अंतर्राष्ट्रीय विधि की परिभाषा( international law):- अंतर्राष्ट्रीय विधि का उद्देश्य संसार के राष्ट्रों के बीच उनके संबंधों में एक व्यवस्था उत्पन्न करना रहा है न कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों की कोई न्यायिक परंपरा कायम करना ;लेकिन इधर एक अरसे ऐसे प्रयत्न अवश्य दृष्टिगोचर होते आ रहे हैं जिनका लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक न्यायिक परंपरा भी कायम करना होता जा रहा है। जिस प्रकार कोई मनुष्य पूर्णतया आत्मनिर्भर नहीं है ,उसी तरह कोई राष्ट्र पूर्णतया आत्मनिर्भर नहीं हो सकता है। अतः पारस्परिक संबंध या संपर्क राष्ट्रों के बीच आवश्यक हो जाता है। यह आवश्यकता ही अंतर्राष्ट्रीय विधि की जननी है। अंतर्राष्ट्रीय विदेश साधारणतया नियमों तथा सिद्धांतों का वह समूह है जिससे राष्ट्रों के बीच पारस्परिक संपर्क का संचालन होता है। अंतर्राष्ट्रीय विधि शब्द की परिभाषा भिन्न-भिन्न न्यायविदों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से दी है जो कि उनके मौलिक विचार तथा चिंतन का परिणाम है;
प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय विधि शास्त्री ओपेनहाइम के अनुसार, " अंतर्राष्ट्रीय विधि उन परंपरागत और समयात्मक नियमों के संग्रह का नाम है जो सभ्य राज्यों द्वारा एक दूसरे के साथ संबंध में बाह्य रुप से पालन किए जाने वाले होते हैं।
लारेन्स के अनुसार यह ऐसे नियम है जो सभ्य राज्यों के सामान्य समूह के पारस्परिक व्यवहारों का निर्धारण करते हैं।
हाॅल(Hall) के अनुसार, " अंतर्राष्ट्रीय विधि स्वभावतः कानून के समक्ष और लागू की जाती है। केल्सन के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि या देशों का कानून नियमों के उस संग्रह का नाम है जो सामान्य परिभाषा के अंतर्गत राज्यों के दूसरे के साथ संबंध रखने संबंधी कार्यों पर नियंत्रण करते हैं ।
अमेरिकन विधि शास्त्री ह्वीटन(Wheaton) ने लिखा कि सभ्य राष्ट्रों में माने जाने वाले अंतरराष्ट्रीय कानून को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि वह स्वतंत्र राष्ट्रों में विद्यमान समाज का स्वरूप देखकर तर्क बुद्धि के आधार पर निश्चित किए गए न्याय के अनुकूल आचरण के नियमों में निर्मित होता है। इसमें विभिन्न राज्यों की सामान्य सहमति से इन नियमों में किए गए संशोधन भी सम्मिलित होते हैं।
वेस्ट रैण्ड सेंट्रल गोल्ड माइनिंग कंपनी लिमिटेड बनाम किंग के वाद में दी गई परिभाषा के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि का अर्थ सभ्य राष्ट्रों द्वारा स्वीकृत उन नियमों से है जो उनके नागरिकों के पारस्परिक आचरण को निर्धारित करते हैं।
एस.एस. लोटस वाद (S.S. Lotus Case) के वाद में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि से हमारा तात्पर्य उन सिद्धांतों से है जो स्वतंत्र राष्ट्रों के बीच लागू होते हैं।
फिलिप सी.जेसप (Phillip C. Jessup) के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि का अथवा राष्ट्रों की विधि वह विधि है जो राज्यों के पारस्परिक संबंधों तथा व्यक्तियों के राज्यों के संबंधों तथा व्यक्तियों के राज्यों के साथ संबंधों पर लागू होती है।
अंग्रेजी विधि शास्त्री हॉल(Hall)के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि आचरण के ऐसे नियम है जिन्हें वर्तमान सभ्य राज्य एक दूसरे के साथ व्यवहार से ऐसी शक्ति के साथ बाध्य रूप में पालन करना अपना बंधक समझते हैं जिसे शक्ति के साथ सद् विवेक वाले और कर्तव्य परायण अपने देश के कानूनों का पालन करते हैं और यह समझते हैं कि उनका उल्लंघन होने की दशा में उपयुक्त साधनों द्वारा उन्हें लागू किया जा सकता है।
ब्रियर्ली(Brierly) ने अंतर्राष्ट्रीय विधि की परिभाषा इस प्रकार दी है कि राष्ट्रों के कानून या अंतरराष्ट्रीय कानून का यह लक्षण किया जा सकता है कि वे कार्य करने के ऐसे नियमों और सिद्धांतों के समूह है जो सभ्य राज्यों द्वारा एक दूसरे के साथ संबंध में बाध्य रूप से पालन किए जाने वाले होते हैं।
सर सेसिल हस्र्ट (Sir Cecil Hurst) का मत है की अन्तर्राष्ट्रीय विधि उन सब नियमों का योग है जो एक राज्य द्वारा अपनी ओर से या अपने राष्ट्र की ओर से किसी दूसरे राज्य से दावा करने का अधिकार का नियंत्रण करते हैं।
बीसवीं शताब्दी की समस्याओं ने अंतर्राष्ट्रीय विधि का स्वरूप ही बदल दिया और उसके परंपरागत अर्थों में अंतर आया। परिवर्तन की इस श्रेणी में सबसे नई परिभाषा स्टॉक(Starks) ने निम्नलिखित शब्दों में दी:
अंतर्राष्ट्रीय विधि को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि यह उन कानूनों का समूह है जिसके अधिकांश भाग का निर्माण उन सिद्धांतों और आचरणों के नियमों से हुआ है जिनके संबंध में राज्य यह अनुभव करते हैं कि वे इनका पालन करने के लिए बाध्य हैं। अतः वे सामान्य रूप से अपने पारस्परिक संबंधों में इनका पालन करते हैं। इनमें निम्न प्रकार के नियम भी निम्नलिखित है:
(1) अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं तथा संगठनों की कार्यप्रणाली में संबंध रखने वाले कानूनों के नियम और उनका राज्य तथा जातियों से संबंध।
(2) व्यक्तियों से तथा राज्योत्तर सत्ताओं से संबंध रखने वाले कानून के नियम उस अंश तक इसके अंतर्गत है जिस अंश तक ऐसे व्यक्ति और राज्योत्तर संस्थाएं अंतरराष्ट्रीय समाज में अध्ययन या चिंतन का विषय है।
स्टार्क की उपयुक्त परिभाषा की विशेषता यह है कि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय विधि को उन नियमों का संग्रह बताया है जिनके द्वारा राज्यों के अधिकारों को और उसके कर्तव्यों को भी आरोपित किया गया है। व्यवहारिक दृष्टिकोण से यह बात अच्छी तरह ध्यान रखने योग्य है की अंतरराष्ट्रीय विधि का मुख्य ध्येय विभिन्न राज्यों के आंतरिक संबंधों तथा अधिकार और कर्तव्यों का निर्धारण और नियंत्रण करना है।
ओपेनहाइम की नयी परिभाषा : अंतरराष्ट्रीय संबंधों के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए ओपेनहाइम ने अंतर्राष्ट्रीय विधि की नई परिभाषा दी है। इस परिभाषा के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि नियमों का वह समूह है जो राज्यों के पारस्परिक संबंधों में उन पर आबद्धकर है। ये नियम प्राथमिक रूप से वह नियम है जो राज्यों के संबंध को शासित करते हैं, किंतु अकेले राज्य है अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय संगठन तथा कुछ हद तक व्यक्ति भी अंतर्राष्ट्रीय विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों तथा अधिरोपित कर्तव्यों के विषय हो सकते हैं।
यह परिभाषा इस अर्थ में पहले वाली परिभाषा से अधिक व्यापक है क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय संगठनों तथा व्यक्तियों को भी अपने में सम्मिलित करती है, जो अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियमों द्वारा शासित होते हैं। फिर भी इस परिभाषा की आलोचना इस आधार पर की जा सकती है ओपेनहाइम ने अपनी परिभाषा में अंतरराष्ट्रीय संगठनों तथा व्यक्तियों को अंतर्राष्ट्रीय विधि का विषय माना है, लेकिन यह नहीं कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियम अंतरराष्ट्रीय संगठनों तथा व्यक्तियों पर आबद्धकर हैं। इस कारण ओपन हाइम की अंतर्राष्ट्रीय विधि की नई परिभाषा भी समुचित रूप से आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि के अनुरूप नहीं है।
एडवर्ट कौलिन्स (Edward Collins) के अनुसार , " अंतर्राष्ट्रीय विधि निरंतर विकसित होने वाले नियमों का एक ऐसा समूह है जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्य सामान्यतः अपने पारस्परिक संबंधों में लागू करते हैं। यह नियम राज्यों को और कुछ कम हद तक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं तथा व्यक्तियों को अधिकार तथा उत्तरदायित्व प्रदान करते हैं।" वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय विकास के विकसित रूप प्रकृति तथा निरंतर विकास की क्षमता ध्यान में रखते हुए यह परिभाषा अन्य परिभाषाओं से अधिक उपयुक्त हैं।
फेनविक के अनुसार ," अंतर्राष्ट्रीय विधि की परिभाषा विस्तृत शब्दों में सामान्य सिद्धांतों तथा विनिर्दिष्ट नियमों के समूह से दी जा सकती है जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के पारस्परिक संबंधों पर बंधन कारी होते हैं।"
उपरोक्त परिभाषाओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि निरंतर विकसित होने वाले नियमों तथा सिद्धांतों का एक समूह है जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के पारस्परिक संबंधों को नियंत्रित करते हैं।
क्या अंतर्राष्ट्रीय विधि शुद्ध नैतिकता है?( is international law a mere positive morality): यह प्रश्न की क्या अंतर्राष्ट्रीय विधि शुद्ध नैतिकता है अथवा नहीं सर्वप्रथम हमें यह जानना आवश्यक है कि नैतिकता के नियम किसे कहते हैं इसमें तथा विधि के नियमों में क्या अंतर है? अंतर राष्ट्रीय विधि शास्त्री ओपन हाइम के अनुसार," नैतिकता के नियम वे नियम है जो समुदाय की सामान्य समिति द्वारा विवेक और केवल विवेक पर ही लागू होते हैं। दूसरी ओर विधि नियम वह नियम है जो आवश्यकता पड़ने पर समुदाय की सामान्य सहमति द्वारा बाह्य शांति द्वारा मनाया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय विधि की बंधनकारी प्रकृति के बारे में अब आम सहमति है जबकि शुद्ध नैतिकता के नियम बंधनकारी नहीं होते। एडवर्ड कौलिन्स के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता को उचित व्यवहार का स्तर कह सकते हैं जो व्यक्तिगत नैतिक निर्णय पर आधारित होते हैं यद्यपि नैतिकता का दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय विधि को प्रभावित करता है, परंतु राज्य नैतिकता के नियमों को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियम बंधनकारी होते हैं। प्रोफेसर हार्ट के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियमों को नैतिकता की कोटि में रखना अनुचित है। उनके अनुसार इसके निम्नलिखित कारण है:
(1) बहुधा और राज्य एक दूसरे की आलोचना यह कहकर करते हैं कि उनका आचरण अनैतिक है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि विधि नैतिकता है। वास्तव में राज्यों के आचरण का नैतिकता के आधार पर मूल्यांकन करना अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के अनुसार, उनके दावे, मांग, अधिकारों तथा उत्तरदायित्व से भिन्न हैं।
(2) अंतर्राष्ट्रीय विधि के अंतर्गत जब राज्य अपने दावे प्रस्तुत करते हैं तो वह यह उल्लेख नहीं करते हैं कि नैतिकता के आधार पर उचित हैं अथवा नहीं वरन् वह पूर्वोक्ति संधियों तथा विधिशास्त्रियों के मतों का उल्लेख करते हैं।
(3) राज्य विधि के नियमों की भांति अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियम बहुधा नैतिकता से असंबंधित होते हैं। बहुधा नियमों का अस्तित्व सुविधा तथा आवश्यकता के कारण होता है न कि उसके नैतिक महत्व के फल स्वरुप।
(4)बहुधा यह कहा जाता है कि राज्य अंतिम रूप में अंतर्राष्ट्रीय विधि का पालन इस कारण करते हैं क्योंकि वह ऐसा करना अपना उत्तरदायित्व समझते हैं। परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि के अस्तित्व के लिए नैतिक उत्तरदायित्व आवश्यक है।
यद्यपि नैतिकता का दृष्टिकोण, अंतर्राष्ट्रीय विधि के विकास को प्रभावित करता है, परंतु राज्य नैतिकता के नियम को मानने के लिए बाध्य नहीं है जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियम बंधनकारी होते हैं।अतः यह स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि केवल शुद्ध नैतिकता नहीं है।
अंतर्राष्ट्रीय विधि की प्रकृति
क्या अंतर्राष्ट्रीय विधि वास्तविक अर्थों में विधि है? यह प्रश्न की अंतर्राष्ट्रीय विधि वास्तविक अर्थों में विधि है अथवा नहीं, इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय विधिशास्त्रियों में मतभेद हैं। कुछ विधिशास्त्री अंतर्राष्ट्रीय विधि को विधि नहीं मानते तथा विधि शास्त्री इसे वास्तविक अर्थों में विधि मानते हैं। विधि शास्त्री हाॅब्स प्यूफेन डार्फ एवं आॅस्टिन के अनुसार विधि एक प्रभुसत्ता वाले शासक का आदेश है जो कि एक जेष्ट राजनीतिक सत्ता द्वारा लागू करवाया जाता है। लोक विधि का पालन इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि यदि विधि का पालन नहीं किया तो उन्हें प्रभुसत्ता द्वारा इसका पालन करने के लिए विवश किया जा सकता है तथा सजा दी जा सकती है। आॅस्टिन के अनुसार निश्चयात्मक विधि(positive law) की तीन विशेषताएं होती हैं:
(1) यह एक प्रकार का आदेश होता है;
(2) यह एक राजनीतिक प्रभुसत्ता वाले शासक द्वारा दिया जाता है;
(3) यह एक अनुशास्ति द्वारा लागू किया जाता है।
आॅस्टिन द्वारा दी गई विधि की परिभाषा से प्रभावित होकर अस्तित्व वादियों ने यह मत प्रकट किया हैकी अंतर्राष्ट्रीय विधि को निश्चय आत्मक विधि की कोटि में नहीं रखा जा सकता क्यों यह प्रभुत्व संपन्न शासक द्वारा नहीं बनाई गई है ।हाॅब्स के अनुसार मनुष्य अपनी प्रकृति से नटखट तथा हिंसक है तथा समाज में सुव्यवस्थित रखने के लिए भय जो की विधि में निहित होता है, आवश्यक है। अतः वे विधि शास्त्री जो अंतर्राष्ट्रीय विधि को सच्चे अर्थों में विधि नहीं मानते हैं, विधि को एक प्रभुसत्ता वाले शासक का आदेश मानते हैं तथा जिसको ज्येष्ठ राजनीतिक सत्ता द्वारा मनवाया जा सकता है। इस मत के विधिशास्त्रियों मे हाॅलैण्ड(Holland) जर्मी बैन्थम (Jermy Bentham) तथा जेथरो ब्राउन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
दूसरे मत के वे विधिशास्त्री हैं जो अंतरराष्ट्रीय विधि को विधि मानते हैं। इनमें स्टार्क का नाम प्रमुख है। इस मत के मानने वाले विधिशास्त्रियों का कहना है कि जहां तक विधि के पीछे अनुशास्ति या भौतिक बल की बात है, यह कहा जा सकता है कि यह विधि का आवश्यक तत्व नहीं है। कुछ हद तक इस राष्ट्र संघ में और अब संयुक्त राष्ट्र चार्टर में उल्लंघनों को रोकने के लिए भौतिक बल तथा अनुज्ञप्ति का प्रावधान है।
स्टार्क ने आॅस्टिन की विधि की धारणा की आलोचना की है तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि होने के पक्ष में अपना मत प्रकट किया है। स्टार्क ने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किया है:
(1) आधुनिक ऐतिहासिक विधिशास्त्र ने यह सिद्ध कर दिया है कि बहुत से समुदायों में बिना औपचारिक विधायिन शक्ति के एक विधि की प्रणाली विद्यमान है और इस प्रकार की विधि राज्य की सच्ची विधायिन शक्ति द्वारा बनाई विधि से भिन्न है।
(2)आॅस्टिन के विचार चाहे उसके समय में उपयुक्त रहे हों परंतु अब उचित नहीं है। विधि निर्माण करने वाली संधियों के फल स्वरुप अंतरराष्ट्रीय विधायिनी भी अब कुछ हद तक मौजूद है।
(3) अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बनाए रखने के लिए जो संस्थाएं जिम्मेदार हैं अभी अंतर्राष्ट्रीय विधि को केवल नीति सहिंता नहीं समझती हैं।
(4) संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय विधि की सच्चे स्वरूप में वैधानिकता पर आधारित है। विधि शास्त्री प्रोफेसर ओपेनहाइम ने भी निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए हैं:
(1) अंतरराष्ट्रीय विधि, विधि है क्योंकि अभ्यास से निरंतर विधि की मान्यता प्रदान की जाती है राज्यों का यह मत है कि न केवल नैतिक रूप से वरन् विधि के रूप में भी राज्य अंतर्राष्ट्रीय विधि को मानने के लिए बाध्य है।
(2) राज्य जब अंतर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन करते हैं तो इसके अस्तित्व से इंकार नहीं करते हैं बल्कि वह इसकी इस प्रकार व्याख्या करते हैं जिससे वह अपने आचरण के औचित्य को सिद्ध कर सके।
अंतर्राष्ट्रीय विधि को लागू करने के वर्तमान साधनों की कमियों तथा विवादों के निस्तारण हेतु अनिवार्य न्यायिक प्रबंधकों की अनुपस्थिति के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय विधि राज्य विधि से दुर्बल है। जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि में कुछ कमियों के कारण यह अभी भी एक अपूर्ण विभिन्न व्यवस्था है पिछले 50 वर्षों में इन कमियों को दूर करने की दिशा में काफी प्रगति हुई है।
यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि को लागू करने के लिए अनुशास्ति को एक प्रणाली विकसित हो रही है। इस बात के भी संकेत है कि अंतर्राष्ट्रीय विधिक व्यवस्था में परिपक्वता आ रही है। इस सम्बन्ध में अन्य बातों के अतिरिक्त जस कोजन्स (jus cojens) का उल्लेख वांछनीय है। इनके अलावा अंतर्राष्ट्रीय विधि को अब उचित रूप से एक पूर्ण प्रणाली कहा जा सकता है। प्रोफेसर ब्रायर्ली के मत में अंतर्राष्ट्रीय विधि की विधिक प्रकृति को इनकार करना न केवल अभ्यास में असुविधा जनक है वरन् उत्तम विधिशास्त्रीय विचारों के भी विरुद्ध है या प्रतिकूल है। प्रो. हार्ट ने भी लिखा है कि अभ्यास के अनेक ऐसे नियम हैं जिनका राज्य नियमित रूप से सम्मान करते हैं तथा राज्यों के मध्य ऐसे नियम है जो उन पर बाध्यकारी हैं। अंतरराष्ट्रीय विधि विद्यमान है, क्योंकि राज्य सरकारें ऐसा मानती हैं।
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