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विदेशों में भारतीय कानून: IPC, UAPA, और अंतरराष्ट्रीय संधियों के तहत भारतीय अधिकार क्षेत्र की समझ

दीवानी न्यायालयों का क्षेत्राधिकार प्रतिबंधित करने के लिये उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 के अन्तर्गत कौन कौन से मामलें हो सकते हैं?What are the cases under the Uttar Pradesh Zamindari Abolition and Land Reforms Act 1950 to restrict the jurisdiction of civil courts?

राजस्व न्यायालयों का एकमात्र क्षेत्राधिकार ( the exclusive  jurisdiction of revenue board )


हमारे देश के प्रत्येक राज्य में लगान मालगुजारी और भूमि संबंधी मामलों में राजस्व न्यायालयों  को एकमात्र क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है । वह शायद इस कारण कि राजस्व न्यायालयों के अधिकारी इन मामलों में अधिक जानकारी रखते हैं और यह कि दीवानी न्यायालय द्वारा निर्णय होने में काफी विलंब होता है और प्रक्रिया भी काफी पेचीदी है । ऐसा आमतौर पर महसूस किया गया कि राजस्व न्यायालय सस्ता और शीघ्र मिल जाने वाला अनुतोष ( relief ) प्रदान कर सकेगा ।


 इस प्रकार उ . प्र . जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम की धारा 331 ( 1 ) यह प्रावधानित करती है कि- " उन अपवादों को छोड़कर जो अधिनियम द्वारा या उसके अधीन प्रावधानित हैं , दीवानी प्रक्रिया संहिता ( सी . पी . सी . ) की धारा 158 में किसी बात के रहते हुए भी इस अधिनियम की ' द्वितीय अनुसूची ' के खाना 4 में उल्लिखित न्यायालय के अतिरिक्त कोई अन्य न्यायालय उक्त अनुसूची के खाना 3 में वर्णित किसी वाद , प्रार्थना - पत्र या कार्यवाही पर या ऐसे वाद हेतु पर आधारित वाद , प्रार्थनापत्र या कार्यवाही पर जिसके सम्बन्ध में किसी ऐसे वाद या प्रार्थनापत्र द्वारा कोई अनुतोष प्राप्त किया जा सकता था विचार न करेगा । " 

the exclusive jurisdiction of revenue board



 In every state of our country, revenue courts have been given sole jurisdiction in matters related to land revenue and revenue.  This is probably due to the fact that the officials of the Revenue Courts are more knowledgeable in these cases and that the decision by the Civil Court is very delayed and the procedure is also very complicated.  It was generally felt that the Revenue Court would be able to provide cheap and quick relief.



 In this way  U.P.  Section 331 (1) of the Zamindari Abolition and Land Settlement Act provides that- "Save as otherwise provided by or under the Act, notwithstanding anything contained in section 158 of the Code of Civil Procedure (C.P.C.),  Provided that any court other than a court mentioned in column 4 of the 'Second Schedule' to this Act shall have jurisdiction over any suit, application or proceeding referred to in column 3 of the said Schedule or any suit, application or proceeding based on such suit,  shall not consider any relief in respect of which any relief could be obtained by such suit or application."


उ . प्र . जमींदारी - विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम की द्वितीय अनुसूची के खाना 4 में जो न्यायालय उल्लिखित हैं वे हैं - तहसीलदार , सहायक कलेक्टर प्रथम श्रेणी , सहायक कलेक्टर परगनाधिकारी और कलेक्टर के राजस्व न्यायालय विधान - मण्डल का इरादा यह है कि कुछ किस्म के मुकदमे राजस्व न्यायालय द्वारा ही सुने जायें जो कि ऐसे अधिकारी की अध्यक्षता में हो जिन्हें राजस्व मामलों की जानकारी और प्रशिक्षण प्राप्त हो । उन अधिकारियों के रोजाना के कार्य मालगुजारी , भूमि - उपज और राजस्व कागजात से सम्बन्धित होते हैं । इस कारण से ग्रामीण समुदाय के निकट सम्पर्क में आते हैं और इस तरह के विशिष्ट अनुभव प्राप्त कर वे मुकदमों का निपटारा जल्दी और बेहतर तरीके से कहते हैं ।


 यह एक सुस्थापित सिद्धान्त है कि कोई भी अधिनियम जो दीवानी न्यायालयों ( civil Courts ) के क्षेत्राधिकार को बहिष्कृत करे , उनका अर्थान्वयन संकुचित रीति से किया जाना चाहिये , और जब भाषा सन्देहात्मक हो तो उसका अर्थ इस प्रकार से किया जाना चाहिए जिससे दीवानी न्यायालय को क्षेत्राधिकार बना रहे । यही कारण है कि दीवानी न्यायालय सदैव राजस्व न्यायालय की क्षेत्राधिकारिता को अर्थान्वयन ( interpre tation ) द्वारा कम करने का प्रयत्न करते रहे हैं और हमारे राज्य के विधान मण्डल ने प्रत्येक बार अधिनियम बनाकर या संशोधन कर दखलन्दाजी की है । सन् 1961 ई . में अधिनियम की धारा 331 ( 1 ) में एक स्पष्टीकरण इस प्रकार जोड़ा गया- " यदि वाद हेतु ऐसा है कि जिसके सम्बन्ध में राजस्व न्यायालय द्वारा अनुतोष प्रदान किया जा सकता है । तो यह महत्वहीन है कि दीवानी न्यायालय में माँगा गया अनुतोष उसके समान न हो जिसे राजस्व न्यायालय ने प्रदान किया होता । " 

U.  P.  The Courts mentioned in column 4 of the Second Schedule to the Zamindari-Annihilation and Land Settlement Act are Tehsildar, Assistant Collector First Class, Assistant Collector, Pargana Adhikari and Collector's Revenue Court.  should be heard only by the Court which is headed by such an officer who has knowledge and training in revenue matters.  The day-to-day work of those officers is related to land revenue, land produce and revenue papers.  For this reason, they come in close contact with the rural community and by getting such specialized experience, they can dispose of the cases quickly and in a better way.



 It is a well-established principle that any Act which excludes the jurisdiction of civil courts must be construed narrowly, and when the language is ambiguous, it must be so construed as to exclude jurisdiction of the civil court.  Keep making  This is the reason why the Civil Courts have always been trying to reduce the jurisdiction of the Revenue Courts by interpretation and the Legislature of our State has intervened every time by enacting or amending the Act.  In the year 1961  In 1955, an Explanation was added to section 331(1) of the Act as follows- "If the cause of action is one in respect of which relief may be granted by the Revenue Court, it is immaterial that the relief sought in the Civil Court is not the same."  which the Revenue Court would have granted."

इस स्पष्टीकरण को बनाने का उद्देश्य यह निश्चित करना था कि राजस्व न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को अप्रत्यक्ष तरीके से बहिष्कृत न कर दिया जाय या हड़प न लिया जाय ।




 इस प्रकार दीवानी न्यायालयों का क्षेत्राधिकार न केवल उन मामलों में बहिष्कृत है जिनका कि उल्लेख अनुसूची द्वितीय के खाना 4 में है वरन् उस वाद हेतु ( Cause of action ) जिसके सम्बन्ध में राजस्व न्यायालय अनुतोष प्रदान कर सकता है , पर उसी प्रकार का कोई अनुतोष दीवानी न्यायालय द्वारा प्रदान नहीं किया जायेगा । 

The purpose of making this clarification was to ensure that the jurisdiction of the Revenue Courts is not indirectly excluded or usurped.





 Thus the jurisdiction of the Civil Courts is excluded not only in respect of the matters enumerated in column 4 of the Second Schedule, but also in respect of the cause of action in respect of which the Revenue Court may grant relief, but any relief of the same kind is civil  will not be granted by the court.


क्षेत्राधिकार विनिश्चय करने की कसौटी

 ( क ) वाद हेतु ( Cause of action ) - किसी न्यायालय की क्षेत्राधिकारिता वाद - हेतु   से विनिश्चित की जाती है । शब्दावली " वाद - हेतु " की परिभाषा यद्यपि कहीं दी नहीं गई है यद्यपि यह अब भली - भाँति समझी जा चुकी है । वाद - हेतु से अभिप्राय ऐसे आवश्यक तथ्यों के समूह से है जिन्हें वादी द्वारा मुकदमे में सफलता पाने के लिये साबित करना आवश्यक है । अन्य शब्दों में , वादी उन तथ्यों की प्रकृति की अवश्य जाँच करे जिनके आधार पर वह मुकदमा दायर करने के लिये बाध्य हुआ है । उदाहरणार्थ , जहाँ कोई  भूमिधर यह लांछन लगाता है कि प्रतिवादी ने उसकी भूमिधरी जमीन पर अनधिकृत निर्माण कर लिया है और इस कारण उसकी जमीन पर अतिक्रमण किया है , तो मुकदमे के लिये वाद - हेतु होगा , " वादी को उसकी भूमि से गलत ढंग से कब्जाविहीन किया जाना " और इस कारण अधिनियम की धारा 209 के अन्तर्गत मुकदमा राजस्व न्यायालय में दायर होगा । किसी भूमि के रजिस्ट्रीशुदा विक्रय होने पर जब वादी विक्रयपत्र को इस आधार पर निरस्त कराना चाहता है कि उक्त भूमि उसकी भूमिधरी है और वह उस पर काबिज है तो विक्रेता को बेचने को कोई हक नहीं था तो वाद सिविल ( दीवानी ) न्यायालय में दायर किया जायेगा । 

criteria for deciding jurisdiction


 (a) Cause of action - The jurisdiction of a court is decided by the cause of action.  Although the definition of the term "argument" is not given anywhere, although it is now well understood.  Cause of action refers to a set of essential facts which are necessary to be proved by the plaintiff in order to succeed in the suit.  In other words, the plaintiff must inquire into the nature of the facts on the basis of which he is bound to file the suit.  For example, where a landowner alleges that the defendant has made unauthorized constructions on his landowner's land and has thereby encroached on his land, the cause of action for the suit would be, "the plaintiff has been wrongfully deprived of possession of his land."  to be done" and therefore a suit under section 209 of the Act shall be filed in the Revenue Court.  After the registered sale of a land, when the plaintiff wants to cancel the sale deed on the ground that the said land is his landholder and he is in possession of it, then the seller had no right to sell it, then the suit will be filed in the civil court.  .

 ( ख ) मुख्य अनुतोष ( Main Relief ) - जिन मामलों में किसी निश्चित वाद हेतु पर दो अनुतोषों की मांग की जा सकती है , वहाँ मुख्य विचारणीय बात यह है कि दोनों अनुतोषों में कौन - सा अनुतोष प्रमुख है और कौन सा अनुतोष आनुषंगिक । यदि किसी मामले के तथ्य और परिस्थिति के अनुसार किसी निर्माण को ढहाना और व्यादेश ( इन्जक्शन ) ही मुख्य अनुतोष है तो कोई कारण नहीं कि दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकार को बहिष्कृत किया जाय । इसके विपरीत यदि कहा जाय कि उस वाद - हेतु पर मुख्य अनुतोष केवल कब्जा प्राप्ति का ही हो सकता है तो मुकदमा अवश्य ही राजस्व न्यायालय में दायर होगा जब कोई मुकदमा अतिक्रमणी के विरुद्ध दायर किया जाता है तो यह कहना बड़ा मुश्किल है कि वादी जिस अनुतोष की माँग करे , वह है प्राप्ति का , और उसे व्यादेश के लिए प्रयत्न नहीं करना चाहिये और न ही अतिक्रमणों के निर्माण को ढहाने का । यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि राजस्व न्यायालयों को व्यादेश ( निषेधाज्ञा देने और निर्माण गिराने के अनुतोष प्रदान करने की शक्ति नहीं है , यदि अतिक्रमणी के विरुद्ध कब्जा - प्राप्ति की डिक्री वादी के पक्ष में पास हो जाती है । और तब भी प्रतिवादी निर्माण सामग्री को वादी की भूमि से नहीं हटाता है तो वादी के का मुख्य उद्देश्य ही निष्फल हो जायेगा । इस कारण जहाँ वादीद्वारा पक्ष में पारित डिक्री का मुख्य उद्देश्य ही निष्फल हो जायेगा ।इस कारण वहाँ वादी द्वारा  याचित मुख्य अनुतोष , व्यादेश और निर्माण गिराना है , उसे दीवानी न्यायालय ही अनुतोष प्रदान कर सकता है और इसी कारण से वह दीवानी न्यायालय में दायर किया जायेगा । कब्जा प्राप्ति का अनुतोष तो केवल आनुषंगिक अनुतोष होता है जिसे दीवानी न्यायालय सकेगा । एक बार मुख्य अनुतोष के लिए यदि दीवानी न्यायालय में वाद संघाय ( चलने योग्य ) हो गया तो दीवानी न्यायालय के ऊपर उसी वाद - हेतु के परिणामस्वरूप सभी सम्भाव्य अनुतोष प्रदान करने में कोई रुकावट न होगी । 

(b) Main Relief - In cases where two reliefs can be demanded for a certain cause, the main consideration is which of the two reliefs is the main and which relief is incidental.  If according to the facts and circumstances of a case, demolition of a building and injunction is the main relief, then there is no reason why the jurisdiction of the civil court should be excluded.  On the contrary, if it is said that the main relief on that cause of action can only be to get possession, then the case must be filed in the Revenue Court.  What he demands is for attainment, and he should not try for prohibition nor for demolishing the construction of encroachments.  The point to be noted here is that the Revenue Courts do not have the power to grant injunction and the relief to demolish the construction, if a decree for possession against the encroacher is passed in favor of the plaintiff. And even then the defendant  If the material is not removed from the land of the plaintiff, then the main object of the plaintiff will be defeated. Therefore, where the main object of the decree passed in favor of the plaintiff will be defeated. Therefore, the main relief sought by the plaintiff is injunction and demolishing the construction.  , he can be given relief only by the Civil Court and for this reason he will be filed in the Civil Court. The relief of possession is only an incidental relief which the Civil Court can. Once for the main relief, if the suit is filed in the Civil Court (  maintainable), there shall be no bar to the Civil Court from granting all possible relief consequent upon the same cause of action.


   उसी वाद - हेतु से उठने वाले अनुतोषों में कौन अनुतोष मुख्य अनुतोष है , इस प्रश्न का विनिश्चय प्रत्येक मुकदमे के सभी तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है जहाँ वाद - हेतु के आधार पर- ( क ) मुख्य अनुतोष का प्रदान राजस्व न्यायालय द्वारा होता है । वहाँ मुकदमा केवल राजस्व न्यायालय में ही दायर किया जा सकता है । यह तथ्य कि आनुषंगिक अनुतोष दीवानी न्यायालय के अधिकार में है , मुकदमा दायर करने के स्थान ( न्यायालय ) के सन्दर्भ में सारहीन है । ( ख ) जहाँ मुख्य अनुतोष का प्रदान दीवानी न्यायालय द्वारा होना है , वहाँ मुकदमा केवल दीवानी अदालत में दायर किया जा सकता है और आनुषंगित ( सहायक ) अनुतोष , जो राजस्व न्यायालय के अधिकार में है , उसे भी दीवानी न्यायालय प्रदान कर सकता है । 

The question of which of the reliefs arising out of the same cause of action is the main relief, depends on all the facts and circumstances of each case where the cause of action is— (a) the main relief is granted by the Revenue Court;  .  There the case can be filed only in the Revenue Court.  The fact that a civil court has jurisdiction to grant incidental relief is immaterial with reference to the place of filing the suit.  (b) Where the principal relief is to be granted by the Civil Court, the suit may be filed in the Civil Court only and ancillary relief, which is within the jurisdiction of the Revenue Court, may also be granted by the Civil Court.

                             किसी अतिक्रमणी के विरुद्ध किसी जोतगत भूमि के सिलसिले में दायर व्यादेश और निर्माण - ध्वंस के अनुतोष के मामले में भी उक्त नियम लागू होगा । जिन मामलों में राजस्व न्यायालय को एक ही वाद - हेतु से उठने वाले सभी अनुतोषों को प्रदान करने की शक्ति नहीं है और मुख्य अनुतोष , व्यादेश और निर्माण - ध्वंस का है , मुकदमा दोवानी न्यायालय में दायर होगा राम पदारथ बनाम द्वितीय अतिरिक्त जिला जज सुल्तानपुर के बाद में न्यायामूर्ति उमेश चन्द्र ने निर्णीत किया कि जहाँ विक्रय पत्र को निरस्त करने का और स्थायी व्यादेश का अनुतोष इस कारण माँगा जाय कि विक्रय - पत्र का निष्पादन किसी अन्य व्यक्ति ने उसके नाम से कर दिया और प्रार्थी अब भी भूमि पर काबिज है तो मुकदमा दीवानी ( सिविल ) न्यायालय द्वारा ग्रहण किया जायेगा । क्योंकि राजस्व न्यायालय केवल मौजूदा काल के लिए अनुतोष प्रदान कर सकती है किन्तु जहाँ तक भविष्य काल के अनुतोष का सम्बन्ध है उसे राजस्व न्यायालय प्रदान करने की स्थिति में नहीं होती है । हीरालाल बनाम गज्जन के बाद में गज्जन नामक एक जोतदार ने हीरालाल तथा अन्य के विरुद्ध स्थायी व्यादेश के लिए दीवानी न्यायालय ( सिविल कोर्ट ) में वाद दायर किया । आनुषंगिक तौर पर हक का प्रश्न भी उठा और इस कारण प्रतिवादी हीरालाल आदि ने यह आपत्ति की कि बाद उ . प्र . जमादारी - विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम की धारा 299 - ख के अन्तर्गत केवल राजस्व न्यायालय में चलाया जा सकता है , किन्तु उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति फातिमा बीबी ने इस आपत्ति को स्वीकार नहीं किया । और यह निर्णीत किया कि ऐसे मामलों में दीवानी न्यायालय का क्षेत्राधिकार बहिष्कृत कर दिया गया है । "

The said rule will also be applicable in case of injunction and demolition relief filed against an encroacher in respect of any cultivated land.  In cases where the Revenue Court has no power to grant all the reliefs arising out of the same cause of action and the main relief is that of injunction and demolition, the suit shall be filed in the Dowani Court Ram Padarath Vs. Second Additional District Judge, Sultanpur  Later, Justice Umesh Chandra decided that where the relief of cancellation of the sale deed and permanent injunction is sought on the ground that the sale deed was executed by another person in his name and the applicant is still in possession of the land, then the suit  Will be accepted by Diwani (Civil) Court.  Because the Revenue Court can provide relief only for the present period but as far as future relief is concerned, the Revenue Court is not in a position to provide it.  Hiralal Vs Gajjan Later on, a Jotdar named Gajjan filed a suit in the civil court for permanent injunction against Hiralal and others.  Incidentally, the question of title also arose and for this reason the defendant Hiralal etc. objected that after u.  Q.  Under Section 299-B of the Jamadari-Destroyment and Land Management Act, it can be run only in the Revenue Court, but Justice Fatima Bibi of the Supreme Court did not accept this objection.  and held that the jurisdiction of the Civil Court in such cases is excluded.  ,


श्रीमती भागवती देवी बनाम राधेश्याम के वाद में अपीलार्थी एक खेत की भूमिधर थी । उसने अपने खेत में एक मकान बनवाया । किन्तु अधिनियम की धारा 143 के अन्तर्गत मकान बनवाने के लिये घोषणा प्राप्त नहीं किया । राधेश्याम ने अवैध तरीके से श्रीमती भागवती देवी को कब्जाविहीन कर दिया अतएव श्रीमती भागवती देवी ने कब्जा के लिए प्रतिवादी राधेश्याम के ऊपर सिविल न्यायालय में वाद चलाया ।



                        प्रतिवादी ने प्रारम्भिक आपत्ति यह की कि वाद सिविल न्यायालय में संधार्य ( चलाने योग्य) नहीं है । विचारण- न्यायालय ने आपत्ति को स्वीकार नहीं किया , तब प्रतिवादी ने जिला जज के यहाँ निगरानी ( रिवीजन ) का प्रार्थनापत्र दिया । जिला जज ने यह अवधारण किया कि वाद सिविल न्यायालय की अधिकारिता में नहीं आता है । जिला जज के निर्णय से धुब्ध होकर श्रीमती भागवती देवी ने उच्च न्यायालय में अपील की । 

In the case of Smt. Bhagwati Devi vs. Radheshyam, the appellant was the landowner of a field.  He built a house in his farm.  But did not receive declaration for construction of house under section 143 of the Act.  Radheshyam illegally deprived Mrs. Bhagwati Devi of possession, so Mrs. Bhagwati Devi filed a case against defendant Radheshyam in the civil court for possession.




 The initial objection of the defendant was that the suit was not maintainable in the Civil Court.  The trial court did not accept the objection, then the defendant filed an application for revision with the district judge.  The District Judge held that the suit did not fall within the jurisdiction of the Civil Court.  Disgusted by the decision of the District Judge, Mrs. Bhagwati Devi appealed in the High Court.


 अपीलार्थी श्रीमती  भागवती देवी की ओर से यह दलील दी गई कि वह वाद भूमि के कब्जे से सम्बन्धित नहीं है वरन् उसके द्वारा बनाये गये उस निर्माण से सम्बद्ध है । जिससे उसे प्रत्यर्थी राधेश्याम ने अवैध तरीके के कब्जाविहीन कर दिया है । न्यायाधीश सतीशचन्द्र ने तर्क को अस्वीकार करते हुए निर्णीत किया कि वाद राजस्व न्यायालय की अधिकारिता में आता है । न्यायाधीश ने कहा- " ये निर्माण हवा में नहीं थे , वे भूमि में बने थे और भूमि के साथ ही वे दूसरे को चले गये । जब वादिनी निर्माण से कब्जाविहीन कर दी गई तो उसे निर्माण के स्थल से भी कब्जाविहीन समझा जाना चाहिये । मकान और सहन पर कब्जा का अनुतोष प्रभावी तौर पर तभी दिया जा सकता है जब प्रतिवादी ( अय प्रत्यर्थी ) को भूमि स्थल से बेदखल कर दिया जाय और उसका कब्जा निर्माण के साथ वादिनी को दे दिया जाय । यह वाद , विधि में निर्माण के साथ भूमि के कब्जे के विषय में था , अतः यह राजस्व न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है । " 


                                  किसी मुकदमे की सुनवाई ( विचारण ) का क्षेत्राधिकार , जो वाद दायर करने की तिथि पर सिविल ( दीवानी ) न्यायालय को था , वाद दायर होने के पश्चात् घटित किसी से अनिहित या प्रभावित न होगा ; जिस घटना से वादी के लिये यह आवश्यक हो जाय कि वह ऐसे अनुतोष की माँग करे जो कि राजस्व न्यायालय द्वारा भी दिया जा सके । श्रीमती सोनावती बनाम श्रीराम के बाद में मुकदमा पहले - पहल घोषणा तथा व्यादेश के अनुतोष के लिए सिविल न्यायालय में दायर हुआ मुकदमा दायर होने के पश्चात  श्रीमती सोनावती ने भूमि का कब्जा दाण्डिक न्यायालय , जिसकी अभिरक्षा भूमि थी , से प्राप्त कर लिया । इस कारण यह आवश्यक हुआ कि वादी भूमि के कब्जा प्राप्ति के अनुतोष का भी दावा करे और जिसे वादी ने किया । प्रतिवादी ( अपीलार्थी ) ने यह तर्क किया कि कब्जा - प्राप्ति के अनुतोष की माँग , जिसे देने के लिये राजस्व न्यायालय सक्षम है , के कारण मुकदमे के विचारण को जारी रखने का सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार समाप्त हो गया । उच्चतम न्यायालय ने सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को वहिष्कृत करने सम्बन्धी अपीलार्थों का दलील को ठुकराते हुए यह निर्णीत किया कि पश्चातवत्ती घटना के होने से सिविल न्यायालय का अधिक क्षेत्र समाप्त नहीं हो जाता । 

It was argued on behalf of the appellant Mrs. Bhagwati Devi that the suit is not related to the possession of the land but to the construction made by her.  Due to which the respondent Radheshyam has illegally dispossessed the same.  Rejecting the argument, Justice Satishchandra held that the matter fell within the jurisdiction of the Revenue Court.  The judge said- "These constructions were not in the air, they were built in the land and along with the land they went to another. When the plaintiff was dispossessed from the construction, he should also be deemed to be dispossessed from the site of construction. The house and  The relief of possession of the bear can be effectively given only when the defendant (or respondent) is evicted from the land and the possession of the same is given to the plaintiff along with the construction.  was in respect of, therefore it falls within the jurisdiction of the Revenue Court."



 The jurisdiction of a civil court to try a suit on the date of the filing of the suit shall not be prejudiced or affected by anything that happens after the filing of the suit;  event which renders it necessary for the plaintiff to demand such relief as may be granted by the Court of Revenue.  Later case of Smt. Sonavati vs. Shriram First filed in Civil Court for relief of declaration and injunction After the suit was filed, Mrs. Sonavati obtained the possession of the land from the Criminal Court, which had custody of the land.  For this reason it became necessary that the plaintiff should also claim the relief of possession of the land and which was done by the plaintiff.  The defendant (appellant) contended that the Civil Court had lost its jurisdiction to continue to try the suit because of the demand for the relief of possession, which the Revenue Court is competent to grant.  The Supreme Court, while rejecting the contention of the appellants regarding the exclusion of the jurisdiction of the civil court, held that the subsequent event does not extinguish the greater jurisdiction of the civil court.


 भोला नाथ बनाम बाबा दामोदर दास के वाद में 1965 ई . में भोलानाथ ने वादग्रस्त भूमि सत्यव्रत राय नामक एक भूमिधर से रजिस्ट्रीकृत विक्रयपत्र द्वारा खरीदी । क्रेता को कब्जा भी मिल गया और उसका नाम भी रेवेन्यू कागजात में दाखिल खारिज हो गया । बाबा दामोदर दास से उसके कब्जे में दखलन्दाजी ( विघ्न ) किया । अतएव भोलानाथ ने सिविल न्यायालय में एक वाद दायर किया , जिसमें यह अनुतोष माँगा कि प्रतिवादी के विरुद्ध स्थायी व्यादेश जारी किया जाय कि वह वादी के भूमि के कब्जे में बाधा न उपस्थित करे मुकदमे के दौरान प्रतिवादी ने वादी की भूमि के कुछ भाग पर अतिक्रमण कर इमारत खड़ी कर ली । इसके पश्चात् वादपत्र में संशोधन के द्वारा वादी ने कब्जा प्राप्ति का अनुतोष इस आधार पर माँगा कि मुकदमे के दौरान प्रतिवादी ने भूमि के कुछ भाग पर अतिक्रमण कर लिया ।
In the case of Bhola Nath vs. Baba Damodar Das in 1965 AD.  Bholanath purchased the disputed land from a Bhumidhar named Satyavrat Rai by a registered sale deed.  The buyer also got the possession and his name was also rejected in the revenue papers.  Baba Damodar Das interfered in his possession.  Therefore, Bholanath filed a suit in the civil court seeking relief that a permanent injunction should be issued against the defendant not to obstruct the possession of the plaintiff's land.  Erected the building.  Thereafter, by amending the plaint, the plaintiff sought the relief of possession on the ground that during the course of the suit, the defendant encroached on some part of the land.


   
 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि वादी द्वारा व्यादेश ( इन्जक्शन ) का अनुतोष केवल सिविल न्यायालय से प्राप्त किया जा सकता है । यह तथ्य कि " वादी के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह कब्जा प्राप्ति के अनुतोष , जिसे कि राजस्व न्यायालय द्वारा प्रदान किया जा सकता था की माँग करें " सिविल न्यायालयको मुकदमा सुनने के सम्बन्ध में क्षेत्राधिकार से हटा नहीं सकता । 


दीवानी ( सिविल ) न्यायालय के क्षेत्राधिकार का अपवर्जन

  अधिनियम की धारा 331 राजस्व न्यायालय के अकेले क्षेत्राधिकार का प्रावधान करती है । किन्तु धारा 330 कुछ मामलों में दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकार से पूर्णतया बहिष्कृत है । यह धारा 330 इस प्रकार है - सिवाय उन बातों के , जहाँ इसके विपरीत इस अधिनियम द्वारा या इसके अधीन प्रावधानित है , कोई भी वाद या अन्य कार्यवाही किसी दीवानी न्यायालय में निम्नलिखित मामलों में दायर नहीं की जा सकेगी- ( क ) प्रतिकर अवधारण तालिका में वर्णित किसी प्रविष्टि के लिए या किसी चूक के लिए , या ( ख ) इस अधिनियम के प्रथम भाग के अधीन दिये गये किसी आदेश के लिए , या ( ग ) अध्याय  दशम के अन्तर्गत मालगुजारी का निर्धारण या उसकी वसूली य मालगुजारी बकाया की तरह वसूल की जाने वाली किसी धनराशि की वसूली ।

The Allahabad High Court decided that the relief of injunction by the plaintiff can be obtained only from the Civil Court.  The fact that "it became necessary for the plaintiff to seek the relief of possession which could have been granted by the Revenue Court" does not debar the Civil Court from having jurisdiction to try the suit.



 Exclusion of jurisdiction of civil court


 Section 331 of the Act provides for exclusive jurisdiction of the Revenue Court.  But section 330 is completely excluded from the jurisdiction of civil court in certain cases.  This section 330 reads as follows - Save as otherwise provided by or under this Act, no suit or other proceeding shall be instituted in any civil court in respect of— (a) the compensation determination table;  (b) for any order made under Part I of this Act, or (c) for the assessment or recovery of revenue under Chapter X or for recovery of revenue as arrears  Recovery of any sum due.


                         अध्याय 10 के अन्तर्गत मालगुजारी की किसी बकाया धनराशि की वसूली के लिए जब भी किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही की जाय , तो वह वसूली - अधिकारी को आपत्तिपूर्वक ( under pritest ) उस धनराशि का भुगतान कर सकता है और ऐसे भुगतान किये जाने पर कार्यवाहियाँ रोक दी जायेंगी और वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध ऐसी कार्यवाही की गई थी , इस प्रकार जबरन भुगतान की गई धनराशि के लिए दीवानी न्यायालय में राज्य सरकार के विरुद्ध वाद ला सकता है । ऐसे वाद में वादी , धारा 278 में  किसी बात के रहते हुए भी , ऐसे धनराशि का , यदि कोई हो , जिसे वह देय होने का अभिकथन करता है ; साक्ष्य दे सकता है ।


          इस धारा के अधीन कोई आपत्ति आपात्तकर्त्ता  को दीवानी - न्यायालय में वाद लाने के लिए समर्थ नहीं बनायेगी जब तक कि वह भुगतान करने के समय लिखित न की जाय और उस आपत्तिकर्ता द्वारा या उसके किसी अधिकृत अभिकर्त्ता ( एजेन्ट ) द्वारा हस्ताक्षर न किये गये हों । 


    Whenever proceedings are initiated against any person for the recovery of any arrears of revenue under Chapter 10, he may pay that amount under pritest to the Recovery Officer and on such payment, the proceedings shall be stayed.  and the person against whom such action was taken may bring a suit against the State Government in a civil court for the amount so forcibly paid.  the plaintiff in such suit shall, notwithstanding anything contained in section 278, claim the amount, if any, which he alleges to be due;  can give evidence.



 No objection under this section shall enable the objector to bring a suit in a civil court unless it is made in writing at the time of making the payment and is signed by the objector or by any of his authorized agents.

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अधिनियम की नवीन व्यवस्था के अनुसार आसामी तीसरे प्रकार की भूधृति है। जोतदारो की यह तुच्छ किस्म है।आसामी का भूमि पर अधिकार वंशानुगत   होता है ।उसका हक ना तो स्थाई है और ना संकृम्य ।निम्नलिखित  व्यक्ति अधिनियम के अंतर्गत आसामी हो गए (1)सीर या खुदकाश्त भूमि का गुजारेदार  (2)ठेकेदार  की निजी जोत मे सीर या खुदकाश्त  भूमि  (3) जमींदार  की बाग भूमि का गैरदखीलकार काश्तकार  (4)बाग भूमि का का शिकमी कास्तकार  (5)काशतकार भोग बंधकी  (6) पृत्येक व्यक्ति इस अधिनियम के उपबंध के अनुसार भूमिधर या सीरदार के द्वारा जोत में शामिल भूमि के ठेकेदार के रूप में ग्रहण किया जाएगा।           वास्तव में राज्य में सबसे कम भूमि आसामी जोतदार के पास है उनकी संख्या भी नगण्य है आसामी या तो वे लोग हैं जिनका दाखिला द्वारा उस भूमि पर किया गया है जिस पर असंक्रम्य अधिकार वाले भूमिधरी अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते हैं अथवा वे लोग हैं जिन्हें अधिनियम के अनुसार भूमिधर ने अपनी जोत गत भूमि लगान पर उठा दिए इस प्रकार कोई व्यक्ति या तो अक्षम भूमिधर का आसामी होता है या ग्राम पंचायत का ग्राम सभा या राज्य सरकार द्वारा पट्टे पर दी जाने वाली

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद - पत्र में न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का नाम लिखना आवश्यक

मान्यता से क्या अभिप्राय है?मान्यता से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धातों का संक्षेप में उल्लेख करो।what do you mean by Recognition ?

मान्यता शब्द की परिभाषा तथा अर्थ:- मान्यता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा नए राज्य को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय पटल पर जब किसी नये राज्य का उदय होता है तो ऐसा राज्य तब तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सदस्य नहीं हो सकता जब तक कि अन्य राष्ट्र उसे मान्यता प्रदान ना कर दें। कोई नया राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त होने पर ही अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व प्राप्त करता है। प्रोफेसर स्वार्जनबर्जर(C.Schwarzenberger) के अनुसार मान्यता को अंतर्राष्ट्रीय विधि को विकसित करती हुई उस प्रक्रिया द्वारा अच्छी तरह समझा जा सकता है जिसके द्वारा राज्यों ने एक दूसरे को नकारात्मक सार्वभौमिकता को स्वीकार कर लिया है और सहमति के आधार पर वह अपने कानूनी संबंधों को बढ़ाने को तैयार है। अतः सामान्य शब्दों में मान्यता का अर्थ अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा किसी नए राज्य को एक सदस्य के रूप में स्वीकार या सत्ता में परिवर्तन को स्वीकार करना है।       प्रोफ़ेसर ओपेनहाइम के अनुसार" किसी नये राज्य को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्य के रूप में मान्यता प्