भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 हम लोगो ने कभी न कभी जरूर सुना होगा। किसी घटना में प्राय: लोगों द्वारा यह सुना ही गया होगा कि किसी व्यक्ति के खिलाफ पुलिस द्वारा 302 का मुकदमा लिखा गया है। लेकिन क्या IPC के इस act का पूरा मतलब हम लोग सही प्रकार से समझने में थोड़ा सा असहजता जरूर दिखाई देती है कि 302 का मुकदमें से हम यह समझते है कि किसी व्यक्ति द्वारा यदि किसी दूसरे व्यक्ति कि हत्या की जाती है तो वह व्यक्ति भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के तहत अपराधी होगा। लेकिन यहाँ पर धारा 302 के तहत अपराधी नहीं बल्कि धारा 302 में हत्या की सजा का प्रावधान की धारा है।
जो व्यक्ति मृत्यु करने के इरादे से या ऐसा शारीरिक आघात पहुंचाने के उद्देश्य से जिसमे उसकी पूरी मंशा हो कि वह किसी दूसरे व्यक्ति कि मृत्यु किया जाना सम्भव हो और यह जानते हुये कि उस कार्य से मृत्यु होने की सम्भावना है कोई कार्य करके मृत्यु करता है तो वह सदोष मानव वध का अपराध करता है तो वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा २११ के अन्तर्गत आता है।
इस श्रेणी में निम्नलिखित सामाज में घटित होने वाली घटनायें ही सकती है जो कि इस श्रेणी के अन्तर्गत आती है।
11.] वह व्यक्ति जो किसी दूसरे व्यक्ति की जो किसी विकार रोग या अंग शैथिल्य से पीडित ही शारीरिक क्षतिकारित करता है जिससे दूसरे व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो यह समझा जायेगा कि उसने सदोष मालन वध का अपराध किया है।
[2] जब मृत्यु किसी शारीरिक क्षति से ही तो ऐसी क्षति करने वाले व्यक्ति के लिये यह समझा जायेगा कि उसने वह मृत्यु कारित की है।
यद्यपि उचित उपचार या कौशलपूर्ण चिकित्सा से वह मृत्यु रोकी जा सकती हो।
[3] माँ के गर्भ में स्थित किसी शिशु की मृत्यु कारित करना मानव वध नहीं है परन्तु किसी जीवित शिशु की मृत्यु कारित करना उस समय अपराध की श्रेणी में आ जायेगा जब शिशु का कोई भाग बाहर निकल आया हो चाहे उस शिशु ने न तो साँस ली हो और न पूर्णतः उत्पन्न ही हुआ हो।
" मानव की अन्य मानव द्वारा मृत्यु कारित करना, मानव वध होगा। भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत यदि मानव वध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में किया जाये तब बचाव मिलता है। [ धारा 100 ] तथा जब साशय मानव वध हो तो यह आपराधिक मानव वध धारा 299] या हत्या [ धारा 300] का अपराध होगा। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुये किसी की मृत्यु कारित करना विधि द्वारा न्यायानुमत है क्योंकि विधि हर समय संरक्षण प्रदान नहीं कर सकती है।
कुछ उदाहरणों से के माध्यम से हम हत्या या मानव वध की और स्पष्ट रूप से समझने की कोशिश करते हैं-
[1] A ने भरपूर लाठी प्रहार करके B का हत्या कर दी। A द्वारा लाठी प्रहार करने का कारण यह था कि A ने B को प्रेत आत्मा समझा और डर के कारण वह इस बात को ठीक से समझ नहीं सका कि B कोई प्रेत आत्मा है या मानव । A यहाँ पर मानव हत्या का दोषी है।
(2) P एक गड्ढे पर लकड़ियाँ और फूस यह सोचकर बिछाता है कि किसी की उस गड्ढे का पता न चले और कोई व्यक्ति मर जाये इस जानकारी से विछता है कि उससे किसी व्यक्ति की मृत्यु हो। Q यह विश्वास करके कि वह स्थान ठोस भूमि है उस पर से निकलते समय गड्ढे में गिर कर मर जाता है। यहाँ P ने सदोष मानव वध का अपराध किया है।
मानव की अन्य मानव द्वारा मृत्यु कारित करना मानव वध होगा। भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत यदि मानव वध प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में किया जाये तब बचाव मिलता है। [ धारा 100] तथा जब साशय मानव वध हो तो यह आपराधिक मानव वध (धारा २११) या हत्या (धारा १००) का अपराध होगा। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुये किसी की मृत्यु कारित करना विधि द्वारा न्यायानुमत (Justified) है, क्योंकि विधि हर समय संरक्षण नहीं प्रदान कर सकती कुछ ऐसे उदाहरण हमको आज भी देखने को मिलते हैं जोकि जैसे-
A को यह पता है कि झाडी के पीछे B बैठा है। परन्तु फिर भी वह इस आशय और यह जानकर भी यदि C ने उस झाडी की तरफ गोली चलाई तो B की मृत्यु हो सकती है। C को उस झाडी की तरफ गोली चलाने को उकसाता है और गोली चलने से B की मृत्यु हो जाती है तो C का कोई अपराध हो या न हो A सदोष मानव वध का दोषी है।
धारा 299 के दुष्टांत के अन्तर्गत आपराधिक मानव वध को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार जो कोई मृत्यु कारित करने के आशय से या ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से जिससे मृत्यु कारित हो जाना संभाव्य या यह ज्ञान रखते हुये कि यह संभाव्य है कि वह उस कार्य से मृत्यु कारित कर देगा कोई कार्य करके मृत्यु कारित कर देता है वह आपराधिक मानव वध को अपराध करता है।
एक दूसरे उदाहरण को समझते हैं एक मुर्गे को मारने और चुराने के इरादे से A उस पर गोली चलाता है और B को मार देता है जोकि झाडी के पीछे था A को B के पीछे रहने का कोई ज्ञान नहीं था। इस मामले में A किसी अपराध का दोषी नहीं होगा । यदापि विधि विरुद्ध कार्य कर रहा था तो भी वह आपराधिक मानव वध का दोषी नहीं है क्योंकि उसका आशय 'B' को मार डालना अथवा कोई ऐसा कार्य करके जिससे मृत्यु कारित करना वह सम्भाव्य जानता हो मृत्यु कारित करने का नहीं था।
A ने भरपूर लाठी प्रहार करके B का वध कर दिया । लाठी प्रहार के करने का कारण यह था कि A ने उसको प्रेत आत्मा समझा और भयभीत होने के कारण वह इस बात को ठीक से जाँच नहीं सका कि B कोई प्रेत आत्मा - है या मनुष्य । अतः यहाँ पर A सदोष मानत वध का दोषी है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 299 के अर्न्तगत आवश्यक मनःस्थिति आशय अथवा ज्ञान दोनों है। धारा 299 के अनुसार जो कोई मृत्यु कारित करने के आशय से या ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से जिससे मृत्यु कारित कर देगा कोई कार्य करके मृत्यु कारित कर देता है वह आपराधिक मानव वध का अपराध करता है यह कहा जाता है। धारा 299 के तहत किये गये कार्य और मृत्यु कारित होने के बीच प्रत्यक्ष संबन्ध होता है।
जब कोई आरोपी इस विश्वास के साथ कि एक स्त्री में प्रेतात्मा प्रवेश कर गयी है उसे निकालने के प्रयास में उसकी पिटाई करता है। जिसके परिणामस्वरूप उस स्त्री की मृत्यु हो जाती है। यहाँ कोर्ट द्वारा ओझा को आपराधिक मानव वध के लिये दोष सिद्ध ठहराया। अतः आरोपी हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव वध हेतु दोषी है।
जोसेफ बनाम केरल राज्य के वाद में मृतक तथा अभियुक्त के बीच झगड़ा हुआ। अभियुक्त ने मृतक के सिर पर लाठी से वार किया जिससे उसके सिर पर दो चोटें लगी जिससे उसकी मृत्यु हो गयी । आरोपी को सेशन कोर्ट द्वारा 2 साल की सजा सुनाई गयी राज्य द्वारा अपील करने पर उच्च न्यायालय द्वारा अभियुक्त को आजीवन कारावास से दण्डित किया गया। अभियुक्त द्वारा उच्चतम न्यायालय में अपील की गयी उच्चतम न्यायालय ने यह. अभिनिर्धारित किया कि इस मामले में अभियुक्त द्वारा मृतक को जो लाठी से सिर पर चोट पहुंचायी गयी थी वह भी मृत्यु के सामान्य अनुरुप में पहुंचाई जाने वाली नहीं थी और न ही इससे मृत्यु कारित करने का आशय सिद्ध होता है। अतः धारा 302 के अन्तर्गत दी गई आजीवन कारावास की सजा कों धारा 304 भाग 2 में दी गयी सजा में बदल दिया गया।
" रियाज - उद्दीन शेख बनाम एम्परर (1910) के वाद में जस्टिस शर्फद्दीन ने कहा - "सभी हत्या आपराधिक मानव वध है, लेकिन सभी आपराधिक मानव वध हत्या नहीं है।" भारतीय दण्ड संहिता की धारा 299 में आपराधिक मानव वध को परिभाषित किया गया है। कुछ कुछ परिस्थितियों में मानव वध विधि विरुद्ध नहीं होता है, जैसे धारा 88 के अधीन सम्मति से सद्भावनापूर्वक बिना हत्या के आशय से किया कार्य, धारा 92 संम्मति के बिना सद्भावनापूर्वक किया गया कार्य (व्यक्ति के फायदे हेतु )तथा धारा 100 के अधीन प्राइवेट प्रतिरक्षा में किया गया कार्य।
राम प्रसाद बनाम बिहार राज्य के मामले में अभियुक्त ने एक भीड पर गोली चलाई जो भीड में पास खड़े 'A' नामक व्यक्ति की लगी और इसके परिणामस्वरुप उसकी मृत्यु हो गयी । उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि यद्यपि अभियुक्त का आशय 'A' की मृत्यु कार्यरत करना नहीं था, परन्तु फिर भी उसे इस बात का ज्ञान अवश्य था कि भीड पर चलाई गयी गोली किसी न किसी व्यक्ति को जाकर उसकी जान अवश्य ले सकती है। अतः अभियुक्त को आपराधिक मानत वध के सिद्ध दोष किया गया।
पालानी का मामला इसमें अभियुक्त ने अपनी पत्नी पर एक फाल से वार किया । यद्यपि यह ज्ञात नही था कि ऐसे वार से मृत्यु कारित हो जाना सम्भाव्य है, परन्तु तह बेहोश हो गयी। अभियुक्त ने उसे मृत समझ कर आत्महत्या सिद्ध करने की दृष्टि से उसे रस्सी से बाँध कर लटका दिया और इसके परिणामस्वरुप घुटन से उसकी मृत्यु हो गयी। यह निर्णय किया गया कि अभियुक्त सदोष मानव वध का दोषी है।
बिरसा सिंह बनाम पंजाब राज्य AIR, 1958 के वाद में धारा 300 तृतीय के संबन्ध में निम्नलिखित चार विन्दु परीक्षण विहित किया गया है- -
[i] निष्पक्ष रुप से यह स्थापित करना चाहिये कि एक शारीरिक चोट मौजूद है।
[2] चोट की प्रकृति से यह साबित होना चाहिये कि यह विशुद्ध रूप से वस्तुनिष्ठ जांच है।
[3] चोट आकस्मिक या अंजाने में नहीं होनी चाहिये।
[4] यह साबित होना चाहिये कि ऊपर बताये गये तीन तत्वों से बनी हुई चोट प्रकृति के सामान्य पाठ्यक्रम में मौत का कारण बनने के लिये पर्याप्त है।
आपराधिक मानव वध के लिये दण्ड: जो कोई व्यक्ति आपराधिक या सदोष मानव वध का अपराध कारित करेगा जो हत्या की कोटि में नहीं आता। यदि वह कार्य जिसके कारण मृत्यु कारित की गयी है, मृत्यु या ऐसी शारीरिक क्षति जिससे मृत्यु होना सम्भाव्य है कारित करने के आशय से किया जाय तो उसे आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भाँति अवधि दस वर्ष तक की जायेगा और वह जुर्माने के कारावास से जिसकी हो सकेगी, दण्डनीय होगा।
हत्या (Murder ]:- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 में उन स्थितियों का उल्लेख किया गया है जिसमें सदोष मानव वध हत्या होती है जो इस प्रकार है।
सिवाय उन मामलों में जो अपवाद स्वरुप हो, सदोष मानव वध हत्या होती है यदि वह कार्य जिसमें व्यक्ति की हत्या की गयी हो मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया हो।
[२] वह ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से किया गया हो जिसको अपराधी जानता हो कि उससे उस व्यक्ति की मृत्यु होना सम्भव है।
(3] वह किसी शारीरिक क्षति पहुंचाने के आशय से किया गया हो और वह शारीरिक क्षति जिसे करने का आशय हो प्रकृति के साधारण क्रम में मृत्यु करने के लिये पर्याप्त है।
(४) यदि कार्य करने वाला व्यक्ति यह जानता हो कि वह कार्य इतना संकटापन्न है कि उसे मृत्यु होने या ऐसी किसी शारीरिक क्षति होने की पूरी संभावना है जिससे मृत्यु हो जाए या पूर्व उल्लेखित किसी रूप में क्षति पहुंचाने के जोखिम के लिए किसी बहाने के बिना ऐसा कार्य करें या किया जाए।
भारतीय दंड संहिता की धारा 300 के प्रथम खंड के अनुसार अपराधिक मानव वध हत्या के अपराध में परिवर्तित हो जाता है यदि वह कार्य जिसके द्वारा मृत्यु कार्य की गई है।
उदाहरण
अभियुक्त ने अपनी पत्नी को गिरा दिया तथा अपना एक घुटना उसके सीने पर रखा और उसके मुंह पर बंद मुट्ठी से दो या तीन कठोर प्रहार किया जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई। साक्ष्य यह दर्शाता था कि पहुंचायी गई क्षती प्रकृति के समान अनुक्रम में किसी की मृत्यु के लिए पर्याप्त नहीं थी अतः अभियुक्त अपराधिक मानव वध जो हत्या की कोटी में नहीं आता का दोषी है। यह समस्या रेग बनाम गोविंदा के वाद पर आधारित है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 300 प्रथम पैरा के अनुसार अपराधिक मानव वध हत्या है। यदि वह इस धारा में वर्णित अपवादों में ना आता हो और धारा 300 के चार खंडों में वर्णित दशाओं में किया गया है। प्रत्येक हत्या में मानव वध अवश्य ही समाहित होता है।
रियाजुद्दीन शेख बनाम एंपरर(१९१०) के वाद में जस्टिस सफरुद्दीन ने कहा कि सभी हत्या आपराधिक मानव वध है लेकिन सभी आपराधिक मानववाद हत्या नहीं है।
कृष्णमूर्ति लक्ष्मीपति नायडू बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में मृतक और अभियुक्त में कहासुनी हो गयी जिससे उत्तेजित होकर अपराधी ने मृतक के पेट में छुरे से वार किया। इस मामले में प्रत्यक्षदर्शी गवाह ने पहले यह कहा कि पहले मृतक ने अभियुक्त पर लाठी का प्रहार किया था उसके पश्चात उसने अपने बयान में कहा कि जब अभियुक्त 'हाथ में खुला चाकू लेकर मृतक के पीछे दौंडा तो मृतक अपनी जान बचाने के लिये भाग रहा था । इस सम्बन्ध में गवाह का बयान कुछ भी रहा हो परन्तु इतना तो निर्विवाद था कि जो घातक चोट मृतक को पहुची वह किसी आकस्मिक अचेतना या आशय रहित क्रोध का परिणाम नहीं था। अतः मामले में धारा 300 लागू न होकर धारा 302 लागू होगी। इस मामले में आत्मरक्षा के लिये वार किये जाने का प्रश्न उठाना उचित नहीं था।
सदोष मानव वध और हत्या में अन्तर : मेलविल जे० ने आपराधिक मानव -वथ और हत्या में बहुत ही स्पष्ट अन्तर प्रस्तुत किया है। यह अन्तर इन रि० गोविन्दा (1बम्बई 342) के सन्दर्भ से यह स्पष्ट होता है। इस वाद में गोविन्दा जिसकी आयु 18 वर्ष की की अपनी पत्नी जिसकी आयु 15 वर्ष की थी के साथ दुर्व्यवहार करता है। एक दिन गोविंदा ने अपनी पत्नी को नीचे गिराकर एक पैर उसकी छाती पर रखा तथा जोर से कई घूंसे उसके चेहरे पर मारे जिसके परिणामस्वरूप खून की परनाली बह निकली और थोड़ी देर बाद वह लडकी मर गयी।
सत्र न्यायाधीश ने अभियुक्त को हत्या का दोषी ठहराया। बाद में यह मामला बम्बई उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की बेंच के समक्ष प्रस्तुत किया गया जिसमें उन न्यायाधीशों के विचारों में मतभेद हो गया । अता मामला तीसरे न्यायाधीश मेलबिल जे. (Melvilly.] को सुपुर्द किया गया जिन्होने मामले का निर्णय करने के लिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा २११ और 300 में निम्मलिखित अन्तर प्रस्तुत किया-
धारा 299 (सदोष मानव वध): कोई व्यक्ति सदोष मानव वध करता है यदि वह कार्य जिससे मृत्यु हुई हो-
[i] यह जानते हुये भी ऐसा कार्य करना जिससे मृत्यु होने की सम्भावना ही की जाये।
[2] मृत्यु करने के आशय से किया गया हो।
[3] ऐसी शारीरिक क्षति पहुँचाने के आशय से जिससे मृत्यु होना सम्भव है।
धारा 300 (हत्या) :-
कुछ अपवादों के अधीन रहते हुए सदोष मानव वध हत्या है यदि वह कार्य जिससे मृत्यु हो जाती है -
[1] यह विचार और सोच समझकर किसी को शारीरिक चोट पहुँचाना जिससे वह व्यक्ति [अपराधी] जानता हो कि जिस व्यक्ति को चोट पहुँचा रहा है उसकी मृत्यु • होने की सम्भावना है।
[2] इस उद्देश्य से शारीरिक चोट पहुंचाना जो कि प्रकृति के साधारण क्रम में मृत्यु के लिये पर्याप्त है।
[3] मृत्यु करने के उद्देश्य से किया गया हो।
उपयुक्त अन्तरों में धारा २११ का (अ) और ३०० का (2) एक समान जिसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति जान से मारने के आशय से मृत्यु करता है तो वह हत्या होगी। धारा २११ (स) और 300(५) में अन्ततः यह है कि पहले में मृत्यु होने की सम्भावना होती है और दूसरे में मृत्यु होना अवश्यम्भावी होता है।
धारा २९९ (ब) और 300 के (२) और (3) में यह अन्तर है कि पहली धारा में शारीरिक क्षति से मृत्यु होनी सम्भव होती है जबकि दूसरी धारा के अनुसार (i) अभियुक्त को पता होता है कि जिसको वह
शारीरिक क्षति पहुँचा रहा है उसकी मृत्यु हो जायेगी।
वह शारीरिक क्षति अपने आप में इतनी पर्याप्त है कि प्रकृति के सामान्य क्रम में क्षति पहुँचने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जायेगी ।
अतः धारा 299 और 300 में मृत्यु होने की सम्भावना में मात्रा (Degree) का अन्तर है जिसके अनुसार धारा 299 में मृत्यु होना सम्भावित परिणाम हो सकता है जबकि धारा 300 में मृत्यु होना निश्चित सम्भावित परिणाम होता है।
उपर्युक्त व्यवस्था के अनुसार गोविन्दा ने धारा २११ के अन्तर्गत सदोष मानव वध का अपराध किया है।
मुख्य न्यायाधीश पीकॉक ने गोरा चन्द गोपी (1866] 5, डब्ल्यू आर० ५5 कलकत्ता (पूर्ण पीठ) के मुकदमें में अभिनिर्धारित किया कि कोई कृत्य हत्या तभी माना जायेगा जब अपराधी को यह ज्ञात हो कि उस कृत्य से हर प्रकार की सम्भाव्यता में मृत्यु कारित होना प्रायः निश्चित है। यदि उसे ज्ञान हो कि उसके अमुक कृत्य से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है लेकिन उस व्यक्ति को मार डालने का उसका आशय न हो तो ऐसी स्थिति में मृत्यु कारित होने पर वह आपराधिक मानव का दोषी होगा। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति एक सँकरी गली में अपनी कार, उतावलेपन से असावधानीपूर्वक तेज गति से चलाता है तो उसे यह ज्ञात रहता है कि उसके इस कृत्य से कार की चपेट में आकर किसी व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है परन्तु किसी की मार डालने का उसका आशय नहीं रहता। ऐसी दशा में उसकी कार से किसी की मृत्यु हो जाय तो वह धारा 304 के अन्तर्गत आपराधिक मानव-वध का दोषी होगा।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अन्तर्गत अपवाद: -
सदोष मानव - वध हत्या नहीं है, यदि अपराधी गम्भीर तथा अचानक प्रकोपन (grave and sudden provocation) के कारण आत्म संयम खोकर उस व्यक्ति की मृत्यु कर दे जिसने उसे उत्तेजित किया हो या अपराधी ने भूल से या दुर्घटनावश किसी व्यक्ति की मृत्यु कर दी हो।
[1] यह कि यह प्रकोपन किसी व्यक्ति का वध करने या अपहानि करने के लिये प्रति हेतु के रुप में अपराधी द्वारा चाही गमी या स्वेच्छा में उत्तेजित न की गयी हो।
[B] वैयक्तिक प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण: सदोष मानव वध हत्या नहीं है यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रतिरक्षा या सम्पत्ति की रक्षा के अधिकार की सद्भावनापूर्वक और विधि द्वारा दी गयी शक्ति का प्रयोग करने में निर्धारित सीमा से आगे बढ़ जाये और बिना पूर्व आशय के ऐसी प्रतिरक्षा के प्रयोजन के लिये जितनी हानि करना आवश्यक हो उससे अधिक हानि करने के आशय रहित होते हुये भी किसी अन्य ऐसे व्यक्ति की हत्या कर देता है जिसके विरुद्ध प्रतिरक्षा करने का वह अधिकार प्रयोग में लाया जा रहा था।
प्रभु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में अभियुक्त ने मृतक से कहा कि वह उसके खेत के बगल से अपने जानवर न ले जाया करे। इस पर दोनों आपस में एकाएक लड़ पड़े। अभियुक्त के तीन भाई हथियार सहित आकर उसे बचाने लगे तथा अभियुक्त के साथ मिलकर उन्होने मृतक को नीचे पटक दिया और उसके सिर पर वार किये। गम्भीर घाव व चोटों के कारण मृतक मर गया। न्यायालय ने इसे निर्दयतापूर्वक हत्या का मामला निरूपित करते हुये धारा 300 के चौथे अपवाद के अन्तर्गत मानने इन्कार कर दिया तथा अभियुक्तों को हत्या के लिये दण्डित किया।
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