शुफा के अधिकार के लिए क्या औपचारिकताएँ हैं ? हक शुफा की मांग What are the formalities to create the right of pre - emption ? Who can claim the right of premption ?
शुफा के लिए औपचारिकताएँ ( Formalitics for premption ):- शुफा का अधिकार दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति की बिक्री के अधिकार पर हस्तक्षेप करता है । अतः हिदाया और निर्णय विधि के अनुसार यह कमजोर अधिकार है । शुफा की मुस्लिम विधि तकनीकी विधि है और सभी औपचारिकताओं का पूर्ण होना आवश्यक है । औपचारिकताओं के पूर्ण न होने पर या दोषपूर्ण होने पर शुफा का अधिकार प्रवर्तित नहीं हो सकता है । अतः कानून की दृष्टि से कुछ औपचारिकताओं को बाध्यकारी समझा जाता है ।
शुफा के लिए निम्न तीन माँगे की जाती हैं
( 1 ) पहली माँग अर्थात् तलब - ए - मुबासियत ।
( 2 ) दूसरी माँग अर्थात् तलब - ए - ईशाद ।
( 3 ) तीसरी माँग अर्थात् तलब - ए - तायलीक या तलब - ए - युसयत ।
( 1 ) तलव - ए - मोवासियत ( पहली माँग ) -शुफी को विक्रय का पता लगते ही तुरन्त अपना हक मांगना चाहिए परन्तु उससे पहले नहीं । इसके लिए किसी गवाह की या औपचारिकता की आवश्यकता नहीं होती । न्यायालय इस बात पर विशेष ध्यान देता है कि पहली माँग तुरन्त होनी चाहिए अन्यथा वह शुफा व चाहने की इच्छा मानी जायेगी । एक मामले में शुफी के दावे को सिर्फ इसलिए नहीं माना गया कि उसने उक्त दावा बारह घण्टे बाद किया था और दूसरे मामले में शुफी घर में रुपये निकालने चला गया ( क्योंकि उसने सोचा होगा कि तुरन्त रुपये न देने पड़ें । ) इस सम्बन्ध में कानूनी अपेक्षा यही है कि अत्यधिक शीघ्रता ( extreme promptness ) होनी चाहिए और किसी प्रकार की ढील भी हक शुफा को समाप्त कर देती है ।
( 2 ) तलव - ए - इशाद ( Talb - i - Ishad ) या दूसरी माँग - शुफी को उसके लिए यथासम्भव शीघ्र दूसरी मांग करनी चाहिए जिसके लिए
( अ ) वह पहली माँग का हवाला दे ।
( ब ) दूसरी मांग दो गवाहों के सामने करे ।
( स ) ऐसा या तो विक्रेता के सामने करे ( यदि वह सम्पत्ति उसके कब्जे में हो ) या विक्रेता के या चाहरदीवारी के अन्दर करे ।
इसको तलब - ए - तकरीर ( lalab - i - Taqrir ) या माँग की पुष्टि भी कहा जाता है ।
अगर शुफी किसी दूर स्थान पर रहता है और व्यक्तिगत रूप से नहीं जा सकता तो उसकी ओर से उसका अभिकर्ता ( Agent ) दूसरी मांग कर सकता है । यदि अभिकर्ता द्वारा कोई चूक हो जाय तो उससे शुफी बाध्य होगा । दूसरी मांग के समय मूल्य का भुगतान कर देना या प्रस्ताव भुगतान का करना आवश्यक नहीं है ।
शुफी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह घर में घुस जाये और इसकी मांग करे इतना ही काफी है कि वह उस घर के निकट चला जाये तथा दीवार छूकर माँग करे । दूसरे मांग जिन - जिन क्रेताओं के विरुद्ध की जाय शफी केवल उन्हीं के विरुद्ध शुफा का वाद कर सकता है ।
( 3 ) तीसरी मांग ( The third demand ) तीसरी माँग वास्तव में मांग न होकर कानूनी कार्यवाही करना होता है । ऐसा करना तभी आवश्यक होता है अब शुफी को अपना अधिकार न्यायालय द्वारा लागू करना हो । ऐसी कार्यवाही तलब - ए - तामलीक ( Talab - a - Tamlike ) कहा जाता है । जिसका अर्थ कब्जे की माँग या जहाँ माँग के विषय में विवाद हो , होता है । ऐसा वाद यदि समाप्ति मौलिक हो तो विक्रेता द्वारा कब्जा लेने के 1 वर्ष के भीतर किया जाना चाहिए और यदि अभौतिक हो तो विक्रय के पत्रों के निष्पादन के 1 वर्ष के अन्दर हो ।
हर शुफा का दावा पूरी सम्पत्ति के लिए किया जाना चाहिए न कि केवल उसके किसी हिस्से के लिए हो ।
सुन्नी सम्प्रदाय के अन्तर्गत हनाफी कानून के अनुसार निम्नलिखित तीन श्रेणी के व्यक्ति शुफा कर सकते हैं
● ( i ) शफीक - ए - शरीक - सफा - ए - शरीक का तात्पर्य होता है - सम्पत्ति में सह अंशधारी । वे व्यक्ति जो कि सामान्य पूर्वज की सम्पत्तियों को उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं । ऐसी सम्पत्तियों में सह - अंशधारी होते हैं । यदि कोई सह - अंशधारी सम्पत्ति को बेचता है तो दूसरा सह - अंशधारी ऐसी सम्पत्ति पर शुफा के अधिकार का दावा कर सकता है । शफी - ए - शरीक या सह - अंशधारी का शुफा का अधिकार सर्वश्रेष्ठ प्रकृति का होता है और यह अन्य दोनों प्रकार के अग्रक्रयाधिकारियों ( Rc - emptors ) को अपवर्जित करता है ।
2. शफी - ए - खलील - यदि कोई व्यक्ति सुखाधिकार का अधिकार रखता है तो उसे ऐसी सम्पत्ति पर शुफा का अधिकार प्राप्त होता है । लाडूराम बनाम कल्याण सहाय ' के वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह अवलोकन किया है कि शफी - ए - खलील के रूप में शुफा के अधिकार का दावा प्रकाश और हवा के आधार पर नहीं किया जा सकता और ऐसा अधिकार केवल मार्ग और जल के सुखाधिकार तक सीमित है ।
3. शफी - ए - जार - शफी - ए - जार का तात्पर्य होता है ऐसा व्यक्ति जो मिली हुई अचल सम्पत्ति का स्वामी हो । परन्तु मिली हुई अचल सम्पत्ति का किरायेदार या ऐसा व्यक्ति जो कि बिना वैध अधिकार के ऐसी सम्पत्ति पर काबिज हो , शफी - ए - जार की श्रेणी में नहीं आता । वाकिफ या मुतवल्ली शुफा का दावा नहीं कर सकता , क्योंकि वह वक्फ सम्पत्ति का स्वामी नहीं होता ।
वासुदेव चौधीरी बनाम स्टेट ऑफ बिहार के वाद में पटना उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिमत व्यक्त किया गया है कि प्रथम श्रेणी के शफी ( अग्रकेता ) दूसरी श्रेणी के अग्रकेताओं को अपवर्जित करते हैं और दूसरी श्रेणी के अग्रकेता तीसरी श्रेणी के अग्रक्रेताओं को । परन्तु किसी एक वर्ग के पूर्व - क्रयाधिकारियों के बीच आपस में कोई असमानता नहीं रहती है और उनमें से प्रत्येक को पूर्व - क्रय का समान अधिकार प्राप्त है ।
" शुफा का अधिकार किसी व्यक्ति के सम्पत्ति रखने या निपटारा करने के अधिकार पर रोक " इस कथन की भारतीय संविधान में उल्लिखित सम्पत्ति के सन्दर्भ में व्याख्या ( The right of pre - emption is a restraint on the righi to hold or dispose of ones property the light of the provision in the Indian Constitution ):-
हक शुफा या अग्रक्रयाधिकार ( The right of pre - emption ) का अस्तित्व मुस्लिम विधि में बहुत समय से है जिसके अनुसार किसी भी अचल सम्पत्ति का विक्रय होने पर उसको खरीदने का पहला अधिकार हिस्सेदार तत्पश्चात् पड़ौसी को होता है । इसका तात्पर्य यह है कि मुस्लिम विधि के इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पत्ति खरीदने और बेचने का एक सार्वभौतिक सिद्धान्त नहीं है बल्कि कुछ श्रेणी में लोगों को खरीदने में प्राथमिकता दिये जाने के कारण यह अधिकार संकुचित हो गया । इसके विपरीत भारत के संविधान 1950 में लागू होने के बाद नागरिकों को मौलिक अधिकर मिले जिनमें सबसे प्रमुख सम्पति का अधिकार था । संविधान के अनुच्छेद 19 ( 1 ) ' क ' के अनुसार भारतीय नागरिकों की सम्पत्ति प्राप्त करने , उपयोग करने और निपटारा करने का पूर्ण अधिकार होता है । अतः इस प्रकार से शुफा ( Pre - emption ) किसी गैर - मुस्लिम को मुसलामन की सम्पत्ति खरीदने से रोकने पर उनसे सम्पत्ति के अधिकार जिसकी पुष्टि अनुच्छेद 13 द्वारा की गई और लोक कल्याण की दृष्टि से अनुच्छेद 15 ( 5 ) द्वारा प्रतिबन्धित है , का हनन होता है ।
इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय का मत है कि शुफा का अधिकार कानून सम्पत्ति में स्वामी पर सम्पत्ति रखने , उपयोग या अन्तरित करने इत्यादि पर प्रतिबन्ध लगाता है क्योंकि पहले सम्पत्ति का सह - अंशधारी जो कि मुसलमान हो , उस सम्पत्ति को खरीद सकता है । अतः उच्चतम न्यायाय के निर्णय को ध्यान में रखकर उक्त कथन का प्रतिवाद नहीं किया जा सकता ।
हक शुफा के कानूनी परिणाम the legal effect of pre - emption
सुफा के निम्नलिखित कारण होते है-
( 1 ) क्रेता ( Vendee ) शफी का विक्रय कर्त्ता ( Vendor ) बन जाता है ।
( 2 ) शुफी ( Pre - emptor ) क्रेता का स्थान ले लेता है ।
( 3 ) क्रेता ( Vendee ) अन्तर्कालीन ( Mense profit ) और लाभ लेने का अधिकारी होता है ।
उदाहरण के लिए ' अ ' अपना मकान जो कि ' स ' के पास 5 हजार रुपये में बन्धक रखता है , बेचना तय किया । ' घ ' ने अपना हक शुफा का दावा करके उस मकान पर कब्जा कर लिया । अतः ' घ'स ' को बन्धक धन देगा चाहे उसे उस बात की सूचना थी अथवा नहीं । को ही वाद का पक्ष बनाया जाता है । सिद्धान्त यह है कि शुफी हमेशा सम्पत्ति क्रेटा से लेता है न कि विक्रेता से ।
( 4 ) क्रेता द्वारा सम्पत्ति का निपटारा करने का प्रयत्न करने या उसकी मृत्यु होने का शुफी यदि कोई हो तो कभी शुफी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । विक्रया की संविदा के पूर्ण होने के बाद विक्रय की शर्तों में परिवर्तन क्रेता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता
ए . आई . आर 1963 राज 195
ए . आई . आर . 1984 पटना 178
Comments
Post a Comment