Skip to main content

क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

The Law of land warfare के कौन कौन से नियम होतें हैं?

स्थल युद्ध की विधि(The law of land warfare): युद्ध प्रारंभ होने पर दोनों पक्षों का ध्येय अपनी अपनी शक्ति के प्रयोग द्वारा शत्रु को झुकाना होता है किंतु इस शक्ति का प्रयोग मनमाने तरीके से नहीं किया जा सकता। अपनी प्रभुसत्ता को बनाए रखने के लिए एक राष्ट्र यद्यपि दूसरे को शक्ति से हर तरह से कुचलने का प्रयत्न करता है परंतु शत्रु को हराने और बल प्रयोग करने के लिए कुछ मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। ऐसी मर्यादाओं का पालन ही युद्ध के लिए(Law of warfare) कहलाते हैं।


           समय के परिवर्तन के साथ ही साथ युद्ध के नियमों में भी परिवर्तन हुए हैं। सर्वप्रथम सन उन्नीस सौ सात के हेग सम्मेलन में महत्वपूर्ण घोषणा की गई। इससे पूर्व युद्धों के नियमों पर राष्ट्रों ने अपनी सहमति प्रकट की थी।

           ओपेनहीम के अनुसार निम्नलिखित तीन सिद्धांतों ने युद्ध के नियम निर्धारण वाद के विषय में बड़ा भाग लिया


(1) युद्धरत राष्ट्र शत्रु को परास्त  करने के लिए किसी मात्रा और बल का प्रयोग कर सकता है।


(2) बल प्रयोग ऐसी मात्रा में तथा ऐसे रूपों में नहीं करना चाहिए जो शत्रु हटाने के लिए आवश्यक ना हो इसको मानवीय सिद्धांत भी कहते हैं।


(3) शत्रु को चेतावनी देकर उसके साथ न्याय उचित व्यवहार करते हुए लड़ाई करनी चाहिए।


       इन्हीं कारणों से आजकल असैनिक व्यक्तियों की हानि युद्ध बंदियों के साथ दुर्व्यवहार संहारक गैसों का प्रयोग नाविक सुरक्षा किये बिना व्यापारिक जहाजों को डुबोना इत्यादि कार्य निंदनीय माने जाते हैं।


             19वीं शताब्दी के मध्य में विभिन्न देशों के मध्य युद्ध संबंधी संधि और घोषणाएं हुई जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है:-


(1) 16 अप्रैल 1856 की पेरिस घोषणा ।

(2) 22 अगस्त 1864 का जेनेवा अभिसमय  ।

(3) 11 दिसम्बर १८६८ सैंटपीटर्स वर्ग की घोषणा ।

(4) हेग की 1899 की पहली शान्ति परिषद ने स्थल युद्धों के नियमों का अभिसमय  तैयार  किया।

(5) दमदम गोलियों के निषेध की हेग घोषणा ।

(6)दम घोंटने वाली श्वासरोधी या हानिप्रद गैसों के प्रयोग से निषेध की जिनेवा घोषणा।

(7) समुद्री लड़ाई के संबंध में बताए गए हेग अभिसमय को लागू करना।


स्थल युद्ध के नियमों का पालन:- स्थल युद्ध के नियमों के पालन के संबंध में 2 आपत्तियां उठाई गई:-


(1) राज्य की सुरक्षा के नियमों के पालन से अधिक महत्वपूर्ण है अतः  युद्ध रत देशों के कार्यों की मर्यादा नहीं होनी चाहिए।


(2) समझौते के नियमों का पालन तभी आवश्यक होता है जब युद्ध छिड़ने पर  कभी युद्ध रत राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए हों। यदि उनमें से एक ने भी हस्ताक्षर नहीं किए हो तो नियमों का पालन नहीं हो सकता।



           परंतु इन तर्कों को मानवीय और तार्किक दृष्टिकोण से नहीं माना गया। हेग के नियमों में अनुच्छेद 22 में यह व्यवस्था है कि युद्ध रत राष्ट्र को युद्ध से हानि पहुंचाने का असीमित या अमर्यादित अधिकार नहीं है। कुछ अंतरराष्ट्रीय नियम और परंपराएं हैं जिनका पालन सभी राष्ट्रों को करना पड़ता तथा संधियों इत्यादि की शर्तों को मानना पड़ता है।


           दूसरी आपत्ति सामान्य भाग ग्रहण की धारा पर आधारित है जिसे सन 1919 के जिनेवा अभिसमय में हटा दिया गया और सन 1949 के जिनेवा अभिसमय में ही यह निश्चित कर दिया गया कि संधि की शर्ते सभी की सामान्य है और चाहे एक दो देशों ने हस्ताक्षर ना भी कियें हो।


           युद्ध के नियमों के पालन और उल्लंघन रोकने के लिए कुछ अनुज्ञप्तियाँ(Law) भी होती हैं। स्टार्क के अनुसार पहली अज्ञप्ति (Reprisal) की है।  दूसरी अनुज्ञप्ति युद्ध नियमों का उल्लंघन करने पर दंड दिए जाने का भय है और तीसरी अनुज्ञप्ति क्षतिपूर्ति या मुआवजे की। सन 1907 के चौथे हेग अभिसमय में कहा गया कि यदि कोई राज्य ऐसे नियम तोड़ता है तो सेवा द्वारा किए गए कार्य के लिए उत्तरदाई समझा जाएगा।


            स्थल युद्ध के उद्देश्य और साधन: स्थल युद्ध के दो उद्देश्य हैं


(अ) शत्रु सेना को परास्त करना

(ब) शत्रु प्रदेश पर अधिकार जमा कर वहां पर शासन करना। इन उद्देश्यों की पूर्ति का शत्रु देशों के व्यक्तियों के प्रति हिंसा प्रयोग करना है इनके अतिरिक्त अन्य निम्नलिखित साधन है


(अ) शत्रु की सम्पत्ति का आत्म सात्करण (Appropriation)

(2) उपयोग व विध्वंस

(3) घेराओ डालना

(4) बमबारी करना


(5) जासूसी करना

(6) देशद्रोह का लाभ उठाना

(7)  छल इत्यादि करना



समुद्र युद्ध के नियमों का वर्णन:

समुद्र युद्ध का उद्देश्य स्थल युद्ध से भिन्न होता है क्योंकि समुद्री युद्ध में शत्रु के सामरिक और व्यापारिक जहाजों को नष्ट करना और उनको किसी भी प्रकार से समुद्री लाभ लेने से रोकना है।

ओपेनहाइम (Oppenheim) ने अपनी किताब The International Law part 2 P.458 में समुद्री युद्ध के उद्देश्य निम्नलिखित बताए हैं


(1) शत्रु की सेना को परास्त करना

(2) शत्रु के व्यापारिक बेडे का विध्वंस करना

(3) शत्रु की तटबंदी किलेबंदी


(4) समुद्र तट की सामरिक बस्तियों का विनाश


(5) शत्रु देश के तट तथा अन्य देशों के संपर्क समाप्त करना

(6) शत्रु के विनिर्दिष्ट(Contraband) रण सामग्री की धुलाई को तथा अतटस्थ सेवा (Unventral service) को रोकना।

(7) स्थल पर की जाने वाली सैनिक कार्यवाहियों  को समुद्र तक सहायता पहुंचाना।


(8) अपने समुद्र तटीय तथा व्यापारिक बेडे की रक्षा करना।

         स्थल युद्ध में वैयक्तिक संपत्ति नहीं छीनी जा सकती जबकि समुद्री युद्ध में जहाजों पर लदी वैयक्तिक और अतटस्थ सेवा में लगे तटस्थ जहाजों को जप्त किया जा सकता है। स्थल युद्ध के अनेक लाभ हो सकते हैं परंतु समुद्री युद्ध के केवल निम्नलिखित लाभ होते हैं:

(1) शत्रु सार्वजनिक और वैयक्तिक जहाज


(2) शत्रु देश के व्यक्ति

(3) शत्रु का समुद्री जहाजों द्वारा ले जाया जाने वाला माल

(4) शत्रु का समुद्र तट

(5) परिवेष्टन (blockade) तोड़ने का प्रयत्न करने वाले तटस्थ जलपोत

(6) विनिषिद्ध पदार्थ ले जाने वाले तथा तटस्थ सेवा करने वाले तटस्थ जलपोत।



समुद्र युद्ध के नियमों की पृष्ठभूमि(Background of the laws of maritine warfare): भारत में आदि काल से समुद्री युद्ध के नियमों का उल्लेख मिलता है। कौटिल्य अर्थशास्त्र(2128) में यह दिया गया है कि हिंसा कार्य में लगी समुद्री डाकुओं की नौकाओं को नष्ट कर देना चाहिए शत्रु के देश को जाने वाली तथा बंदरगाह के नियमों को भंग करने वाली नौगांव का विध्वंस होना चाहिए। पराई स्त्री कन्या या मित्र का अपहरण करने वाले अग्नि जैसे विस्फोटक पदार्थ शस्त्र विष ले जाने वाले यात्री बिना मुद्रा के नाव पर यात्रा करने वाले यात्रियों को पकड़ लेना चाहिए।

             पश्चिमी देशों में इस संबंध में कुछ भी न नियम था। 24 वीं शताब्दी में क्रासलेटो(Courseltes) डेल मेयर ने इस विषय में कुछ और नियम बनाए जिनके अनुसार युद्ध मान देश शत्रु के जहाज और माल पर कब्जा कर सकते हैं परंतु तटस्थ  देशों के जहाज पर  शत्रु का माल ही जब्त हो सकता था जहाज नहीं। इन नियमों को इंग्लैंड ने तो स्वीकार किया परंतु हॉलैंड फ्रांस और स्पेन ने नहीं माना। सन् 1900 में अमेरिका में युद्ध संबंधी नियमों की संहिता प्रकाशित की। सन उन्नीस सौ सात में हेग सम्मेलन में निम्नलिखित अभिसमय(Conventions ) तैयार किए गए

(1) युद्ध छिड़ने पर शत्रु के व्यापारिक जहाजों की स्थिति

(2) व्यापारिक जहाजों के युद्ध पोतों में परिवर्तन

(3) स्वचालित अध  समुद्री संस्पर्श सुरंगों (Auto submarine contract mines) संबंधी


(4) नौसेना द्वारा बमवर्षक विषयक

(5) समुद्री युद्ध में निग्रह के अधिकारों के प्रयोग पर प्रतिबंध


समुद्र के जलपोतों पर आक्रमण और उनका अभिग्रहण(Attack on enemy ship and their seizure): समुद्री युद्ध में शत्रु के विरुद्ध हिंसा के उपयोग का इससे शत्रु के जहाजों के साथ-साथ उस पर लदा माल  उस पर सवार शत्रु के जन के आक्रांता के हाथ पड़ जाता है वह इन जहाजों को तथा माल को हथियार इनका आत्मसात्मकरण(Appropriation) कर सकता है तथा शत्रु जनों को युध्दबन्दी बना लेता है। ओपेनहाइम के अनुसार कोई भी युद्धम बंदी पक्ष के शत्रु के सभी रणपोतों तथा सार्वजनिक जलपोतों पर अपने रणपोतों द्वारा महा समुद्रों के अथवा दोनों पक्षों के प्रादेशिक समुद्रों में तुरंत आक्रमण कर सकता है। हमला किए गए जहाज द्वारा प्रति आक्रमण किया जा सकता है परंतु व्यापारिक जहाजों पर आक्रमण तभी किया जा सकता है जब वह संकेत देने पर भी तलाशी देने के लिए ना रुके। किसी युद्ध रत पक्ष का कोई व्यापारिक जहाज यदि शत्रु के सार्वजनिक या वैयक्तिक जहाज पर आक्रमण करे तो उसे समुद्री डाकू या जलदस्यु (Pirate) समझा जाएगा और इनके नाविकों को युद्ध बंदी नहीं परंतु अपराधी समझा जाएगा।


            युद्ध करने वाले रणपोतों शत्रु के निम्नलिखित प्रकार के जहाजों पर आक्रमण नहीं कर सकते हैं

(1) चिकित्सीय जहाज(Hospital ship): सन 1949 के हेग अधिनियम के अनुसार चिकित्सा के मानवीय कार्य में संलग्न होने के कारण चिकित्सीय पोतों  पर न तो आक्रमण हो सकता है और ना उन्हें पकड़ा जा सकता है। ऐसे जहाजों पर पहचान के लिए रेड क्रॉस का चिन्ह बना होता है। प्रथम विश्व युद्ध में इस प्रकार की गलती कई बार हो गई थी परंतु यह कार्य मानवीय दृष्टि से अत्यंत अनुचित है।


(2) धार्मिक वैज्ञानिक या परोपकारी कार्यों में लगे जहाज: जो शत्रु के जहाज धार्मिक वैज्ञानिक या परोपकारी कार्यों में लगे होते हैं इनको भी नहीं पकड़ा जा सकता है परंतु यदि वे शत्रुतापूर्ण  कार्य करते हैं तो यह उन्मुक्ति समाप्त हो जाती है।


(3) युद्ध बंदियों के विनिमय(Exchange of war prisoners ): इस कार्य में लगे युद्ध पोतों पर भी आक्रमण नहीं किया जा सकता है।


(4) मछली पकड़ने वाले जहाज: मछली पकड़ने वाले जहाजों को भी नहीं पकड़ा जा सकता। दूसरे हेग सम्मेलन  के 11वें अभिसमय के तीसरे अभिसमय (The convention) के अनुसार समुद्र तट से लगे प्रदेश में मछली पकड़ने वाली तथा स्थानीय नौकाओं तथा व्यापार में लगी छोटी किश्तियों को उनकी सब सामान और उपकरण के साथ शत्रु द्वारा नहीं पकड़ा जा सकता।


(5) भटकते हुए जहाज(mislanded ship): समुद्री तूफान के कारण दिशा भ्रष्ट जहाज जब किसी बंदरगाह पर शरण लेते हैं उनके साथ शत्रुता का व्यवहार ना करके बड़ी उदारता का व्यवहार किया जाता है। 1799 में हुए फ्रांस और एशिया के युद्ध के दौरान एशिया के 1 वाणिज्य पोत डायना (Dionh) की डन्कर्क में फ्रेंच बंदरगाह में शरण लेनी पड़ी फ्रेंच नौसेना ने पकड़ लिया परंतु फ्रेंच अधिग्रहण न्यायालय ने उसे छोड़ दिया।


       सन् 1908 के छठे हेग अभिसमय के अनुसार निम्नलिखित वाणिज्यिक जहाजों को शत्रु के आक्रमण से आंशिक उन्मुक्तता (Partial immunity) प्राप्त है

(1) युद्ध छेड़ने पर शत्रु के बंदरगाह में विद्यमान

(2) युद्ध छेड़ने के पहले पिछले बंदरगाह से  चले हुए तथा युध्द की सूचना से अनभिज्ञ वाणिज्य पोत।


डाक ले जाने वाले युध्द पोत : डाक ले जाने वाले जहाजों और डाक के थैले को शत्रु द्वारा छीने जाने के संबंध में अंतरराष्ट्रीय कानून का कोई निश्चित नियम नहीं है। इस विषय में कुछ  देशों के मध्य डाक व जहाजों द्वारा यथास्थिति ही भेजी जाती रहे। 11वें हेग सम्मेलन में तटस्थ और युद्ध मान देशों सरकारी और गैर सरकारी दोनों प्रकार की डाक अनतिक्रम्य (Inviolable )है। चाहे वह तटस्थ देश के जहाजों पर लदी हो या शत्रु के जहाज से ली गई हो किन्तु परिवेष्टन बंदरगाह की डाक के बारे में वह छूट नहीं है।


शत्रु की सेवा में लगे तटस्थ जलपोत(Neutral merchant ship in the enemy service ): सन् 1901 की लंदन घोषणा में यह कहा गया था कि तटस्थ जहाज निम्नलिखित अवस्था में दंडित किए जा सकते हैं


(1) यह वे लड़ाई में भाग लें।

(2) यदि वे शत्रु की सरकार के आदेश में हो।

(3) यदि अनन्य रूप से शत्रु की सरकार के कार्य में लगे हो।

(4) यदि वे पूर्ण रुप से  शत्रु की सेवाओं की ढुलाई  में अथवा शत्रु को लाभ पहुंचाने  वाली सूचनाको 





      सांस्कृतिक सामग्रियों की जब्ती(forfeiture of cultural items): 14 मई 1954 को संपन्न हुए हेग अभिसमय के अनुसार शत्रु देश के संबंध रखने वाली सांस्कृतिक सामग्री जैसे मूर्तियां चित्र कलात्मक वस्तुएं पांडुलिपि तथा संस्कृति से संबंध रखने वाली विभिन्न पदों को तथा इनके पदहितमें लगे जहाजों को ना तो जब्त किया जा सकता है और ना ही उन्हें अधिगृहित सामग्री के रूप में छीना जा सकता है।

तटीय नगरों पर बम वर्षा(Bombardment on coastal town): सन 1907 के 11वें हेग अभिसमय में यह व्यवस्था की गई है कि रक्षा ना किए जाने वाले बंदरगाहों, कस्बों व गावों निवास स्थानों तथा भवनों पर नौसेना गोलीबारी नहीं कर सकती। किसी स्थान पर बम वर्षा केवल इसलिए नहीं की जा सकती कि  वहां बंदरगाह से कुछ दूर पर समुद्र में सुरंग बिछाई गई है परन्तु  शत्रु द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले सैनिक या नौ सैनिक स्थानों युद्ध सामग्री के भंडारों कारखानों बंदरगाह में खड़े रणपोतों इत्यादि पर बम वर्षा करने की अनुमति होती है बशर्ते कि उससे पूर्व स्थानीय अधिकारियों को उन को नष्ट करने की सूचना दी गई हो और उन्होंने उसका पालन ना किया हो। सैनिक प्रयोजन में ना प्रयोग होने वाली तथा विशेष चिन्हों से अंकित सार्वजनिक पूजा परोपकार तथा चिकित्सा संबंधी कार्य करने वाली इमारतों पर गोलीबारी करना वर्जित है।

सुरगें(mines): सुरंगे बिछाना वर्जित है। इन्हें समुद्री व्यापार रोकने की दृष्टि से शत्रु के बंदरगाह के तट के सामने बिछड़ना भी वर्जित है। जब किसी स्वचालित सुरंगे बिछाई जाए तो इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए जिससे शांतिमय समुद्री व्यापार को हानि ना पहुंचे। युद्ध रत पक्षों को उन सुरंगों की निश्चित अवधि तक हानि रहित बनाए रखना चाहिए। यदि वे सुरंगे उनके नियंत्रण से बाहर हो जाए तो इस खतरे की सूचना संबधित  सरकारों तथा जहाजों के नाविकों यथासंभव शीघ्र ही देनी चाहिए।


पनडुब्बियां (Submarines): पनडुब्बियों के लिए यह सर्वथा वैद्य है कि वे शत्रु व्यापारिक जहाजों को निरीक्षण और तलाशी के बाद पकड़ ले तथा शत्रु के जंगी जहाजों को बिना किसी पूर्व सूचना के डुबों दे किंतु उनके लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह जिस जहाज को डुबाती है उस पर सवार व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं कर सकती।


            सन 1922 के वाशिंगटन सम्मेलन ने पनडुब्बियों द्वारा व्यापारिक जहाजों को डुबाना अंतरराष्ट्रीय कानून के विरुद्ध होने के कारण अवैध माना गया। 1930 की लंदन नाविक  संधि ने पनडुब्बियों के लिए समुद्र तल पर चलने वाले जहाजों के नियम तथा नाविक वर्ग की सुरक्षा पर बल दिया गया। की संधि को सन 1936 के लंदन पनडुब्बी प्रोटोकॉल(submarine protocol ) के रूप में ग्रेट ब्रिटेन संयुक्त राज्य अमेरिका फ्रांस इटली और जापान ने तथा बाद में जर्मनी तथा सोवियत रूस ने भी स्वीकार किया। सन 1939 के द्वितीय विश्व युद्ध छेड़ने पर जर्मनी ने प्रोटोकॉल की व्यवस्थाओं का उल्लंघन करते हुए शत्रु एवं तटस्थ देशों के व्यापारिक जहाजों को उन पर लदी सवारियों तथा नाविक वर्ग की सुरक्षा व्यवस्था किए बिना बडी निष्ठुरता से डुबाना शुरू किया। सन 1949 में जिनेवा  अभिसमय में समुद्री युद्ध में नौ सेनाओं के आहत होने वालों तथा बीमारों  की और जहाज नष्ट भ्रष्ट हो जाने पर उस पर सवार व्यक्तियों और नागरिकों की दशा सुधारने के अनेक नियम बनाए गए।

         स्थल युद्ध की भांति समुद्री युद्ध में भी छल पूर्ण उपायों का प्रयोग वैद्य माना जाता है जिसमें विश्वासघात(perfidy) न किया जाय। उदाहरण के रूप में समुद्री युद्ध में जहाज पर शत्रु का अथवा तटस्थ देश का झूठा  झंडा लगाया जा सकता है परंतु आक्रमण से पहले पहुंच को अपनी वास्तविक ध्वजा लगा लेनी चाहिए।


    

Comments

Popular posts from this blog

मेहर क्या होती है? यह कितने प्रकार की होती है. मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी को क्या अधिकार प्राप्त है?What is mercy? How many types are there? What are the rights of the wife if dowry is not paid?

मेहर ( Dowry ) - ' मेहर ' वह धनराशि है जो एक मुस्लिम पत्नी अपने पति से विवाह के प्रतिफलस्वरूप पाने की अधिकारिणी है । मुस्लिम समाज में मेहर की प्रथा इस्लाम पूर्व से चली आ रही है । इस्लाम पूर्व अरब - समाज में स्त्री - पुरुष के बीच कई प्रकार के यौन सम्बन्ध प्रचलित थे । ‘ बीना ढंग ' के विवाह में पुरुष - स्त्री के घर जाया करता था किन्तु उसे अपने घर नहीं लाता था । वह स्त्री उसको ' सदीक ' अर्थात् सखी ( Girl friend ) कही जाती थी और ऐसी स्त्री को पुरुष द्वारा जो उपहार दिया जाता था वह ' सदका ' कहा जाता था किन्तु ' बाल विवाह ' में यह उपहार पत्नी के माता - पिता को कन्या के वियोग में प्रतिकार के रूप में दिया जाता था तथा इसे ' मेहर ' कहते थे । वास्तव में मुस्लिम विवाह में मेहर वह धनराशि है जो पति - पत्नी को इसलिए देता है कि उसे पत्नी के शरीर के उपभोग का एकाधिकार प्राप्त हो जाये मेहर निःसन्देह पत्नी के शरीर का पति द्वारा अकेले उपभोग का प्रतिकूल स्वरूप समझा जाता है तथापि पत्नी के प्रति सम्मान का प्रतीक मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित पति के ऊपर यह एक दायित्व है

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद - पत्र में न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का नाम लिखना आवश्यक

अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि क्या होती है? विवेचना कीजिए.( what is the relation between National and international law?)

अंतर्राष्ट्रीय विधि को उचित प्रकार से समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि के संबंध को जानना अति आवश्यक है ।बहुधा यह कहा जाता है कि राज्य विधि राज्य के भीतर व्यक्तियों के आचरण को नियंत्रित करती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्र के संबंध को नियंत्रित करती है। आधुनिक युग में अंतरराष्ट्रीय विधि का यथेष्ट विकास हो जाने के कारण अब यह कहना उचित नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि केवल राज्यों के परस्पर संबंधों को नियंत्रित करती है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय विधि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के संबंधों को नियंत्रित करती है। यह न केवल राज्य वरन्  अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, व्यक्तियों तथा कुछ अन्य राज्य इकाइयों पर भी लागू होती है। राष्ट्रीय विधि तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों प्रणालियों के संबंध का प्रश्न आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि में और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि व्यक्तियों के मामले जो राष्ट्रीय न्यायालयों के सम्मुख आते हैं वे भी अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हो गए हैं तथा इनका वृहत्तर  भाग प्रत्यक्षतः व्यक्तियों के क्रियाकलापों से भी संबंधित हो गया है।