस केस में वादी कंपनी ने सरकार के खिलाफ यह दावा किया था कि उसके द्वारा निविदा की राशि अन्य सभी टेंडरों से कम होने पर भी उसे टेलीफोन डायरेक्टरी छापने का आदेश नहीं दिया गया इसके उत्तर में सरकार की तरफ से यह दलील दी गई कि कंपनी को डायरेक्टरी प्रिंटिंग का पूर्व अनुभव नहीं था इसके उत्तर में कंपनी ने कहा कि उसे यह अर्थात प्रिन्टिग अनुभव था परंतु सरकार की तरफ से इसकी जांच नहीं कराई गई कोर्ट ने कंपनी की दलील को गलत घोषित करते हुए सरकारी कार्रवाई को सही बताया.
वर्तमान में जो व्यक्ति निगमित कंपनियों के माध्यम से व्यापार या व्यवसाय करते हैं वे व्यक्तिगत दायित्व (individual liability) से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं है निगमित कंपनियों के लाभ सिर्फ ऐसे व्यक्तियों को ही प्राप्त है जो अपने व्यवहार सत्य तथा निष्ठा पूर्वक करते हैं अर्थात निगमित कंपनी का दुरुपयोग व्यक्तिगत दायित्व से बचने के लिए या कपटपूर्णउद्देश्य को साधना लिए नहीं किया जा सकता है.
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