Skip to main content

भारतीय जेलों में जाति आधारित भेदभाव: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला और इसके प्रभाव

कंपनी के प्रकारों की व्याख्या कीजिए. एक कंपनी के पंजीकरण की प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए. Explain the kinds of a company? Discuss the process of registration of a company.

कंपनी के विभिन्न प्रकार (various kinds of company)


संयुक्त स्कंध कंपनियों को अग्रवत् आधारों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है -

( 1) समामेलन के आधार पर (on the basis of Incorporation): - समामेलन के आधार पर कंपनी को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है -

( 1) समामेलित कंपनियां: - समामेलित कंपनियों को पुनः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है -

(A ) राजाज्ञा द्वारा - प्रारंभ में कंपनियों का समामेलन रायल चार्टर के अंतर्गत होता था ।इसके अधीन स्थापित कंपनियां विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाई जाती थी तथा इनको कुछ विशेष अधिकार भी दिए जाते हैं ।भारत में इस प्रकार की कोई कंपनी नहीं है

( B ) संसद के विशेष अधिनियम द्वारा: - कुछ कंपनियों की स्थापना संसद में विशेष अधिनियम को पारित करके की जाती है ,जैसे =जीवन बीमा निगम औद्योगिक वित्त निगम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया एवं एयर इंडिया इंटरनेशनल आदि.

(C) कंपनी अधिनियम  द्वारा: - वैधानिक कंपनियों को छोड़कर शेष सभी कंपनियों का निर्माण भारतीय कंपनी अधिनियम के द्वारा होता है यद्यपि कुछ विशेष प्रकार की कंपनियों के लिए अलग से अधिनियम है किंतु फिर भी उनका पंजीयन भारतीय कंपनी के अंतर्गत ही होता है जैसे बैंकिंग कंपनियों के लिए बैंकिंग कंपनी अधिनियम 1949 बीमा कंपनियों के लिए बीमा अधिनियम 1938 और बिजली कंपनियों के लिए बिजली आपूर्ति 1948 किंतु फिर भी इनका पंजीयन भारतीय कंपनी अधिनियम के अंतर्गत होता है


( 2) असमामेलित कंपनियां (Unincorporated companies): - बड़ी बड़ी साझेदारी संस्थाओं को असमामेलित कंपनियां कहते हैं । ये वैधानिक कंपनियों की तरह सदस्यों से पृथक नहीं समझी जाती हैं ।इनके सदस्यों का दायित्व असीमित होता है ।अब इस प्रकार की कंपनियां स्थापित नहीं की जा सकती क्योंकि भारतीय कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 11 में इन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। ऐसी कंपनियों में अंश पूंजी हो सकती है और नहीं भी ।इनकी संख्या नगण्य के समान है।


(A) दायित्व के आधार पर (on the basis of liability): - कंपनी अधिनियम के अंतर्गत दायित्व की दृष्टि से कंपनियां निम्न दो प्रकार की होती हैं -

(B) सीमित दायित्व वाली कंपनियां: - इस प्रकार की कंपनियों में सदस्यों का दायित्व सीमित होता है ।साझेदारी संस्था की भांति असीमित नहीं ।ऐसी कंपनियों के नाम के साथ सीमित दायित्व शब्द अनिवार्य रूप से लगाया जाता है । इस प्रकार की कंपनियों को भी दो उप विभागों में बांटा जा सकता है


(C) अंशों द्वारा सीमित कंपनी: - इस प्रकार की कंपनियों में अंश धारियों का दायित्व उन के अंशों का मूल्य तक ही सीमित होता है अर्थात यदि एक अंश धारी ने अपने द्वारा क्रय किए गए अंशों का मूल्य चुका दिया है तो कंपनी को हानि होने की स्थिति में उसकी अधिकतम हानि अपने अंशों के मूल्य के बराबर हो सकती है.

(D) प्रत्याभूति द्वारा सीमित दायित्व वाली कंपनियां: - इस प्रकार की कंपनी से आशय एक ऐसी कंपनी से है जिसमें कंपनी के सदस्य कंपनी को इस तथ्य की गारंटी देते हैं कि कंपनी का उनकी सदस्यता के समय अथवा सदस्यता के समाप्त होने के 1 वर्ष के अंदर समापन हो जाए तो वे कंपनी के कोष में एक निश्चित राशि जमा कर देंगे ।सदस्यों द्वारा दिए जाने वाले अतिरिक्त धन की मात्रा कंपनी की सीमा नियम या उसकी अंतर्नियमावली में दी जाती है प्रायः इस प्रकार की कंपनियों का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता है.

( 2) असीमित दायित्व वाली कंपनियां: - इस प्रकार की कंपनियों के अंश धारियों का दायित्व एकाकी व्यापारी तथा साझेदारी फर्म की भांति असीमित होता है ।साझेदार व्यक्तिगत रूप से एवं संयुक्त रूप से फर्म के ऋणों के लिए असीमित रूप से उत्तरदाई होते हैं लेकिन सीमित दायित्व वाली कंपनियों में सदस्यों का सीमित दायित्व केवल संयुक्त रूप से होता है ।अर्थात प्रत्येक सदस्य अपने हित के अनुपात में कंपनी के दायित्वों  का भुगतान करने के लिए उत्तरदाई होता है। वर्तमान समय में इस प्रकार की कंपनियों का प्रचलन नहीं है.


(A) स्वामित्व के आधार पर (on the basis of ownership): - स्वामित्व के आधार पर समामेलित कंपनियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है -

( 1) सरकारी कंपनी: - भारतीय कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (45) के अनुसार सरकारी कंपनियों का आशय उन कंपनियों से है जिनमें कम से कम 51% अंश पूंजी केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार अथवा सरकारों या दोनों (केंद्रीय एवं राज्य सरकार) मिलकर खरीद लेती है। सन 1960 के संशोधन के अनुसार उन कंपनियों को भी सरकारी कंपनी माना जाएगा जो कि उपयुक्त कंपनियों की सहायक कंपनियां है । इस प्रकार की कंपनियों के अंकेक्षकों की नियुक्ति केंद्रीय सरकार द्वारा भारत कंम्पट्रोलर तथा ऑडिटर जर्नल (comp troller and Auditor General) की सलाह के अनुसार की जाती है ।इस प्रकार की कंपनियों की वार्षिक रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत की जाती है.

( 2) सहायक कंपनियां: - एक कंपनी किसी अन्य कंपनी की सहायक कंपनी समझी जाएगी यदि

(क ) अन्य कंपनी के संचालक मंडल के गठन पर नियंत्रण रखती है या
(ख) अन्य कम्पनी एक कम्पनी से आधे से अधिक मताधिकारों पर अधिकार या नियन्त्रण रखती है या 
(ग ) अन्य कंपनी उस कंपनी की सहायक है जो कि स्वयं उस कंपनी की सहायक है


( 3) सूत्रधारी कंपनियां: - एक कंपनी दूसरी कंपनी के सूत्रधारी कंपनी तभी मानी जाएगी जबकि वह दूसरी कंपनी उसकी सहायक हो


        एक सूत्रधारी कंपनी की परिभाषा तब तक भली-भांति नहीं समझी जा सकती जब तक कि सहायक कंपनी (subsidiary company) की परिभाषा ना समझ ली जाए ।वास्तविकता तो यह है कि कंपनी विधान में सूत्रधारी कम्पनी का कोई अस्तित्व नहीं है और सूत्रधारी कंपनी केवल तब ही हो सकती है जबकि उसकी एक या  अधिक सहायक कंपनियां हों।




( 4) सदस्यों की संख्या के आधार पर (On the basis of the number of member): - सदस्यों की संख्या के आधार पर कंपनी अधिनियम 2013 में कंपनियों को निम्न दो भागों में विभाजित किया गया है -

( 1) निजी कंपनी: - कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (68) (3) के अनुसार निजी कंपनी से आशय ऐसी कंपनी से है जो ₹100000 की न्यूनतम चुकता पूंजी (minimum paid off capital) या ऐसी उच्चतम चुकता पूंजी जो विहित की जाए रखती है और अपने अंशों यदि कोई हो के हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाती है सदस्यों की संख्या 200 तक सीमित रहती है ।अपने अंशों एवं ऋण पत्रों को जनता में निर्गमित नहीं करती है(वर्तमान एवं भूतपूर्व कर्मचारी सदस्यों को छोड़कर) तथा अपने सदस्यों संचालकों या अपने संबंधियों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों को रकम जमा करने के लिए ना तो नियंत्रित करेगी और ना ही स्वीकार करेगी.


( 2) सार्वजनिक कंपनी: - कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 2 (71) (1) के अनुसार एक सार्वजनिक कंपनी का आशय उस कंपनी से है जो एक निजी कंपनी नहीं है अर्थात

( 1) जिसके अंशधारी 7 से अधिक कितने भी हो सकते हैं

( 2) जिसके अंशों का हस्तांतरण स्वतंत्रता पूर्वक किया जा सकता है

( 3) जो जनता को अंश खरीदने के लिए आमंत्रित कर सकती है

( 4) ₹500000 की न्यूनतम चुकता पूंजी ऐसी उच्चतम चुकता पूंजी जो भी विहित की जाए रखती है

( 5) अन्य आधार पर (on the other basis):

        उपयुक्त स्वरूपों के अतिरिक्त कंपनी के अन्य स्वरूप भी हो सकते हैं जो निम्न है -

( 1) देसी कंपनियां: - ऐसी कंपनी है जिनका पंजीयन भारतीय कंपनी अधिनियम 2013 के अंतर्गत हुआ है देसी कंपनियां कहलाती है

( 2) विदेशी कंपनियां: - भारतीय कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 591 के  अनुसार इसप्रकार की कंपनी जो भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश में सम्मिलित हो परंतु व्यापार भारत में ही किसी स्थान पर कर रही हो विदेशी कंपनी कहलाती है.

( 3) बैंकिंग कंपनियां: - भारतीय कंपनी अधिनियम 2013 के अनुसार जो कंपनी बैंक का कार्य करती है बैंकिंग कंपनी कहलाती है ।यद्यपि बैंकिंग कंपनी का समामेलन भारतीय कंपनी अधिनियम के अंतर्गत ही होता है लेकिन नियमन बैंकिंग कंपनी अधिनियम 1949 के द्वारा होता है

( 4) बीमा कंपनियां: - कंपनी अधिनियम 2013 के अनुसार वह कंपनी जो बीमा व्यवसाय व अन्य व्यवसायियों के साथ बीमा का व्यवसाय करती है ।एक बीमा कंपनी कहलाती है. यद्यपि बीमा कंपनी का समामेलन भारतीय कंपनी अधिनियम के अंतर्गत ही होता है लेकिन नियमन बीमा कंपनी अधिनियम 1938 के द्वारा होता है.

Comments

Popular posts from this blog

असामी कौन है ?असामी के क्या अधिकार है और दायित्व who is Asami ?discuss the right and liabilities of Assami

अधिनियम की नवीन व्यवस्था के अनुसार आसामी तीसरे प्रकार की भूधृति है। जोतदारो की यह तुच्छ किस्म है।आसामी का भूमि पर अधिकार वंशानुगत   होता है ।उसका हक ना तो स्थाई है और ना संकृम्य ।निम्नलिखित  व्यक्ति अधिनियम के अंतर्गत आसामी हो गए (1)सीर या खुदकाश्त भूमि का गुजारेदार  (2)ठेकेदार  की निजी जोत मे सीर या खुदकाश्त  भूमि  (3) जमींदार  की बाग भूमि का गैरदखीलकार काश्तकार  (4)बाग भूमि का का शिकमी कास्तकार  (5)काशतकार भोग बंधकी  (6) पृत्येक व्यक्ति इस अधिनियम के उपबंध के अनुसार भूमिधर या सीरदार के द्वारा जोत में शामिल भूमि के ठेकेदार के रूप में ग्रहण किया जाएगा।           वास्तव में राज्य में सबसे कम भूमि आसामी जोतदार के पास है उनकी संख्या भी नगण्य है आसामी या तो वे लोग हैं जिनका दाखिला द्वारा उस भूमि पर किया गया है जिस पर असंक्रम्य अधिकार वाले भूमिधरी अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते हैं अथवा वे लोग हैं जिन्हें अधिनियम के अनुसार भूमिधर ने अपनी जोत गत भूमि लगान पर उठा दिए इस प्रकार कोई व्यक्ति या तो अक्षम भूमिधर का आसामी होता ह...

पार्षद अंतर नियम से आशय एवं परिभाषा( meaning and definition of article of association)

कंपनी के नियमन के लिए दूसरा आवश्यक दस्तावेज( document) इसके पार्षद अंतर नियम( article of association) होते हैं. कंपनी के आंतरिक प्रबंध के लिए बनाई गई नियमावली को ही अंतर नियम( articles of association) कहा जाता है. यह नियम कंपनी तथा उसके साथियों दोनों के लिए ही बंधन कारी होते हैं. कंपनी की संपूर्ण प्रबंध व्यवस्था उसके अंतर नियम के अनुसार होती है. दूसरे शब्दों में अंतर नियमों में उल्लेख रहता है कि कंपनी कौन-कौन से कार्य किस प्रकार किए जाएंगे तथा उसके विभिन्न पदाधिकारियों या प्रबंधकों के क्या अधिकार होंगे?          कंपनी अधिनियम 2013 की धारा2(5) के अनुसार पार्षद अंतर नियम( article of association) का आशय किसी कंपनी की ऐसी नियमावली से है कि पुरानी कंपनी विधियां मूल रूप से बनाई गई हो अथवा संशोधित की गई हो.              लार्ड केयन्स(Lord Cairns) के अनुसार अंतर नियम पार्षद सीमा नियम के अधीन कार्य करते हैं और वे सीमा नियम को चार्टर के रूप में स्वीकार करते हैं. वे उन नीतियों तथा स्वरूपों को स्पष्ट करते हैं जिनके अनुसार कंपनी...

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद ...