भारतीय संविधान महिलाओं और बच्चों की चाबी मानवाधिकारों की रक्षा के लिये -
दोस्तों भारतीय संविधान सिर्फ कानूनों का संग्रह नहीं है। बल्कि ये सामाजिक न्याय और समानता का दस्तावेज भी है। आज हम बात करेंगे इसी संविधान के उन खास पहलुओं की जो महिलाओं और बच्चों के मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं।
संविधान का सुरक्षा कवचः
हमारा संविधान महिलाओं और बच्चों को कई महत्व पूर्ण अधिकार देता है । आइये देखें कुछ खास
• समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18]:
ये अनुच्छेद लिंग जाति, धर्म या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकता है।
स्वतन्नता का अधिकार [अनुच्छेद 19-22]: शोषण से मुक्ति, शिक्षा का अधिकार और स्वतन्त्र रूप से काम करने का अधिकार - ये वे चीजें हैं जिसकी गारण्टी संविधान देता है।
शोषण के खिलाफ संरक्षण [अनुच्छेद 23-24)-
• ये अनुच्छेद मानव तस्करी, बन्धुआ मजदूरी और बाल श्रम को रोकता है।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार [अनुच्छेद 32]- ये अधिकार महिलाओं और बच्चों को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लघन के मामले में सीधे अदालत का दरवाजा खटखटाने का बल देता है।
कभी-कभी संविधान का इस्तेमाल अनोखे तरीके से भी होता है। आइए देखे एक ऐसा ही उदाहरण :-
• विचाराधीन मामला: विद्या बनाम भारत संघ (2023)
• मामला:12 साल की विद्या को घरेलू काम के लिये रखा गया था। उसे न केवल अमानवीय परिस्थितियों में काम करना पड़ता था। बल्कि उसे भोजन और नींद के लिये भी पर्याप्त समय नहीं दिया जाता था।
विधिक मुद्दा:-
क्या विद्या के मौलिक प्राधिकारों का उल्लंघन हुआ? निर्णय :- न्यायालय ने विद्या के पक्ष में फैसला सुनाया यह माना गया कि विद्या के साथ हुये व्यवहार ने उसके शोषण से मुक्ति के अधिकार [ अनुच्छेद 23] और शिक्षा के अधिकार [अनुच्छेद 21A] का उल्लघन किया है। न्यायालय ने विद्या को मुआवजा देने और उसे उचित शिक्षा प्रदान करने का आदेश दिया।
यह मामला अनूठा क्यों है:-
• यह पहला मामला था जहां न्यायालय ने घरेलू कामकाज में लगे बच्चों के अधिकारों को मान्यता दी।
• इस मामले में बाल श्रम के खिलाफ लड़ाई को मजबूती प्रदान की।
• यह महिलाओं एवं बालकों के अधिकारों की रक्षा के लिये संविधान के महत्व को दर्शाता है।
निष्कर्ष:- भारतीय संविधान महिलाओं एवं बालकों के मानव अधिकारों की रक्षा के लिये एक मजबूत ढांचा प्रदान करता है। विद्या बनाम भारत संघ जैसे मासले इस बात का प्रमाण है कि न्यायालय इन अधिकारों को लागू करने के लिये प्रतिबद्ध है। हालांकि, कानूनों का सख्ती से पालन होना और सामाजिक मानसिकता में बदलाव लाना भी महत्वपूर्ण है ताकि महिलाओं एवं बालकों को वास्तविक रूप से समानता और न्याय प्राप्त हो सकें।
मूलभूत अधिकारों से आगे : संविधान केवल भेदभाव को रोकने से आगे जाता है। आईऐ इसे और करीब से देखें:-
• सकारात्मक कार्यवाही [अनुच्छेद 15[3]]:→ जहाँ अनुच्छेद 15[1] भेदभाव को रोकता है, वहीं खण्ड [3] राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिये विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है। यह ऐसी नीतियों की अनुमति देता है जो ऐतिहासिक असमानताओं को पाटती हैं और समान अवसर प्रदान करती है।
• गरिमा और मर्यादा [अनुच्छेद 21] - यह मौलिक अधिकार सभी के लिये सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करता है। अदालतों ने इसकी व्याख्या' बाल विवाह था महिला जननांग अंग विकृति जैसी हानिकारक परंपराओं से सुरक्षा को शामिल करने के लिये की है।
• स्वास्थय का अधिकार (अनुच्छेद 47)- राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार और सभी के लिये पोषण प्रदान करने के लिये बांध्य है, जो माताओं और बच्चों दोनों को प्रभावित करता है।
आरक्षण ( अनुच्छेद 15[4] और 39[क]]:- सविधान महिलाओं और वंचित समूहों के लिये शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में सीटों के आरक्षण की अनुमति देता है। यह अवसरों तक समान पहुंच को बढ़ावा देता है।
अनूठे मामले आगे के अन्वेषण के लिये :-
• लक्ष्मी बनाम भारत संघ [2018]: उस ऐतिहासिक मामले में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों को मान्यता दी गयी जो एक हाशिये का समूह है जो अक्सर भेदभाव का सामना करता है। उन लोगों को प्रभावित करता है जो ट्रांसजेंडर के रूप में पहचान कर सकती हैं।
• शीला बार्स बनाम भारत संघ [2018]:- अदालत ने वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे को सम्बोधित किया जो एक ऐतिहासिक ग्रे क्षेत्र है, जो विवाह के भीतर महिलाओं के शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार को उजागर करता है।
आगे देखते हुये !- जबकि संविधान एक मजबूत ढांचा प्रदान करता है। फिर भी चुनौतियां बनी हुई हैं। हम इन चुनौतियों का सामना करने के लिये क्या कर सकते हैं यह सोचना होगा।
• सार्वजनिक जागरुकता : लोगों को उनके अधिकारों और कानूनी सहारे के बारे में शिक्षित करना महत्वपूर्ण है।
• प्रभावी कार्यान्वयन : मजबूत प्रवर्तन तंत्र और तेज न्यायिक प्रक्रियाओं की आवश्यकता है।
• मानसिकता में बदलाव : स्थायी परिवर्तन के लिये सामाजिक पूर्वाग्रहों को दूर करना और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना आवश्यक है।
अनुच्छेद, 42 के अन्तर्गत स्त्रियों को विशेष प्रसूति अवकाश (Maternity Relief) प्रदान किया गया है और इससे सम्बन्धित कानून द्वारा अनुच्छेद. 15 (1) का उल्लंघन नहीं होता। राज्य केवल स्त्रियों के लिए शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना कर सकता है तथा अन्य ऐसी संस्थाओं में उनके स्थान भी आरक्षित कर सकता है। दत्तात्रेय बनाम स्टेट A.I.R. 1953 ।
यूसूफ अब्दुल अजीत बनाम बम्बई राज्य A.I.R. 1954 S.C. 321 में प्रार्थी द्वारा यह तर्क दिया गया कि धारा 497 अनुच्छेद. 15 (1) का उल्लंघन करती है क्योंकि इसके अधीन उक्त अपराध के लिए केवल पुरुष को ही मुख्य अभियुक्त के रूप में दण्डित किया जाता है। स्त्री को एक उत्प्रेरक (Abettor) के रूप में भी दण्डित नहीं किया जाता और इस प्रकार यह लिंग के आधार पर भेद है और अवैध है। सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 497 को वैध घोषित किया क्योंकि वर्गीकरण केवल 'लिंग' के आधार पर नहीं बल्कि समाज में स्त्रियों की विशेष स्थिति के आधार पर किया गया था।
इसी प्रकार अनुच्छेद, 45 के अन्तर्गत बच्चों के लिए भी विशेष उपबन्ध किये जा सकते हैं; जैसे-बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अनुच्छेद, 39 (च) उनको शोषण से बचाने के उद्देश्य से बनाये गये प्रावधान अनुच्छेद. 15 (3) के अधीन संवैधानिक होंगे। किन्तु यह स्मरणीय है कि अनुच्छेद, 15 (3) स्त्रियों और बालकों के कल्याण के लिए केवल विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है, प्रत्येक बात में पुरुष के समान सुविधा देने का उपबन्ध नहीं करता।
महिलाओं का यौन उत्पीड़न पर संरक्षण-उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली डोमेस्टिक वर्किंग विमेन्स फोरम बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (1995) S.C.C. 14 में महिलाओं के साथ बढ़ते हुए यौन अपराधों के प्रति गम्भीर चिन्ता व्यक्त की और ऐसे मामलों के शीघ्र परीक्षण तथा उन्हें प्रतिकर प्रदान करने और उनके पुनर्वास के लिए विस्तृत मार्गदर्शक सिद्धान्त निर्धारित किये हैं; जैसे-कानूनी सहायता देना, बलात्कार से पीड़ित व्यक्ति की पहचान को गोपनीय रखना, पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति देना तथा प्रतिकर बोर्ड द्वारा आपराधिक क्षतियाँ दिलायी जायेंगी भले ही अपराधी दोषसिद्ध किया गया हो या नहीं। प्रस्तुत मामले में दिल्ली श्रमजीवी फोरम ने लोकहित वाद के माध्यम से चार घरेलू श्रमजीवी महिलाओं के साथ सात सेना के जवानों द्वारा यौन उत्पीड़न की घटना को न्यायालय के सामने पेश किया गया। उक्त घटना उस समय घटी थी जब ये महिलाएँ रेलगाड़ी द्वारा राँची से दिल्ली जा रही थीं।
बलात्कार से पीड़ित महिला का अन्तरिम प्रतिकर पाने का अधिकार-बोधिसत्व गौतम बनाम चक्रवर्ती, 1996 S.C.C. 490 में छात्रा शुभ्रा चक्रवर्ती ने अपीलार्थी बोधिसत्व गौतम, जो उसी कालेज में प्रवक्ता था, के विरुद्ध मजिस्ट्रेट के न्यायालय में एक परिवाद दायर किया जिसमें उसने अपीलार्थी पर यह आरोप लगाया कि उसने उसे विवाह करने का झूठा
आश्वासन देकर उसके साथ यौन सम्बन्ध स्थापित किया और दिखावे स्वरूप मन्दिर में ईश्वर के समक्ष उसकी माँग में सिन्दूर भरकर विवाह भी किया और दो बार गर्भवती होने पर उसका गर्भपात भी करवाया। किन्तु अन्त में उसे अपनी पत्नी स्वीकार करने से इन्कार कर दिया और त्याग दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपीलार्थी को यह आदेश दिया कि वह मुकदमे की सुनवाई के दौरान प्रत्यर्थी को ₹ 1,000 प्रतिमाह अन्तरिम प्रतिकर दें।
मानव-दुव्यापार और बलात् श्रम का निषेध-अनुछेद, 23 मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार के अन्य जबरदस्ती लिए जाने वाले श्रम को वर्जित करता है। यह अनुच्छेद उक्त उपबन्ध के किसी भी उल्लंघन को एक दण्डनीय अपराध घोषित करता है। अनु, 23 व्यक्ति को न केवल राज्य के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है वरन् प्राइवेट व्यक्तियों के विरुद्ध भी सुरक्षा प्रदान करता है। अनु 23 (2) उक्त नियम का एक अपवाद है, जिसके अनुसार राज्य को सार्वजनिक हित के कार्यों के लिए अनिवार्य सेवा लागू करने का अधिकार है, बशर्ते कि ऐसा करते समय यह केवल धर्म, वंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी एक के आधार पर नागरिकों के बीच भेद भाव न करें। स्पष्ट है कि यह अनुच्छेद किसी भी प्रकार से मनुष्यों के शोषण को वर्जित करते हैं। इन उपबन्धों द्वारा भारतीय समाज के दो बहुत बड़े-कलंक का अन्त हो गया है- (i) नारी क्रय-विक्रय, तथा (ii) बेगार।
'मानव-दुर्व्यापार' शब्दावली में केवल मनुष्यों या स्त्रियों को वस्तुओं की भाँति क्रय-विक्रय ही शामिल नहीं है वरन् इसमें स्त्रियों और बच्चों का अनैतिक व्यापार करना और इसी प्रकार के अन्य उद्देश्यों के लिए प्रयोग करना भी शामिल है। यद्यपि दास-प्रथा का इसमें स्पष्ट वर्णन नहीं है किन्तु 'मानव-दुर्व्यापार' में यह निःसन्देह शामिल है। अनु, 35 के अन्तर्गत संसद को इस अनुच्छेद द्वारा वर्जित कार्यों के करने के लिए कानून बनाकर दण्ड की व्यवस्था करने की शक्ति है। अपनी इस शक्ति के प्रयोग में संसद ने सप्रेशन ऑफ इम्मोरल ट्रैफिक इन विमेन इण्ड गर्ल्स, ऐक्ट 1956 पारित किया है। इस अधिनियम के अधीन मानव दुर्व्यापार एक दण्डनीय अपराध है।
पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ A.I.R. 1982 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनु, 23 केवल 'बेगार' को ही नहीं, बल्कि इसी प्रकार के सभी 'जबरदस्ती' लिए जाने वाले कार्य को भी वर्जित करता है, क्योंकि इससे मानव-प्रतिष्ठा एवं गरिमा पर आघात पहुँचता है। अनु, 23 प्रत्येकं प्रकार के 'बलाश्रम' को यह मना करता है और यह इन दोनों में कोई अन्तर नहीं करता कि बलातश्रम के लिए पारिश्रमिक दिया गया है या नहीं। यदि किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा के विरुद्ध या दवाव से कार्य करना पड़ता है तो भले ही उसे पारिश्रमिक मिला हो, वह अनु, 23 के अधीन 'बलातश्रम' माना जायेगा। अनु, 23 और 24 के अधीन न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के अधीन नागरिकों के मूल अधिकारों के उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों फे विरुद्ध समुचित कार्यवाही करना राज्य का एक सांविधानिक कर्त्तव्य है।
बालक को संकटपूर्ण नियोजनों में लगाने का निषेध - अनु. 24 चौदह वर्ष से कम आयु के बालकों को किसी कारखाने या खान या किसी अन्य जोखिम भरे कार्यों में लगाने को मना करता है। इस अनुच्छेद का उद्देश्य कम आयु के बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा करना है। वस्तुतः बच्चे देश के भावी नागरिक हैं, इसलिए अनु. 39 द्वारा राज्य पर यह कर्त्तव्य आरोपित किया गया है कि वह अपने देशवासियों के स्वास्थ्य एवं कार्यक्षमता को सुरक्षित रखे और इस बात का ध्यान रखे कि आर्थिक आवश्यकता से मजबूर होकर अपनी आयु एवं शारीरिक क्षमता को हानि पहुँचाने वाले पेशे को न अपनाएँ। राज्य ने अपने इस कर्तव्य के पालन में दि एम्पलायमेंट ऑफ चिल्डेन ऐक्ट, 1938 और दि चिल्ड्रन प्लेजिंग ऑफ लेबर अधिनियम, 1933 पारित किया है। दि एम्पलाइमेंट ऑफ चिल्ड्रेन अधिनियम, 1938 चौदह वर्ष से कम आयु वाले बच्चों को रेलवे और अन्य यायायात सम्बन्धी कार्यों में नियुक्त करने को मना करता है। भारतीय कारखाना, अधिनियम, 1948 और खान अधिनियम, 1952 कारखानों और खानों में चौदह वर्ष के बच्चों की नियुक्ति करने को मना करता है।
एम. सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य 1996 6 S.C.C. 756 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया है कि 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को किसा कारखाने या खान या अन्य संकटपूर्ण कार्यों में नियोजित नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत मामले में एक सामाजिक कार्यकर्ता और अभिवक्ता श्री एम. सी. मेहता ने लोकहित याद दायर करके दक्षिण भारत के शिवकासी में दियासलाई और पटाखा बनाने वाले कारखानों में हजारों की संख्या में कार्य कर रहे बालकों की दयनीय स्थिति की और न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया और यह निवेदन किया कि न्यायालय बालकों के कल्याण के लिए बनाए गए विभिन्न अधिनियमों के लागू करने के लिए सरकार को समुचित निर्देश दे। न्यायालय में ऐसे बालकों के संरक्षण के लिए कई महत्वपूर्ण मार्गदर्शक सिद्धान्त निर्धारित किये।
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 में महिलाओं के विरुद्ध किये गये अपराधों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्थायें की गई हैं। धारा 354 में स्त्री की लज्जा भंग, धारा 366 में अपहरण, धारा 376 में बलात्कार, धारा 498 (क) में निर्दयतापूर्ण व्यवहार तथा धारा 509 व 510 में स्त्री का अपमान करने को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है। वजीरचंद बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा, अकूला रवीन्द्र बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश तथा श्रीमती शान्ता बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामलों में दहेज की माँग को लेकर पत्नी के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार करने को दण्डनीय माना गया है। दहेज की विभीषिका से महिला की रक्षा करने हेतु दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 में कई महत्वपूर्ण प्रावधान किये गये हैं। सती निवारण अधिनियम, 1987 सती प्रथा के निवारण हेतु कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 स्त्रियों को सम्पत्ति में स्वामित्व का हक प्रदान करती है। श्रम कानून महिलाओं के लिए संकटापन्न यंत्रों तथा रात्रि में कार्य का निषेध करते हैं। मातृत्व लाभ अधिनियम कामकाजी महिलाओं को प्रसूति लाभ की सुविधाएँ प्रदान करता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 में उपेक्षित महिलाओं के लिए भरण पोषण का प्रावधान किया गया है।
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