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भारत में दहेज हत्या में क्या सजा का प्रावधान है ? विस्तार से चर्चा करो।

एक कंपनी के रजिस्ट्रीकरण एवं निगमन की प्रक्रिया निर्मित वादों सहित समझाइए. Explain the process of registration of a company. is a Company Bounds by the pre incorporation contracts?

कंपनी के पंजीकरण संबंधी प्रक्रिया (procedure of registration of a company)

किसी कंपनी का पंजीकरण करवाने के लिए कंपनियों के रजिस्ट्रार को एक प्रार्थना पत्र देना पड़ता है ।इस प्रार्थना पत्र के साथ निम्नलिखित अभिलेख (documents) होने चाहिए - (1 ) संगम ज्ञापन (2) संगम अनुच्छेद यदि आवश्यक हो (3) किसी ऐसे करार की प्रतिलिपि जो कंपनी द्वारा किसी व्यक्ति के साथ उसकी प्रबंध निर्देशक पूर्णकालिक निर्देशक या प्रबंध की हैसियत से नियुक्त करने के लिए किया गया हो। इन अभिलेखों के साथ एक घोषणापत्र भी होना चाहिए जिसमें यह घोषणा होती है कि कंपनी अधिनियम की रजिस्ट्रीकरण संबंधी सभी आवश्यकताएँ  पूरी कर ली गई है। ऐसे घोषणा पत्र पर निम्नलिखित में से किसी के हस्ताक्षर होने चाहिए।

( धारा 7 (1) (b))


         किसी एडवोकेट के चार्टर्ड अकाउंटेंट लागत लेखापाल या कंपनी सचिव द्वारा जो कंपनी के गठन में लगा हुआ हो और कंपनी के निर्देशक प्रबंधक या सचिव के रूप में अनुच्छेदों में नामित किसी व्यक्ति द्वारा।

             जब उपयुर्क्त  दस्तावेज रजिस्ट्रीकरण के लिए प्रस्तुत किए जाते हैं तो रजिस्ट्रार को यह देखना होता है कि वह अधिनियम की शर्तों को पूरा करते हैं या नहीं ।वह चाहे तो घोषणा पत्र को इस बात का साक्ष्य मान सकता है कि आवश्यकताएँ पूरी कर दी गई है ।इसके बाद वह कंपनी का रजिस्ट्रीकरण कर देता है और कंपनी का नाम रजिस्ट्रर पर चढ़ा देता है। एक प्रमाण पत्र जिसे निगमन प्रमाण पत्र कहते हैं दे दिया जाता है जिसमें रजिस्ट्रार अपने हस्ताक्षर से यह कहता है कि कंपनी निगमित है और यदि कंपनी सीमित दायित्व वाली है तो यह कंपनी का दायित्व सीमित है.

        इसके बाद रजिस्ट्रार कंपनी को निगमित पहचान संख्या देगा यह कंपनी के लिए सुभिन्न  पहचान होगी इसे प्रमाण पत्र में विसर्जित किया जाएगा. (धारा 7 (3))

        कंपनी को बनाने वालों को ज्ञापन पर अपने हस्ताक्षर करने होते हैं।

          एक कंपनी एक व्यक्ति कंपनी के ज्ञापन में किसी अन्य एक व्यक्ति का नाम बताना होता है ।एक विहित फार्म पर उसकी सहमति लेकर ही ऐसा किया जा सकता है ।ऐसा व्यक्ति सदस्य हो जाएगा यदि मूल हस्ताक्षरित की मृत्यु हो जाती है या वह संविदा करने योग्य नहीं रह जाता। ऐसी लिखित सहमति कंपनी के ज्ञापन तथा अनुच्छेद के साथ ही नियमन के समय दाखिल की जाती है ।वह विहित तरीके से अपनी सहमति वापस भी ले सकता है ।कंपनी का एकमात्र सदस्य चाहे तो ऐसे व्यक्ति का नाम भी विहित प्रक्रिया के अनुसार बदल सकता है। नामांकित व्यक्ति को ऐसे परिवर्तन के बारे में सूचित करना होता है। फिर रजिस्ट्रार को सूचित कर दिया जाता है ।ऐसे परिवर्तन से यह नहीं माना जाता कि ज्ञापन में कोई परिवर्तन आ गया है.

         जो कंपनी इस धारा के अंतर्गत बनाई जाती है वह अंशों द्वारा या गारंटी द्वारा सीमित दायित्व या असीमित दायित्व वाली हो सकती है।


2013 के अधिनियम में धारा 7 द्वारा कुछ नई अपेक्षाएं भी लागू की गई है। ज्ञापन के प्रत्येक अभिदायक द्वारा एक शपथपत्र दाखिल करना होता है और यह उन सब व्यक्तियों द्वारा भी दाखिल करना होता है जो कंपनी के संगम अनुच्छेदों में निर्देशक पद के लिए नामांकित हैं कि कंपनी के प्रवर्तन बनाने तथा प्रबंध के संबंध में किसी अपराध के लिए उसकी दोषसिद्धी नहीं हुई है या अधिनियम के अंतर्गत किसी कपट अपचार या कंपनी के प्रति कर्तव्य भंग के लिए पिछले 5 वर्षो के भीतर उसे दोषी नहीं पाया गया है और जो दस्तावेज दाखिल किए जा रहे हैं उनमें दी गई जानकारी संपूर्ण तथा सही है यहां तक उसे पता तथा विश्वास है निम्नलिखित जानकारी भी देनी होती है जब तक कंपनी का रजिस्ट्री कृत कार्यालय ना बन जाए राष्ट्रीयता तथा विहित जानकारी जो लोग अनुच्छेदों में निर्देशक के रूप में बताए गए हैं उनके बारे में ऐसी जानकारी तथा ऐसे रूप में जो विहित की जाएंगी।

          कंपनी को अपने रजिस्ट्री कार्यालय में उन दस्तावेजों की प्रतियों तथा जानकारी बनाकर रखनी होती है जो धारा 7 (1) के अंतर्गत दाखिल किए गए हैं और यह कंपनी के परिसमापन तक रहनी चाहिए।

गलत जानकारी दाखिल करने के परिणाम


         यदि कोई किसी विषय के बारे में जानते हुए कोई गलत या मिथ्या जानकारी दाखिल करता है उस पर धारा 447 के अंतर्गत कार्यवाही की जा सकती है ।धारा 7 (5). धारा 447 मे कपट के लिए दंड का प्रावधान है ।ऐसी कारवाही उन सब व्यक्तियों पर की जा सकती है जो कंपनी के प्रवक्ता हैं या जिनके नाम निर्देशक की हैसियत से बताए गए और जिनसे गलत विज्ञप्ति(declaration) के आधार पर निगमन प्राप्त किया गया है ।उन पर भी धारा 447 के अंतर्गत कार्यवाही हो सकती है ।धारा 7 (6) इन परिस्थितियों में अधिकरण के समक्ष भी आवेदन पेश किया जा सकता है और अधिकरण निम्नलिखित में से कोई भी आदेश पारित कर सकता है.

( 1) कंपनी के प्रबंध को चलाने के लिए कोई भी आदेश जिसके अंतर्गत कंपनी के ज्ञापन तथा अनुच्छेदों में आवश्यक परिवर्तन जो लोकहित कंपनी के तथा सदस्यों तथा ऋण दाताओं के हित में हो.

( 2) यह आदेश दिया जा सकता है कि सदस्यों का दायित्व असीमित होगा

( 3) कंपनियों को रजिस्टर में से कंपनी के नाम को हटाने का आदेश

( 4) कंपनी के समापन का आदेश

( 5) कोई भी ऐसा आदेश जो सही लगे

           किसी भी ऐसा आदेश के पूर्व कंपनी को सुनवाई का अवसर दिया जाता है। अधिकरण को कंपनी के सभी संव्यवहारों को ध्यान में लेना होगा जिनमें शामिल होंगे सभी उत्तरदायित्व संविदाएं तथा किसी ऋण का भुगतान। धारा 7 (7)


निगमन का प्रमाण पत्र (certificate of Incorporation (धारा 7)


निगमन प्रमाण पत्र से कंपनी को विधिक व्यक्तित्व प्राप्त हो जाता है ।इसके जारी किए जाने पर कंपनी का जन्म होता है। अधिनियम में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि निगमन की तिथि से ऐसे व्यक्ति जिन्होंने संगम ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं तथा अन्य व्यक्ति जो समय-समय पर कंपनी के सदस्य होंगे एक निगमित संस्था होंगे तथा उन्हें निगमित कंपनी के सभी कार्य करने की शक्ति  होगी। कंपनी का जीवन उस तिथि से आरंभ होता है जो प्रमाण पत्र पर लिखी रहती है चाहे वह गलत ही क्यों ना हो।



प्रमाण पत्र निश्चयक साक्ष्य है (certificate and conclusive evidence): - इस प्रमाण पत्र से कंपनी केवल सृजित ही नहीं होगी ती है बल्कि यह इस बात का निश्चयक (conclusive) साक्ष्य भी होता है कि रजिस्ट्रीकरण संबंधी सभी आवश्यकताएँ उसके पूर्व (precedent) की एवं आनुषांगिक (incidental) बातें सभी भली-भांति पूरी कर दी गई है तथा कंपनी अधिनियम के अंतर्गत रजिस्ट्रीकृत होने के योग्य थी और रजिस्ट्रीकरण है ।दूसरे शब्दों में प्रमाण पत्र की वैधता के संबंध में किसी भी आधार पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। इस सिद्धांत का एक उदाहरण प्रीवी काउंसिल द्वारा निर्णीत मूसा गुलाम आरिफ बनाम इब्राहिम गुलाम आरिफ वाद में मिलता है।

            एक कंपनी के संगम ज्ञापन पर दो वयस्क व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे और बाकी पांच व्यक्ति अवयस्क  थे और उनकी ओर से 5 हस्ताक्षर उनके संरक्षकों ने किए थे। रजिस्ट्रार ने कंपनी को रजिस्ट्रीकरण कर निगमन प्रमाण पत्र दे दिया ।वादी का कहना था कि यह प्रमाण पत्र अवैध घोषित होना चाहिए.


लॉर्ड मैकनाटन ने कहा है कि हम यह मानकर चलेंगे कि रजिस्ट्रीकरण की शर्ते पूरी नहीं की गई थी कि संगम ज्ञापन पर 7 व्यक्तियों के हस्ताक्षर नहीं थे और यह कि रजिस्ट्रार को प्रमाण पत्र जारी नहीं करना चाहिए था। तब भी जारी हो जाने पर प्रमाण पत्र सभी प्रयोजनों के लिए निश्चायक साक्ष्य हैं.

            इंग्लैंड में यह प्रश्न सर्वप्रथम 1867 में लॉर्ड केयरन्श द्वारा तय हुआ था। Peel Case केस के मामले में संगम ज्ञापन पर हस्ताक्षर होने के बाद परंतु रजिस्ट्रीकरण के पूर्व हस्ताक्षर कर्ताओं की सहमति के बगैर संगम ज्ञापन को इस तरीके से बदल दिया गया था कि यह वैसा नहीं रह गया था जैसा कि हस्ताक्षर कर्ता उसे चाहते थे। कंपनी का रजिस्ट्रीकरण हो गया रजिस्ट्रार से प्रमाण पत्र दे दिया। यह आपत्ति की गई कि संगम ज्ञापन पर वास्तव में कोई भी हस्ताक्षर नहीं थे और अधिनियम की शर्तें पूरी नहीं हुई थी । निर्णीत हुआ कि निगमन प्रमाण पत्र प्रथम दृष्ट या ही नहीं बल्कि निश्चय साक्ष्य होता है। प्रमाण पत्र दिए जाने के बाद किसी पूर्व कार्यवाही के बारे में कोई जांच नहीं की जा सकती ।लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने भी इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था ।उन्होंने कहा मेरे विचार में रजिस्ट्रीकरण की जितनी भी आवश्यक कार्रवाई होती है उसके बारे में प्रमाण पत्र जारी कर देने के बाद कोई जांच नहीं की जा सकती है क्योंकि प्रमाण पत्र इस बात का निर्णायक साक्ष्य होता है कि सभी आवश्यक कार्यवाही भलीभांति  पूरी कर दी गई थी। यह सिद्धांत बड़ी मजबूती से स्थापित है कि यदि कंपनी का जन्म हो चुका है तो इसको समाप्त करने का यह तरीका नहीं है कि इस का निगमन ही गलत सिद्ध किया जाए बल्कि यह कि अधिनियम के उप बंधों का सहारा लेकर कंपनी का परिसमापन कर दिया जाए। इस सिद्धांत का संक्षिप्त विवरण आंध्र प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश चंद्र रेड्डी के निर्णय में टीवी कृष्णा बनाम आंध्र प्रभा (P)  मे मिलता है.


एक्सप्रेस न्यूज़ पेपर्स प्राइवेट लिमिटेड समाचार पत्रों तथा सप्ताहिक पत्रों के मुख्य प्रकाशक थे। वेज बोर्ड की रिपोर्ट जो सरकार ने मान ली थी उसके अंतर्गत पत्रकारों का वेतन तथा अन्य सुविधाएं बढ़नी चाहिए थी। इससे बचने के लिए एक्सप्रेस न्यूज़ पेपर में अपने उपक्रम को एक नई कंपनी जिसका नाम आंध्र प्रभा प्राइवेट लिमिटेड था को भेज दिया इस आधार पर की नई कंपनी का गठन वेज बोर्ड की सिफारिशों से बचने के लिए किया गया है ।कंपनी को अवैध घोषित करने की मांग की गई न्यायालय ने यह बात नहीं मानी की नई कंपनी बनाना अवैध या लोक नीति के विरुद्ध था क्योंकि नई कंपनी पर भी वेतन आयोग रिपोर्ट लागू होनी थी ।न्यायालय ने कहा कि अगर एक आधा उद्देश्य अवैध भी होता तो भी यह नहीं भी प्रमाण पत्र निश्चायक साक्ष्य होता है और उपचार यह है कि कंपनी का परिसमापन कर दिया जाए.

            रजिस्ट्रीकरण से अवैध उद्देश्य वैद्य नहीं हो जाते ।धारा 3 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी वैद्य पूर्ण उद्देश्य के लिए संगठित व्यक्ति ही निगमित कंपनी का गठन कर सकते हैं ।इंग्लैंड में कई वादों में यह प्रतिपादित हुआ कि रजिस्ट्रार का प्रमाण पत्र यदि अवैध हो तो उसका न्यायिक पुनरावलोकन हो सकता है। अब धारा 7 (5) से 7 (7) तक यह उपबन्ध किए गए कि गलत तरीके से निगमन कराने परिणामों के लिए कुछ कार्रवाई हो सकती हैं।

निगमन के पहले कंपनी की कोई हैसियत नहीं होती । कर के उद्देश्यों हेतु निगमन के पूर्व इसकी कोई आय नहीं होती.

निगमन के पूर्व सुविधाएं (pre incorporation contracts)

Company के विरुद्ध निगमन के पूर्व संविदा के आधार पर वाद नहीं (company cannot be sued on pre incorporation contract) कभी-कभी निगमन के पूर्व भी कंपनी के लिए कुछ संविदायें करनी पड़ती है परंतु किसी भी ऐसी संविदा से कंपनी बाध्य ही नहीं होती. संविदा के लिए दो पक्षकारों का होना आवश्यक होता है। नागमन के पूर्व कंपनी का कोई अस्तित्व नहीं होता ।इंग्लिश एंड कॉलोनियल प्रोड्यूसर्स क.रि: एक वकील ने कुछ लोगों के कहने पर एक कंपनी के रजिस्ट्रीकरण के लिए दस्तावेज बनाएं तथा उसका निगमन करवाया। उसी ने रजिस्ट्रीकरण का शुल्क दिया और उसी ने ही रजिस्ट्रेशन के अन्य खर्चे उठाएं.

           निगमन के बाद कंपनी ने वकील की सेवाओं का शुल्क देने से इंकार कर दिया ।न्यायालय ने कहा कि विधि के अंतर्गत कंपनी पर उन खर्चों के लिए वाद नहीं लाया जा सकता क्योंकि जब यह खर्चे किए गए थे तो कंपनी उस समय थी ही नहीं। निगमन के बाद कंपनी ऐसी कारवाही का अनुमोदन भी नहीं कर सकती.

             यह उचित नहीं है कि प्रवक्ता (promoters) के ऊंचे ऊंचे अनुमानों का बोझ कंपनी पर निगमन होने के पूर्व हि लाद दिया जाय.


कंपनी निगमन के पूर्व की संविदा पर दूसरे पक्ष के विरुद्ध वाद नहीं ला सकती (company can not sure on pre incorporation contract): -

दूसरी ओर कंपनी भी निगम के पूर्व की गई संविदा के अंतर्गत दूसरे पक्षकार पर वाद नहीं ला सकती है ।स्वीकारोक्ति (adoption) या अनुमोदन द्वारा कंपनी किसी भी ऐसी संविदा का लाभ नहीं प्राप्त कर सकती है जो निगमन के पूर्व की गई हो. ऐसा Natal Land &Colonisation Cov Pauline Colliery Syndicate  मे निर्णीत हुआ था। एक कंपनी ने एक ऐसे व्यक्ति से संविदा की जो प्रस्तावित सिंडीकेट के नाम पर कार्य कर रहा था। इस संविदा के अंतर्गत कंपनी की ओर से सिंडीकेट को कोयले की खान का पट्टा दिया जाना था ।सिंडीकेट का रजिस्ट्रीकरण हो गया इसके कर्मचारियों ने कंपनी की जमीन पर कोयले की खान ढूढी और फिर पट्टा मांगा किंतु कंपनी ने इंकार कर दिया। सिंडीकेट द्वारा लाए गए वाद में निर्णीत हुआ कि क्योंकि संविदा के समय सिंडीकेट के अस्तित्व में नहीं था इसलिए ना तो वह संविदा लागू करने के लिये न ही  संविदा भंग करने के लिए वाद ला सकता था।


निगमन के पूर्व की गई संविदा का अनु समर्थन (ratification of Pre incorporation contract): - इससे यह प्रतीत होता है कि जहां तक कंपनी का प्रश्न है यह निगमन कि से पूर्व की गई संविदाओं से ना तो बाध्य भी होती है और ना ही उनका लाभ ले सकती है। यह सिद्धांत विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 के बंधों के अध्यधीन कर दिया गया है ।इस अधिनियम की धारा 15 में कहा गया है कि जब एक कंपनी के प्रवर्तकों ने कंपनी के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए निगमन के पूर्व कोई संविदा की हो और यदि संविदा निगमन निरबंधनों द्वारा समर्थित हो तो कंपनी उसके पालन के लिए वाद ला सकती है ।निगमन की शर्तों में आने का अर्थ यह है कि संविदा कंपनी के संगम ज्ञापन में बताए गये उद्देश्यों के अंदर हो ।यह भी आवश्यक है कि संविदा कंपनी के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुई हो। किसी व्यक्ति को कंपनी के अंश आवंटित करने की संविदा कंपनी के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नहीं है इसलिए निगमन के बाद कंपनी इसका पालन नहीं करवा सकती.


            इस अधिनियम की धारा 19 में कहा गया है कि अगर निगमन के बाद कंपनी ने संविदा का अंगी करण कर दिया है और संविधान निगमन की शर्तों में आती है तो दूसरा पक्ष भी उसे कंपनी के विरुद्ध लागू करवा सकता है उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार कंपनी को शाम व्यवहार स्वीकार करना पड़ेगा यद्यपि कंपनी के अनुच्छेदों में इसका वर्णन करना आवश्यक नहीं है यह तथ्य की कंपनी द्वारा उन संपत्ति जो निर्देशकों द्वारा उसके निगमन के पूर्व क्रय की गई थी पर अपने स्वामित्व की घोषणा हेतु याचिका दाखिल की गई थी इस व्यवहार की स्वीकृति को दर्शाने हेतु पर्याप्त था.


संविदा के अभिकर्ता के व्यक्तिगत अधिकार एवं दायित्व: -

जो संविदा इस अधिनियम के उपरोक्त उप बंधुओं में नहीं आती उसके संबंध में यह प्रश्न उठता है कि कंपनी के जिस अभिकर्ता ने ऐसी संविदा की है वह स्वयं है या उसे लागू कराने का अधिकार रखता है या नहीं इसका उत्तर संविदा की क्या पर निर्भर करता है यदि संविदा कंपनी के नाम से की गई है तो अभिकर्ता व्यक्तिगत रूप से दाई हो जाएगा क्योंकि जब किसी ऐसे मालिक के नाम पर संविदा की जाती है जिसका दोनों पक्षों की जानकारी में कोई अस्तित्व नहीं है तो यह मान लिया जाता है कि उस जिस व्यक्ति ने संविदा की है उस व्यक्ति की व्यक्तिगत संविदा है इस प्रकार जब कोई व्यक्ति अभिकर्ता की हैसियत से संविदा करता है तो वह बाद में यह कह सकता है कि वह स्वयं ही मालिक था और अपने ही नाम पर वाद कर सकता है इस सिद्धांत के आधार पर केवल नर बनाम बाक्सटर के बाद में अभिकर्ता व्यक्तिगत रूप से दाई अभी निर्धारित किए गए वादी ने एक शराब बनाई जाने वाली कंपनी को शराब देने की संविदा की और माल कंपनी के प्रस्तावित निर्देशकों को दिया प्रस्तावित निर्देशकों ने माल का परिधान निर्देशकों के नाम से लेना चाहा परचून की कंपनी का निगमन नहीं हुआ था स्वयं पर दाल लेकर माल को कारोबार अनुक्रम में खपत कर दिया कंपनी का निगमन तो हुआ परंतु दाम देने के पूर्व परी समापन हो गया निर्णय हुआ कि प्रस्तावित निर्देशक ने चौकी कंपनी के नाम जिसका अस्तित्व नहीं था संविदा की है यह भी व्यक्तिगत रूप से दांत है.


               इसकी तुलना में ऑस्ट्रेलिया के 1 वार्ड में एक प्रस्तावित कंपनी के निर्देशकों के साथ कंपनी की को जमीन बेचने की संविदा करने वाले व्यक्ति को संविदा वीर निर्दिष्ट (specified) अनुपालन की अनुमति नहीं दी गई कंपनी के निगमन के बाद संविदा अपनाने से इंकार कर दिया गया था.


जब संविदा इस तरीके से की गई हो जैसे कि कंपनी ने स्वयं की हो ऐसी संविदा उस व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध परावर्तित नहीं कराई जा सकती जिसके माध्यम से प्रस्तावित कंपनी ने संविदा की है क्योंकि कंपनी तथा इसके निर्देशकों का नाता केवल मालिक तथा अभिकर्ता का नाता नहीं होता जब कंपनी संविदा करती है तो कंपनी एक संवि होती है चाय हस्ताक्षर एक या अधिक निर्देशकों के हो इस सिद्धांत का उदाहरण न्यू बोर में बनाम सिमसॉलिड में मिलता है.


          वादी एक प्रस्तावित कंपनी का प्रवर्तक तथा भावी निर्देशक था उसने कंपनी के नाम पर माल देने की संविदा इस प्रकार से कि पहले कंपनी का नाम लिखा और उसके बाद अपना नाम दूसरे पक्ष कारने माल लेने से इनकार कर दिया वादी संविदा भंग के लिए वाद लाया निर्मित हुआ कि यह संविदा वादी के साथ नहीं हुई थी बल्कि केवल कंपनी के साथ हुई थी कंपनी उस समय अस्तित्व में नहीं थी इसलिए यह संविदा व्यर्थ थी और वादी से अपनी संविदा समझकर वाद नहीं ला सकते थे.

               रामकुमार पोद्दार बनाम सोलापुर एसपीजी एंड डब्ल्यूबीजी कंपनी लिमिटेड में बंबई उच्च न्यायालय ने भी यही सिद्धांत प्रतिपादित किया

          कंपनी के संगम ज्ञापन में यह कहा गया था कि एक फर्म को कंपनी का प्रबंध अभिकर्ता बनाया जाएगा. निगमन के बाद कंपनी ने उन्हें नियुक्त किया परंतु बाद में निदेशकों ने प्रस्ताव पारित किया कि उन्हें हटा दिया जाए फार्म ने कंपनी पर वाद चलाया न्यायाधीश रंगनेकर ने निर्मित किया कि कंपनी के संगम ज्ञापन या अनुच्छेदों में ऐसे खंड से कंपनी की किसी पर व्यक्ति से कोई संविदा नहीं हो जाती. यदि ऐसा होता भी हो तो यह एक ऐसी प्रारंभिक (preliminary) संविदा है जो प्रवर्तक निगमन के पूर्व करते हैं अधिनियम के अंतर्गत किसी भी कंपनी को निगमन के पूर्व की है संविदा ओं का पालन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.

           इन सभी विवादों से प्रतीत होता है कि न्यायालयों की इच्छा यह है कि नई कंपनी को प्रबंधकों के वचनों के भार से सुरक्षित रखा जाए क्योंकि वह वचन देने में बहुत उदार होते हैं और अगर कंपनी को उनके वचनों से बात किया गया तो कंपनी कई प्रकार की अपरिचित अनुचित तथा गंभीर दायित्वों के अधीन होगी इस सुरक्षा के साथ कुछ बलिदान भी करना पड़ता है एक कंपनी ऐसे व्यक्ति पर बाद नहीं ला सकती जिसमें निगम के पूर्व कंपनी के अंश लेने की संविदा की हो कुछ वादों में ऐसे व्यक्ति जिन्होंने निगमन के पूर्व सेवाएं की थी कि वे अपने पारिश्रमिक प्राप्त ना कर सके ऐसी स्थितियों में जहां तक हो सके न्यायालय प्रवर्तक ओ (promoters) हकीकत दायित्व ला देते हैं उदाहरण के रूप में टांके बनाम मेट्रोपॉलिटन रेलवे वेयरहाउसिंग कंपनी के प्रबंधकों के साथ की गई एक संविदा के अंतर्गत एक व्यक्ति ने कंपनी के प्रति कुछ सेवाएं अर्पित की थी वह व्यक्तित्व कंपनी पर वाद नहीं ला सकता परंतु न्यायालय ने कहा कि प्रवृत्तियों को आंतरिक न्यासी के रूप में कंपनी के विरुद्ध वाद लाना चाहिए ताकि तीसरे पक्ष का हित हो.

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