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भारतीय जेलों में जाति आधारित भेदभाव: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला और इसके प्रभाव

अभिवचनों का संशोधन क्या है?संशोधन के सम्बन्ध मे न्यायालय की क्या शक्तियाँ होती है?(What is amendment of pleading ?state the general powers of the court regarding amendment .)

 अभिवचन का संशोधन ( Amendment of Pleading ) 

अभिवचन में संशोधन के सम्बन्ध में व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 नियम 17 इस प्रकार है -

 " न्यायालय दोनों में से किसी भी पक्षकार को कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम में समनुज्ञा दे सकेगा कि वह अपने अभिवचनों को ऐसी रीति में और ऐसी शर्तों पर जैसे कि न्यायोचित हो बदल ले या संशोधित कर ले और समस्त ऐसे संशोधन किये जायेंगे जो कि पक्षकारों के बीच में विवादास्पद वास्तविक प्रश्नों के अवधारण के प्रयोजन के लिए आवश्यक हैं । "


     अभिवचनों के संशोधन का अर्थ है अभिवचन में हुई किसी आकस्मिक भूल चूक को ठीक करना या किसी नये अभियोग या प्रतिरक्षा के नये आधार को जोड़ना जो छूट गया हो । 


अभिवचन के संशोधन के सिद्धान्त  ( Principles of Amendment of Pleading ) न्यायालय द्वारा अभिवचन के संशोधन किए जाने के सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त है -


पहला सिद्धान्त यह है कि संशोधन करने की अनुमति उदारता से देनी चाहिए । प्रत्येक न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह वाद बाहुल्यता को रोके और पक्षों के बीच के विवाद को स्पष्ट करे और उस प्रयोजन के लिए यथासम्भव संशोधनों की अनुमति प्रदान करे । परन्तु अनुमति देते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं उससे विपक्ष को तो गम्भीर हानि नहीं पहुँचती तथा वाद की प्रकृति तो नहीं बदलती है और संशोधन कराने का उद्देश्य न्यायालय के अधिकारों का दुरुपयोग और किसी के प्रति अन्याय तो करना नहीं है । सामान्य सिद्धान्त जिन पर न्यायालय को स्वविवेक से कार्य करना चाहिए , ये है-



 ( i ) न्यायालय को किसी भी पक्ष को नया मामला खड़ा करने को अनुमति नहीं प्रदान चाहिए । 

( ii ) उन सभी मामलों में संशोधन की अनुमति प्रदान करने की चेष्टा करनी चाहिए जहाँ विपक्ष की क्षतिपूर्ति हर्जा दिला कर को जा सके । 

( iii ) ऐसे संशोधन की अनुमति नहीं देनी चाहिए जिससे विपक्षी पाये हुए विधिक अधिकार से वंचित हो जाय । 


  इस विषय पर उच्चतम न्यायालय ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है कि अभिवचन को बहुत संकीर्ण व सख्त ( strict ) न बनाना चाहिए तथा यह कि अभिवचन को पढ़ते समय उसके रूप ( form ) को नहीं बल्कि उसके सार को ध्यान में रखना चाहिए । ( एस . एम . बनर्जी बनाम श्रीकृष्ण अग्रवाल ए . आई . आर . 1960 एस . सी . 368 ) 


               ( iv ) संशोधनों की अनुमति सद्भावपूर्ण ( bonafide ) गलतियों को दूर करने के उद्देश्य से उचित मामलों में दे देनी चाहिए , चाहे ऐसी गलती विधि या तथ्य की हो ।


 ( v ) और ऐसे संशोधन जिससे वाद विषय में परिवर्तन नहीं होता अथवा जो अन्य प्रकार से अनुचित नहीं है उसकी अनुमति भी दी जा सकती है ।



                उन सभी मामलों में संशोधन की आज्ञा प्रदान करने का प्रयास की गई है वह बिल्कुल  विरोधी पक्षकार को प्रस्तावित संशोधन द्वारा होने वाली क्षति को खर्चा ( cost ) देकर पूरा किया सकता है । 



        न्यायालय को अभिवचन में संशोधन करने की जो शक्ति प्रदान की गई है वह बिल्कुल  विवेकाधीन है । विवेकाधिकार का प्रयोग प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के विचार से न्यायिक वह रूप से किया जायेगा । 


 संशोधन से इन्कार- निम्नलिखित ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनमें संशोधन की अनुमति नहीं देनी चाहिए

 ( 1 ) जब पक्षों के विवादास्पद प्रश्नों का निर्धारण करने के लिए संशोधन आवश्यक न हो । 

( 2 ) जब संशोधन से विपक्षी को ऐसी हानि हो जो हर्जे द्वारा पूरी नहीं की जा सकती हो ।

( 3 ) किसी वाद - पत्र को संशोधित कराने की अनुमति नहीं देनी चाहिए जब उससे प्रतिवाद की कालावधि ( Limitation ) को वैध युक्ति बेकार हो जाय ।


 ( 4 ) संशोधन की अनुमति नहीं देनी चाहिए जहाँ संशोधन द्वारा उचित मामले के लिए को सारभूत आधार न हो या संशोधन का उद्देश्य वादी के अभिवचन को निष्फल करने या वाद में देरी करने का हो । 

 ( 5 ) संशोधन की अनुमति उस समय नहीं देनी चाहिए जबकि इसके देने से एक बिल्कुल भिन्न , नया असंगत केस खड़ा किया जाता हो और प्रार्थना पत्र बहुत देर से दिया गया हो । 


( 6 ) संशोधन की अनुमति नहीं देनी चाहिए जहाँ कि संशोधन के लिए आवेदन सद्भावनापूर्वक नहीं दिया गया है । 

अभिवचनों का संशोधन निम्न दो प्रकार से हो सकता है 


( I ) विपक्ष के कहने पर या

 ( 2 ) स्वतन्त्र न्यायालय द्वारा ।


विपक्षी की प्रार्थना पर संशोधन : 

न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में , किसी अभिवचन से किसी विषय को निकाल देने या संशोधित करने का आदेश कर सकेगा , जो ( 1) अनावश्यक , ( ii ) अपमानजनक , या ( ii ) जो मुकदमे के उचित परीक्षण को विलम्बित करने की या प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने की या परेशान करने की प्रवृत्ति रखता हो ।

 इस नियम के अनुसार यदि किसी पक्षकार का अभिवचन त्रुटिपूर्ण है तो विपक्ष को निम्नलिखित उपाय उपलब्ध होते हैं 


( 1 ) विपक्ष विवरण या अतिरिक्त विवरण की माँग कर सकता है । 

( 2 ) अभिवचनों के आपत्तिजनक भाग को निकाल देने या उससे संशोधित कर देने की माँग कर सकता है । 

( 3 ) विपक्ष पूरे वादपत्र को रद्द कर देने की माँग कर सकता है ।  संशोधन सम्बन्धी अग्रवत् साधारण अधिकार न्यायालय की व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 153 के अन्तर्गत प्राप्त है।




" न्यायालय किसी भी समय और खर्चों के सम्बन्ध में ऐसी शर्तों पर या अन्यथा जैसा कि वह ठीक समझे वाद में किसी कार्यवाही में भी किसी त्रुटि को संशोधित कर सकेगा और ऐसी कार्यवाही द्वारा उठाये गये या उस पर अवलम्बित वास्तविक प्रश्न या वाद - पत्र के अवधारण के प्रयोजन के लिए सब आवश्यक संशोधन किये जायेंगे । " 


 आदेश के पश्चात् संशोधन करने में असफल रहना- यदि कोई पक्षकार जिसने संशोधन करने की इजाजत के लिए आदेश प्राप्त कर लिया है , उस आदेश द्वारा उस प्रयोजन के लिए मर्यादित समय के भीतर तदनुसार या यदि इसके द्वारा कोई समय मर्यादित नहीं किया गया है । और यदि आदेश की तारीख से 14 दिनों के भीतर संशोधित नहीं करता तो जब न्यायालय द्वारा समय बढ़ा न दिया गया हो उसे यथास्थिति उपर्युक्त ऐसे मर्यादित समय के या ऐसे 14 दिनों की अवधि के समाप्त होने के पश्चात् संशोधन करने का अधिकार न होगा । 


संशोधन और कोर्ट फीस - जहाँ संशोधन से वाद की विषय वस्तु का मूल्य बढ़ जाता है । वहाँ यदि अधिक कोर्ट फीस करने की अपेक्षा की जाती हो तो वादी को इसे अदा करनी चाहिए । यह आवश्यक नहीं कि कोर्ट फीस इसी समय अदा कर दी जाय जबकि संशोधन के लिए आवेदन पत्र दिया हो । ( ए . आई . आर . मद्रास 1009 ) 


        यह आवश्यक नहीं है कि संशोधन वाद - पत्र के मुख्य पृष्ठ पर किया जाये । यह अलग कागज पर भी किया जा सकता है । परन्तु बम्बई उच्च न्यायालय का मत है कि यह साधारणतया वाद - पत्र के मुख पृष्ठ पर ही किया जाता है । ( ए . आई . आर . 1922 बॉम्बे 385 )


 शर्तें जिन पर संशोधन की अनुमति दी जाती है - न्यायालय संशोधन की अनुमति ऐसी शर्तों पर देगा जो न्यायपूर्ण हो । यह शक्ति व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत न्यायालय को प्रदान की गई है । सामान्यतया हर्जा अदा करने को ही शर्त पर संशोधन की अनुमति की जाती है जिसका तात्पर्य है प्रार्थना पत्र का हर्जा , साक्ष्य का खर्चा या संशोधन के कारण अभिवचन के प्रभावहीन होने का खर्चा उचित मामलों में जो खर्चा संशोधन के दिनांक तक हुआ हो उसके अदा करने की आज्ञा दी जा सकती है ।



 संशोधन की सीमा- किसी भी अभिवचन में संशोधन उस सीमा तक करना चाहिए जहाँ तक कि न्यायालय ने अनुमति प्रदान की हो । परन्तु " जहाँ सिर्फ पक्षकारों में परिवर्तन की स्वीकृति प्रदान की गई थी और बाद में माँग गये अनुतोषों में भी परिवर्तन कर दिया , जो वहाँ यह निर्धारित किया गया कि वाद को नये सिरे से दाखिल किया गया समझा जाना चाहिए यद्यपि अनधिकृत संशोधन पर न तो न्यायालय ने ही और न ही विपक्ष ने कोई आपत्ति की थी । ( ए . आई . आर . 1956 हि ० प्र ० ( 2 ) ) 





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