( Muta marriage ) - मुता ' का शाब्दिक अर्थ है ' उपभोग ' (enjoyment) या उपयोग ।हेफनिंग के अनुसार , कानूनी संदर्भ में इसे ' आनन्द के लिए विवाह कहा जाता है । मुता विवाह एक अस्थायी विवाह होता है जिसमें पत्नी को देय मेहर की धनराशि निश्चित रहती है और विवाह का समय निश्चित रहता है । मुस्लिम विधि के अनुसार , निकाह विवाह दीवानी संविदा होती है जो कि स्थायी ( Permanent ) और अस्थायी ( Temporary ) दो प्रकार से हो सकती है । अतः जब किसी निकाह के लिए अस्थायी रूप से और किसी विशिष्ट अवधि के लिए संविदा की जाये तो उसे मुता ( Muta ) निकाह कहा जायेगा ।
" मुता ' का शाब्दिक अर्थ है — आनन्द के लिए ( For enjoyment ) । निकाह के सन्दर्भ में इसका अर्थ है ' आनन्द के लिए निकाह ' ( Marriage for Pleasure ) । मुता निकाह के अनुसार कोई मुस्लिम स्त्री के एक निश्चित अवधि के लिए किसी मुस्लिम व्यक्ति के साथ पत्नी के रूप में उसके साथ रहती है और वह व्यक्ति भोग करता है । अवधि समाप्त होने के पश्चात् वह स्त्री उस पुरुष के बन्धन से मुक्त हो जाती है । उस मुता निकाह के उपलक्ष में उसको ( स्त्री को कुछ पारितोषिक मिलता है ।
इस्लाम के अभ्युदय के पू र्व अरब के समाज में अनेक स्त्रियाँ अपने - अपने खेमों में पुरुषों से समागम किया करती थी । इस प्रकार के समागम से न तो उन्हें कोई पारस्परिक दाम्पत्य अधिकार मिलता था और न उस संयोग से उत्पन्न सन्तान पर जनक का ही कोई हक होता था । वह केवल अपनी माता की ही सन्तान समझा जाता था । प्रत्येक पक्ष एक दूसरे को जब चाहे ऐसे सहवास से बहिष्कार कर सकता था।
यह एक प्रकार से वैश्यावृति ही थी । जब अरब निवासी व्यापार करने के लिए जाया करते युद्ध करने के लिए जाया करते थे तो वे प्रायः मुक्ता विवाह कर लिया करते थे । आधुनिक मुता इस्लाम के पूर्व की इस अरबी प्रथा पर ही आधारित है किन्तु अब इसमें सुधार यह हुआ है कि -
(1)मुता विवाह की संविदा करते समय उसकी अवधि नियत कर दी जाती है ।
2. मुता की संविदा में मेहर नियत किया जाना आवश्यक है ।
सुन्नी विधि मुता विवाह को मान्यता नहीं देती , क्योंकि इस विवाह पद्धति के अनुसार विवाह को संविदा में विवाह की अवधि का निर्धारण नहीं किया जा सकता है । इस प्रकार एक निश्चित और सीमित अवधि के लिए विवाह सुन्नी विधि के अन्तर्गत शून्य है परन्तु शिया विधि के अंतर्गत मुता विवाह मान्य है।
यद्यपि मुता विवाह शिया सम्प्रदाय के अन्तर्गत वैध विवाह माना जाता है , परन्तु ऐसे विवाह का भारत में बहुत कम प्रचलन है । सम्भ्रान्त परिवार की शिया महिलाएँ मुता विवाह की संविदा नहीं करतीं । पर्सिया और इराक में मुता विवाह को वैध वैश्यावृत्ति का दर्जा दिया जाता है ।
मुता विवाह के आवश्यक तत्व ( The essential Characteristics of Muta Nikah ) - मुता विवाह के लिए निम्नलिखित आवश्यक अपेक्षाएँ हैं -
( 1 ) मुता निकाह की संविदा करते समय सम्बन्ध की अवधि निश्चित हो जानी चाहिए चाहे वह एक दिन या एक साल या कई साल की हो ।
( 2 ) मुता निकाह की संविदा में मेहर की धनराशि का उल्लेख अवश्य होना चाहिए । जब अवधि और मेहर निश्चित हो जाये तो संविदा वैध हो जाती है परन्तु यदि अवधि और नियत हो जाये और मेहर निश्चित न हो तो संविदा शून्य होती है ।
( 3 ) नियमित विवाहों से सम्बद्ध यह नियम कि पत्नियों की संख्या चार तक सीमित रहे , मुता विवाह पर लागू नहीं होती ।
मुता विवाह के विधिक परिणाम - मुता विवाह के मान्य होने के निम्नलिखित विधिक परिणाम होते हैं
( 1 ) पक्षकारों का मैथुन कार्य विधि पूर्ण हो जाता है ।
( 2 ) मुता सम्बन्ध बने रहने के दौरान पैदा हुई या गर्भ स्थित सन्तानें वैध होती हैं और वे दोनों माता - पिता के उत्तराधिकारी पाने की हकदार होती हैं ।
( 3 ) विवाह के पक्षकारों को उत्तराधिकार प्राप्ति के पारस्परिक अधिकार नहीं होते हैं । शामिल किये जा सकते हैं । किन्तु ऐसे अधिकार संविदा द्वारा सृजित किये जा सकते हैं या मुता सम्बन्ध की संविदा में
( 4 ) अवधि को समाप्ति पर मुता विवाह सम्बन्ध स्वतः निर्धारित हो जाता है ।
( 5 ) यदि विवाह का सम्भोग नहीं हुआ तो पत्नी निश्चित मेहर की आधी धनराशि ही पाने की अधिकारिणी होती है किन्तु विवाह के सम्भोग हो जाने पर वह पूरे मेहर की अधिकारिणी होती है ।
( 6 ) करार के अभाव में मुताई पत्नी भरण - पोषण पाने की हकदार नहीं हो सकती है । वह दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 के अन्तर्गत भरण - पोषण पाने का दावा कर कर सकती है।
( 7 ) मुता - विवाह के सम्बन्ध में पक्षकारों को ' दाम्पत्याधिकारों का पूर्व स्थापन ( Restitution of conjugal rights ) का अधिकार नहीं मिलता परन्तु इस विवाह में पत्नी मेहर के धनराशि की वसूली के लिये दावा दायर कर सकती है ।
( 8 ) यदि मुता सम्बन्ध संविदा वर्णित अवधि से अधिक समय तक चलता रहे तो यह अवधारणा की जाती है कि सहवास के सम्पूर्ण काल में मुता - सम्बन्ध बना रहा ।
( 9 ) पति की मृत्यु की दशा में मुताई पत्नी को चार मास दस दिन तक इद्दत का पालन अधिक करना पड़ता है । यदि वह गर्भवती रही है तो जब तक प्रसव न हो जाय दोनों समयों में जो भी अधिक हो।
( 10 ) मुता विवाह की पत्नयों के लिए निवास स्थान का प्रबन्ध करने के लिए पति बाध्य नहीं है ।
( 11 ) मुता विवाह की पत्नी निष्ठा भंग के आधार पर , जब तक वह पति की इच्छा पर प्राप्त रहे , अपना मेहर नहीं खोती।
जब मुता - सम्बन्ध का विघटन पति की मृत्यु से न होकर अन्य प्रकार से है तो इद्दत का पालन करना तभी आवश्यक है जब विवाह का सम्भोग हुआ हो । रजस्वला होने वाली स्त्री के लिए यह अवधि दो मासिक धर्म है और रजस्वला न होने वाली स्त्री के लिए केवल पैंतालीस दिन ।
निकाह और मुता में अन्तर ( Difference between Marriage and Muta Marriage ) – इनमें मुख्य अन्तर निम्नलिखित हैं
( 1 ) निकाह सम्बन्धं शिया और सुन्नी दोनों सम्प्रदायों में मान्य है किन्तु मुता सम्बन्ध केवल शियों में और वह भी शियों के एक वर्ग विशेषकर अशना अशारिया में ही प्रचलित है ।
( 2 ) निकाह सम्बन्ध स्थायी होता है तो मृत्यु या तलाक द्वारा विघटित होता है । किन्तु मुता एक अस्थायी सम्बन्ध होता है जो किसी पक्षकार की मृत्यु के अतिरिक्त निश्चित अवधि की समाप्ति पर विघटित हो जाता है ।
( 3 ) निकाह में मेहर का निश्चित या उल्लिखित होना आवश्यक नहीं होता किन्तु मुता सम्बन्ध में मेहर की राशि अवश्य निश्चित या उल्लिखित की जानी चाहिए ।
( 4 ) निकाह में दाम्पत्याधिकारों के पुनर्स्थापन का बाद कोई भी क्षुब्ध पक्षकार ला सकता है किन्तु मुता सम्बन्ध में यह विधिक उपचार किसी पक्षकार को भी प्राप्त नहीं होता ।
( 5 ) निकाह सम्बन्ध की पत्नी ' तुरन्त देय ' या ' स्थगित ' मेहर पाने की अधिकारिणी होती है । किन्तु मुता - सम्बन्ध में विवाह के सम्भोग न होने की दशा में मुताई पत्नी मेहर की केवल आधी धनराशि ही पाने की हकदार होती है ।
( 6 ) निकाह के मामले में पति - पत्नी दोनों को एक दूसरे की मृत्यु पर उत्तराधिकार पाने का हक होता है किन्तु मुता सम्बन्ध में पारस्परिक उत्तराधिकार पाने का अधिकार नहीं होता है जब तक कि मुता संविदा में स्पष्टतया वर्णित न हो ।
( 7 ) निकाह सम्बन्ध में पत्नी को पति से भरण - पोषण पाने का अधिकार प्राप्त है , किन्तु नि मुताई पत्नी को भरण - पोषण पाने का अधिकार मुस्लिम विधि में प्राप्त नहीं है ।
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