Skip to main content

क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

वे कौन से साधारण नियम हैं जो व्यवहार प्रक्रिया संहिता में लिखित कथन के सम्बन्ध में दिए गए हैं ? ( What are the general rules provide in civil procedure code regarding written statement ? )

लिखित कथन ( Written Statement )

 अभिवचन में वाद - पत्र एवं लिखित कथन दोनों ही सम्मिलित होते हैं । वादी जो दावा करता है उसका एक लिखित उत्तर प्रतिवादी को अपनी प्रतिरक्षा में न्यायालय में निश्चित समय के भीतर दाखिल करना होता है । लिखित कथन वाद की प्रथम सुनवाई के समय या उसके पूर्व या ऐसे समय के भीतर जो न्यायालय ने दे दिया हो , दाखिल किया जाना चाहिए । न्यायालय प्रतिवादी को उपस्थिति होने के समय या उसके पश्चात् किसी भी नियत समय के भीतर प्रतिवाद - पत्र ( लिखित कथन ) दाखिल कर , की अनुमति दे सकता है । ऐसी आज्ञा के पश्चात् प्रतिवादी लिखित कथन दाखिल करने के लिए बाध्य है । यदि वह लिखित कथन दाखिल नहीं करता है तो न्यायालय  उसके खिलाफ निर्णय दे सकता है । 


 लिखित कथन का शीर्षक और नाम ( Heading and title of Written State ment ) - लिखित कथन या प्रतिवादी पत्र की रचना अधिक सावधानी से करनी चाहिए । इसमें शीर्षक और नाम वही होने चाहिए जो कि वाद - पत्र में दिये हों । उदाहरण के लिए , 


न्यायालय श्री मान सिविल  मजिस्ट्रेट महोदय (जिले का नाम ),  .

 वाद संख्या 326 सन् 2022 पिन्टू पाण्डेय , आदि ............वादीगण

 बनाम

 प्रमोद  कुमार , आदि .... प्रतिवादीगण


 लिखित कथन का शरीर  ( Body of the written statement ) -लिखित कथन का शेष भाग प्रतिवाद के रूप में होना चाहिए । इसमें प्रतिवादी को उन सभी कथनों ( Allegations ) से बरतना चाहिए जो वादी के बाद पत्र में लिये गये । सभी सम्भव दलीलों को प्रतिवादों में लिख देना चाहिए क्योंकि यदि प्रतिवादी कोई दलील छोड़ देता है तो उसे ऐसी दलील उठाने की अनुमति कभी नहीं दी जा सकती और विशेषकर जब कोई प्रश्न तथ्य का रह गया हो । प्रतिवाद में हस्ताक्षर तथा सत्यापन के नियमों का भी उसी प्रकार पालन करना चाहिए जिस प्रकार वाद - पत्र तैयार करने में किया जाता है । लिखित कथन या प्रतिवाद में किसी भी प्रार्थना लिखने की आवश्यकता नहीं होती जब तक कि प्रतिवादी अपने पक्ष में रुपये की डिक्री प्राप्त करने का इच्छुक न हो । 

         लिखित कथन के सम्बन्ध में साधारण नियम व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 के अन्तर्गत दिये हैं जो कि निम्नलिखित हैं -

नियम 1. लिखित कथन या जवाब दावा ( Written statement ) ( 1 ) प्रतिवादी अपनी प्रतिरक्षा का लिखित कथन पहली सुनवाई के समय या पूर्व या इतने समय के अन्दर , जितना कि न्यायालय अनुज्ञात करे , उपस्थित कर सकेगा और यदि न्यायालय द्वारा वह ऐसे अपेक्षित किया जाय तो उपस्थित करेगा । 



( 2 ) जहाँ कि प्रतिवादी प्रतिसादन या मुजराई ( Setoff ) या प्रति दावा के लिए अपनी प्रतिरक्षा या दावों का समर्थन किसी दस्तावेज पर ( चाहे वह दस्तावेज उसके कब्जे या शक्ति में हो या न हो ) निर्भर करता है , वहाँ वह एक सूची में ऐसे दस्तावेज को प्रविष्टि करेगा , और


         ( क ) यदि लिखित कथन उपस्थित किया जाता है तो लिखित कथन के साथ इस सूची को संलग्न करेगा-


 परन्तु जहाँ कि प्रतिरक्षा अपने लिखित कथन में ऐसे दस्तावेजों के आधार पर जो उसके कब्जे या शक्ति में है , मुजराई का दावा करता है , वहाँ वह लिखित कथन के उपस्थित किये जाने के समय पर न्यायालय में उसे पेश करेगा और किसी समय वह दस्तावेज या प्रतिलिपि लिखित कथन के साथ फाइल किये जाने के लिए परिदत्त करेगा । 


 ( ख ) यदि लिखित कथन उपस्थित नहीं किया जाता है तो वाद की प्रथम सुनवाईन्यायालय में उस सूची को परिदत्त करेगा ।


  ( 3 ) जहाँ ऐसे दस्तावेज प्रतिवादी के कब्जे या शक्ति में नहीं है वहाँ वह जहाँ भी सम्भव हो पर सके वह कथन करेगा कि वह उसके कब्जे या शक्ति में है ।


( 4 ) यदि ऐसी कोई सूची इस प्रकार से संलग्न या उपस्थित नहीं की जाती है , तो प्रतिवादी को इस प्रयोजन के लिए ऐसी और कालावधि में मन्जूर की जायेगी जो न्यायालय ठीक समझे । 

( 5 ) ऐसे दस्तावेज जो उपनियम ( 2 ) में निर्दिष्ट सूची में प्रविष्ट की जानी चाहिए और इस प्रकार से प्रविष्ट नहीं की गई है , न्यायालय की इजाजत के बिना वाद की सुनवाई में प्रतिवादी की ओर से साक्ष्य में नहीं ली जायेगी ।


 ( 6 ) उपनियम ( 5 ) को कोई बात ऐसे दस्तावेजों से लागू नहीं होगी , जो वादी के साक्षियों की प्रतिपरीक्षण के लिए पेश की गई हो , या वाद - पत्र फाइल किये जाने के पश्चात् वादी द्वारा उठायेगये किसी मामले के उत्तर में   हो , या किसी साक्षी को केवल उसकी स्मरण शक्ति को ताजा करने के लिए दी गई हो ।



 ( 7 ) जहाँ न्यायालय उप नियम ( 5 ) के अधीन इजाजत देता है जहाँ वह ऐसा करने के लिए अपने कारण लेखबद्ध करेगा और ऐसी कोई इजाजत तब तक नही दी जायेगी जब तक कि उपनियम ( 2 ) में निर्दिष्ट सूची में दस्तावेज की प्रविष्टि न की जाने के लिए न्यायालय के समाधानप्रद रूप में पर्याप्त कारण दर्शित नहीं कर दिया जाता । ( आदेश 8 नियम 1 )


 नियम 2. नये तथ्यों का विशेष रूप से अभिवचन किया जाना चाहिए ( New facts must be specifically Pleaded ) - प्रतिवादी के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने अभिवचन द्वारा वे सब बातें उठाये जिनसे कि वह संदर्भित होता है कि वाद पोषणीय नहीं है या संव्यवहार विधि की दृष्टि से या तो शून्य है या शून्यकरणीय है और प्रतिरक्षा ( Defence ) के सब ऐसे आधार उठाये जो कि ऐसे हैं , उदाहरणार्थ कपट , मर्यादा , सम्मोचन , देनगी , पालन या अवैधता प्रदर्शित करने वाले तथ्य यदि वे न उठाये गये तो यह सम्भावना है कि उनके सहसा सामने आने से विरोधी पक्षकार व्यग्रता में पड़ जायेगा या जिनसे कि तथ्य सम्बन्धी ऐसे वाद - पद होंगे जो कि वाद - पत्र से पैदा नहीं होते हैं । ( आदेश 8 नियम 2 ) 


 किसी भी पक्षकार के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह अभिवचन की अवैधता के बारे में आपत्ति करे । न्यायालय को स्वत : उसकी सूचना लेनी चाहिए । ए.आई.आर. 1965 एस . सी . 1364 ) । अपील में कोई नया तर्क जिसके लिए साक्ष्य की आवश्यकता को नहीं उठाया जा सकता । ( ए . आई . आर . 1954 एस . सी . 263 ) ।


    यदि वाद - पत्र में की एक धारा में कई तथ्य हों , तो उनका अलग अलग जवाब देना चाहिए । यह लिख देना उचित नहीं होता कि अमुक धारा स्वीकार नहीं है । 


नियम 3. प्रत्याख्यान स्पष्ट रूप का होगा ( Denial to be Specific ) - प्रतिवादी के लिए यह पर्याप्त न होगा कि वह अपने लिखित कथन में उन आधारों का साधारणतया प्रत्याख्यान ( Denial ) कर दे जो कि वादी द्वारा अभिकथित है , किन्तु प्रतिवादी के लिए आवश्यक है कि वह नुकसान धन से भिन्न ऐसे तथ्य सम्बन्धी अभिकथन का विशिष्टतः उत्तर दे जिसकी सत्यता वह स्वीकार नहीं करता है । 


      इन्कार टालू नहीं होना चाहिए । जहाँ प्रतिवादी वाद - पत्र के किसी तथ्य से इन्कार करता है , तो उसे टालमटोल के रूप में ऐसा नहीं करना चाहिए , बल्कि सार की बात का उत्तर देना चाहिए । ( आदेश 8 नियम 3 )


 नियम 4. वाग्छलपूर्ण प्रत्याख्यान ( Evasive denial ) - जहाँ कि प्रतिवादी वाद में  किसी तथ्य के अभिकथन का प्रत्याख्यान करता है वहाँ वाग्छल से उसे वैसा नहीं करना चाहिए । वरन् बात के सार का उत्तर देना चाहिए । इस प्रकार यदि अभिकथन किया जाता है कि उसने एक निश्चित धनराशि को प्राप्त किया है तो वह प्रत्याख्यान कि उसने एक निश्चित धनराशि को प्राप्त किया पर्याप्त नहीं होगा वरन् उसे यह चाहिए कि इस बात का प्रत्याख्यान करे कि उसने उस राशि या उसके किसी भाग को प्राप्त किया था या यह दर्ज करना चाहिए कि उसने कितनी राशि प्राप्त थी और यदि अभिकचन विभिन्न परिस्थितियों सहित किया गया है तो उन परिस्थितियों के साथ उस अभिकथन का प्रत्याख्यान पर्याप्त नहीं होगा । ( आदेश 8 नियम 4 ) 


उदाहरण के लिए यदि वादी का यह अभिकथन हो कि प्रतिवादी ने उससे 20 मार्च सन् 2022 को ₹ 5000 उधार लिया , तो प्रतिवादी का यह कहना कि उसने वादी से कोई रुपया उधार नहीं लिया था या यह कहना कि 20 मार्च सन् 2022 को ₹ 5000 उधार नहीं लिया काफी नहीं होगा ।



प्रतिवादी को यह कहना चाहिए कि उसने 20 मार्च सन् 2022 या किसी अन्य तारीख को वादी ₹ 5000 या कोई अन्य रकम उधार नहीं ली है । जवाब में यह कहना कि वादी अपने दस्तावेज को साबित करे वागछलपूर्ण है । 


नियम 5. स्पष्ट प्रत्याख्यान ( Specific denial ) — यदि वाद - पत्र में के तथ्य सम्बन्धी अभिकथन को स्पष्ट रूप से या परिणामतः विवक्षा के साथ प्रत्याख्यान नहीं दिया जाता है या प्रतिवादी के अभिवचन में उसने प्रति निर्देश से यह कथन नहीं है कि वह स्वीकारोक्ति नहीं किया जाता , तो उसके बारे में यह माना जायेगा कि वह वहाँ तक के सिवाय , जहाँ तक कि नियोग्यता अधीन वाले व्यक्ति का सवाल है , स्वीकारोक्ति कर लिया है । ( आदेश 8 नियम 5 )


       परन्तु ऐसी स्वीकारोक्ति किसी तथ्य को ऐसी स्वीकारोक्ति से अन्यथा सिद्ध किये जाने के लिए अपेक्षा न्यायाालय स्वविवेक में कर सकेगा । 


     इस नियम का अभिप्राय यह है कि प्रतिवादी को वादी के प्रत्येक बयान का उत्तर अपने लिखित कथन में देना चाहिए । यदि प्रतिवादी किसी बयान का उत्तर नहीं देता है तो यह मान लिया जायेगा कि यह बात उसे स्वीकार है । वाद - पत्र के कथनों का इन्कार साफ और स्पष्ट होना चाहिए । साधारणतया यह लिखना कि स्वीकार नहीं है , पर्याप्त नहीं होगा । ( ए . आई . आर . 1964 एस . सी . 538 ) । 


     यदि केवल गोद लिए जाने के तथ्य से इन्कार किया जाए तो वह गोद के वैधानिक होने के तथा से इन्कार न समझा जाय । ए . आई . आर . 1953 नाग- 239 ) । इसी प्रकार यदि किसी तथ्य को विशिष्ट रूप से इन्कार नहीं किया गया है तो इस तथ्य को वादी द्वारा स्वीकार किया गया माना जाएगा ( ए . आई . 1917 कल . 269 ) ।


 नियम 6. प्रतियादी की विशिष्टयों को लिखित कथन में दिया जायेगा । ( आदेश 8 नियम 6 ) । 



नियम 7. पृथक आधारों पर आधारित प्रतिरक्षा या प्रतिसादन ( Defence or setoff bounded upon separate grounds ) - जहाँ कि प्रतिवादी पृथक् और विभिन्न तथ्यों पर पृथक् और विभिन्न रूप से कथित किये जायेंगे । आधारित प्रतिरक्षा या प्रतिसादन के कई विभिन्न आधारों का सहारा लेता है , वहाँ वे यावत्साध्य पृथक और विभिन्न रूप से कथित किये जायेंगे ।

 प्रतिरक्षा असंगत आधारों पर नहीं करनी चाहिए । ( आदेश 8 नियम 7 ) 


नियम 8. प्रतिरक्षा का नया आधार ( New ground of defence ) - प्रतिरक्षा का ऐसा कोई आधार , जो कि वाद के संस्थित किये जाने के या प्रतिसादन का दावा करने वाले लिखित  कथन में उठाया जा सकेगा । कचन के उपस्थित किये जाने के पश्चात् पैदा हुआ है यथास्थित प्रतिवादी या वादी द्वारा अपने ( आदेश 8 नियम 8 ) 



नियम 9. पश्चात्वर्ती अभिवचन ( Subsequent pleadings ) — प्रतिसादन के ख प्रतिरक्षा करने को अनुमति से अन्यथा प्रतिवादी के लिखित कथन के पश्चात् कोई अभिवचन न्यायालय की इजाजत से और ऐसी शर्तों पर , जैसी कि न्यायालय ठीक समझता है उपस्थित किये जाने के सिवाय उपस्थित नहीं किया जाएगा किंतु न्यायालय पक्षकारों में किसी लिखित कथन या अतिरिक्त लिखित कथन किसी समय अपेक्षित कर सकेगा और उसे उपस्थित करने के लिए समय नियत कर सकेगा।( आदेश 8 नियम9)


नियम 10. जबकि पक्षकार न्यायालय द्वारा मांगे जाने पर लिखित कथन को उपस्थित करने में असफल रहता है तब प्रक्रिया( procedure  when  party fails to present written statement called by court): जहां कि ऐसा कोई पक्षकार जिससे कि लिखित कथन  ऐसे अपेक्षित किया गया है उसे न्यायालय द्वारा नियुक्त किए गए समय के भीतर उपस्थित करने में असफल रहता है वहाँ न्यायालय   उसके खिलाफ निर्णय या वाद के संबंध में आदेश दे सकेगा जैसा कि वह ठीक समझता है।( आदेश 8 नियम 10)












    

Comments

Popular posts from this blog

मेहर क्या होती है? यह कितने प्रकार की होती है. मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी को क्या अधिकार प्राप्त है?What is mercy? How many types are there? What are the rights of the wife if dowry is not paid?

मेहर ( Dowry ) - ' मेहर ' वह धनराशि है जो एक मुस्लिम पत्नी अपने पति से विवाह के प्रतिफलस्वरूप पाने की अधिकारिणी है । मुस्लिम समाज में मेहर की प्रथा इस्लाम पूर्व से चली आ रही है । इस्लाम पूर्व अरब - समाज में स्त्री - पुरुष के बीच कई प्रकार के यौन सम्बन्ध प्रचलित थे । ‘ बीना ढंग ' के विवाह में पुरुष - स्त्री के घर जाया करता था किन्तु उसे अपने घर नहीं लाता था । वह स्त्री उसको ' सदीक ' अर्थात् सखी ( Girl friend ) कही जाती थी और ऐसी स्त्री को पुरुष द्वारा जो उपहार दिया जाता था वह ' सदका ' कहा जाता था किन्तु ' बाल विवाह ' में यह उपहार पत्नी के माता - पिता को कन्या के वियोग में प्रतिकार के रूप में दिया जाता था तथा इसे ' मेहर ' कहते थे । वास्तव में मुस्लिम विवाह में मेहर वह धनराशि है जो पति - पत्नी को इसलिए देता है कि उसे पत्नी के शरीर के उपभोग का एकाधिकार प्राप्त हो जाये मेहर निःसन्देह पत्नी के शरीर का पति द्वारा अकेले उपभोग का प्रतिकूल स्वरूप समझा जाता है तथापि पत्नी के प्रति सम्मान का प्रतीक मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित पति के ऊपर यह एक दायित्व है

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद - पत्र में न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का नाम लिखना आवश्यक

अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि क्या होती है? विवेचना कीजिए.( what is the relation between National and international law?)

अंतर्राष्ट्रीय विधि को उचित प्रकार से समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि के संबंध को जानना अति आवश्यक है ।बहुधा यह कहा जाता है कि राज्य विधि राज्य के भीतर व्यक्तियों के आचरण को नियंत्रित करती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्र के संबंध को नियंत्रित करती है। आधुनिक युग में अंतरराष्ट्रीय विधि का यथेष्ट विकास हो जाने के कारण अब यह कहना उचित नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि केवल राज्यों के परस्पर संबंधों को नियंत्रित करती है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय विधि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के संबंधों को नियंत्रित करती है। यह न केवल राज्य वरन्  अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, व्यक्तियों तथा कुछ अन्य राज्य इकाइयों पर भी लागू होती है। राष्ट्रीय विधि तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों प्रणालियों के संबंध का प्रश्न आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि में और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि व्यक्तियों के मामले जो राष्ट्रीय न्यायालयों के सम्मुख आते हैं वे भी अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हो गए हैं तथा इनका वृहत्तर  भाग प्रत्यक्षतः व्यक्तियों के क्रियाकलापों से भी संबंधित हो गया है।