हिंदू विवाह एक संस्कार संविदा नहीं इस कथन के समर्थन में अपनी तर्कपूर्ण व्याख्या कीजिए. Hindu marriage is a sacrament not a contract give argument in support of this statement.
हिंदू विधि में विवाह को एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है संभवतः संसार में विवाह का इतना आदर्शीकरण हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य किसी जाति ने नहीं किया है ऋग्वेद के पितृसत्ता युग में भी विवाह को संस्कारी माना जाता था और हिंदुओं के इतिहास में विवाह को सदैव संस्कारी ही माना गया है स्ट्रेजी के अनुसार विश्व में किसी भी समाज द्वारा विवाह को इतना महत्व प्रदान नहीं किया गया जितना की हिंदुओं द्वारा.
विवाह के समय हिंदू वर-वधू से कहता है कि मैं तुम्हारा हाथ सौभाग्य के लिए ग्रहण करता हूं तुम अपने पति के साथ ही वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हो सृष्टि कर्ता ने न्याय ने बुद्धि मानो ने तुझको मुझे दिया है मनु का कहना है कि स्त्री को पतिव्रत धर्म का पालन करना चाहिए ऋग्वेद के एक मंत्र के अनुसार वर-वधू से कहता है कि तुम मेरे वीर पुत्रों की मां बनोगी ईश्वर में श्रद्धा रखो तुम अपने पति के गृह में रानी बन कर रहो समस्त देवी देवता हमारे हृदय को मिलाकर एक कर दे.
हिंदू विवाह के अंतर्गत पिता अपनी पुत्री के स्वामित्व को पति के हाथों में सौंप देता है हिंदू विवाह की यह पद्धति वैदिक काल से चली आ रही है और इसे धार्मिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है रघुनंदन के अनुसार विवाह वर्ग के द्वारा कन्या को स्त्री रूप में ग्रहण करने की स्वीकृति है कन्या उसके संरक्षक द्वारा वर को दान में दी जाती है विवाह सभी जातियों के लिए आवश्यक माना गया है विवाह का उद्देश्य उन तीन ऋणों में से बंधन मुक्त होना है जिनके बंधन में प्रत्येक हिंदू रहता है यह तीन ऋण देव ऋण ऋषि ऋण और पितृ ऋण. देव ऋण से मुक्ति यज्ञ करने से होती है ऋषि ऋण से मुक्ति पाने के लिए वेदों का अध्ययन करना आवश्यक है तथा पित्र ऋण से मुक्ति पुत्र उत्पन्न करने से होता है पुत्र उत्पन्न केवल विवाह द्वारा ही हो सकता है विवाह का दूसरा उद्देश्य नरक से उद्धार पाना है पुत्र का अर्थ नरक से ऋण देने वाले से होता है पुत्र श्राद्ध इत्यादि द्वारा पिता की आत्मा को नर्क से मुक्त करता है इसलिए कहा भी गया है कि अपुत्रवान की गति नहीं होती पुत्र प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक है धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए भी पत्नी आवश्यक है इन सब कारणों से ही हिंदू विवाह को आवश्यक माना गया है यह एक महत्वपूर्ण बात है कि हिंदू विधि में विवाह को ना तो शारीरिक वासना को तृप्त करने के साधन के रूप में देखा गया है और न इसे संविदात्मक दायित्व ही समझा गया है वरन विवाह को केवल धार्मिक अनुष्ठान माना गया है.
मद्रास तथा बंबई उच्च न्यायालयों ने भी हिंदू विवाह को उन 10 संस्कारों में से एक माना है जो शरीर को उसके वंशानुगत दोषों से शुद्ध करता है विवाह वास्तविक रूप से अपने भाव में एक संस्कार है विवाह के द्वारा एक मनुष्य पूर्णता सकता है जिनके पत्नी है वह इस संसार में अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं जिनके पत्नी है वह वही पारिवारिक जीवन व्यतीत कर सकते हैं जिनके पत्नी है वही सुखी हैं जिनके पत्नी है वही पूर्ण जीवन जी सकते हैं अतः हम कह सकते हैं कि हिंदू विवाह एक संस्कार है एक पवित्र बंधन है स्त्री पुरुष का विवाह एक धार्मिक कृत्य है एक पवित्र बंधन है एक देवी बंधन है अनुबंध नहीं है एक हिंदू के लिए विवाह आवश्यक है ।विवाह न केवल पुत्रोंत्पत्ति के लिए पितृ ऋण से उऋण होने के लिये अपितु धार्मिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों के पालन के लिए भी आवश्यक है पत्नी ग्रहणी ही नहीं वरन धर्मपत्नी भी और सह धर्मिणी भी है.
विवाह से पति पत्नी में एक अविच्छिन्न संबंध उत्पन्न हो जाता है जो किसी प्रकार से समाप्त नहीं किया जा सकता मनु के अनुसार विवाह में कन्या एक ही बार दी जाती है और वह जीवन पर्यंत उस व्यक्ति की पत्नी के रूप में बनी रहती है जिसको वह दी जाती है नारद एवं पाराशर ने पांच ऐसी अवस्थाओं का वर्णन किया है जिनके अनुसार पत्नी अपने पति को छोड़ सकती है व्यवस्था इस प्रकार है - (1) जबकि पति खो गया है, (2) वह मर गया है (3) वह सन्यासी हो गया है (4) वह नपुंसक हो गया है (5) वह जाति से निकाल दिया गया है किंतु इस प्रकार का उपबंध केवल अमान्य पद्धति वाले विवाहों के लिए प्रदान किया गया था अधिकतर शास्त्र कार इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि पत्नी किसी भी अवस्था में पति को छोड़ सकती है उसके अनुसार मान्य तथा अमान्य दोनों पद्धतियों से संपन्न हुए विवाहों में पति पत्नी के बीच एक आभूषण संबंध उत्पन्न होता है जो हिंदू विवाह की एक विशेषता है.
मनु के अनुसार स्त्री के दूसरे विवाह की कल्पना भी नहीं की जा सकती है पति की मृत्यु के बाद वह अपने जीवन को फल फूल पर व्यतीत कर के शरीर को क्षीण कर ले किन्तु दूसरे पुरुष का नाम ना ले इस प्रकार क्षीण शरीर रखते हुए तथा ब्रह्मचारिणी का जीवन व्यतीत करती हुई आमरण सतीत्व जीवन बिताएं इससे वह स्वर्ग की अधिकारिणी होगी.
हिंदू विवाह एक संस्कार इसलिए माना जाता है कि वैवाहिक संबंध वर कन्या के मध्य किसी संविदा के परिणाम स्वरूप नहीं उत्पन्न होता है यह कन्या के पिता द्वारा वर को दिया गया एक प्रकार का दान है जो अत्यंत पवित्र एवं महत्वपूर्ण दान माना जाता है विवाह धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करके ही पूर्ण माना जाता है यदि धार्मिक कृत्य भली-भांति संपन्न नहीं किए गए तो विवाह विवाह नहीं माना जाता है विवाह पति-पत्नी के मध्य एक संस्कारात्मक योग माना जाता है जिसके अनुसार यह एक जन्म जन्मांतर का स्थाई संबंध माना गया है यह संबंध पति पत्नी के जीवन की किसी भी अवस्था में नहीं टूटता है.
हिंदू विवाह की इन्हीं मान्यताओं के कारण उसको संस्कारात्मक स्वरूप प्रदान किया गया था ना कि संविदा हिंदू विवाह वैसे भी संविदात्मक नहीं हो सकता क्योंकि यहां विवाह के पक्षकारों में कोई प्रस्ताव एवं स्वीकृति की बात नहीं होती जैसा कि मुस्लिम विधि में होता है विवाह में कन्या को माता-पिता द्वारा एक सुयोग्य वर को सम्मान स्वेच्छा से दान में दिए दे दिया जाता है जो उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करता है तथा उसको एक ग्रहणी की प्रतिष्ठा एवं आहार देने के लिए वचनबद्ध होती होता है ऐसी स्थिति में वर एवं कन्या अर्थात विवाह के पक्षकारों में संविदा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और विवाह का संस्कारात्मक रूप बना रहता है.
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 द्वारा विवाह विधि में किए गए महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी परिवर्तन हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में हिंदू विवाह विधि में बहुत महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं यह परिवर्तन निम्नलिखित हैं -
( 1) एक विवाह को विधितः प्रतिष्ठित किया गया है द्वि विवाह और बहुविवाह को दंडनीय बताया गया अर्थात पुरुष की एक पत्नी और स्त्री का एक पति होगा कोई भी एक दूसरे के काल में विवाह नहीं कर सकेगा.
( 2) विवाह विच्छेद की व्यवस्था की गई है
( 3) अंतरजातीय विवाह को मान्यता दी गई है
( 4) एकोदार संबंधों को मान्यता दी गई है
( 5) सपिंड के विस्तार क्षेत्र को कम एवं प्रतिषिद्ध नातेदारी को सीमित किया गया है
( 6 ) विवाह के राष्ट्रीयकरण की व्यवस्था की गई है
( 7) संरक्षकों की संख्या में वृद्धि की गई है एवं उनके कुल में परिवर्तन किया गया है
( 8) विवाह के संबंध में नए अनुतोषों का उपबंध किया गया है
( 9) शून्य एवं शून्यकरणीय विवाह की संतति की और सत्ता व्यवस्था की गई है
( 10) विवाह भंग के बाद संततियों की रक्षा के लिए नियम बना दिए गए हैं
( 11) सगोत्र विवाह को मान्यता दी गई है
इसके अलावा हिंदू विवाह (संशोधन) अधिनियम 1976 द्वारा भी हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में अनेक महत्वपूर्ण और गंभीर संशोधन किए गए हैं और विवाह विधि को आधुनिक विकासशील समाज की दशाओं और तत्संबंधी विचारों के आधिकारिक अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया गया है कुछ मुख्य संशोधन निम्नलिखित हैं -
( 1) न्यायिक पृथक्करण और विवाह विच्छेद के आधारों को स्वीकृत कर दिया गया है
( 2) यह स्पष्ट किया गया है कि विवाह किसी पक्षकार द्वारा विवाह को शून्य घोषित कराने की अर्जी विवाह के दूसरे पक्ष कार के जीवनकाल में ही दे दी जा सकती है.
( 3) शून्यकरणीय विवाह के संबंध में नपुंसकता और कपट के आधारों को विस्तृत किया गया है.
( 4) विवाह विच्छेद के आधारों को विस्तृत किया गया है और उन्हें नरम बनाया गया है क्रूरता अभि व्यंजन परस्पर सहमति तथा पत्नी के पक्ष में की गई भरण-पोषण की डिक्री विवाह विच्छेद के नये आधार बनाए गए हैं.
( 5) विवाह के 3 वर्ष के भीतर विवाह विच्छेद के लिए कोई आवेदन ना दाखिल कर सकने के उपबंध में संशोधन करके अवधि को 1 वर्ष कर दिया गया है इसी प्रकार विवाह विच्छेद की डिक्री और पुनर्विवाह के बीच 1 वर्ष का अंतराल होने के उपबंध को समाप्त कर दिया है.
( 6) संतानों को बाध्यता धर्मजात के उपबंध को नरम तथा स्पष्ट किया गया है
( 7) वैवाहिक कार्यवाही को शीघ्रता से निपटाने का उपबंध किया गया है.
इसके अलावा बाल विवाह निरोधक संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा विवाह की आयु को 18 वर्ष के स्थान पर 21 वर्ष तथा 15 वर्ष के स्थान पर 18 वर्ष कर दिया गया है.
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