मुस्लिम विधि के अनुसार निकाह की परिभाषा क्या होती है? मुस्लिम विधि के अनुसार विवाह एक संविदा है ना ही कोई संस्कार यह कथन स्पष्ट रूप से व्याख्या के साथ बताओ?( define nikah. Do you agree with the statement that muslim marriage is a contract and not a sacrament? Reason for in support of your opinion?)
मुस्लिम विधि के अनुसार विवाह कोई संस्कार न होकर एक संविदा है । निकाह ( विवाह ) शाब्दिक अर्थ है — स्त्री और पुरुष का यौन - संयोग ( Carnal conjunction ) और विधि में इनका अर्थ है- " विवाह " । बेली के सार संग्रह में विवाह की परिभाषा स्त्री पुरुष के समागम को वैध बनाने और सन्तान उत्पन्न करने के प्रयोजन के लिये की गई संविदा ( Coatract ) के रूप में की गयी है । मुसलमानों में निकाह एक बहुत ही पुण्य कार्य माना गया है ।शब्द विवाह ( निकाह ) को मुस्लिम विधि वेत्ताओं ने कई प्रकार से परिभाषित किया है -
परिभाषा - हेदाया के अनुसार , " विवाह एक विधिक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा स्त्री और पुरुष के बीच समागम और बच्चों की उत्पत्ति तथा औरसीकरण पूर्णतया वैध और मान्य होते हैं । "
असहाबा का कथन है कि " विवाह स्त्री और पुरुष की ओर से पारस्परिक अनुमति पर आधारित स्थायी सम्बन्ध में अन्तर्निहित संविदा है .
डॉक्टर मोहम्मद उल्लाह एस . जंग कहते हैं कि " विवाह सारतः एक संविदा होते हुए भी एक श्रद्धात्मक कार्य है , जिसके उद्देश्य है - उपभोग और सन्तानोत्पत्ति के अधिकार और समाज के हित में सामाजिक जीवन का नियमन । "
अब्दुर्रहीम के अनुसार , विवाह की प्रथा में ' इबादत ( धार्मिक कृत्य ) ' मुआमलात ' , ( व्यावहारिक कृत्य ) दोनों गुण पाये जाते हैं , अर्थात् मुस्लिम रिवाजों के अन्तर्गत विवाह सारतः एक व्यावहारिक संविदा होते हुए भी श्रद्धात्मक कार्य है ।
हेदाया के अनुसार , " विवाह एक संविदा है , जिसका लक्ष्य या उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति है । जीवन में विश्रान्ति मिलने के लिये यह प्रथा जारी की गई और यह मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है । इस कारण यह चरम वृद्धावस्था में , जब सन्तान को आशा नहीं रह जाती और अन्तिम या मृत्यु रोग में भी वैध है । "
न्यायमूर्ति महमूद के शब्दों में , " मुस्लिम विधि के अनुसार विवाह एक संस्कार नहीं है । वान यह एक सिवित संविदा है । विवाह से सृजित होने वाले सभी अधिकार और दायित्व तुरन्त एक साथ ही उत्पन्न हो जाते हैं और पति द्वारा पत्नी की अदायगी इसको पूर्व शर्त नहीं है ।
अमीरअली ( Ameerali ) ने निकाह की परिभाषा इस प्रकार दी है कि , " Marriage is an institution ordained for the protection of society and in order the human beings may guard themselves from foulness and unchastity . "
सर रोलैण्ड ( Sir Rolland ) के अनुसार , " यह लैंगिक संयोग और सन्तान उत्पत्ति को कानूनी रूप देने के उद्देश्य के लिए एक संविदा है " ( It is a contract for the purpose . of legalishing sexual intercourse and for procreation and children . )
कैफाया के अनुसार , " विवाह एक संविदा है जिसका लक्ष्य या उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति है । जीवन में विश्रान्ति मिलने के लिए यह प्रथा जारी की गई है और यह मनुष्य को आरम्भिक या मौलिक आवश्यकताओं में से एक है । इस कारण यह चरम वृद्धावस्था में , जब सन्तान की आशा नही रह जाती और अंतिम या मृत्यु रोग मे वैध्य है । •
मुस्लिम विधि के अनुसार , विवाह( 1 ) स्वतःपक्षों के बीच और ( 2 ) उनमें से प्रत्येक संकेत में उत्पन्न सन्तान के बीच अधिकारों और कर्तव्यों के सृजन करने स्त्री , पुरुष के समागम को वैध बनाने , सन्तान उत्पन्न करने और उसे वैध बनाने और समाज के हित में सामाजिक जीवन को नियमित करने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक संविदा है । "
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि मुस्लिम धर्म के अनुसार , विवाह दीवानी संविदा है जो स्त्री - पुरुष के मध्य उनके परस्पर भोग और सन्तानोत्पत्ति को कानूनी वैधता प्रदान करती है । इसके विपरीत हिन्दुओं में विवाह को संस्कार और पवित्र बन्धन माना जाता है जो जन्म जन्मांतर तक चलता हुआ माना जाता है । मुसलमानों में तलाक या विवाह - विच्छेद का प्रावधान है जिसके अनुसार कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक देकर छोड़ सकता है ।
अतः विवाह पारस्परिक उपभोग और सन्तान की उत्पत्ति तथा औरसीकरण के उद्देश्य से एक स्त्री और एक पुरुष के बीच किया जाने वाला एक स्थायी और अप्रतिबन्धित ( तत्काल प्रभावी ) व्यवहार संविदा है ।
विवाह के उद्देश्य - हेदाया के अनुसार विवाह के निम्न उद्देश्य है-
( 1 ) समागम ,
( 2 ) संगति , और
( 3 ) समान हितेच्छा ।
पैगम्बर ने कहा है कि " पुरुष स्त्रियों से विवाह उनके धर्मनिष्ठा , सम्पत्ति या उनके सौंदर्य के लिए करते हैं , परन्तु उन्हें विवाह केवल धर्मनिष्ठा के लिये करना चाहिए ।
' तरमीजी ' विवाह के पाँच उद्देश्यों का उल्लेख करता है -
( 1 ) कामवासना का नियमन ,
( 2 ) गृहस्थ जीवन का नियमन ,
( 3 ) वंश की वृद्धि ,
( 4 ) पत्नी और बच्चों की देखभाल और जिम्मेदारी में आत्म संयम , और
( 5 ) सदाचारी बच्चों का पालन
मान्य विवाह के लिए आवश्यक शर्ते - मुस्लिम विधि में विवाह तभी मान्य होगा जब कि निम्नलिखित औपचारिकताएं पूरी कर ली गई हो । कुछ आवश्यक शर्तों का पालन न होने विवाह निष्प्रभावी हो जाता है । वे औपचारिकताएँ निम्नलिखित है -
( 1 ) प्रस्ताव एवं स्वीकृति ,
( 2 ) साक्षी ,
( 3 ) सहमति ,
( 4 ) विवाह संविदा करने की क्षमता
( 5 ) किसी प्रकार की बाण का अभाव ।
( 1 ) प्रस्ताव एवं स्वीकृति - मुस्लम विधि में विवाह को संविदा माना गया है अतः विवाह के लिए एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव किया जाना चाहिए तथा दूसरे पक्ष द्वारा स्वीकृति । जब दूसरा प्रस्ताव की स्वीकृति दे देता है तभी विवाह पूर्ण होता है । प्रस्ताव और स्वीकृति प्रकट करने वाले शब्दों का उच्चारण दोनों पक्षकारों का उनके अधिकर्ताओं की उपस्थिति में इस प्रकार होना जरुरी है कि दोनों पक्षकार एक - दूसरे के कथन को सुन सके । यह संव्यवहार एक ही बैठक में पूरा होना चाहिए ।
मु. जैनबा बनाम अब्दुल रहमान के वाद में यह निर्णीत किया गया कि प्रस्ताव करने और स्वीकृति देने का कोई रूप नहीं होता है । प्रस्ताव एवं स्वीकृति संविदा के पक्षकारों उनके अभिकर्त्ताओं ( Agents ) द्वारा एक दूसरे की उपस्थिति और सुनने ( hearing ) में किये जा सकते हैं और एक ही बैठक में इस व्यवहार को पूरा हो जाना जरूरी है ।
प्रस्ताव और स्वीकृति में अस्पष्टता नहीं होनी चाहिए । विवाह करने के आशय को व्यक्त करना या भविष्य में किसी समय विवाह करने का वचन देना कोई मतलब नहीं रखता । यह आवश्यक है कि प्रस्ताव तथा स्वीकृति के शब्द इस प्रकार होने चाहिए कि जिनसे यह प्रदर्शित हो कि पक्षकारों का आशय स्वीकृति के क्षय से दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित करने का है ।
अमीर अली के अनुसार , " अन्य संविदाओं के समान विवाह भी घोषणा और स्वीकृति से संगठित होता है । विवाह के पक्ष का प्रस्ताव दूसरे पक्ष को प्रस्तुत करना जरूरी है । जब दूसरा पक्ष प्रस्ताव की स्वीकृति दे तभी विवाह पूरा होता है । इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि व्यावहारिक प्रथा के रूप में विवाह की वही स्थिति है जो किसी अन्य संविदा की । "
( 2 ) साक्षी - सुन्नी विधि के अन्तर्गत प्रस्ताव और स्वीकृति दो ऐसे पुरुष या एक पुरुष और दो स्त्री साक्षियों की उपस्थिति में होना जरूरी है जो स्वस्थचित्त और वयस्क मुसलमान होती हों । साक्षियों की अनुपस्थिति विवाह को शून्य नहीं बल्कि अनियमित बना देती है ।
' शिया विधि ' के अन्तर्गत विवाह के समय नहीं बल्कि विवाह विच्छेद के समय साक्षी आवश्यक होते हैं । अतः शिया विधि के अन्तर्गत साक्षियों की अनुपस्थिति में किया गया विवाह पूर्णतया वैध विवाह माना जाता है ।
( 3 ) सहमति — किसी विवाह के पक्षकारों का अपनी स्वतन्त्र इच्छा और सहमति से विवाह करना जरूरी है । उनको सहमति के भय , अनुचित दबाव या कपट ( Fraud ) से मुक्त होना चाहिए । ऐसे लड़के या लड़कों के मामले में , जिसने वयस्कता न प्राप्त की हो , विवाह वैध न होगा जब तक कि विधिक संरक्षक ने उसकी अनुमति न दे दी हो । यदि विवाह के पक्षकार स्वस्थ चित्त और वयस्क है तो ऐसी दशा में स्वयं इनके द्वारा सहमति का दिया जाना आवश्यक है ।जब संविदा बल या कपट से की जाती है , तो विवाह अनुसमर्थन न होने पर अवैध होता है । मुस्लिम विधि के अनुसार , बाध्य या मजबूरी में किया गया विवाह अवैध होता है ।
सहमति अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकती है । मुस्काराने , हँसने या चुप रहने से विवाहित सहमति उपलक्षित हो सकती है । कपट ( Fraud ) या मिथ्या व्यदेशन ( Misrepresentation ) से कराया गया विवाह , जब तक उसका अनुसमर्थन न हो अमान्य होता है ।
कपट से किया गया विवाह प्रभावहीन होता है और जब तक समागम द्वारा उसका अनुसमर्थन न हो कोई मेहर देय नही होता ।
( 4 ) विवाह संविदा करने की क्षमता - विवाह के दोनों पक्षों में संविदा करने की क्षमता होना जरूरी है । विवाह के प्रत्येक पक्षकार को स्वस्थचित्त और वयस्क होना चाहिए । लड़का या लड़की जिसने 15 वर्ष की आयु प्राप्त कर तो है , वह स्वतन्त्र है कि अपना विवाह चाहे जिससे करे और इस विषय में उसके संरक्षक कोई विघ्न नहीं डाल सकते हैं।
कोई लड़का या लड़की जिसने यौवनागम ( अर्थात् 15 वर्ष की आयु ) प्राप्त नहीं की है उसका विवाह संरक्षक द्वारा कराया जा सकता है ।
जब निकाह करने वाला पक्ष अवयस्क हो तो उसकी ओर से संविदा करने का अधिकार निम्नलिखित क्रम से उल्लेखित व्यक्तियों को होता है
( 1 ) पिता
( 2 ) पिता के पिता
( 3 ) भाई एवं अन्य पैतृक सम्बन्धी
( 4 ) माता । ..
( 5 ) मामा - माम्मी तथा मौसा - मौसी ।
( 6 ) सरकार ।
( 5 ) किसी प्रकार की बाधा का अभाव - मान्य विवाह के लिए यह आवश्यक है कि विवाह के पक्षों में किसी प्रकार की बाधा का निषेध नहीं होना चाहिए । ये बाधाएँ दो प्रकार की होती है— ( क ) पूर्ण निषेध या वे बाधाएँ जो विवाह का निषेध करती है .
( ब ) सापेक्ष या वे बाधाएँ जो पूर्ण निषेध नहीं करतीं ।
( 6 ) पूर्ण निषेध - सापेक्ष या पूर्ण निषेध निम्न प्रकार के होते हैं
( 1 ) बहु पत्नीत्व - एक मुस्लिम व्यक्ति धार्मिक रीति - रिवाजों के अनुसार एक समय चार स्त्रियाँ रख सकता है , परन्तु पाँचवाँ विवाह नहीं कर सकता । यदि उन चारों में से एक को छोड़ दे तो ऐसा विवाह मान्य हो सकता है । इस्लाम से पहले एक व्यक्ति कितनी भी स्त्रियों के साथ विवाह कर सकता था लेकिन पैगम्बर साहब ने विवाह की इस रीति को चार पत्नियों तक सीमित कर दिया और एक पत्नी विवाह को आदर्श विवाह बताया था । यह कुरान को निम्नलिखित आयत से भी स्पष्ट है ।
" उन स्त्रियों से विवाह करो - दो या तीन जो तुम्हें सुन्दर लगती हो । लेकिन यदि तुम्हे यह डर है कि तुम उनसे न्याय नहीं कर सकते तब केवल एक विवाह करो ।
" कुरान की इस आज्ञा का अर्थ शिया और सुन्नी विधि में अलग - अलग लगाया गया । इस कारण चार पलियों के रहते जब कोई पुरुष पंचम स्त्री से विवाह करता है तो ऐसा विवाह शिया विधि के अनुसार शून्य ( बातिल ) होता है , किन्तु सुन्नी के अनुसार केवल अनियमित फासिद ) ।
( 2 ) रक्त सम्बन्ध या करावत ( Consanguinity ) - निम्नलिखित सम्बन्ध ऐसे हैं जिससे पुरुष के बीच वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता
(1 ) अपनी माता या दादी , चाहे जितनी पीड़ी ऊपर हो ,
( 2 ) अपनी पुत्री या पौत्री चाहे जितनी पीढी नीचे हो ( 3 )
अपनी बहन , चाहे सगी हो या सहोदरा हो या एकोदरा हो ,
( 4 ) भाई की पुत्री या पौत्री चाहे कितनी पीढ़ी नीचे हो ,
( 5 ) अपनी या अपने पिता या माता की बहन ( मौसी ) तथा दादा दादी की बहने चाहे जितनी पौढ़ी ऊपर हो ।
रक्त सम्बन्ध के कारण निषिद्ध स्त्री से विवाह शून्य होता है ।
( 3 ) विवाह सम्बन्ध या मुशारत ( Affinity ) – इस शीर्षक के अन्तर्गत निम्नलिखित लोग आते हैं
( 1 ) पत्नी की माता या दादी , चाहे जितनी पीढी हो ,
( 2 ) पत्नी की पुत्री या पौत्री , चाहे जितनी पीढ़ी नीचे हो
( 3 ) पिता या पितामह की पत्नी , चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो ,
( 4 ) पुत्र , पौत्र या दोहित्र ( नाती ) की पत्नी चाहे जितनी पीढ़ी नीचे हो ।
विवाहसम्बन्ध के कारण निषिद्ध स्त्री से विवाह शून्य होता है ।
अवस्था ( 2 ) में पत्नि की पुत्री या पौत्री से विवाह केवल तभी निषिद्ध है जब पत्नी से विवाह समागम ( Consummation ) तक पहुंच गया हो ।
( 4 ) धात्रेयता सम्बन्ध या रिजा ( fosterage ) - जबकि दो वर्ष से कम आयु के कि शिशु ने अपनी माँ के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री का दूध पिया है , तो उस शिशु और स्त्री बीच धात्रेय सम्बन्ध उत्पन्न हो जाता है और वह उस शिशु की धाय माँ मानी जाती है । अतः कोई व्यक्ति अपनी धाय माँ से उत्पन्न लड़की अर्थात् धात्रेय बहिन से भी विवाह नहीं सकता और ऐसा विवाह निषिद्ध है ।
अपवाद इस निषेध से सम्बन्धित सामान्य नियम के कुछ अपवाद भी हैं , जिन अन्तर्गत किया गया विवाह मान्य होता है—
( 1 ) बहिन की धात्री माता ,
( 2 ) धात्री बहिन माता ,
( 3 ) धात्री पुत्र की बहिन , तथा
( 4 ) धात्रेय भाई की बहिन
शिया विधि - शिया विधि के अन्तर्गत धात्रेय सम्बन्धियों के साथ विवाह पूर्णतः निषद्ध है । सुन्नी विधि के अन्तर्गत मान्य अपवाद इस सम्बन्ध में शिया विधि में मान्य नहीं है ।
( इरूरैया बनाम रूदसिया बेगम 24 सी . 643 .
( ब ) सापेक्ष निषेध – सापेक्ष असमर्थता का उद्भव ऐसे कारणों से होता है जो केवल विवाह को उसी समय तक अमान्य बनाते हैं जब तक कि अवरोष उत्पन्न करने वाले कारण होते हैं का अस्तत्व रहे । कारण दूर होते ही असमर्थता समाप्त हो जाती है । सापेक्ष निषेध निम्न प्रकार के होते हैं
( 1 ) पाँचवीं स्त्री से विवाह — जिस पुरुष की चार पत्नी हैं , उसका पाँचवीं पत्नी से विवाह करना अवैध है और इस रुकावट को पत्नियों में से एक को विवाह - विच्छेद से हटाकर दूर किया जा सकता है ।
( 2 ) अवैध संयोग ( Unlawful Conjunction ) - इसका अर्थ है एक ही समय में प्रकार परस्पर सम्बन्धित दो स्त्रियों से विवाह करना कि - यदि उसमें से एक पुरुष होता तो बीच विवाह अवैध होता , जैसे दो बहिनों से एक साथ विवाह । इसलिए कोई मुसलमान अपनी पत्नी के जीवनकाल में उसको बहिन से मान्य विवाह नहीं कर सकता , तथापि पहली पत्नि के तलाक देने या उसकी मृत्यु हो जाने से वह अवरोध दूर हो सकता है ।
शिया विधि के अन्तर्गत अवैध संयोग के सिद्धान्त के उल्लंघन में किया गया कि शून्य होता है ।
( 3 ) उचित गवाहों की अनुपस्थिति - सुन्नी विधि के अनुसार यह आवश्यक है कि कम से कम दो साक्षी विवाह के समय यह साबित करने के लिए अवश्य उपस्थित रहे कि पक्षकारों के बीच विवाह की संविदा उचित रूप में सम्पन्न हुई थी । साक्षियों की अनुपस्थिति में किया गया विवाह अनियमित होता है ।
शिया विधि में पति - पत्नी द्वारा स्वयं उनके संरक्षकों द्वारा अकेले में किये गये विवाह मान्य समझे जाते हैं । साक्षियों की उपस्थिति जरूरी नहीं होती ।
( 4 ) धर्म में भिन्नता – जब स्त्री और पुरुष विभिन्न मुस्लिम धर्म के या अन्य ) धर्म के मानने वाले हों तो मुस्लिम विधि के अनुसार उसे विवाह की मान्यता नहीं मिलती जैसे एक मुसलमान किसी किताबी स्त्री से विवाह कर सकता है परन्तु किसी गैर मुस्लिम से विवाह नहीं कर सकता ।
( 5 ) इद्दत की अवस्था में होने वाली स्त्री - ऐसी स्त्री से किया हुआ विवाह जो अपने विवाह के इद्दत की अवस्था में है निष्प्रभाव नहीं वरन् अनियमित होगा ।
विवाह के सम्बन्ध में उपर्युक्त निषेधों के अतिरिक्त निम्नलिखित निषेध भी हैं , जैसे
( I ) त्यक्ता स्त्री से विवाह - तलाक द्वारा त्यक्ता स्त्री उसी पुरुष से उस समय तक पुन विवाह नहीं कर सकती जब तक कि ऐसा निषेध समाप्त न हो जाय ।
( II ) गर्भवती स्त्री से निकाह -किसी अन्य पुरुष द्वारा गर्भवती की गई जी के साथ यदि कोई पुरुष निकाह करे तो ऐसा विवाह अमान्य होगा परन्तु गर्भ में होने वाले बच्चे के उत्पन होने या गर्भपात के बाद इद्दत की अवधि पूरी होने पर उस स्त्री के साथ विवाह किया जा सकता है ।
( III ) तीर्थयात्रा के दौरान निकाह - सुन्नी सम्प्रदाय के शाफई , मलिकी और हनबली पंथ के मानने वाले तीर्थयात्रा के दौरान निकाह को अवैध मानते हैं । परन्तु हनफी विधि के अन्तर्गत ऐसा विवाह मान्य है जैसा कि ' फतवा - ए - आलमगीरी ' में व्यक्त किया गया कि ' इहराम ' की हालत में ' मुहरिम ' और ' मुहरिमा ' का अन्तर्विवाह वैध होता है ।
( iv ) रोगी के साथ निकाह - किसी ऐसे पुरुष के साथ जिससे प्राणघातक बीमारी हो , निकाह नहीं किया जा सकता ।
( v ) समानता ( कफा ) के नियम के विरुद्ध किया गया विवाह - हनकी विधि के अनुसार , पति और पत्नी के सामाजिक स्तर में समानता विवाह की आवश्यक शर्त है । यदि कोई वयस्क लड़की अपने से निम्न सामाजिक स्तर के व्यक्ति के साथ विवाह करती है तो ऐसा व्यक्ति जो यदि वह अवयस्क होती तो उसके विवाह के संरक्षक होते विवाह को निरस्त करने हेतु न्यायालय से प्रार्थना कर सकते हैं । ऐसा विवाह शून्यकरणीय होता है ।
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