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IPC की धारा 353 और BNS की धारा 132 लोक सेवकों की सुरक्षा से जुड़े कानून का पूरा विश्लेषण

प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियां (powers of a natural guardian):

प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक  संरक्षक की शक्तियां (powers of a natural guardian): - अधिनियम की धारा 8 में अवयस्क  के शरीर तथा संपत्ति के संबंध में प्राकृतिक संरक्षक की शक्तियों की विवेचना की गई है धारा 8 इस प्रकार है -

( 1) हिंदू अवयस्क  का प्राकृतिक संरक्षक इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए ऐसे समस्त कार्यों को कर सकता है जो उस अवयस्क के लाभ के लिए अथवा उसकी संपदा के उगाहने संरक्षण या फायदे के लिए आवश्यक या युक्ति युक्त और उचित हो किंतु संरक्षक किसी भी दशा में अवयस्क  को व्यक्तिगत संविदा के द्वारा बाध्य नहीं कर सकता है.

( 2) प्राकृतिक संरक्षक न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना -

(क ) अवयस्क  की अचल संपत्ति के किसी भाग को बंधक या भारित (charge) या विक्रय दान विनिमय या अन्य किसी प्रकार से हस्तांतरित नहीं करेगा या

(  ख ) ऐसी संपत्ति के किसी भाग को 5 से अधिक होने वाली अवधि के लिए तथा जिस तारीख को अवयस्क वयस्कता प्राप्त करेगा उस तारीख से 1 वर्ष से अधिक होने वाली अवधि के लिए पट्टे पर नहीं देगा.

( 3) प्राकृतिक संरक्षक के उप धारा (1) या  उपधारा (2) के उपबंधों के विरुद्ध संपत्ति का जो कोई हस्तांतरण किया है वह उस अवयस्क की या उसके दावा करने वाली किसी व्यक्ति की प्रेरणा पर शून्यकरणीय होगा.

( 4) कोई भी न्यायालय प्राकृतिक संरक्षक की उपधारा (2)में वर्णित कार्यों में किसी को भी करने की अनुज्ञा नहीं देगा सिवाय उस दशा में जबकि वह आवश्यक हो या अवयस्क की स्पष्ट भलाई के लिए हो.

( 5) संरक्षक तथा वार्डस अधिनियम 1890  की  उप धारा (2)के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए आवेदन तथा उसके संबंध में सभी बातों में इस प्रकार लागू होगा जैसा कि वह उस अधिनियम की धारा 29 के अधीन न्यायालय के अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए आवेदन हो तथा विशिष्ट रूप में -

( क ) आवेदन से संबंधित कार्यवाही या उस अधिनियम के अधीन उसकी धारा 4 (क) के अर्थ के भीतर कार्यवाहियां समझी जाएंगे.

( ख ) न्यायालय उस प्रक्रिया का अनुपालन करेगा और उसे शक्तियां प्राप्त होंगी जो उस अधिनियम की धारा 3 के उप धाराओं (2) (3) और (4) में विनिर्दिष्ट है तथा

(   ग ) न्यायालय के ऐसे आदेश अपनी जो नैसर्गिक  संरक्षक को इस धारा की उप धारा (2) में वर्णित कार्यों में से किसी भी कार्य को करने की अनुज्ञा देने से इंकार करे उस  न्यायालय में होगी जिसमें उस न्यायालय के विनिश्चयों की अपील मामूली तौर पर होती है.

( 6) इस धारा में न्यायालय से तात्पर्य जिला न्यायालय अथवा संरक्षक तथा वार्डस  अधिनियम 1890 की धारा 4 (क) के अधीन सशक्त न्यायालय से है जिसके क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के अंतर्गत व अचल संपत्ति जिसके बारे में आवेदन किया गया है और जहां अचल संपत्ति किसी ऐसे एक से अधिक न्यायालय के क्षेत्राधिकार में स्थित है वहां उस न्यायालय से तात्पर्य है जिसकी स्थानीय सीमाओं के क्षेत्राधिकार में उस संपत्ति का कोई प्रभाव स्थित है.

                  इस प्रकार अवयस्कता और संरक्षण अधिनियम की धारा 8 के अनुसार प्राकृतिक संरक्षण कैसे समस्त कार्यों को करने की शक्ति रखता है जो अवयस्क के लाभ के लिए अथवा उस अवयस्क  की संपदा के भावना संरक्षण या फायदे के लिए आवश्यक युक्तियुक्त और उचित हो अवयस्क  के फायदे के लिए कार्यों को करने का अधिकार संरक्षक को अवयस्क  के शरीर के संरक्षक के रूप में होता है उस रूप में उसे अवयस्क  के पालन पोषण शिक्षा स्वास्थ्य आदि बातों की देखभाल करनी पड़ती है और अवयस्क  के धार्मिक संस्कारों को संपादित करना पड़ता है संरक्षक अवयस्क की संपदा की समस्त आय इन कार्यों पर व्यय कर सकता है आवश्यकता  पड़ने पर वह अवयस्क  की संपदा का हस्तांतरण कर सकता है और इस प्रकार का हस्तांतरण हिंदू विधि मान्य होगा.

              हिंदू विधि के अंतर्गत प्राकृतिक संरक्षक को विस्तृत अधिकार दिए गए हैं प्राकृतिक संरक्षक के अवयस्क के संपत्ति का बन्धकरण अधिकार के विषय में प्रीवी काउंसिल ने हनुमान प्रसाद बनाम मुंबई के बाद में स्पष्ट रूप से यह निर्धारित किया है की आवश्यकता की दशा में प्राकृतिक संरक्षक आवेश की संपत्ति का बंध करण कर सकता है बेच सकता है उस पर प्रभाव निर्मित कर सकता है तथा अन्य प्रकार से उस वक्त उसका वह कर सकता है विधिक आवश्यकता का निर्माण प्रत्येक दशा में अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार किया जाएगा आवेश का भरण-पोषण उसकी संपत्ति की देखभाल उसके पिता के अंतिम क्रिया तथा पिता के लोगों को चुकाना आदि विधिक आवश्यकता के अंतर्गत आता है जिसके लिए संरक्षक अवयस्क की संपत्ति का अध्ययन कर सकता है.

            हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने धारा 8 के क्षेत्र की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि यह धारा नैसर्गिक  संरक्षक द्वारा अचल संपत्ति के अन्य संक्रमण करने के अधिकार की सीमा की विवेचना करता है जहां अवयस्क  की माता बिना किसी विधिक आवश्यकता के अथवा संपदा के प्रलाभ के बिना उसकी संपत्ति को बेच देती है तथा इस आशय की अनुमति न्यायालय से प्राप्त नहीं की गई है वहां भले ही अवयस्क  के पिता ने  ऐसे विक्रम को प्रमाणित कर दिया हो वहां इसे विक्रय नामा को नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विक्रय नामा नहीं माना जाएगा और वह अन्य संक्रमण इस धारा की सीमा के अंतर्गत शून्य माना जाएगा ना कि शून्यकरणीय ।

        सुमन बनाम श्रीनिवास के वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह अभी निर्धारित किया गया कि अवयस्क  के संरक्षक द्वारा की गई संविदा का अवयस्क  के द्वारा तथा अवयस्क  के विरुद्ध में विनिर्दिष्ट रुप से पालन भुलाया जा सकता है हिंदू विधि के अंतर्गत नैसर्गिक  संरक्षक को यह शक्ति प्रदान की गई है कि अवयस्क की ओर से संविदा करें और इस प्रकार की संविदा यदि अवयस्क  के हित में है तो उसके ऊपर बाध्यकारी होगा और वह लागू किया जाएगा इसी प्रकार जहां किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए माता द्वारा अपने अवयस्क  पुत्र की ओर से दावा दायर किया जाता है जबकि पिता जीवित है और माता पिता पिता के बीच संबंध ठीक नहीं है वहां न्यायालय द्वारा यह अभी निर्धारित किया गया है कि यदि माता और उसकी संतान के हितों में विरोध नहीं है तो इस प्रकार का दावा करने का माता को अधिकार प्राप्त है.

             हनुमान प्रसाद बनाम बुबई वाद में पृवी काउंसिल ने यह स्पष्ट रूप से निरूपित किया था की आवश्यकता की दशा में अथवा संपदा के लाख की दशा में अवयस्क  की संपत्ति के प्रबंधकर्ता को सीमित तथा सापेक्ष अधिकार प्राप्त है यहां आवश्यकता की दशा से तात्पर्य विधिक आवश्यकता से है.


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