Skip to main content

भारत में दहेज हत्या में क्या सजा का प्रावधान है ? विस्तार से चर्चा करो।

आपराधिक मामले में सरकार, अभियुक्त और पीड़ित की भूमिका क्या होता है पीड़ित या अभियुक्त की मृत्यु पर?

अपराध, पीड़ित और अभियुक्त की भूमिका कानून में क्या होता है?

भारत में कानून और न्यायिक व्यवस्था को समझना कभी-कभी जटिल हो सकता है, खासकर जब बात किसी आपराधिक मामले की होती है। किसी भी आपराधिक मामले में आमतौर पर तीन मुख्य पक्ष होते हैं: सरकार (स्टेट), अभियुक्त, और पीड़ित। चलिए इस ब्लॉग में एक सरल भाषा में समझते हैं कि आपराधिक मामले में सरकार, अभियुक्त और पीड़ित की क्या भूमिका होती है और इनकी मृत्यु का मुकदमे पर क्या असर पड़ता है।

आपराधिक मामला कैसे काम करता है?
हर आपराधिक मामला सरकार और अभियुक्त के बीच होता है। अभियुक्त वह व्यक्ति है जिस पर किसी अपराध का आरोप है, और सरकार मुकदमा चलाती है। क्योंकि अपराध देश के कानूनों के खिलाफ होता है, इसलिए यह माना जाता है कि अपराधी ने सरकार यानी “स्टेट” के खिलाफ अपराध किया है, न कि किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ। 

उदाहरण:→मान लीजिए कि कोई व्यक्ति लापरवाही से गाड़ी चला रहा है, जिससे किसी व्यक्ति को चोट लग जाती है। यहां पर, चोट खाने वाला व्यक्ति पीड़ित है, लेकिन अपराध “स्टेट” के खिलाफ माना जाएगा। इस वजह से सरकार उस व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा चलाएगी जिसने लापरवाही की है। यदि दोष साबित होता है, तो न्यायालय उस अभियुक्त को सजा सुनाती है।

पीड़ित की मृत्यु का प्रभाव:→
अगर किसी आपराधिक मामले में पीड़ित की मौत हो जाती है, तो इससे मुकदमे पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। न्यायालय का काम अपराध के खिलाफ न्याय करना होता है और पीड़ित की मौत का मतलब यह नहीं है कि मुकदमा समाप्त हो जाएगा। 

उदाहरण:→ मान लीजिए किसी व्यक्ति पर चाकू से हमला हुआ और उस व्यक्ति ने अदालत में गवाही भी दी। अगर बाद में उसकी मौत हो जाती है, तो मुकदमा फिर भी चलेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार यानी “स्टेट” अपराध के खिलाफ मुकदमा चला रही है, न कि उस व्यक्ति के व्यक्तिगत तौर पर। 

पीड़ित की मृत्यु पर उत्तराधिकारियों का हस्तक्षेप:→
कुछ विशेष मामलों में, जैसे चेक बाउंस (धारा 138, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट), अगर पीड़ित की मृत्यु हो जाती है, तो उसके कानूनी उत्तराधिकारी अदालत में आवेदन कर सकते हैं कि वे मामले को आगे बढ़ाना चाहते हैं। वे मुआवजे की मांग भी कर सकते हैं, जो कि पीड़ित को मिलना था।

अभियुक्त की मृत्यु का प्रभाव:→
यदि किसी मामले में अभियुक्त की मृत्यु हो जाती है, तो स्थिति थोड़ी भिन्न होती है। सामान्य रूप से, अभियुक्त की मृत्यु पर मामला समाप्त मान लिया जाता है। क्योंकि अभियुक्त को दोषी साबित किए बिना किसी को दंडित नहीं किया जा सकता, उसकी मृत्यु का मतलब है कि अब उस पर कोई फैसला नहीं हो सकता।

हालांकि, यदि अभियुक्त के परिवार को लगता है कि अभियुक्त निर्दोष था और वे उसकी प्रतिष्ठा की रक्षा करना चाहते हैं, तो वे अदालत में आवेदन कर सकते हैं कि मामला चलाया जाए। ऐसा विशेष रूप से उत्तराधिकार के मामलों में देखा जाता है। उत्तराधिकार कानून के अनुसार, अगर किसी ने हत्या जैसे गंभीर अपराध किए हों तो वह उत्तराधिकार का हक नहीं रखता। ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि अदालत यह तय करे कि वह व्यक्ति दोषी था या नहीं।

उदाहरण:→ मान लीजिए किसी व्यक्ति पर हत्या का आरोप था, लेकिन मुकदमा खत्म होने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। अगर वह व्यक्ति दोषी साबित होता तो उसे उत्तराधिकार नहीं मिलता। अब उसके परिवार वाले मुकदमे को आगे चलाने की मांग कर सकते हैं ताकि यह साबित हो सके कि वह निर्दोष था और उत्तराधिकार मिल सके।

 एक से अधिक अभियुक्त होने पर मामला कैसे प्रभावित होता है?
कई मामलों में एक से अधिक अभियुक्त होते हैं। अगर एक अभियुक्त की मृत्यु हो जाती है, तो मुकदमा बाकी अभियुक्तों पर चलता रहता है। अभियोजन किसी भी दोषी को दंडित किए बिना समाप्त नहीं होता। 

उदाहरण:→ मान लीजिए किसी डकैती के मामले में चार अभियुक्त हैं। अगर उनमें से एक अभियुक्त की मृत्यु हो जाती है, तो बाकी अभियुक्तों पर मुकदमा चलता रहेगा। यदि दोष साबित होता है, तो जीवित अभियुक्तों को सजा दी जाएगी।

निष्कर्ष:→
भारत में आपराधिक कानूनों का आधार यह है कि अपराध किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि पूरे समाज के खिलाफ होता है। इसलिए अपराधी के खिलाफ मुकदमा सरकार चलाती है। अभियुक्त या पीड़ित की मृत्यु का मतलब यह नहीं कि न्यायालय का कार्य समाप्त हो जाता है। न्यायालय का कर्तव्य होता है कि वह मामले का निपटारा करे और दोषी को सजा दे, भले ही यह काम मुकदमे के अंत में तय हो।

इस प्रकार, न्यायिक व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि हर मामले में न्याय हो, चाहे मामला कितना ही लंबा क्यों न चले।


कुछ ऐसे रोचक और चर्चित मामले रहे हैं जिनमें अभियुक्त या पीड़ित की मृत्यु के बाद अदालत ने निर्णयों पर पुनर्विचार किया। इन मामलों में अदालत को कई बार कानून के व्याख्या को फिर से परखने की आवश्यकता पड़ी। आइए, कुछ ऐसे प्रमुख मामलों को देखें:→

 1.नीरज ग्रोवर मर्डर केस (Neeraj Grover Murder Case):→
   •मामले की पृष्ठभूमि→: नीरज ग्रोवर की हत्या वर्ष 2008 में मुंबई में हुई थी। इस मामले में कन्नड़ अभिनेत्री मारिया सुसैरा और उनके बॉयफ्रेंड एमिल जेरोम को अभियुक्त बनाया गया था। हत्या का कारण व्यक्तिगत प्रतिशोध था। 
   •कोर्ट का निर्णय→: पहले निचली अदालत ने दोनों अभियुक्तों को हत्या के आरोप में दोषी माना और उन्हें सजा सुनाई। परंतु, मामले की अपील के बाद उच्च न्यायालय ने मारिया की सजा में कमी की। अभियुक्तों की मानसिक स्थिति और परिस्थितियों का अध्ययन कर, कोर्ट ने निर्णय पर पुनर्विचार किया और सजा को संशोधित किया।

 2.नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य (Nanavati vs. State of Maharashtra):→
   •मामले की पृष्ठभूमि→: यह 1959 का एक ऐतिहासिक केस है, जिसमें नौसेना अधिकारी केएम नानावटी ने अपनी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा की हत्या कर दी थी। उन्होंने आत्मसमर्पण करते हुए कहा कि उन्होंने परिवार की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए हत्या की।
   •कोर्ट का निर्णय→: इस मामले में शुरुआती तौर पर नानावटी को निर्दोष मानते हुए बरी कर दिया गया, लेकिन बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और उन्हें दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। यह केस भारतीय न्यायिक प्रणाली में जूरी सिस्टम को समाप्त करने का कारण भी बना।

3. प्रियांशु केस (Priyanshu Case):→
   •मामले की पृष्ठभूमि→: प्रियांशु नामक एक 6 वर्षीय बच्ची की हत्या के मामले में उसके पिता और अन्य रिश्तेदारों को दोषी ठहराया गया था। निचली अदालत ने इन्हें सजा सुनाई, परंतु बाद में यह मामला विवादास्पद बन गया।
   •कोर्ट का निर्णय→: उच्च न्यायालय में अपील के बाद, मामले की फिर से जांच की गई। अदालत ने पाया कि सबूत पर्याप्त नहीं थे और केस में कई त्रुटियाँ थीं। इसके बाद, अभियुक्तों को बरी कर दिया गया। इस मामले ने पुलिस जांच और सबूतों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए।

4.आरूषि तलवार और हेमराज मर्डर केस (Aarushi Talwar and Hemraj Murder Case):→
   •मामले की पृष्ठभूमि→: वर्ष 2008 में आरूषि तलवार और उनके घरेलू सहायक हेमराज की हत्या का मामला भारत में काफी चर्चित हुआ। शुरुआत में, आरूषि के माता-पिता को दोषी ठहराया गया।
   •कोर्ट का निर्णय→: सीबीआई अदालत ने तलवार दंपत्ति को दोषी मानकर उम्रकैद की सजा सुनाई। परंतु, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सबूतों के अभाव में उन्हें बरी कर दिया। इस मामले में कई बार अदालत ने साक्ष्यों के अभाव और अलग-अलग निष्कर्षों के कारण अपने निर्णयों में बदलाव किए।

5.संतोष सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन (Santosh Singh vs. Delhi Administration):→
   •मामले की पृष्ठभूमि→: 1996 में हुए प्रियदर्शनी मट्टू मर्डर केस में अभियुक्त संतोष सिंह पर हत्या का आरोप था। यह मामला वर्षों तक खिंचता रहा और अंततः संतोष सिंह को बरी कर दिया गया।
   कोर्ट का निर्णय→: जब इस मामले को उच्च न्यायालय में फिर से खोला गया, तो संतोष सिंह को हत्या का दोषी पाया गया और उन्हें सजा सुनाई गई। यह मामला तब पुनः खुला जब मट्टू के परिवार ने उच्च न्यायालय में अपील की। अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने संतोष सिंह को दोषी मानते हुए फांसी की सजा दी, जिसे बाद में आजीवन कारावास में बदल दिया गया। 

6.सुखराम टेलिकॉम घोटाला केस (Sukh Ram Telecom Scam Case):→
  मामले की पृष्ठभूमि→: पूर्व संचार मंत्री सुखराम पर 1996 में टेलिकॉम घोटाले में भ्रष्टाचार का आरोप था। इस मामले में भ्रष्टाचार के कारण जनता का विश्वास टूट गया था।
   कोर्ट का निर्णय→: निचली अदालत ने सुखराम को दोषी मानते हुए उन्हें तीन साल की सजा दी। इसके बाद उन्होंने उच्च न्यायालय में अपील की, और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा और सुखराम को सजा दी। सुखराम की उम्र को देखते हुए सजा को कम किया गया, परंतु उन्हें दोषी माना गया।

निष्कर्ष:→
इन मामलों में अदालत ने समय-समय पर सबूतों, गवाहों और परिस्थितियों के आधार पर अपने निर्णयों में बदलाव किए। इन केसों ने न्यायिक प्रणाली को और भी सटीक और मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

Comments

Popular posts from this blog

असामी कौन है ?असामी के क्या अधिकार है और दायित्व who is Asami ?discuss the right and liabilities of Assami

अधिनियम की नवीन व्यवस्था के अनुसार आसामी तीसरे प्रकार की भूधृति है। जोतदारो की यह तुच्छ किस्म है।आसामी का भूमि पर अधिकार वंशानुगत   होता है ।उसका हक ना तो स्थाई है और ना संकृम्य ।निम्नलिखित  व्यक्ति अधिनियम के अंतर्गत आसामी हो गए (1)सीर या खुदकाश्त भूमि का गुजारेदार  (2)ठेकेदार  की निजी जोत मे सीर या खुदकाश्त  भूमि  (3) जमींदार  की बाग भूमि का गैरदखीलकार काश्तकार  (4)बाग भूमि का का शिकमी कास्तकार  (5)काशतकार भोग बंधकी  (6) पृत्येक व्यक्ति इस अधिनियम के उपबंध के अनुसार भूमिधर या सीरदार के द्वारा जोत में शामिल भूमि के ठेकेदार के रूप में ग्रहण किया जाएगा।           वास्तव में राज्य में सबसे कम भूमि आसामी जोतदार के पास है उनकी संख्या भी नगण्य है आसामी या तो वे लोग हैं जिनका दाखिला द्वारा उस भूमि पर किया गया है जिस पर असंक्रम्य अधिकार वाले भूमिधरी अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते हैं अथवा वे लोग हैं जिन्हें अधिनियम के अनुसार भूमिधर ने अपनी जोत गत भूमि लगान पर उठा दिए इस प्रकार कोई व्यक्ति या तो अक्षम भूमिधर का आसामी होता ह...

पार्षद अंतर नियम से आशय एवं परिभाषा( meaning and definition of article of association)

कंपनी के नियमन के लिए दूसरा आवश्यक दस्तावेज( document) इसके पार्षद अंतर नियम( article of association) होते हैं. कंपनी के आंतरिक प्रबंध के लिए बनाई गई नियमावली को ही अंतर नियम( articles of association) कहा जाता है. यह नियम कंपनी तथा उसके साथियों दोनों के लिए ही बंधन कारी होते हैं. कंपनी की संपूर्ण प्रबंध व्यवस्था उसके अंतर नियम के अनुसार होती है. दूसरे शब्दों में अंतर नियमों में उल्लेख रहता है कि कंपनी कौन-कौन से कार्य किस प्रकार किए जाएंगे तथा उसके विभिन्न पदाधिकारियों या प्रबंधकों के क्या अधिकार होंगे?          कंपनी अधिनियम 2013 की धारा2(5) के अनुसार पार्षद अंतर नियम( article of association) का आशय किसी कंपनी की ऐसी नियमावली से है कि पुरानी कंपनी विधियां मूल रूप से बनाई गई हो अथवा संशोधित की गई हो.              लार्ड केयन्स(Lord Cairns) के अनुसार अंतर नियम पार्षद सीमा नियम के अधीन कार्य करते हैं और वे सीमा नियम को चार्टर के रूप में स्वीकार करते हैं. वे उन नीतियों तथा स्वरूपों को स्पष्ट करते हैं जिनके अनुसार कंपनी...

कंपनी के संगम ज्ञापन से क्या आशय है? What is memorandum of association? What are the contents of the memorandum of association? When memorandum can be modified. Explain fully.

संगम ज्ञापन से आशय  meaning of memorandum of association  संगम ज्ञापन को सीमा नियम भी कहा जाता है यह कंपनी का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। हम कंपनी के नींव  का पत्थर भी कह सकते हैं। यही वह दस्तावेज है जिस पर संपूर्ण कंपनी का ढांचा टिका रहता है। यह कह दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह कंपनी की संपूर्ण जानकारी देने वाला एक दर्पण है।           संगम  ज्ञापन में कंपनी का नाम, उसका रजिस्ट्री कृत कार्यालय, उसके उद्देश्य, उनमें  विनियोजित पूंजी, कम्पनी  की शक्तियाँ  आदि का उल्लेख समाविष्ट रहता है।         पामर ने ज्ञापन को ही कंपनी का संगम ज्ञापन कहा है। उसके अनुसार संगम ज्ञापन प्रस्तावित कंपनी के संदर्भ में बहुत ही महत्वपूर्ण अभिलेख है। काटमेन बनाम बाथम,1918 ए.सी.514  लार्डपार्कर  के मामले में लार्डपार्कर द्वारा यह कहा गया है कि "संगम ज्ञापन का मुख्य उद्देश्य अंश धारियों, ऋणदाताओं तथा कंपनी से संव्यवहार करने वाले अन्य व्यक्तियों को कंपनी के उद्देश्य और इसके कार्य क्षेत्र की परिधि के संबंध में अवग...