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संयुक्त हिंदू परिवार एवं हिंदू सहदायिकी :joint Hindu family and Hindu Coparcenery

सहदायिकी(Coparcenery)

मिताक्षरा विधि के अंतर्गत संयुक्त हिंदू परिवार: - हिन्दुओं  में परिवार प्राचीनतम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानव संस्थाएं है किसी भी मनुष्य की सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकास संयुक्त परिवार द्वारा ही होता है आदि प्राचीन काल से ही हिंदू संयुक्त परिवार में रहने के अभ्यस्त थे हिंदुओं के अनुसार व्यक्ति नहीं बल्कि परिवार समाज की इकाई है एक संयुक्त और अविभक्त परिवार ही हिंदू समाज की सामान्य स्थिति है संयुक्त परिवार की परिभाषा में वे सभी व्यक्ति आते हैं जिनसे परिवार निर्मित होता है वास्तव में हिंदू संयुक्त परिवार एक विस्तृत और व्यापक शब्द है इसके अंतर्गत वे लोग भी आते हैं जो दायभागी नहीं है संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों पर का परिवार है जिसके सदस्य एक सामान्य पूर्वज के वंशज है और जिन का निवास खानपान और पूजा-पाठ एक साथ होता है इसमें पत्नियां तथा अविवाहित  पुत्रीयाँ भी सम्मिलित हैं पुत्री विवाहित होने पर अपने पिता के परिवार की सदस्या ना रहकर अपने पति के परिवार की सदस्या हो जाती है.

            मिताक्षरा विधि के अंतर्गत यह उप धारणा है कि संयुक्त परिवार ना केवल संपत्ति के मामले में ही संयुक्त रहता है बल्कि वह पूजा-पाठ भोजन के संबंध में अविभक्त होता है अतः जब तक यह सिद्ध ना कर दिया जाए कि परिवार का विभाजन हो गया है विधि की उप धारणा होती है कि हिंदू परिवार के सदस्य अविभाजित रूप से रह रहे हैं किन्तु यह उपधारणा प्रत्येक मामले में एक समान ही नहीं होती है माताओं के अविभक्त रहने की उपधारणा सांपाश्र्विको बन्धु बॉन्धवों के अविभक्त रहने की उप धारणा की अपेक्षा प्रबल होती है और परिवार के सामान्य पूर्वज से दूर चलते जाने पर उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती है.

            संयुक्त तथा अविभक्त परिवार एक ही पूर्वज के वंशजों उनकी माताओं पत्नियों अथवा विधवाओं और अविवाहित पुत्रियों द्वारा निर्मित होता है यह सदस्यों की परस्पर संपीड्यता पर आधारित है परिवार के सदस्यों का यह संगठन विधि सृष्टि है इसमें विवाह तथा दत्तक के अलावा अन्य किसी व्यक्ति का प्रवेश नहीं हो सकता है संयुक्त परिवार के सदस्य ना केवल संपदा में बल्कि भोजन तथा पूजा-अर्चना में भी संयुक्त होते हैं.

              संयुक्त हिन्दू  परिवार के लिए यह आवश्यक है कि उसमें कम से कम 2 व्यक्ति हैं एक अविवाहित पुरुष हिंदू संयुक्त परिवार की स्थापना नहीं कर सकता है विभाजन के उपरांत प्राप्त संपत्ति उसकी स्वार्जित संपत्ति मानी जाएगी ना कि संयुक्त परिवार की.

                   एक नवीनतम वाद मंगला बनाम जयाबाई के बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभी निर्धारित किया गया कि संयुक्त हिंदू परिवार का गठन पुरुष सदस्यों द्वारा होता है और इसके लिए वह सदस्य का होना आवश्यक है जहां संयुक्त हिंदू परिवार का सदस्य अवयस्क है और मां संरक्षक ही हैसियत से कार्य कर रही है तो भी ऐसा अवयस्क सदस्य परिवार का कर्ता होगा परंतु जहां परिवार में कोई भी पुरुष सदस्य नहीं है केवल मां और अवयस्क  पुत्रियां हैं. वहां मा  ही पुत्रियों की प्राकृतिक संरक्षक होगी लेकिन मां को अवयस्क का पुत्रियों के संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में अंश को अन्य संक्रमण का अधिकार नहीं होगा क्योंकि पुत्रियों ने संपत्ति में हक उत्तराधिकार के आधार पर प्राप्त किया है.

संयुक्त परिवार के सदस्य: - एक संयुक्त परिवार में निम्नलिखित सदस्य सम्मिलित होते हैं.

पुरुषों में

( 1) वे पुरुष जो पुरुष वंशानुक्रम में आते हैं

( 2) सांपार्श्विक

( 3) दत्तक ग्रहण से संबंधित

( 4) दीन अनाथ जो आश्रित हो

( 5) इनमें वे पुत्र भी सम्मिलित हैं जो विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत एक हिंदू तथा  इसाई माता से उत्पन्न हुए हैं

स्त्रियों में

( 1) पुरुष सदस्यों की पत्नी तथा विधवा पत्नी

( 2) उनकी अविवाहित पुत्रियां

हिन्दू सहदायिकी(Hindu Coparcenary): - हिंदू सहदायिकी या सहभागीदारी संयुक्त परिवार की अपेक्षा छोटी संस्था है जिसकी सदस्यता कुछ ही सदस्यों तक सीमित रहती है यह केवल उन्हीं सदस्यों को सम्मिलित करती है जिनका जन्म से संयुक्त या सहदायिकी संपत्ति में हक होता है उच्चतम न्यायालय ने नरेंद्र नाथ बनाम डब्लू टी कमिश्नर के वाद में यह अभिनिर्धारित किया है कि हिंदू सहभागीदारी एक लघु संगठन है जिसके सहदायिकी संपत्ति में हक रखने वाले वे पुरुष संतान आते हैं जो तीन पीढ़ी तक के वंशानुक्रम में है इस प्रकार सहदायिकी संयुक्त परिवार की अपेक्षा एक सीमित मंडली है जिसमें परिवार के केवल वही सदस्य आते हैं जो पूर्वजों की संपत्ति में जन्म के अधिकार प्राप्त करते हैं और जिनको अपनी इच्छा अनुसार संपत्ति के बटवारा करने का अधिकार प्राप्त है पूर्वज के तीन पीढ़ी तक के वंशज अर्थात पुत्र पौत्र पर प्रापौत्र आते हैं तीन पीढ़ी तक के वंशजों के यह अधिकार देने का कारण यह है कि यह तीनों ही पूर्वजों का पिंडदान करने के अधिकारी हैं इसके बाहर रहने वाला कोई व्यक्ति से सहभागीदार नहीं हो सकता है जैसे प्रपौत्र का पुत्र सहभागीदार में स्त्रीयां नहीं आती है यद्यपि हिंदू नारी का संपत्ति अधिकार अधिनियम 1937 ने कतिपय स्त्रियों को भी सहदायिकी  में सम्मिलित कर दिया है किंतु वह पूर्ण अर्थों में सहदायिकी  नहीं होती क्योंकि उन्हें संपत्ति को विभाजित करने का हक नहीं है सहभागीदारी के अंतर्गत जब कोई व्यक्ति अपने पिता पितामाह प्रतिपितामह से संपत्ति प्राप्त करता है तो उसके पुत्र पौत्र तथा प्रपौत्र उस संपत्ति में जन्म से हक प्राप्त कर लेते हैं तो उन्हें संपत्ति के विभाजन कराने का अधिकार भी प्राप्त हो जाता है अतः ऐसे व्यक्ति जो इस प्रकार का हक प्राप्त करते हैं और सहभागीदारी गठित करते हैं मिताक्षरा विधि के अनुसार सहदायिकी  का पिता और पितामह की संपत्ति में जनमत अधिकार होता है पिता के ना चाहने पर भी पुत्र की इच्छा से पितामह के धन का बंटवारा हो जाता है और अविभक्त हुये पिता द्वारा पितामह के धन को दूसरे को देने अथवा विक्रय करने में पौत्र का उसे रोकने का अधिकार है पिता द्वारा अर्जित धन में रोकने का अधिकार नहीं है यह पुत्र के पिता के पर तंत्र होने का कारण है.

      सहदायिकी  में प्रत्येक सदस्य को यह अधिकार है कि दूसरे सहदायिक को संपत्ति के अन्य संक्रमण से रोका जा सकता है इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदस्य को सहदायिकी संपत्ति में बटवारा कराने का अधिकार प्राप्त है.

सहदायिकी की विशेषताएं :स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया बनाम घमंडीराम के वाद मे उच्चतम न्यायालय ने सहभागीदारी के तत्वों को संक्षेप में निम्नलिखित रुप से अभी कथित किया है -

पहला: - किसी व्यक्ति की तीसरी पीढ़ी तक के पारंपरिक पुरुष वंशज ऐसे व्यक्ति की पैतृक संपत्ति यों में जन्म से ही स्वामित्व अर्जित करते हैं.

दूसरा: - ऐसे वंशज किसी समय विभाजन की मांग करके अपने अधिकारों की रूपरेखा प्रस्तुत कर सकते हैं.

तीसरा: - जब तक कि विभाजन नहीं हो जाता तब तक प्रत्येक सदस्य का स्वामित्व अन्य सदस्यों के साथ संयुक्त रूप से संपूर्ण संपत्ति पर होता है.

चौथा: - ऐसा सहस्वामित्व के परिणाम स्वरूप उस संपत्ति पर सब का कब्जा होता है और सभी उसका उपभोग करते हैं.

पांचवा: - संपत्ति का कोई अन्य संक्रमण (alienation ) तब तक संभव नहीं होता है जब तक कि वह आवश्यकता के लिए ना हो और जब तक ही सदस्यों की सहमति प्राप्त ना कर ली गई हो.

छठवां: - मृत सदस्य का ही तो उसकी मृत्यु पर उत्तरजीवियों को हस्तांतरित हो जाता है मिताक्षरा पद्धति के अनुसार सहदायिकी  विधि की देन है और वह पक्षकारों के कार्य द्वारा सिवाय तब तक के उद्भुत नहीं हो सकती है जब तक की दत्तक ग्रहण करने वाले अपनेपिता के  साथ जहाँ तक कि पश्चात कथित की पैतृक संपत्ति का संबंध है सहभागीदार बन जाता है.

मिताक्षरा विधि के अनुसार कोई नारी सहदायिकी  (coporcenery) नहीं हो सकती है एक पत्नी भी यद्यपि वह अपने पति की संपत्ति से भरण-पोषण पाने की अधिकारिणी है और इस सीमा तक वह संपत्ति में हित रखती  अपने पति की सहदायिकी  नहीं होती है.

सहदायिकी की समाप्ति : - सहदायिकी  दो प्रकार से समाप्त होती है

( 1) विभाजन द्वारा

( 2) अंतिम उत्तरजीवी सहदायिक की मृत्यु के द्वारा

सहदायिकी तथा संयुक्त हिन्दू परिवार  मे अन्तर: - हिंदू परिवार तथा सहदायिकी में सबसे प्रमुख अंतर यह है कि हिंदू संयुक्त परिवार में एक ही पूर्वज के वंशज उनकी माता में पत्नियों विधवायें और अविवाहित पुत्रियां सम्मिलित हैं यह सदस्यों के परस्पर संपिण्डता पर आधारित है इसके विपरीत सहदायिकी  में परिवार के केवल वही सदस्य आते हैं जो जन्म से ही संपत्ति में हक प्राप्ति के अधिकारी है तथा उस संपत्ति को स्वेच्छा से विभाजित कराने का अधिकार रखते हैं इनमें किसी वंश के तीन पीढ़ी तक के वंशज अर्थात पुत्र पुत्र एवं प्रपत्र आते हैं संक्षेप में सहदायिकी  तथा संयुक्त परिवार में निम्नलिखित अंतर है -

( 1) परिवार में सदस्यों की पीढ़ियां असीमित होती है जबकि सहदायिकी सीमित होती है यह संयुक्त परिवार के सदस्यों तक ही सीमित होती है.

( 2) सहदायिकी केवल उन पुरुष सदस्यों तक ही सीमित रहती है जो पूर्व से उसको सम्मिलित करके चारों पीढ़ी के अंतर्गत आते हैं जबकि संयुक्त परिवार में इस प्रकार की कोई सीमा नहीं है.

( 3) सहदायिकी केवल पुरुष तक सीमित होती है जबकि सयुक्त परिवार  में स्त्रियां भी सम्मिलित होती है.

( 4) सहदायिकी अंतिम या पूर्ण स्वामी की मृत्यु के पश्चात समाप्त हो जाती है परन्तु सयुक्त परिवार उसकी मृत्यु के बाद भी चलता रहता है.

( 5) प्रत्येक सहदायिकी  संयुक्त परिवार होता है लेकिन प्रत्येक संयुक्त परिवार सहदायिकी  नहीं हो सकता है.

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