भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-3 विवाधक तथ्य को परिभाषित करती है। धारा-3 के अनुसार विवादद्यक तथ्य से तात्पर्य ऐसे तथ्य से है जिस पर दो पक्षकारों के बीच में मतभेद हो और उसी तथ्य पर पक्षकार का अधिकार दायित्व एवं निर्योग्यता निर्भर करता है। जिसमें एक पक्षकार अभिकथन करता है और दूसरा पक्षकार उसको स्वीकार या इन्कार करता है।
विवाद्यक तथ्य ऐसा तथ्य है जिसके सिद्ध हो जाने पर न्यायालय निर्णय दे सकता है इसीलिये विवाधक तथ्य को वाद एवं कार्यवाही का केन्द्र बिन्दु भी कहा जाता है।
उदाहारणर्थ: माना A द्वारा B को 10%. वार्षिक ब्याज की दर से एक प्रोनोट पर 1000₹ का कर्ज दिया है। A इस प्रोनोट के आधार पर ब्याज सहित कर्ज की मांग करता है। B कर्ज देने से इन्कार करता है। यहाँ यह तथ्य कि क्या Aने B की 1000 र उधार दिये थे या नहीं दिये थे विवाधक तथ्य होगा। इस तथ्य के सिद्ध हो जाने पर न्यायालय निर्णय दे सकता है।
सुसंगत तथ्य : भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा - 8 सुसंगत तथ्य की परिभाषित करती है। धारा-3 के अनुसार दो या दो से अधिक सम्बद्ध तथ्य ही सुसंगत तथ्य कहलाते हैं बशर्ते उनकी पारस्परिक सम्बद्धता धारा-६ से 55 के अनुरुप हो।
सुसंगत तथ्य वाद एवं कार्यवाही का केन्द्र बिन्दु नहीं होता है। सुसंगत तथ्य विवाधक तथ्य के अस्तित्व की सम्भावना को प्रभावित करते है तथा विवाधक तथ्य के बारे में न्यायालय को आवश्यक निष्कर्ष निकालने में सहायता प्रदान करते हैं।
उदाहरण: A पर B को लूटने का आरोप है यहाँ यह तथ्य कि क्या A ने B को लूटा विवाद्यक तथ्य है।
यह तथ्य की A को घटना स्थल से तेजी से भागते हुये देखा गया, सुसंगत तथ्य है, यह तथ्य कि B को लूट के पश्चात रोता बिलखता देखा गया सुसंगत तथ्य होगा यह कि लूट के बाद A के घर में लूट का माल बरामद हुआ सुसंगत तथ्य होगा।
विवाद्यक तथ्य तथा सुसंगत तथ्य में अन्तर : विवाधक तथ्य वाद की विषय वस्तु से सम्बन्धित होता है विवाधक तथ्य के अवधारित हो जाने पर न्यायालय निर्णय दे सकता है। जबकि सुसंगत तथ्य विवाद्यक तथ्य को प्रत्यक्षतः अवधारित नहीं करता है। बल्कि विवाद्यक तथ्य को निर्धारित करने में न्यायालय की सहायता करता है।
विवाधक तथ्य को मुख्य या प्रधान तथ्य कहते है जबकि सुसंगत तथा की गौण तथ्य कहा जाता है।
विवाद्यक तथ्य किसी अधिकार या दायित्व का आवश्यक तत्व नहीं होता है। जबकि सुसंगत तथ्य किसी अधिकार या दायित्व का आवश्यक तत्व नहीं होता है।
साबित: भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-3 साबित शब्द को परिभाषित करती है धारा-3 के अनुसार कोई तथ्य साबित हुआ कहा जाता है जबकि अपने समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों पर विचार करने के पश्चात न्यायालय या तो
[a] उस तथ्य को अस्तित्व को पूर्णत: स्वीकार कर लेता है।
[b] उसके अस्तित्व को इतना अधिसम्मान समझता है कि प्रत्येक प्रज्ञावान व्यक्ति उस विशिष्ट मामले की परिस्थिति में इस अनुमान से कम करने के योग्य हो जायेगा कि उस तथ्य का अस्तित्व है।
उदाहरण: A के ऊपर B की हत्या का आरोप है।4 गवाह आँखों देखा साक्ष्य देते हैं कि Aने B के ऊपर गोली चलायी A में 164 के बयान में अपने अपराध को स्वीकार कर लेता है। A के वस्त्र पर B का खून लगा हुआ पाया जाता है। उपरोक्त साक्ष्य के आधार पर न्यायालय यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि A ने B की हत्या की है ऐसा प्रत्येक तथ्य उस समय साबित माना जायेगा।
नासाबित साबित के ठीक विपरीत अर्थ रखता है कोई तथ्य नासाबित हुआ कहा जाता है जब अपने समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों पर विचार करने के पश्चात न्यायालय या तो-
[1] इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उस तथ्य का अस्तित्व नहीं है या
[2] उसके अस्तित्व के नाम होने की इतनी अधिक सम्भावना है कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में किसी भी सामान्य प्रज्ञावान वाले व्यक्ति को यह अनुदान कर लेना चाहिये कि उस तथ्य का अस्तित्व नहीं है।
उदाहरण: A के ऊपर B को लूटने का आरोप है।A अपने पक्ष में न्यायालय के समक्ष साक्ष्य पेश कर देता है कि जिस तारीख को और जिस समय लूट का उसके ऊपर आरोप है उस तारीख और उस समय वह जेल में बन्द था तो यह विश्वास नहीं किया जा सकता है कि A ने B को लूटा है। ऐसी स्थिति में यह कहा जायेगा कि वह तथ्य नासाबित हो गया।
उपधारणा कर सकेगा : भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा - ४ के अनुसार जहाँ कही इस उपवन्धित हैं कि न्यायालय किसी तथ्य की उपधारणा कर सकेंगा वहाँ न्यायालय ऐसे तथ्य को साबित हुआ मान सकेगा। जब तक वह नासाबित नहीं किया जाता है या उसके सब्त की माँग कर सकेगा।
धारा-४ के प्रावधानों से स्पष्ट है कि न्यायालय किसी तथ्य की उपधारणा वहीं कर सकेगा जहाँ ऐसा करने हेतु भारतीय साक्ष्य अधिनियम द्वारा उसे प्राधिकार दिया गया हो। उपधारणा कर सकेगा से सम्बन्धित न्यायालयों के पास दो विकल्य होते हैं।
[a] न्यायालय उपधारित तथ्य को सिद्ध हुआा मान सकेगा जब तक नासाबित नहीं किया जाता है
[h] न्यायालय उपधारित तथ्य के सबूत की माँग कर सकेगा। ऐसे मामलों में जिसमें न्यायालय को किसी तथ्य के उपधारणा करने या न करने के लिये स्वतन्त्र है न्यायालय उपधारणा करने के लिये बाथ्य नहीं है।
विधि की उपधारणा : विधि की उपधारणा को अस्वाभाविक या कृत्रिम उपधारणा भी कहा जाता है ये ऐसे अनुमान होते हैं जिन्हें विधि किन्हीं खास तथ्यों से निकालने के लिये न्यायाधीशों को अभिव्यक्त रूप से निर्देशित करती है, यह उपधारणा विधि का ऐसा नियम है जिनके अन्तर्गत न्यायालय किसी विशेष परिस्थिति में विशेष अनुमान करते है विधि की उपधारणा विधिशास्त्र की एक निश्चित शाखा है। यह उपधारणायें सदैव आबध्दकर होती हैं।
विधि की उपधारणा दो प्रकार की होती है
[1] खण्डनीय उपधारणा : जब विधि की • उपधारणा खण्डन योग्य होती है तो उन्हें खंडनीय उपधारणा कहा जाता है और इस अधिनियम की धारा 4 में उपधारणा करेगा अभिव्यक्त से दर्शाया गया है इसके अन्तर्गत की गयी उपधारणा तभी तक मान्य होती है, जब तक साक्ष्य प्रस्तुत करके खण्डन नहीं कर दिया जाता है अधिनियम में इससे सम्बन्धित प्रावधान 113[b] में दिया गया है।
[2] अखण्डनीय उपधारणा : विधि की अखण्डनीय उपधारणा वह है जो खण्डन योग्य नहीं होती है ।यह उपधारणा विधि के निर्विवाद नियम है और इनका खण्डन किसी भी शक्तिशाली साक्ष्य से नहीं किया जा सकता जहाँ विधि द्वारा एक तथ्य को दूसरे तथ्य का निश्चायक सबूत घोषित किया गया है वहाँ न्यायालय उसके खण्डन में साक्ष्य दिये जाने की अनुज्ञा किसी भी हालत में नहीं दे सकता है अखण्डनीय उपधारणा धारा ५ के निश्चायक सबूत खण्ड के अन्तर्गत आते हैं इनका वर्णन धारा 41, 112, 113 में किया गया है।
तथ्य की उपधारणा और विधि की उपधारणा में अन्तर:
[1] तथ्य की उपधारणा में न्यायालय की विवेकानुसार कार्य करने की छूट नहीं होती है और न्यायालय उपधारणा करने के लिये वाध्य होता है।
[2] तथ्य की उपधारणा में तर्क की शक्ति रहती है विधि की उपधारणा में विधि के निगमों की शक्ति: रहती है।
13) तथ्य की उपधारणा में निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है। किन्तु विधि की अधारणा में निष्कर्ष निकालना आवश्यक है।
[4] तथ्य की उपधारणा सदैव खण्डनीय होती है। विधि की उपधारणा खण्डनीय और अखण्डनीय भी होती है।
(5.] तथ्य की उपधारणा प्राकृतिक या स्वाभाविक होती है। विधि की उपधारणा वृत्तिम होती है।
[७] तथ्य की उपधारणा विधि नहीं है. स्किन्तु - विधि की उपधारणा वास्तव में विधि का एक नियम है और विधि ।
[7] तथ्य की उपधारणा अलग - अलग तथ्यों पर की जाती है। विधि की उपधारणा निश्चित होती है। और एक ही प्रकार के मामलों में समान रूप से लागू होती है।
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