दाखिल खारिज से क्या समझते ह ै? उत्तराधिकार के मामले में दाखिल खारिज की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए what do you mean by mutation ? describe the process of mutation on the ground of succession
दाखिल खारिज का अर्थ: - दाखिल खारिज का अर्थ होता है वार्षिक रजिस्टर में जोतदार के नाम का परिवर्तन. एक व्यक्ति का नाम खारिज होना (निकाल दिया जाना) एवं दूसरे का नाम उसके स्थान पर दाखिल (प्रविष्ट) किया जाना जब कभी भूमि के कब्जे में परिवर्तन होता है तो दाखिल खारिज की प्रक्रिया की जाती है.
दाखिल खारिज पक्रमी की प्रकृति रेवेन्यू मैनुअल के अनुच्छेद 911 के अंतर्गत दाखिल खारिज की प्रक्रिया न्यायिक प्रक्रिया(judicial proceeding)मानी गयी है।
किंतु न्यायिक निर्णय और राजस्व विधिशास्त्रियों के विचार इसके विपरीत है पृवी काउंसिल में निर्मल सिंह बनाम रुद्र प्रताप नारायण सिंह के वाद में यह निर्णय किया कि दाखिल खारिज न्यायिक प्रकृति की नहीं होती है किंतु मालगुजारी के भुगतान की जांच से संबंधित है राजस्व विधिशास्त्रीयों थॉमसन ने लिखा है कि एक तथ्य है यह स्वामियों के रजिस्टर में इन्दराज है ताकि दर्ज व्यक्तियों से कलेक्टर मालगुजारी वसूल करें.
दाखिल खारिज करने वाला न्यायालय एक संक्षिप्त विचारण न्यायालय होता है और इसका मुख्य ध्येय हैं कि खतौनी मे बिना प्रविष्ट के किसी भी कृषि भूमि को ना छोड़ा जाए न्यायमूर्ति बी एल यादव ने श्रीमती लखपति बनाम रेवेन्यू बोर्ड के उस वाद में यह कहा -
उत्तर प्रदेश भू राजस्व अधिनियम की धारा 324 के अंतर्गत प्रक्रिया राजकोषीय है जो केवल मालगुजारी के मामले से संबंधित है यह प्रक्रिया है पत्रकारों के अधिकारियों बातों का विनिश्चय नहीं करती है दाखिल खारिज प्रक्रिया का उद्देश्य यह है कि सरकार भूमि की मालगुजारी किस से वसूल करें अतः सरकार के लिए यह तुरंत आवश्यक हो जाता है कि मृतक के उत्तराधिकारी का नाम उसके स्थान पर दाखिल किया जाए ताकि मालगुजारी उससे वसूल किया जा सके इस प्रक्रिया का क्षेत्र यह नहीं है कि किसी व्यक्ति के किसी अधिकारी या स्वास्थ्य का निर्णय किया जाए.
दाखिल खारिज की प्रक्रिया तब होती है जब भूमि के कब्जे में कोई परिवर्तन होता है या परिवर्तन दो प्रकार से हो सकता है -
( 1) उत्तराधिकार द्वारा
( 2) अंतरण द्वारा
विजय शंकर बनाम एडिशनल कमिश्नर उक्त याचिका के माध्यम से याची ने भू राजस्व अधिनियम की धारा 34 के अधीन नायब तहसीलदार उप जिला अधिकारी एवं अपर आयुक्त द्वारा पारित आदेशों को चुनौती दी थी याचिका मुख्य विवादित बिन्दु था कि याची के पक्ष में मूल जोतदार श्रीमती चंदन ने वसीयत 26.10 .1995 को निष्पादित कर दी थी दाखिल खारिज प्रार्थना पत्र के विरुद्ध वसीयतकर्ती की पुत्रियों ने अपनी आपत्ति उठाई की वसीयत संदिग्ध है तथा याची के पक्ष में कोई वसीयत नहीं की गई है याचिका दाखिल खारिज प्रार्थना पत्र तहसीलदार द्वारा निरस्त कर दिया गया था तथा मृतिका का पुत्रियों के पक्ष में अधिनियम की धारा 174 के आधार पर वसीयत किया गया तत्पश्चात अपील एवं निगरानी भी निरस्त की गई उक्त आदेशों के उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी याचिका निरस्त करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि रिट याचिका तभी पोषणीय मानी जाएगी जबकि आदेश बिना क्षेत्राधिकार के पारित हुआ हो नियमित वाद में पारित आदेशों के विपरीत आदेश पारित आदेश हो जहां न्यायालय ने गुणागुण पर कोई आदेश ना पारित किया हो तथा आदेश कपट पूर्ण तरीके से प्राप्त किया गया था.
( 1) उत्तराधिकार द्वारा: - जब कोई व्यक्ति उत्तराधिकार द्वारा किसी जोत पर कब्जा करता है तो कानूनगो ऐसी जांच करेगा जो निर्धारित हो और यदि मामलों में किसी प्रकार का नहीं है तो उसका नाम वार्षिक रजिस्टर में दर्ज कर देगा.
सुपरवाइजर कानूनगो का यह कर्तव्य है कि जब उसे पता चले कि अमुक जोतदार की मृत्यु हो गई और उसके अमुक उत्तराधिकारी हैं तो वह उसकी जांच करें और यदि उत्तराधिकार विवाद रहित है तो मृतक का नाम काटकर उत्तराधिकारियों का नाम दर्ज कर दें किंतु यह एक कुख्यात तथ्य है कि राजस्व प्रशासन अधिकारियों में लेखपाल के बाद दूसरे नंबर का भ्रष्ट अधिकारी यदि कोई है तो वह कानूनगो है जिसका की सरकारी काम भी बिना अवैध उपहार के नहीं होता है अधिकांश आम जनता का विचार है चाहे गलत या सही कानूनगो जो कुछ कार्य करता है वह सद्भावना या अच्छी नियत से नहीं वरन बाह्य प्रतिफल के परिणाम स्वरूप.
विधान मंडल को यह जानकारी थी कि कानूनगो को अपना कर्तव्य कहां तक निभाते हैं इसलिए निर्विवाद उत्तराधिकार के दाखिल खारिज के लिए धारा 34 में वैकल्पिक उपबंध किया गया है इस अधिनियम की धारा 34 यह उपबंधित करती है कि प्रत्येक व्यक्ति जो उत्तराधिकार को 3 महीने के अंदर देनी चाहिए यह तीन मास उस दिन से गिना जाएगा जिस दिन उसे यह सूचना मिलती है कि कानूनगो ने उसका नाम धारा 33 - क (1) के अंतर्गत दाखिल नहीं किया है.
धारा34 के अंतर्गत उत्तराधिकार की रिपोर्ट मिलने पर या किसी अन्य तरीके से उसकी जानकारी में आने से तहसीलदार ऐसी जांच करेगा जो उसे आवश्यक जान पड़े और जब उसे प्रतीत हो कि उत्तराधिकार का यह मामला विवाद रहित है तो वह आदेश देगा की वार्षिक रजिस्टर या खतौनी संशोधित कर दी जाए.
अगर यह उत्तराधिकार का मामला विवाद ग्रस्त है तो तहसीलदार धारा40 के उपबंध के अनुसार विवाद का फैसला करने के पश्चात ही वार्षिक रजिस्टर में परिवर्तन का आदेश देंगे .धारा 40 यह प्रावधानित करती है कि नाम परिवर्तन के संबंध में सभी झगड़े कब्जे के आधार पर तय किए जाएंगे यदि परिस्थितियां ऐसी है कि तहसीलदार संतुष्ट नहीं है कि कौन काबिज है तो वह सरसरी जांच करेगा की भूमि पर सबसे ज्यादा मजबूत हक किसका है और फिर वह ऐसे व्यक्ति को कब्जे में रखेगा कब्जा का अर्थ में कब्जा पाने का अधिकार भी शामिल है कोई भी व्यक्ति जो तहसीलदार के आदेश से संतुष्ट नहीं है वह सक्षम राजस्व न्यायालय में वाद दायर कर सकता है उच्चतम न्यायालय ने मलखान सिंह बनाम मोहन सिंह मे कहा है कि यह सुस्थापित विधि है कि दाखिल खारिज प्रक्रिया पक्षकारों के अधिकारों और आगम का अवधारण नहीं करती है और इस कारण क्षुब्ध पक्षकार के लिए दाखिल खारिज प्रक्रिया में हुए विरुद्ध आदेश के बावजूद भी यह मार्ग सदैव खुला है कि यह अपने अधिकार का विनिश्चय न्यायालय द्वारा करा सके.
( 2) अंतरण द्वारा: - जब अंतरण द्वारा भूमि के कब्जे में परिवर्तन हो तो काबिज व्यक्ति को नाम परिवर्तन के लिए तहसीलदार के यहां रिपोर्ट करनी चाहिए रिपोर्ट की मियाद अवधि 3 मास है यह 3 मास विक्रेता दान वक्फ द्वारा अंतरण में अंतरण तिथि से 3 माह और यदि पट्टे द्वारा अंतरण हुआ है तो कब्जा प्राप्ति से 3 मास गिना जाएगा यहां अंतरण शब्द विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और इस शब्द में शामिल है -
( 1) ऐसा पारिवारिक समझौता जिसके द्वारा उस परिवार के किसी एक या एक अधिक सदस्यों के नाम में अधिकार अभिलेख में दर्ज जोत के भाग को किसी दूसरे या अन्य सदस्यों का होना प्रख्यापित किया जाए या
( 2) उत्तर प्रदेश जमीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 की धारा 161 के अधीन जोत या उसके भाग का विनिमय प्रख्यापित किया जाए
पारिवारिक समझौता कर एक परिवार के सदस्य नजदीकी रिश्तेदार अपने मतभेद और झगड़ों को समाप्त कर अपने अपने विरोधी दावों या विवादों को सदा के लिए समाप्त कर देते हैं ताकि उन्हें पूर्ण शांति मिल सके और परिवार का अच्छा संबंध बना रहे पारिवारिक समझौते का उद्देश्य होता है कि परिवार को उन बहुत दिनों से चलने वाली मुकदमे बाजी को या निरंतर संघर्ष को समाप्त कर दिया जाए जिससे कि परिवार की शांति में बाधा पहुंचती थी और अनेक सदस्यों में लडाई और दुर्भावना का वातावरण व्याप्त था काले बनाम चकबंदी उप निर्देशक के वाद में पारिवारिक समझौते के रूप में पुत्री क पुत्री ख और मृत पुत्री ग के पुत्र काले के मध्य एक समझौता हुआ था इस समझौते के आधार पर उनके नाम का दाखिल खारिज भी रेवेन्यू कागजात में हो गया जो जो संपत्ति उन लोगों को दी गई थी उन पर लोगों ने कब्जा किया और मालगुजारी अपने कब्जे वाले भाग पर देते रहे इस प्रकार से झगड़ा अंतिम रूप से तय हो गया और सभी पक्षकारों ने समझौते को मान लिया था और उससे लाभ भी प्राप्त किया था किंतु इस समझौते के 7 वर्ष पश्चात चकबंदी के दौरान विवाद उठा.
हाईकोर्ट ने समझौते को मानने और बाध्यकारी ठहराया उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पारिवारिक समझौते से बाध्य होने के लिए निम्न वर्णित बातों का होना आवश्यक है -
( 1) इसे सदभावना पूर्वक किया गया होता कि परिवार का विवाद और विरोधी दावे परिवार के विभिन्न सदस्यों के मध्य संपत्ति का उचित और न्याय युक्त विभाजन कर तय होना चाहिए
( 2) उक्त समझौता स्वेच्छा पूर्वक किया गया हो और किसी प्रकार का कपाट या जोर जबरदस्ती ना हुई हो
अगर पारिवारिक समझौता मौखिक है तो इसकी रजिस्ट्री अवश्य नहीं है पारिवारिक समझौते की शर्ते लिखित हो तो उनकी रजिस्ट्री होना आवश्यक है
अगर मौखिक समझौता के अनुसार उन पर अमल किया जा चुका है और किसी समय पश्चात उसे लेखबध्य कर लिया जाता है ताकि उनका रिकॉर्ड रहे या न्यायालय के सूचना के लिए या दाखिल खारिज कराने के लिए ऐसे कागजात की रजिस्ट्री जरूरी नहीं है
धारा 324 के अंतर्गत अंतरण की रिपोर्ट मिलने पर या किसी अन्य तरीके से उसकी जानकारी होने पर तहसीलदार ऐसी जांच करेगा जो उसे आवश्यक जान पड़े और यदि यह प्रतीत होगी अंतरण हुआ है तो वह खसरा खतौनी को तदनुसार संशोधित करने का निर्देश देगा यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि अब उत्तराधिकार और अंतरण के मामले में दाखिल खारिज करने का अधिकार तहसीलदार को है किंतु उत्तर प्रदेश भूमि विधि संशोधन अधिनियम 1975 के लागू होने के पूर्व उत्तराधिकार के मामले में दाखिल खारिज करने का अधिकार तहसीलदार को था और अंतरण के मामले में कलेक्टर को.
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