Skip to main content

क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

चोट या hurt करना क्या होता है ?चोट गम्भीर कब होती है?

चोट(Hurt): भारतीय दंड संहिता की धारा 319 में चोट की परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार जो कोई व्यक्ति किसी मामले को-

(1) शारीरिक पीड़ा पहुंचाता है,

(2)रूग्ण अथवा रोग ग्रस्त करता है या

(3) दुर्बल अथवा क्षीण  करता है  उसे चोट कारित करना कहा जाएगा।


          इस प्रकार सामान्य रूप से चोट के अंतर्गत वे समस्त कार्य आते हैं जिनसे किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट बीमारि या दुर्बलता पैदा होती है। अतः अपहति (चोट)का अर्थ किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचाना।


उदाहरणार्थ किसी स्त्री को उसके बाल पकड़कर खींचना इस धारा के अंतर्गत अपराध है।

        साधारण चोट के संबंध में चतुर नाथ का मामला उल्लेखनीय है। इस मामले में अभियुक्त एवं परिवादी में एक रात को झगड़ा हो गया। अभियुक्त ने एक छड़ी से परिवादी के सिर पर निशाना बनाना चाहा। उसके वार से पति को बचाने के लिए परिवादी की पत्नी ने जिस के गोद में एक बच्चा था उन दोनों के बीच में हस्तक्षेप किया। निशाना चूक जाने से वार बच्चे के सिर पर आ पड़ा। उससे गंभीर चोट पहुंची और परिणाम स्वरूप बच्चा मर गया। यह धारण किया गया कि  यदि वार अपने सही निशाने पर बैठता तो साधारण चोट पहुचती।इसलिए  अभियुक्त साधारण चोट पहुंचाने का दोषी है।


     जहां अभियुक्त ने एक स्त्री को थप्पड़ मारा जिससे वह गिर पड़ी  जिसके पश्चात उसने उस पर लात से प्रहार किया यह  अभिनिर्धारित किया गया कि वह अपहृति(चोट) कारित करने का दोषी था।


गंभीर चोट(Grievus hurt): धारा 320 के अनुसार निम्नलिखित चोट गंभीर चोट कहलाती है।

(1) पुसंत्व हरण

(2) किसी की आंख की रोशनी स्थाई रूप से नष्ट करना


(3) किसी की कान की शक्ति को स्थाई रुप से नष्ट करना

(4) किसी अंग या जोड़ का  विच्छेदन

(5) किसी अंग या जोड़ की शक्तियों की क्षति   से उसे स्थाई रूप से नष्ट कर देना

(6) सिर या चोट को स्थाई रूप से विकृत कर देना

(7) हड्डि या दांत टूटना या  अपने स्थान से हट जाना

(8) कोई ऐसी चोट जिसके जीवन के लिए संकट उत्पन्न हो जाए या पीड़ित व्यक्ति घोर पीड़ा में रहे।



           जहां अभियुक्तों ने मृतक के माथे( कृपाल) पर लाठी से एक प्रहार किया लोहे की सरिया से नहीं जैसे कहा गया और उस क्षति से उसकी मृत्यु हो गई , अभियुक्त को घोर अपहृति के लिये दोष सिद्ध किया गया। जहां अभियुक्त ने मृतक के नाम में पहले गहने की चोरी करने के आशय  से उसके नाक से उस भाग को काट दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई उसे घोर अपहति के लिए दोषी ठहराया गया क्योंकि कारित क्षति से मृत्यु होने की संभावना नहीं थी यद्यपि मृत्यु हो गई।


      राज्य बनाम शिवलिंगैया के वाद में अभियुक्त ने अचानक मृतक की अंड ग्रंथियों को दबा दिया जिससे आघात और हृदय गति रुक जाने से उसकी मृत्यु हो गई यह अभि निर्धारित किया गया कि अभियुक्त के कार्य से जीवन को खतरा था अतः  धारा 320 के आठवें  खण्ड के आधार पर वह घोर अपहति कारित करने का दोषी था।


स्वेच्छा पूर्वक चोट पहुंचाना(Voluntarily causing hurt): भारतीय दंड संहिता की धारा 321 के अनुसार जब कोई व्यक्ति इस आशय से कार्य करता है कि उसके द्वारा किसी व्यक्ति को चोट पहुंचाए या इस ज्ञान के साथ कि इस बात की संभावना है कि यह द्वारा किसी व्यक्ति को चोट पहुंचाए और वह उसके द्वारा किसी व्यक्ति को चोट पहुंचाता है तो यह कहा जाता है कि उसने स्वेच्छा पूर्वक चोट पहुंचाई है।


स्पष्टीकरण: कोई व्यक्ति स्वेच्छया गंभीर चोट पहुंचाता है यह नहीं कहा जाता है सिवाय जबकि वह गंभीर चोट पहुंचाता है और गंभीर चोट पहुंचाने का उसका आशय हो या गंभीर चोट होता है वह सम्भाव्य जानता हो किंतु यदि वह यह आशय रखता है या यह साम्भाव्य  जानते हुए कि वह किसी एक किस्म की गंभीर चोट पहुंचाए तो वह स्वेच्छया से गम्भीर चोट पहुँचाता है यह कहा जाता है।


उदाहरण :(1) 'अ' और 'ब' के बीच किसी बात पर बहस हो गई जिस से उत्तेजित होकर "अ' ने "ब' पर बेंत प्रहार  किया जिससे 'ब' के सिर से खून बहने लगा । 'अ' ने चोट पहुंचाने का कार्य किया।


(2) 'अ' ने रात के अंधेरे में अपने घर में किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति को अनुभव करके उस पर कुल्हाड़ी से हमला कर दिया। जिससे उस व्यक्ति का पैर कट गया।'अ' ने धारा 322 के अंतर्गत गंभीर चोट पहुंचाने का अपराध किया है। यदि अ ने यह कार्य उस समय किया होता जब वह उस व्यक्ति को अपनी पत्नी के साथ देख कर उत्तेजित हो जाता है तो वह अपराध धारा 322 के अनुसार दण्डनीय होता।


स्वेच्छा पूर्वक चोट या गंभीर चोट पहुंचाने से संबंधित अपराध:-

(1) भयानक हथियारों या साधनों द्वारा गंभीर चोट पहुंचाना ।

( धारा 324,326)


(2) जब चोट ऐसी संपत्ति उद्दीपित(extort) करने या अवैध कार्य करने के उद्देश्य से पहुंचाई जाए ।

              (धारा 324 , 326)


(3) विषैली वस्तु द्वारा चोट पहुंचाना

( धारा 328)


(4) जब चोट स्वीकृति उद्दीपित करने के लिए संपत्ति के लिए संपत्ति के प्रत्यावर्तन को बाह्य करने के लिए पहुंचाई जाए।

( धारा 330, 331)


(5) लोक सेवक को अपने कर्तव्य से च्युत करने के लिए जब चोट पहुंचाई जाए


(6) जब स्वेच्छा से चोट किसी गंभीर और आकस्मिक  उत्तेजना द्वारा पहुंचाई जाए जिसका  अपराधी को किसी अन्य व्यक्ति को पहुंचाने का ना तो आशय हो और ना ज्ञान हो तो इस प्रकार चोट पहुंचाने पर धारा 335 के अंतर्गत दोषी होगा।


(7) जब कोई व्यक्ति ऐसे उतावलेपन या उपेक्षा से ऐसा कार्य करेगा जिससे मानव जीवन या दूसरों का व्यक्तिगत क्षेत्र संकटपन्न हो जाए किसी  व्यक्ति को गंभीर चोट पहुंचाता है वह दोनों में से किसी भाँति कारावास  से जिसकी अवधि 2 वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो ₹1000 तक का हो सकेगा या दोनों से दंडित किया जाएगा।


लोक अभियोजक बनाम एन .एस. मूर्ति के वाद में अभियुक्त ने अपनी पत्नी के साथ हुए अचानक झगड़े में उसके सिर पर दो सौ ग्राम का बांट दे मारा। जिसके कारण पत्नी की मृत्यु हो गई। मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर यह पाया गया कि चोट साधारण स्वरूप की थी तथा इस बात का कोई सबूत नहीं था कि मृतिका के मृत्यु अपहति से उत्पन्न मानसिक आघात के कारण हुई है। अतः अभियुक्त को धारा 323 के अंतर्गत दोषी ठहराया गया ना की धारा 304 के अधीन।



श्रीप्रकाश बनाम राज्य के मामले में अभियुक्त ने बालक को पीटा परंतु बालक के शरीर पर किसी चोट के निशान नहीं पाए गए। उसकी तिल्ली बढी होने के कारण अभियुक्त द्वारा उसे पीटे जाने के फल स्वरुप बालक की मृत्यु हो गई। अता न्यायालय ने अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 304 के अंतर्गत दोषी न मानते हुए धारा 323 एवं 326 के अंतर्गत दोष सिद्ध किया।




(1) (1919) बम्बई एल.आर. 110

(2 शैलेंद्र नाथ हाती बनाम अश्वनी 1988 क्रि.एल.जे.343 (कलकत्ता )


(3)मोहिन्दर सिंह बनाम  राज्य ,1985 क्रि.एल.जे. 1903 (एस.सी)

(4) गुरुबुल बनाम एम्प.1945 मद्रास ,43

(5) ए .आई. आर .1988 एस.सी.115


(6) 1988 क्रि.ला.ज. 982

(7)ए.आई.आर. 1991 सु.को.(1069)

(8)1995 क्रि. एल. जे. 3975 ( एस.सी.)


Comments

Popular posts from this blog

मेहर क्या होती है? यह कितने प्रकार की होती है. मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी को क्या अधिकार प्राप्त है?What is mercy? How many types are there? What are the rights of the wife if dowry is not paid?

मेहर ( Dowry ) - ' मेहर ' वह धनराशि है जो एक मुस्लिम पत्नी अपने पति से विवाह के प्रतिफलस्वरूप पाने की अधिकारिणी है । मुस्लिम समाज में मेहर की प्रथा इस्लाम पूर्व से चली आ रही है । इस्लाम पूर्व अरब - समाज में स्त्री - पुरुष के बीच कई प्रकार के यौन सम्बन्ध प्रचलित थे । ‘ बीना ढंग ' के विवाह में पुरुष - स्त्री के घर जाया करता था किन्तु उसे अपने घर नहीं लाता था । वह स्त्री उसको ' सदीक ' अर्थात् सखी ( Girl friend ) कही जाती थी और ऐसी स्त्री को पुरुष द्वारा जो उपहार दिया जाता था वह ' सदका ' कहा जाता था किन्तु ' बाल विवाह ' में यह उपहार पत्नी के माता - पिता को कन्या के वियोग में प्रतिकार के रूप में दिया जाता था तथा इसे ' मेहर ' कहते थे । वास्तव में मुस्लिम विवाह में मेहर वह धनराशि है जो पति - पत्नी को इसलिए देता है कि उसे पत्नी के शरीर के उपभोग का एकाधिकार प्राप्त हो जाये मेहर निःसन्देह पत्नी के शरीर का पति द्वारा अकेले उपभोग का प्रतिकूल स्वरूप समझा जाता है तथापि पत्नी के प्रति सम्मान का प्रतीक मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित पति के ऊपर यह एक दायित्व है

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद - पत्र में न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का नाम लिखना आवश्यक

अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि क्या होती है? विवेचना कीजिए.( what is the relation between National and international law?)

अंतर्राष्ट्रीय विधि को उचित प्रकार से समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि के संबंध को जानना अति आवश्यक है ।बहुधा यह कहा जाता है कि राज्य विधि राज्य के भीतर व्यक्तियों के आचरण को नियंत्रित करती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्र के संबंध को नियंत्रित करती है। आधुनिक युग में अंतरराष्ट्रीय विधि का यथेष्ट विकास हो जाने के कारण अब यह कहना उचित नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि केवल राज्यों के परस्पर संबंधों को नियंत्रित करती है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय विधि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के संबंधों को नियंत्रित करती है। यह न केवल राज्य वरन्  अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, व्यक्तियों तथा कुछ अन्य राज्य इकाइयों पर भी लागू होती है। राष्ट्रीय विधि तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों प्रणालियों के संबंध का प्रश्न आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि में और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि व्यक्तियों के मामले जो राष्ट्रीय न्यायालयों के सम्मुख आते हैं वे भी अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हो गए हैं तथा इनका वृहत्तर  भाग प्रत्यक्षतः व्यक्तियों के क्रियाकलापों से भी संबंधित हो गया है।