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बलवा और दंगा क्या होता है? दोनों में क्या अंतर है? दोनों में सजा का क्या प्रावधान है?( what is the riot and Affray. What is the difference between boths.)

Kamlesh Meena and Two Others vs State of U.P. (2025) का क्या है पूरा मामला?

Kamlesh Meena बनाम State of U.P. (2025): बी.एन.एस.एस. की धारा 528 और FIR दर्ज करने के अधिकार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का अहम फैसला”


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने Kamlesh Meena v. State of U.P. (2025) केस में यह स्पष्ट किया कि किसी ‘prospective accused’ को FIR दर्ज करने के आदेश को चुनौती देने का अधिकार नहीं है। इस लेख में आसान भाषा में पूरा विश्लेषण, कानूनी प्रावधान, केस लॉ और BNSS की तुलना CrPC से समझें।


🟨 ब्लॉग की ड्राफ्टिंग / मुख्य पॉइंट्स (Structure):

  1. परिचय (Introduction)

  2. मामले के तथ्य (Facts of the Case)

  3. कानूनी प्रश्न (Legal Issue)

  4. संबंधित विधिक प्रावधान (Relevant Provisions)

    • Section 173(4), 175(3), 528 BNSS

    • Comparison with CrPC Sections 154, 156(3), 482

  5. पक्षकारों की दलीलें (Arguments by Both Sides)

  6. अदालत का विश्लेषण (Court’s Analysis)

  7. महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट व अन्य केस लॉ (Supporting Case Laws)

  8. अदालत का निर्णय (Judgment and Outcome)

  9. इस फैसले का महत्व (Legal Significance)

  10. निष्कर्ष (Conclusion)

  11. FAQs (Blog SEO Section)


✳️ मुख्य ब्लॉग सामग्री (लगभग 2000 शब्दों में विस्तृत लेख)

🟩 1. परिचय

भारत में जब कोई व्यक्ति पुलिस में शिकायत करता है और पुलिस FIR दर्ज नहीं करती, तो उसे न्याय पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023 (BNSS) के तहत अब ऐसे मामलों में नए प्रावधान जोड़े गए हैं।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जुलाई 2025 में “Kamlesh Meena and Others vs State of U.P.” केस में एक अहम फैसला सुनाया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि कोई भी व्यक्ति जिसे आरोपी बनाया जा सकता है (“prospective accused”) — वह अदालत के उस आदेश को चुनौती नहीं दे सकता, जिसमें केवल FIR दर्ज करने और जांच शुरू करने का निर्देश दिया गया हो।


🟩 2. मामले के तथ्य (Facts of the Case)

  • शिकायतकर्ता (Respondent No.2) एक अनुसूचित जाति (SC) समुदाय से हैं और Bank of India में 39 वर्षों की सेवा के बाद 2019 में रिटायर हुए।

  • उनका आरोप था कि बैंक के कुछ अधिकारी — कमलेश मीणा, जीवन कमले, और अंजनी कुमार — ने उनके खिलाफ झूठी और फर्जी शिकायत तैयार की।

  • फर्जी दस्तावेजों में Ramesh Chand नाम से झूठी शिकायत बैंक के चेयरमैन को भेजी गई ताकि उन्हें बदनाम किया जा सके।

  • पुलिस में शिकायत देने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो उन्होंने धारा 173(4) BNSS के तहत अदालत में आवेदन किया।

अदालत (Special Judge, SC/ST Act, Agra) ने दस्तावेजों की जांच के बाद SHO को FIR दर्ज कर जांच के आदेश दिए।
इस आदेश के खिलाफ कमलेश मीणा और अन्य ने धारा 528 BNSS के तहत हाईकोर्ट में याचिका दायर की, ताकि आदेश रद्द किया जा सके।


🟩 3. कानूनी प्रश्न (Legal Issue)

“क्या कोई व्यक्ति जिसे ‘आरोपी’ बनाया जा सकता है (prospective accused), अदालत के उस आदेश को चुनौती दे सकता है जिसमें केवल FIR दर्ज करने और जांच करने का निर्देश दिया गया हो?”


🟩 4. संबंधित विधिक प्रावधान (Relevant Provisions)

⚖️ धारा 173(4) BNSS

अगर पुलिस FIR दर्ज करने से इनकार करे, तो पीड़ित व्यक्ति SP को आवेदन दे सकता है। अगर SP भी कार्रवाई नहीं करता, तो व्यक्ति अदालत में आवेदन कर सकता है कि अदालत जांच के आदेश दे।

⚖️ धारा 175(3) BNSS

Magistrate जांच का आदेश देने से पहले:

  1. शिकायत का शपथपत्र (affidavit) देखेगा,

  2. आवश्यक जांच करेगा,

  3. और पुलिस अधिकारी की बात भी सुनेगा।

⚖️ धारा 528 BNSS

यह CrPC की पुरानी धारा 482 के समान है, जो अदालत को inherent power देती है — यानी न्याय के हित में आदेश पारित करने की शक्ति।


🟩 5. पक्षकारों की दलीलें (Arguments)

🟦 आवेदक (Kamlesh Meena पक्ष) की दलीलें:

  • Magistrate ने उचित प्रक्रिया नहीं अपनाई।

  • शिकायतकर्ता पर खुद विभागीय कार्रवाई चल रही थी, इसलिए उसने बदले की भावना से यह शिकायत की।

  • FIR दर्ज करने का आदेश गलत है।

  • उन्होंने Om Prakash Ambadkar v. State of Maharashtra (2025) और Imran Pratapgadhi v. State of Gujarat (2025) जैसे केसों का हवाला दिया।

🟥 राज्य और शिकायतकर्ता की दलीलें:

  • अभी केवल जांच का आदेश हुआ है, कोई अभियोग नहीं चला।

  • Prospective accused को इस स्टेज पर कोई अधिकार नहीं कि वह FIR दर्ज करने के आदेश को चुनौती दे सके।

  • Full Bench के निर्णय Father Thomas v. State of U.P. (2011) में यह स्पष्ट किया गया था कि FIR दर्ज करने के आदेश के खिलाफ आरोपी को कोई अधिकार नहीं है।


🟩 6. अदालत का विश्लेषण (Court’s Analysis)

न्यायमूर्ति दिनेश पाठक (J.) ने विस्तार से BNSS की नई धाराओं की तुलना CrPC से की।

उन्होंने बताया कि —

  • CrPC की धारा 154 (FIR) अब BNSS की धारा 173 में शामिल है।

  • CrPC की धारा 156(3) अब BNSS की धारा 175(3) बनी है।

  • BNSS में नई प्रक्रिया यह है कि Magistrate जांच का आदेश देने से पहले affidavit, रिपोर्ट और पुलिस की राय को देखेगा।

अदालत ने कहा कि:

“इस स्टेज पर केवल FIR दर्ज करने का आदेश हुआ है, न कि अभियोजन या संज्ञान लेने का। इसलिए prospective accused को इस आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है।”


🟩 7. महत्वपूर्ण केस लॉ (Supporting Case Laws)

केस का नाम प्रमुख सिद्धांत
Father Thomas v. State of U.P. (2011) (Full Bench) Prospective accused को FIR दर्ज करने के आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं।
Lalita Kumari v. State of U.P. (2014) 2 SCC 1 जब सूचना से cognizable offence बनता है, तो FIR दर्ज करना अनिवार्य है।
Om Prakash Ambadkar v. State of Maharashtra (2025) BNSS की धारा 175(3) में जांच से पहले Magistrate को affidavit और रिपोर्ट देखनी चाहिए।
Kailash Vijayvargiya v. Rajlakshmi Choudhuri (2023 SCC OnLine SC 569) Accused को summons जारी होने से पहले सुने जाने का अधिकार नहीं है।
Jagannath Verma v. State of U.P. (2014) Accused केवल cognizance के बाद challenge कर सकता है, उससे पहले नहीं।

🟩 8. अदालत का निर्णय (Judgment Summary)

  • अदालत ने कहा कि इस स्टेज पर केवल जांच का आदेश है, अभियोजन नहीं।

  • आवेदक prospective accused है, इसलिए उसे कोई locus standi (कानूनी अधिकार) नहीं है।

  • FIR दर्ज करने का आदेश सही है और उचित प्रक्रिया से किया गया है।

  • अतः याचिका खारिज की गई


🟩 9. इस फैसले का महत्व (Legal Significance)

  1. यह निर्णय BNSS के नए प्रावधानों की व्याख्या करता है।

  2. अदालत ने CrPC और BNSS के बीच के अंतर को स्पष्ट किया।

  3. “Prospective accused” की सीमाएँ तय की गईं — यानी किसी व्यक्ति को जांच शुरू होने से पहले रोकने का अधिकार नहीं।

  4. इससे न्यायिक प्रक्रिया पारदर्शी और प्रभावी बनती है।

  5. यह केस भविष्य में BNSS से संबंधित अन्य मामलों में एक precedent बनेगा।


🟩 10. निष्कर्ष (Conclusion)

इस फैसले से स्पष्ट है कि जांच का आदेश किसी आरोपी के खिलाफ नहीं, बल्कि न्याय की प्रक्रिया का हिस्सा होता है
कानून का उद्देश्य हर शिकायत की निष्पक्ष जांच करवाना है, न कि आरोपी को पहले से बचाव का मंच देना।

BNSS के प्रावधान नागरिकों को अधिक जवाबदेही और स्पष्टता देते हैं, वहीं अदालतों को संतुलित विवेक का प्रयोग करने का मार्गदर्शन भी देते हैं।
“Kamlesh Meena v. State of U.P.” (2025) इस दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।


🟦 11. FAQs (SEO Section)

प्र.1: धारा 173(4) BNSS क्या कहती है?
उत्तर: यदि पुलिस FIR दर्ज नहीं करती, तो व्यक्ति SP को आवेदन दे सकता है, और फिर Magistrate के पास जाकर जांच का आदेश दिलवा सकता है।

प्र.2: क्या आरोपी FIR दर्ज करने के आदेश को चुनौती दे सकता है?
उत्तर: नहीं, अदालत के अनुसार “prospective accused” को ऐसा कोई अधिकार नहीं है।

प्र.3: BNSS में CrPC की तुलना में क्या नया है?
उत्तर: अब Magistrate को जांच के आदेश से पहले affidavit, रिपोर्ट और पुलिस की राय देखनी जरूरी है।

प्र.4: यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: इसने BNSS की धाराओं की न्यायिक व्याख्या की और जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता को मजबूत किया।


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