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भारत में दहेज हत्या में क्या सजा का प्रावधान है ? विस्तार से चर्चा करो।

दंड का उद्देश्य क्या होता है? इसके विभिन्न सिद्धांतों की संक्षिप्त कौन-कौन से हैं?( what is the object of punishment? Discuss its various theories in brief. State the punishment which can be awarded according to Indian Penal Code.)

समाज में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखना राज्य का एक आवश्यक कर्तव्य है। राज्य अपने इस कर्तव्य का निर्वाह अपराधों पर रोकथाम करके करता है। राज्य अपराधों की रोकथाम अपराधियों को दंडित करके करता है। अतः दण्ड  का मुख्य उद्देश्य अपराधों की रोकथाम करना है। यह विचारणीय प्रश्न है कि किसी अपराधी को उसके अवैध कृत्य के लिए किस प्रकार दंडित किया जाए। दंड का निर्धारण उनको किए जाने की परिस्थितियों और समय के साथ बदलते हुए स्वरूप के अनुसार किया जाता है। उदाहरण के लिए सभ्यता के प्रारंभिक काल में दंड की व्यवस्था बड़ी क्रूर और असभ्य रूप में थी जिसके अनुसार बदला लेना(To take revenge) ही मुख्य उद्देश्य होता था। अतः  किसी व्यक्ति की यदि हत्या हो जाती थी तो मृतक के घरवाले जब तक अपराधी से बदला नहीं लेते थे चैन से नहीं बैठते थे। उसके बाद स्थिति यह बनी की "आंख के बदले आंख" ,दांत के बदले दांत' और 'नाखून के बदले नाखून' की व्यवस्था आई जिसका तात्पर्य यह था कि अपराधी को उतनी ही हानि पहुंचाई जाए जितनी उसने स्वयं की है।

             समाज का स्वरूप धीरे-धीरे बदलने के साथ ही साथ शासन व्यवस्था एक ही वर्ग के व्यक्तियों या व्यक्ति के हाथ में आ गई। आपराधिक कार्यों के लिए दंड देने का अधिकार सिर्फ उनको ही मिला। भारतवर्ष में अपराधिक न्याय व्यवस्था मुगलों की शासन व्यवस्था के अनुसार सही है  तथा भारतीय दंड संहिता 1860 के पारित होने के पूर्व तक मुस्लिम आपराधिक विधि के अनुसार ही अपराधी को दंडित किया जाता था। मुस्लिम दंड व्यवस्था भी बड़ी क्रूर और अनियमित थी जिसमें यदि पीड़ित पक्ष चाहता तो अपने व्यक्ति के वध करने वाले को क्षमा भी कर सकता था या फिर अपराधी को सूली पर चढ़ा दिया जाता था।


          समय के परिवर्तन के साथ साथ दंड व्यवस्था में भी सुधार करने की मांग होती रही आधुनिक युग में इस विचारधारा ने जोर पकड़ा की अपराधियों को क्रूर दंड देकर समाप्त करने की अपेक्षा उसको एक बार संभलने का मौका दिया जाना चाहिए। अतः आजकल दंड का उद्देश्य अपराधी को सुधारना है ना कि उसको समाप्त ही कर देना। इसलिए भारतीय दंड व्यवस्था से अमानवीय तथा बर्बरता पूर्वक दण्ंडों को पूर्णता समाप्त कर दिया गया है तथा वर्तमान समय में अपराधी के पुनर्स्थापन पर विशेष बल दिया जा रहा है। परिवीक्षा अधिनियम 1958 बल न्याय अधिनियम 1986 आदि कुछ ऐसे नियम है जिनके द्वारा अपराधियों को दंडित करने के बजाए सुधारात्मक तरीकों से उनके व्यक्तित्व में सुधार करके उन्हें समाज में पुनः स्थापित किए जाने का प्रयास किया जाता है।


           समय के परिवर्तन के साथ ही साथ दंड व्यवस्था में सुधार की मांग होती रही है और आधुनिक युग में इस विचारधारा ने जोर पकड़ा की अपराधी को क्रूर दंड देकर समाप्त करने की अपेक्षा उसको एक बार संभलने का मौका दिया जाना चाहिए। अतः आजकल दंड का उद्देश्य अपराधी को सुधारना है ना कि उसको समाप्त ही कर देना।



दंड के विभिन्न सिद्धांत(Various Theories of punishment )


समाज में दंड देने के सिद्धांत में समय-समय पर विभिन्न मान्यताएं रही है। जिसके अनुसार अनेक सिद्धांत प्रतिपादित हुए। मुख्य रूप से दंड के सिद्धांत निम्नलिखित हैं-


(1) निवारक सिद्धांत(Deterrent theories )

(2) निरोधक सिद्धांत(Preventive theories )

(3) प्रतिकारी (Retributive)


(4) सुधारक(Reformative)


निवारक सिद्धांत( Deterrent theories ): इस सिद्धांत के अनुसार दंड न्याय का उद्देश्य अपराधों का निवारण करना है जिसके अनुसार अपराधी को इतना कठोर दंड दिया जाए कि बाकी लोग अपराध करने से पहले खाएं। इसके अनुसार दर्जनों को दण्ड ना देकर बाकी को अपराध से रोकना है।


          इस सिद्धांत का आधार भय की धारणा है जिससे सभी के द्वारा सभ्य व्यवहार निश्चित किया जाता है। इस प्रकार मनुष्य का मनोभाव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसे यह मालूम है कि यदि उसने कभी कोई अपराध किया तो उसे सख्ती से निपटा जाएगा और यह भाव एक संभावित अपराधी सहित सभी में विकसित होता है।



आलोचना: यह सिद्धांत अधूरा है। अपराधी को कठोर दंड देकर समाज का सुधार नहीं किया जा सकता क्योंकि बहुत से व्यक्ति अपराध किसी विशेष परिस्थिति है या कठिनाई में फंस कर बैठते हैं दूसरे अपराधी भी कठिन दंड झेलने  का अभ्यस्त हो जाता है और उसे दंड का दृष्टांत अपराध करने से नहीं रोकता।


निरोधक सिद्धांत(Preventive thoery): इस सिद्धांत का आशय अपराधी को मृत्युदंड कारावास या निर्वासन का दण्ड देकर उसे अपराध करने से रोकना है। इसके अनुसार कोई व्यक्ति जब एक बार अपराध करके करके उसका दंड भोग लेगा तो वह भविष्य में उस दंड से भय खाएगा और अपराध नहीं करेगा।


आलोचना: यह सिद्धांत आधुनिक युग में सर्वथा अनुपयुक्त है क्योंकि जो व्यक्ति अपराध करने के आदी हो जाते हैं वह बार-बार अपराध करने से नहीं डरते।

प्रतिकारी(Retributive Theory): इस दण्ड के सिद्धांत के अनुसार अपराधी को उतना ही दंड मिलना चाहिए जितना उसने अपराध किया हो अर्थात आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत वाली कहावतें सिद्धांत में लागू होती है।


आलोचना: यह सिद्धांत आजकल बहुत ही असभ्यतापूर्ण और विवेक शून्य  माना जाता है क्योंकि इसमें अपराध घटित होने के कारण परिस्थितियों और वास्तविक तथ्यों को जाने बिना तुरंत दंड की व्यवस्था होती है।


(द) सुधारक सिद्धांत(Reformative theory): इस सिद्धांत के अनुसार अपराधी को दंड इसलिए दिया जाता है कि उसके आचरण प्रवृत्ति में सुधार हो। इस सिद्धांत के अनुसार कोई व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता बल्कि उसकी परिस्थितियां वातावरण मानसिक स्थिति व अन्य कोई सामाजिक पारिवारिक या आर्थिक कारण उसे अपराधी बना देते हैं। अतः इन सब बातों को ध्यान में रखकर अपराधी को संभलने और अच्छा नागरिक बनने का अवसर दिया जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार मृत्युदंड या आजीवन कारावास का दण्ड  निरर्थक होता है। इसी कारण जेलों में सुधार चिकित्सा कैदियों को पढ़ाना या हस्तकला के कार्य सिखाने आदि की व्यवस्था होती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ में परीक्षण के लिए एक सुधारात्मक जेल की स्थापना की जोकि बहुत सफल रही।



            आज के कल्याणकारी राज्य में सुधारात्मक उद्देश्य आदि उपयोगी और महत्वपूर्ण माना जाता है। सुधारात्मक सिद्धांत का उद्देश्य अपराधी को एक अच्छा इंसान बनाना है। इसके अंतर्गत अपराधियों को कारागृह में शिक्षा देना उन्हें उद्योग धंधे सिखाना आदि आता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहा करते थे कि" मनुष्य जन्म से बुरा नहीं होता अपितू परिस्थितियां उसे बुरा बना देती हैं। अतः अपराधियों को इन बुराइयों से दूर कर उन्हें अच्छा मानव बनाना ही सुधारात्मक दंड का उद्देश्य होना चाहिए। सुधारात्मक दंड का एक सिद्धांत उनके इस कथन पर आधारित है कि" हमें अपराधी से नहीं अपराध से घृणा  करनी चाहिए।"


दंड: दंड से हमारा अभिप्राय पीड़ा अथवा कष्ट से है जिसकी परिणति समाज द्वारा उस व्यक्ति पर की जाती है जिसे विधि के अंतर्गत अपराध का दोषी ठहराया जाता है। यह समाज के ऐसे नियमों के अतिल्लंघन के संबंध में एक प्रतिकार(Retribution) है जो समाज द्वारा अपनी सुरक्षा और शांति के निमित्त किया गया है तथा जिसका भी अतिक्रमण अपराध है।



भारतीय दंड संहिता की धारा 53 के अनुसार अपराधी को निम्नलिखित दंड दिए जा सकते हैं:-


(1) मृत्यु(Death)

(2) आजीवन कारावास(Imprisonment)

(3) इसके अतिरिक्त कारावास दो प्रकार का हो सकता है:

(a) साधारण कारावास(simple imprisonment)

(b) कठोर कारावास(Rigorous imprisonment)



(4) संपत्ति जब्त होना(forfeiture of property)

(5) जुर्माना(fine)


मृत्यु: भारतीय दंड संहिता की धाराओं 121, 132, 194, 302, 305, 307, 364(क) और 396 के अंतर्गत मृत्युदंड दिए जाने का प्रावधान है ।


आजीवन कारावास: दंड संहिता की धारा 53 में प्रयुक्त पदावली" आजीवन कारावास" से आशय कठोर या सश्रम आजीवन से ही है ना कि साधारण आजीवन कारावास से। गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र के एक मामले में उच्च न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया कि आजीवन कारावास से दंडित व्यक्ति अपना समस्त शेष जीवन कारावास में बिताने के लिए बाध्य  है यदि उसकी सजा सक्षम प्राधिकारी द्वारा कम या समाप्त ना कर दी जाए। आजीवन कारावास के दंड को समाप्त करने की अधिकार शक्ति समुचित सरकार विवेक के अधीन है।


भागीरथ बनाम दिल्ली प्रशासन में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आजीवन कारावास दोषी पाए गए व्यक्ति के जीवन पर्यंत तक की अवधि है।


कारावास: कारावास से आशय किसी व्यक्ति को निरुद्ध  रखने से है। तथापि यह आवश्यक नहीं है कि अभियुक्त को कारागार की चाहर दीवारी के अंतर्गत ही निरुद्ध रखा जाए। न्यायालय उठने तक की अवधि का दण्ड भी इसी आधार पर कारावास का दंड माना जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 53 में कारावास के दंड दो प्रकार बताए गए हैं:

(1) कठोर( सश्रम) कारावास

(2) साधारण कारावास


     इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार के कारावास का भी दंड संहिता की धारा 73,74 में उल्लेख है जिसे एकांत परिरोध या कारावास कहा गया है। परिणाम की दृष्टि से कठोर कारावास से भी अधिक कष्टदाई होता है।


      जुर्माना: संहिता  की कई धाराओं के अंतर्गत कारावास या जुर्माना या दोनों साथ-साथ दंड के प्रावधान है और न्यायालयों को यह अधिकार है कि उनमें से जो भी दंड वो उचित समझते हैं उसका आदेश दे सकते हैं। जुर्माना अधिरोपित करते समय न्यायालय कई महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखती है जिनमें प्रमुख है कारित किया गया अपराध की प्रकृति अपराधी की सहन करने की क्षमता और जुर्माना अधिरोपित  किए जाने की उपयोगिता।







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