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अन्याय पूर्ण आचरण एवं कुप्रबंध(oppression and mis management)
उच्चतम न्यायालय ने शांति प्रसाद जैन बनाम कलिंग ट्यूब्स लिमिटेड के केस में दमनकारी आचरण की परिभाषा इस प्रकार है: दमनकारी या उत्पीड़क आचरण ऐसा निम्न स्तरीय आचरण होता है जो उचित आचरण के मापदंड के विपरीत हो और कंपनी में निवेश करने वाले अंश धारियों जिन्होंने कंपनी के प्रति विश्वास करते हुए अपना धन कंपनी की पूंजी में लगाया है, के प्रति अन्याय पूर्ण तथा अनुचित हो।
इसी कारण कंपनी अधिनियम,2013 ने कंपनी लॉ अधिकरण को पर्याप्त शक्तियां प्रदान करते हुए कम्पनी के कुप्रबंध एवं दमनात्मक कार्यों पर नियंत्रण रखने के लिए सशक्त किया है। कंपनी लॉ अधिकरण का मुख्य लक्ष्य कंपनी के परिसमापन को रोका जाना तथा कंपनी के कारोबार को निरंतर क्रियाशील बनाए रखने का होना चाहिए।
इन.रि. हिंदुस्तान कोऑपरेटिव इंश्योरेंस लिमिटेड,(1961)31 कंपनी कैसे 193 के मामले में अवधारित किया गया है कि जहां बहुमत के सदस्यों द्वारा पारित प्रस्ताव कंपनी को प्रदत्त शक्ति के अंतर्गत तथा कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के प्रतिकूल नहीं है फिर भी यदि अल्पमत सदस्यों के हितों के प्रतिकूल होने के साथ-साथ किसी सदस्य या सदस्यों के प्रति दमनकारी हो तो ऐसी स्थिति में कंपनी लॉ अधिकरण अल्पमत के सदस्यों के हितों का संरक्षण करने हेतु हस्तक्षेप करते हुए कंपनी अधिनियम,2013 की धारा 241 के अधीन उपचारात्मक कार्यवाही करेगा ताकि कंपनी को परिसमापन को बचाया जा सके।
दमन या दबाए जाने का अर्थ क्या है?किसी अन्याय पूर्ण आचरण या दबाये जाने को इनके शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए बल्कि इसे विस्तृत सामान्य अर्थ में लिया जाना चाहिए। यदि कंपनी के कार्यकलाप सार्वजनिक हितों के विपरीत हों या कुछ अंश धारकों के प्रति अन्याय पूर्ण हों या कंपनी के परिसमापन के लिए उचित हों परंतु ऐसा परिसमापन कंपनी के सदस्यों के हितों के प्रतिकूल हो तो ऐसी स्थिति के निवारण के लिए कोई भी व्यक्ति कंपनी विधि अधिकरण में आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। ऐसे आवेदन में आवेदक द्वारा यह दर्शना चाहिए कि वह ऐसे व्यवहार को सहने के लिए बाध्य हो गया है जिसमें ईमानदारी की कमी है तथा जो उसके प्रति अनुचित है तथा इससे अंशधारक के रूप में उसके विधिक एवं स्वात्विक अधिकार के प्रयोग में प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
शांति प्रसाद जैन बनाम कलिंग ट्यूब्स लिमिटेड,A.I.R.1965, S.C. 1535 के मामले में दमनकारी आचरण को परिभाषित करते हुए अभिकथन किया की दमनकारी या उत्पीड़क आचरण ऐसा निम्न स्तरीय आचरण होता है जो उचित आचरण के मापदंड के विपरीत हो तथा कंपनी में निवेश करने वाले अंशधारियों, जिन्होंने कंपनी के प्रति विश्वास करते हुए अपना धन कंपनी की पूंजी में लगाया है, के प्रति अन्याय पूर्ण एवं अनुचित हो।
कंपनी के बहुमत सदस्यों के विरुद्ध दमनात्मक उत्पीड़न की शिकायत में व्यथित सदस्यों को ना केवल दमनकारी कार्यों का उल्लेख करना होता है बल्कि उन्हें सबूत के आधार पर दमनकारी या उत्पीड़नात्मक आचरण सिद्ध करना भी आवश्यक होता है।
इस संबंध में लार्ड कूपर का स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण है," दवाई जाने का सार यह प्रतीत होता है कि शिकायत किए जाने वाले के आचरण से कम से कम यह स्पष्ट होता है कि एक उचित व्यवहार के मापदंड की अवहेलना की गई है और ऐसी औचित्यपूर्ण शर्तों का उल्लंघन किया गया है जिन पर निर्भर कर के प्रत्येक अंशधारी कंपनी में धन लगाता है।
इस केस में दिए गए निर्णय को पंजाब हाई कोर्ट ने मोहनलाल चंदूमल बनाम पंजाब कंपनी लिमिटेड, A.I.R. 1961, पंजाब 485 के मामले में स्वीकार किया जिसमें अग्रिम संविदा कारोबार करने वाली एक लोक कंपनी ने किसी अधिनियम के अंतर्गत अपने अंतर्नियमों को इस प्रकार संशोधित किया जिससे उसके व्यापार ना करने वाले सदस्य अपने मताधिकार, सभाएं बुलाने, निदेशकों का निर्वाचन करने लाभांश प्राप्त करने के अधिकार से वंचित हो गए। पंजाब हाई कोर्ट द्वारा निर्णय लिया गया कि कंपनी ने ऐसा संशोधन करके अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है तथा प्रभावित सदस्यों के अधिकारों पर कुठाराघात हुआ है जो कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 397( अब कंपनी अधिनियम,2013 की धारा 241) के अंतर्गत अन्याय पूर्ण आचरण कह सकते हैं। सदस्यों से लाभांश प्राप्त करने का अधिकार छीन लेना ना केवल दमनात्मक कार्य है बल्कि वह जब्ती के सामान भी है। अतः न्यायालय द्वारा निर्देशित किया गया की शिकायत करने वाले सदस्यों के अंशों को कंपनी स्वयं खरीद ले ताकि ये अंशधारी उस पूंजी के साथ कंपनी के बाहर हो जाएं जिसे उन्होंने उस कंपनी में लगाया था क्योंकि कंपनी के अंतर्नियमों में किया गया संशोधन एक ऐसे अधिनियम के अंतर्गत है जिसमें यह प्रावधान था कि ऐसी कंपनियों में केवल सदस्य ही होने चाहिए।
साधारण कुप्रबंध एवं दबाव के कार्यों में अंतर है। अंशधारियों को इसके स्वरूप को स्पष्ट रूप से समझकर अनावश्यक मुकदमेबाजी में नहीं पड़ना चाहिए और यथासंभव समझौते के मार्ग को अपनाना चाहिए। कानूनी रूप से बहुमत प्राप्त करने का प्रयत्न कोई ऐसी परिस्थिति नहीं है जिसे दबाने के कार्य की संज्ञा दी जा सके। इसके लिए अधिकारों का अनुचित प्रयोग और इमानदारी में संदेह की स्थिति साबित करनी चाहिए। दबाने का कार्य उस समय समझा जाता है जब किसी अंश धारी के प्रति उसके स्वामित्व के अधिकार के संबंध में जिसे वह एक अंश धारी के रूप में ग्रहण करता है, न्यायपूर्वक की ईमानदारी से कार्य न किया जा रहा हो।
यह जरूरी नहीं कि दबाये जाने की ऐसी प्रवृत्ति बहुमत की ओर से ही हो। यदि वह कार्य अल्पमत की ओर से किया जा रहा है तो समुचित विशयों में दबाव के कार्यों या कुप्रबंध के संबंध में न्यायालय अधिकरण की संतुष्टि हो जाने पर आवेदन पत्र दिए जाने पर बहुमत को भी यह अनुतोष प्रदान किया जा सकता है।इस विषय में धारा 397 में प्रावधान प्रस्तुत किया गया है।
अन्यायपूर्ण आचरण के विरुद्ध आवेदन: अन्यायपूर्ण आचरण से व्यथित कंपनी के सदस्य धारा 244 में विनिर्दिष्ट एक न्यूनतम संख्या के अधीन कंपनी विधि अधिकरण के समक्ष आवेदन कर सकते हैं। यह न्यूनतम संख्या निम्नलिखित है
(a) अगर कंपनी की अंश पूंजी है तो उसके कम से कम 100 सदस्य या कंपनी की कुल सदस्य संख्या का 1 बटा 10 भाग , इनमें से जो भी कम हो
(b) कंपनी की निर्गमित अंश पूंजी का 1 बटा 10 भाग धारण करने वाले सदस्य
(c) ऐसी कंपनी की दशा में जिसकी अंश पूंजी नहीं है , उसी के सदस्यों की कुल संख्या के 1 बटा 5 भाग के हस्ताक्षर आवेदन पत्र पर होने चाहिए
कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 244(1) के परंतुक के अनुसार किसी सदस्य या सदस्यों की प्रार्थना पर केंद्रीय सरकार यदि उचित समझती है तो कंपनी विधि अधिकरण में आवेदन करने हेतु सदस्यों की न्यूनतम संख्या की शर्त को हटा सकती है।
कंपनी अधिनियम की धारा 244(2) में दरशाई गई न्यूनतम सदस्य संख्या द्वारा आवेदन पर सहमति के हस्ताक्षर कर दिए जाने पर एक या एक से अधिक व्यक्ति कंपनी विधि अधिकरण को भेजा जा सकता है तथा बाद में हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा हस्ताक्षर वापस लेने अथवा अपने अंशों को बेचने तथा अपनी सदस्यता समाप्त करने के लिए आवेदन दिए जाने पर भी आवेदन पत्र पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
पी.पुन्नैया एवं अन्य बनाम जैपुर सुगर कंपनी लिमिटेड ए.आई.आर. 1994, एस.सी.225 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि कंपनी अधिनियम,1956 धारा 397\398( अब कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 241\242) के अंतर्गत अन्याय पूर्ण आचरण एवं कुप्रबंध के मामले में धारा 399(3)( अब कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 244(2)) के अंतर्गत आवेदन परिवादियों के मुख्तार द्वारा अपनी सामान शक्तियों का प्रयोग करते हुए किया जा सकता है तथा उसकी ओर से दी गई सम्मति परिवादियों की सहमति मानी जाएगी।
बजरंग प्रसाद जालान बनाम महावीर प्रसाद जालान, ए.आई.आर. 1999, कलकत्ता 136 के मामले में कोलकाता उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 397\398( अब कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 241\242) के अंतर्गत याचिका दायर करने हेतु यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि कंपनी में दमनात्मक कार्य आर्थिक लाभ के लिए किए जा रहे हैं ,बल्कि यह सिद्ध कर देना पर्याप्त है कि निदेशक अधिकारीगण या बहुमत के सदस्य अपनी शक्तियों का उल्लंघन करते हुए उनका दुरुपयोग कर रहे हैं ।यह भी आवश्यक नहीं है कि दोषी कंपनी के बहुमत के सदस्यों या निदेशकों के विरुद्ध लगाए गए सभी आरोप साबित किए जाएं ।यदि कुल मिलाकर कंपनी के किन्ही व्यक्तियों का आचरण युक्ति युक्त तथा न्यायोचित प्रतीत नहीं होता तो उनके विरुद्ध दायर की गई धनराशि याचिका पोषणीय होगी। इस मामले में न्यायालय बहुमत के अंश धारियों को अल्पमत के अंश धारियों के प्रति दमनात्मक नीति अपनाने का दोषी पाया क्योंकि उन्होंने अल्पमत सदस्यों को कंपनी की सभाओं की सूचना देना केवल इस आधार पर अनावश्यक समझा क्योंकि बहुमत तथा अल्पमत, दोनों के सदस्यगण एक ही परिवार से थे तथा उनके अंशों का अंतरण भी पंजीकृत नहीं किया गया था।
हनुमान प्रसाद बागरी तथा अन्य बनाम बाग्रेस सीरियल्स प्राइवेट लिमिटेड ए. आई. आर. 2001, एस.सी. 1416 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि कंपनी अधिनियम,1956 की धारा 397(2)( अब कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा241(1)) के प्रमुख कुप्रबंध के विरुद्ध आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय (अधिकरण) मुख्य रूप से तीन बिंदुओं पर विचार करता है:
(a) क्या कंपनी को प्रबंध व्यवस्था या कारोबार इस प्रकार से चलाया जा रहा है जिससे लोकहित प्रभावित होता हो या वह कंपनी के किसी सदस्य या सदस्यों के लिए हानिकारक हो;
(b) न्यायालय( अधिकरण) कंपनी के परिसमापन का आदेश तभी पारित कर सकेगा जबकि तथ्यों के आधार पर यह साम्यिक एवं न्यायोचित हो;
(c) क्या परिसमापन के आदेश का अपीलार्थी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
इस मामले में कंपनी द्वारा अपीलार्थी को कम्पनी के कार्यकारी निदेशक के पद से अवैध रूप से हटा दिया गया था, अतः उसने कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 397\398( अब कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 241\242) के अंतर्गत न्यायालय से उपचार की याचना करते हुए कंपनी का परिसमापन किए जाने की प्रार्थना की। न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर यह अनुभव किया कि निस्संदेह की याचिकाकर्ता के प्रति कंपनी ने ज्यादती की थी तथा कतिपय सदस्यों ने अपने रास्ते से हटाने के लिए उसे अवैध रूप से निदेशक पद से हटा दिया था। परंतु न्यायालय ने अपीलार्थी के आवेदन को अस्वीकार करते हुए यह विनिश्चित किया कि इस प्रकरण में अपीलार्थी की पदच्युति के कारण ना तो लोकहित पर विपरीत प्रभाव पड़ा था और ना किसी सदस्य या सदस्यों पर ही इसका दुष्प्रभाव पड़ा था। इसके अलावा न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया कि अपीलार्थी द्वारा न्याय एवं साम्यिक आधार पर कंपनी के परिसमापन की मांग किया जाना भी इसलिए उचित नहीं था क्योंकि वह इस हेतु कंपनी के विरुद्ध सिविल वाद दायर करके यथोचित उपचार प्राप्त कर सकता था। इसलिए अपील निरस्त की गई।
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