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भारत में दहेज हत्या में क्या सजा का प्रावधान है ? विस्तार से चर्चा करो।

उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम , 1950 अंतर्गत जोतदारों के कौन- कौन से प्रकार हैं? वर्णन कीजिए । ( Explain th classes of Tenureholder under Uttar Pradesh Jaminda . Abolition and Land Reform Act , 1950. )

 जोतदारों के प्रमुख प्रकार ( Kinds of Tenureholder ) 


उ . प्र . जगदारी एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम , 1950 ने जमींदारी  - उन्मूलन साथ - साथ इस प्राचीन जोतदारों की सब किस्मों को भी समाप्त कर दिया और उन्हें फिर से चार श्रेणियों में बाँट दिया -

1 . भूमिधर , 

2. सोरदार , 

3. असामी , 

4. अधिवासी । 

         जिन जोदारों के अधिकार उच्च किस्म के थे या जिन्हें संक्राम्य अधिकार प्राप्त वे सब भूमिधर बन गए जिनको संक्राम्य अधिकार प्रा्त नहीं थे वे सीरदार कहलाये । अस्थिर और अस्थायी खेती के क्षेत्र के जोतदार या ऐसी भूमि के जोतदार , जिन्हें कि स्थायी अधिकार नहीं दिये जा सकते , असामी कहलाये ।



                   लेकिन कुछ विशेष किस्म के काश्तकार थे , जिन्हें भूमि में स्थायी अधिकार प्राप्त नहीं थे , जमींदारों या क्षेत्रपति की मर्जी पर जोतों ( खेतों ) पर कब्जा रखते थे । ऐसे - काश्तकार बहुसंख्यक थे और वास्तव में काश्तकार थे । ऐसे बहुसंख्यक कृषकों के हित की रक्षा करना आवश्यक समझा गया और उन्हें " अधिवासी " बना दिया गया । इस वर्ग में सीर के काश्तकार शिकमी काश्तकार और दखीलकार शामिल किये गये । 


  “ अधिवासी " जोतदार सीरदार से तुच्छ और असामी से श्रेष्ठतर था । यह एक अन्तर्कालीन किस्म की थी जिसे अधिनियम के लागू होने के 5 साल के बाद भूमि विधि से अन्तर्धान ( समाप्त ) हो जाना था । इस प्रकार " अधिवासी " जोतदार को 5 वर्ष के लिए काश्तकारी अधिकार सुरक्षित रखे गये । अधिनियम के बनाने वालों की मन्शा यह थी कि ऐसे जोतदार लगान का पन्द्रह गुना जमा करके ( यदि उनके क्षेत्रपति लिखित सहमति दें ) भूमिधर बन जायेंगे या उन्हें पाँच वर्ष बाद बेदखल कर दिया जायगा । किन्तु परिपक्व समय के पूर्व ही विधान मण्डल ने " अधिवासी " के ऊपर कृपा की और उ . प्र . भूमि सुधार ( संशोधन ) अधिनियम , 1954 पारित किया ; जिसने सब अधिवासियों को सीरदारी अधिकार दे दिये । इस प्रकार सब अधिवासी सीरदार हो गये , और भूमि विधि के क्षेत्र में तीन ही जोतदार रह गये । " अधिवासी " जोतदार जमींदारी विनाश पर ( 1 जुलाई , 1952 ई को ) भूमि - विधि के क्षेत्र में आया और 1954 में चला गया । 


           उ . प्र . भूमि - विधि ( संशोधन ) अधिनियम , 1977 , जो 28 जनवरी , 1977 से लागू है , ने सभी सीरदारों को भूमिधर बना दिया और भूमिधर को दो वर्गों में विभाजित कर दिया ( 1 ) संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर , और ( 2 ) असंक्राम्य अधिकार वाला भूमिघर जो पहले असामी थे , उन्हें वैसे ही रहने दिया गया । अतः जनवरी 28 , 1977 ई . से अब भूमि - विधि में तीन प्रकार के जोतदार हैं 


( 1 ) संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर , 

( 2 ) असंक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर , और । 

( 3 ) असामी । 

( 4 ) सरकारी पट्टेदार - उ . प्र . भू - विधि ( संशोधन ) अधिनियम 1986 द्वारा धारा 129 के अन्तर्गत आने वाले जोतदारों में शामिल किया गया है ।


 ( 1 ) संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर :  यह भूमिधर तीनों जोतदारों में श्रेष्ठतम किस्म का है । भूमि में उसके अधिकार स्थायी , वंशानुगामी एंव संक्राम्य ( transferable ) है । संक्षेप में उसके अधिकार भूतपूर्व " शरह - मुअय्यन काश्तकार " जैसे हैं । अधिनियम को धारा 130 में ऐसे भूमिधर तीन तरह के बताये गये हैं

 ( 1 ) प्रत्येक व्यक्ति जो जमींदारी - उन्मूलन पर भूमिधर हो गया । 

( 2 ) प्रत्येक व्यक्ति जो उत्तर प्रदेश भूमि - विधि ( संशोधन ) अधिनियम 1977 के प्रारम्भ के दिनांक ( अर्थात् जनवरी 28 , 1977 ) को ऐसा सीरदार था जो अपनी मालगुजारी का 10 गुना जमा कर भूमिघर बनने का अधिकारी था ।



( 3 ) प्रत्येक व्यक्ति , जो इस अधिनियम के उपबन्धों के अधीन या अनुसार अन्य किसी रीति से ऐसे भूमिधर का अधिकार प्राप्त कर ले । 


  " किसी अन्य रीति से " शब्द में विक्रय द्वारा प्राप्त या दान में प्राप्त भूमिधर का अधिकार आता है । जब कोई संक्राम्य अधिकार वाले भूमिधर की भूमि पर अतिक्रमण करेगा तो मियाद काल के बाद ऐसा अतिक्रमणी भी संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर हो  जायेगा । ऐसा भूमिधर तीसरी श्रेणी में आयेगा ।


 ( 2 ) असंक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर - वर्तमान भूमि - विधि में यह दूसरा मुख्य जोतदार है । भूमि में उसका स्वत्व स्थायी और वंशानुगामी तो है , किन्तु जैसा नाम से प्रकट है , संक्राम्य नहीं है । अधिनियम की संशोधित धारा 131 और 131 - क में असंक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर पाँच किस्म का बताया गया है 

( i ) प्रत्येक व्यक्ति जिसे उ . प्र . भूमि - विधि ( संशोधन ) अधिनियम , 1977 के प्रारम्भ के पूर्व धारा 195 के अधीन कोई भूमि सीरदार के रूप में दी गई हो , या इस ( संशोधन ) अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात  उक्त धारा के अधीन " असंक्राम्य अधिकार वाले भूमिधर " के रूप में दी जाय ।


 ( ii ) प्रत्येक ऐसा व्यक्ति जिसे उ . प्र . भूदान यज्ञ अधिनियम , 1952 के अन्तर्गत कोई भूमि आवंटित की गयी हो ।


 ( iii ) 1 जुलाई , 1981 से ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जिसके साथ उ . प्र . अधिकतम जोत सीमा आरोपण अधिनियम , 1960 की धारा 26 - क या धारा 27 की उपधारा ( 3 ) के अधीन फालतू भूमि का बन्दोबस्त किया गया हो या किया जाय ।


 ( iv ) मिर्जापुर ( अब सोनभद्र ) जिले के कैमूर पर्वत श्रेणी के दक्षिण भाग में ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जिसके जोत और कब्जे में 30 जून , 1978 ई . के पूर्व से कोई ऐसी भूमि हो जो अधिनियम की धारा 117 के अधीन किसी गाँव सभा में निहित हो या राज्य सरकार की दो ; बशर्ते कि ऐसी भूमि

 ( a ) धारा 132 या 133 - क में न आती हो ;  

( b ) भारतीय वन अधिनियम , 1927 की धारा 27 के अधीन अधिसूचित भूमि न हो , 


( c ) उ.प्र . अधिकतम जोत सीमा आरोपण अधिनियम , 1960 के अधीन अवधारित अधिकतम क्षेत्र से अधिक में न आ जाती हो । 


( 5 ) प्रत्येक व्यक्ति जो इस अधिनियम या अन्य किसी विधि के प्रावधान के अधीन या अनुसार किसी अन्य प्रकार से ऐसे भूमिधर के अधिकार प्राप्त कर ले । " किसी अन्य प्रकार से ऐसे अधिकार प्राप्त करने " का उदारहण भूमि को शिकमी पर उठा देने से दिया जा सकता है । अधिनियम यह कहता है कि कोई भी जोतदार , जब तक कि वह धारा 157 ( 1 ) में वर्णित अक्षम व्यक्ति न हो , अपनी भूमि को दूसरों को लगान पर नहीं दे सकता । क एक संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर है जो अक्षम व्यक्ति नहीं है , फिर भी वह अपनी भूमि लगान पर ख को देता है । अधिनियम के प्रावधान के अनुसार क का अधिकार भूमि से समाप्त हो जायगा और ख इस भूमि का संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर हो जायेगा । 


( 3 ) असामी - जोतदार की यह एक तुच्छ किस्म है । यह कृषकों के एक छोटे  समूह के प्रति लागू होती है । असामी के अधिकार यू . पी . काश्तकारी अधिनियम , 1939 के गैर दखीलकार काश्तकार " के समान हैं । असामी के अधिकार वंशानुगामी तो हैं , किन्तु स्थायी या संक्राम्य नहीं है । जब कोई अक्षम भूमिधर अधिनियमानुसार अपनी भूमि किसी अन्य व्यक्ति को लगान पर देता है तो लगान पर लेने वाला ऐसा व्यक्ति असामी कहलाता है । इसकी हैसियत शिकमी काश्तकार या उपकाश्तकार के समान है । अधिनियम की धारा 132 कुछ ऐसी भूमियों का वर्णन करती है जिनमें भूमिधरी अधिकार प्राप्त नहीं किये जा सकते । ऐसी भूमि में किसी व्यक्ति का यदि दाखिला किया गया तो वह ' असामी ' कहलायेगा । गाँव सभा का असामी नियम 176 - क के अन्तर्गत सीमित अवधि ( अधिकतम 5 वर्ष ) के लिए होता है । इसके पश्चात गाँव सभा असामी को पट्टे की भूमि से किसी भी समय बेदखलर कर सकेगी । इस प्रकार से असामी गाँव - सभा इत्यादि का असामी होगा या वह किसी भूमिधर का असामी होगा । 

अधिनियम चार किस्म के असामी का वर्णन करता है

 ( i ) ऐसे व्यक्ति जो जमींदारी समाप्ति के परिणामस्वरूप असामी बन गये ।

 ( ii ) ऐसा प्रत्येक व्यक्ति , जिसे किसी भूमिधर ने अपनी जोत की भूमि को इस अधिनियम के प्रावधान के अनुसार पट्टे पर उठा दी है । 


( iii ) ऐसे व्यक्ति जिन्हें भूमि - प्रबन्धक समिति ने या ऐसे व्यक्ति ने , जिसे ऐसा करने का अधिकार हो , धारा 132 में वर्णित भूमि पट्टे पर उठा दी है । 


उदाहरणार्थ , धारा 132 के अनुसार रेलवे की सीमाओं के अन्तर्गत स्थित भूमि में भूमिधरी - अधिकार उत्पन्न नहीं होंगे । अगर रेलवे विभाग ने किसी व्यक्ति को भूमि लगान पर उठा दी है , तो ऐसा व्यक्ति असामी होगा । 


( 4 ) ऐसा व्यक्ति जो इस अधिनियम अथवा अन्य किसी विधि के अन्तर्गत अन्य तरीके से असामी के अधिकार प्राप्त कर ले । 


  इस तरीके से असामी बनने के उदाहरण धाराएँ 186 , 187 - क और 210 ( 2 ) में दिये गये हैं । यदि कोई नाबालिग , पागल या जड़ भूमिधर अपनी भूमि का उपयोग लगातार दो वर्षों तक कृषि आदि कार्यों के लिए नहीं करता है , तो भूमि - प्रबन्धक समिति इस भूमि को किसी व्यक्ति को लगान पर उठा सकती है , और ऐसा पट्टेदार असामी लायेगा वह अन्य तरीके से असामी के अधिकार प्राप्त कर लेता है ।


   ( 4 ) सरकारी पट्टेदार ( धारा 133 - क ) - सन् 1958 में उ . प्र . भूमि सुधार ( संशोधन ) नियम द्वारा अधिनियम में नई धारा 133 क जोड़ी गयी जो कि चौथा जोतदार पटेदार था जिसे राज्य सरकार द्वारा प्रदान की गई भूमि को पट्टे ( lease ) की एवं प्रतिवन्धों के अधीन धारण करना है जिसे कि भूमि में अन्य जोतदारों के समान भूमिधरी , सीरदारी या असामी के अधिकार प्राप्त नहीं होता । ऐसे जोतदार पर अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होते । परन्तु ऐसे पट्टेदारों को ग्राम सभा की भूमि की आबंटिय की भाँति बेदखली के विरुद्ध संरक्षण प्रदान किया गया है । 


                             पट्टेदार की भूमि पर अनधिकृत व्यक्ति द्वारा कब्जा करने पर , पट्टेदार को अधिकार है कि वह सहायक कलेक्टर के समक्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत करे जिस पर सम्बन्धित अधिकारी द्वारा पट्टेदार को उसकी भूमि का कब्जा अनधिकृत व्यक्ति से वापस प्राप्त कर दिलाया जायेगा । पट्टेदार को कब्जा दिलाये जाने के उपरान्त यदि पुनः कोई व्यक्ति या वही व्यक्ति कब्जा दखल में हस्तक्षेप करता है तो उसे 2 वर्ष की सजा या कम से कम 3 मास की सजा तथा 3 हजार के अर्थदण्ड से दण्डित किया जा सकेगा ।


          सरकारी पट्टेदार की भूमि में अनधिकृत कब्जाधारी का अपराध असंज्ञेय अजमानतीय प्रकृति का होगा जिसका विचारण सरसरी तौर पर द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत न्यायिक दण्डाधिकारी प्रथम श्रेणी द्वारा किया जायेगा । 


  उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम , 1950 अंतर्गत जोतदारों के प्रकारों का वर्णन कीजिए । ( Explain th classes of Tenureholder under Uttar Pradesh Jaminda . Abolition and Land Reform Act , 1950. ) 


 जोतदारों के प्रमुख प्रकार ( Kinds of Tenureholder ) 


उ . प्र . जगदारी एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम , 1950 ने जमींदारी  - उन्मूलन साथ - साथ इस प्राचीन जोतदारों की सब किस्मों को भी समाप्त कर दिया और उन्हें फिर से चार श्रेणियों में बाँट दिया -

1 . भूमिधर , 

2. सोरदार , 

3. असामी , 

4. अधिवासी । 

जिन जोदारों के अधिकार उच्च किस्म के थे या जिन्हें संक्राम्य अधिकार प्राप्त वे सब भूमिधर बन गए जिनको संक्राम्य अधिकार प्रा्त नहीं थे वे सीरदार कहलाये । अस्थिर और अस्थायी खेती के क्षेत्र के जोतदार या ऐसी भूमि के जोतदार , जिन्हें कि स्थायी अधिकार नहीं दिये जा सकते , असामी कहलाये ।



                   लेकिन कुछ विशेष किस्म के काश्तकार थे , जिन्हें भूमि में स्थायी अधिकार प्राप्त नहीं थे , जमींदारों या क्षेत्रपति की मर्जी पर जोतों ( खेतों ) पर कब्जा रखते थे । ऐसे - काश्तकार बहुसंख्यक थे और वास्तव में काश्तकार थे । ऐसे बहुसंख्यक कृषकों के हित की रक्षा करना आवश्यक समझा गया और उन्हें " अधिवासी " बना दिया गया । इस वर्ग में सीर के काश्तकार शिकमी काश्तकार और दखीलकार शामिल किये गये । 


  “ अधिवासी " जोतदार सीरदार से तुच्छ और असामी से श्रेष्ठतर था । यह एक अन्तर्कालीन किस्म की थी जिसे अधिनियम के लागू होने के 5 साल के बाद भूमि विधि से अन्तर्धान ( समाप्त ) हो जाना था । इस प्रकार " अधिवासी " जोतदार को 5 वर्ष के लिए काश्तकारी अधिकार सुरक्षित रखे गये । अधिनियम के बनाने वालों की मन्शा यह थी कि ऐसे जोतदार लगान का पन्द्रह गुना जमा करके ( यदि उनके क्षेत्रपति लिखित सहमति दें ) भूमिधर बन जायेंगे या उन्हें पाँच वर्ष बाद बेदखल कर दिया जायगा । किन्तु परिपक्व समय के पूर्व ही विधान मण्डल ने " अधिवासी " के ऊपर कृपा की और उ . प्र . भूमि सुधार ( संशोधन ) अधिनियम , 1954 पारित किया ; जिसने सब अधिवासियों को सीरदारी अधिकार दे दिये । इस प्रकार सब अधिवासी सीरदार हो गये , और भूमि विधि के क्षेत्र में तीन ही जोतदार रह गये । " अधिवासी " जोतदार जमींदारी विनाश पर ( 1 जुलाई , 1952 ई को ) भूमि - विधि के क्षेत्र में आया और 1954 में चला गया । 


           उ . प्र . भूमि - विधि ( संशोधन ) अधिनियम , 1977 , जो 28 जनवरी , 1977 से लागू है , ने सभी सीरदारों को भूमिधर बना दिया और भूमिधर को दो वर्गों में विभाजित कर दिया ( 1 ) संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर , और ( 2 ) असंक्राम्य अधिकार वाला भूमिघर जो पहले असामी थे , उन्हें वैसे ही रहने दिया गया । अतः जनवरी 28 , 1977 ई . से अब भूमि - विधि में तीन प्रकार के जोतदार हैं 


( 1 ) संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर , 

( 2 ) असंक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर , और । 

( 3 ) असामी । 

( 4 ) सरकारी पट्टेदार - उ . प्र . भू - विधि ( संशोधन ) अधिनियम 1986 द्वारा धारा 129 के अन्तर्गत आने वाले जोतदारों में शामिल किया गया है ।


 ( 1 ) संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर :  यह भूमिधर तीनों जोतदारों में श्रेष्ठतम किस्म का है । भूमि में उसके अधिकार स्थायी , वंशानुगामी एंव संक्राम्य ( transferable ) है । संक्षेप में उसके अधिकार भूतपूर्व " शरह - मुअय्यन काश्तकार " जैसे हैं । अधिनियम को धारा 130 में ऐसे भूमिधर तीन तरह के बताये गये हैं

 ( 1 ) प्रत्येक व्यक्ति जो जमींदारी - उन्मूलन पर भूमिधर हो गया । 

( 2 ) प्रत्येक व्यक्ति जो उत्तर प्रदेश भूमि - विधि ( संशोधन ) अधिनियम 1977 के प्रारम्भ के दिनांक ( अर्थात् जनवरी 28 , 1977 ) को ऐसा सीरदार था जो अपनी मालगुजारी का 10 गुना जमा कर भूमिघर बनने का अधिकारी था ।



( 3 ) प्रत्येक व्यक्ति , जो इस अधिनियम के उपबन्धों के अधीन या अनुसार अन्य किसी रीति से ऐसे भूमिधर का अधिकार प्राप्त कर ले । 


  " किसी अन्य रीति से " शब्द में विक्रय द्वारा प्राप्त या दान में प्राप्त भूमिधर का अधिकार आता है । जब कोई संक्राम्य अधिकार वाले भूमिधर की भूमि पर अतिक्रमण करेगा तो मियाद काल के बाद ऐसा अतिक्रमणी भी संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर हो  जायेगा । ऐसा भूमिधर तीसरी श्रेणी में आयेगा ।


 ( 2 ) असंक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर - वर्तमान भूमि - विधि में यह दूसरा मुख्य जोतदार है । भूमि में उसका स्वत्व स्थायी और वंशानुगामी तो है , किन्तु जैसा नाम से प्रकट है , संक्राम्य नहीं है । अधिनियम की संशोधित धारा 131 और 131 - क में असंक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर पाँच किस्म का बताया गया है 

( i ) प्रत्येक व्यक्ति जिसे उ . प्र . भूमि - विधि ( संशोधन ) अधिनियम , 1977 के प्रारम्भ के पूर्व धारा 195 के अधीन कोई भूमि सीरदार के रूप में दी गई हो , या इस ( संशोधन ) अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात  उक्त धारा के अधीन " असंक्राम्य अधिकार वाले भूमिधर " के रूप में दी जाय ।


 ( ii ) प्रत्येक ऐसा व्यक्ति जिसे उ . प्र . भूदान यज्ञ अधिनियम , 1952 के अन्तर्गत कोई भूमि आवंटित की गयी हो ।


 ( iii ) 1 जुलाई , 1981 से ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जिसके साथ उ . प्र . अधिकतम जोत सीमा आरोपण अधिनियम , 1960 की धारा 26 - क या धारा 27 की उपधारा ( 3 ) के अधीन फालतू भूमि का बन्दोबस्त किया गया हो या किया जाय ।


 ( iv ) मिर्जापुर ( अब सोनभद्र ) जिले के कैमूर पर्वत श्रेणी के दक्षिण भाग में ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जिसके जोत और कब्जे में 30 जून , 1978 ई . के पूर्व से कोई ऐसी भूमि हो जो अधिनियम की धारा 117 के अधीन किसी गाँव सभा में निहित हो या राज्य सरकार की दो ; बशर्ते कि ऐसी भूमि

 ( a ) धारा 132 या 133 - क में न आती हो ;  

( b ) भारतीय वन अधिनियम , 1927 की धारा 27 के अधीन अधिसूचित भूमि न हो , 


( c ) उ.प्र . अधिकतम जोत सीमा आरोपण अधिनियम , 1960 के अधीन अवधारित अधिकतम क्षेत्र से अधिक में न आ जाती हो । 


( 5 ) प्रत्येक व्यक्ति जो इस अधिनियम या अन्य किसी विधि के प्रावधान के अधीन या अनुसार किसी अन्य प्रकार से ऐसे भूमिधर के अधिकार प्राप्त कर ले । " किसी अन्य प्रकार से ऐसे अधिकार प्राप्त करने " का उदारहण भूमि को शिकमी पर उठा देने से दिया जा सकता है । अधिनियम यह कहता है कि कोई भी जोतदार , जब तक कि वह धारा 157 ( 1 ) में वर्णित अक्षम व्यक्ति न हो , अपनी भूमि को दूसरों को लगान पर नहीं दे सकता । क एक संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर है जो अक्षम व्यक्ति नहीं है , फिर भी वह अपनी भूमि लगान पर ख को देता है । अधिनियम के प्रावधान के अनुसार क का अधिकार भूमि से समाप्त हो जायगा और ख इस भूमि का संक्राम्य अधिकार वाला भूमिधर हो जायेगा । 


( 3 ) असामी - जोतदार की यह एक तुच्छ किस्म है । यह कृषकों के एक छोटे  समूह के प्रति लागू होती है । असामी के अधिकार यू . पी . काश्तकारी अधिनियम , 1939 के गैर दखीलकार काश्तकार " के समान हैं । असामी के अधिकार वंशानुगामी तो हैं , किन्तु स्थायी या संक्राम्य नहीं है । जब कोई अक्षम भूमिधर अधिनियमानुसार अपनी भूमि किसी अन्य व्यक्ति को लगान पर देता है तो लगान पर लेने वाला ऐसा व्यक्ति असामी कहलाता है । इसकी हैसियत शिकमी काश्तकार या उपकाश्तकार के समान है । अधिनियम की धारा 132 कुछ ऐसी भूमियों का वर्णन करती है जिनमें भूमिधरी अधिकार प्राप्त नहीं किये जा सकते । ऐसी भूमि में किसी व्यक्ति का यदि दाखिला किया गया तो वह ' असामी ' कहलायेगा । गाँव सभा का असामी नियम 176 - क के अन्तर्गत सीमित अवधि ( अधिकतम 5 वर्ष ) के लिए होता है । इसके पश्चात गाँव सभा असामी को पट्टे की भूमि से किसी भी समय बेदखलर कर सकेगी । इस प्रकार से असामी गाँव - सभा इत्यादि का असामी होगा या वह किसी भूमिधर का असामी होगा । 

अधिनियम चार किस्म के असामी का वर्णन करता है

 ( i ) ऐसे व्यक्ति जो जमींदारी समाप्ति के परिणामस्वरूप असामी बन गये ।

 ( ii ) ऐसा प्रत्येक व्यक्ति , जिसे किसी भूमिधर ने अपनी जोत की भूमि को इस अधिनियम के प्रावधान के अनुसार पट्टे पर उठा दी है । 


( iii ) ऐसे व्यक्ति जिन्हें भूमि - प्रबन्धक समिति ने या ऐसे व्यक्ति ने , जिसे ऐसा करने का अधिकार हो , धारा 132 में वर्णित भूमि पट्टे पर उठा दी है । 


उदाहरणार्थ , धारा 132 के अनुसार रेलवे की सीमाओं के अन्तर्गत स्थित भूमि में भूमिधरी - अधिकार उत्पन्न नहीं होंगे । अगर रेलवे विभाग ने किसी व्यक्ति को भूमि लगान पर उठा दी है , तो ऐसा व्यक्ति असामी होगा । 


( 4 ) ऐसा व्यक्ति जो इस अधिनियम अथवा अन्य किसी विधि के अन्तर्गत अन्य तरीके से असामी के अधिकार प्राप्त कर ले । 


  इस तरीके से असामी बनने के उदाहरण धाराएँ 186 , 187 - क और 210 ( 2 ) में दिये गये हैं । यदि कोई नाबालिग , पागल या जड़ भूमिधर अपनी भूमि का उपयोग लगातार दो वर्षों तक कृषि आदि कार्यों के लिए नहीं करता है , तो भूमि - प्रबन्धक समिति इस भूमि को किसी व्यक्ति को लगान पर उठा सकती है , और ऐसा पट्टेदार असामी लायेगा वह अन्य तरीके से असामी के अधिकार प्राप्त कर लेता है ।


   ( 4 ) सरकारी पट्टेदार ( धारा 133 - क ) - सन् 1958 में उ . प्र . भूमि सुधार ( संशोधन ) नियम द्वारा अधिनियम में नई धारा 133 क जोड़ी गयी जो कि चौथा जोतदार पटेदार था जिसे राज्य सरकार द्वारा प्रदान की गई भूमि को पट्टे ( lease ) की एवं प्रतिवन्धों के अधीन धारण करना है जिसे कि भूमि में अन्य जोतदारों के समान भूमिधरी , सीरदारी या असामी के अधिकार प्राप्त नहीं होता । ऐसे जोतदार पर अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होते । परन्तु ऐसे पट्टेदारों को ग्राम सभा की भूमि की आबंटिय की भाँति बेदखली के विरुद्ध संरक्षण प्रदान किया गया है । 


    पट्टेदार की भूमि पर अनधिकृत व्यक्ति द्वारा कब्जा करने पर , पट्टेदार को अधिकार है कि वह सहायक कलेक्टर के समक्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत करे जिस पर सम्बन्धित अधिकारी द्वारा पट्टेदार को उसकी भूमि का कब्जा अनधिकृत व्यक्ति से वापस प्राप्त कर दिलाया जायेगा । पट्टेदार को कब्जा दिलाये जाने के उपरान्त यदि पुनः कोई व्यक्ति या वही व्यक्ति कब्जा दखल में हस्तक्षेप करता है तो उसे 2 वर्ष की सजा या कम से कम 3 मास की सजा तथा 3 हजार के अर्थदण्ड से दण्डित किया जा सकेगा ।


    सरकारी पट्टेदार की भूमि में अनधिकृत कब्जाधारी का अपराध असंज्ञेय अजमानतीय प्रकृति का होगा जिसका विचारण सरसरी तौर पर द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत न्यायिक दण्डाधिकारी प्रथम श्रेणी द्वारा किया जायेगा । 


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