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अंतर्राष्ट्रीय विधि के स्वरूप क्या होते हैं? What is the nature of international law?

अंतर्राष्ट्रीय विधि का आधार (Basic of International Law):वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय विधि को सच्चे अर्थों में विधि माना गया है ।राज्य अपने अभ्यास में इनके नियमों का पालन करते हैं ।प्रश्न उठता है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि का आधार क्या है ?अर्थात इस विधि के नियम किन बातों पर आधारित है ।अंतर्राष्ट्रीय विधि के आधार के संबंध में निम्नलिखित सिद्धांत प्रचलित हैं:

(1) प्रकृतिवादी मत(Naturalist)

(2) व्यवहारवादी मत(Positivists)

(3)ग्रोशियसवादी मत (Grotious)


(1) प्रकृतिवादी मत(Naturalist): इस विचारधारा का मुख्य प्रवर्तक सैम्युअल प्यूनडार्फ(Samul Puendraf) है। ग्रीक लोगों की प्रकृति की विधि(Law of nature ) की अवधारणा पर जो धार्मिक आचरण चढ़ा था उसको समान लोगों के विवेकशील स्वभाव पर आधारित करने का उल्लेखनीय कार्य ग्रोशियस(Grotious) ने किया। इस विचारधारा के अनुसार दुनिया के सभी राष्ट्र अनतर्राष्ट्रीय विधि को विधि केवल इसलिए मानते हैं कि उनके पारस्परिक संबंधों को उस प्रकृति की विधि में उच्चतर और श्रेष्ठ होने की संज्ञा दी जा सके। फ्यूफेनडार्फ(Pufendarf)का विचार था  कि विभिन्न देशों की प्राकृतिक कानूनों के अतिरिक्त विश्व में एक स्वैच्छिक और निश्चित विधि का अस्तित्व भी है जिसमें की वास्तविक विधि की बाध्यकारी शक्ति निहित है।

        प्राकृतिक विधि के सिद्धांत में परिवर्तन होने के फलस्वरूप 18वीं शताब्दी में और कई विशिष्टतायें उत्पन्न हुई। उदाहरण के लिए वाटेल(Vattel)ने अपनी पुस्तक में जो कि उन्होंने सन 1708 में लिखी थी, लिखा कि राज्यों की आवश्यक विधि का तात्पर्य उस विधि से लिया जाता है जो कि प्राकृतिक विधि के लागू होने से उत्पन्न होती है और राष्ट्रों पर भी।चूँकि राष्ट्र मनुष्यों  द्वारा ही बने हैं, उसकी नीतियां मनुष्य द्वारा ही निर्धारित होती हैं। ऐसे सारे मनुष्य प्राकृतिक विधि के अधीन होते हैं चाहे वे किसी भी रूप में कार्य करते हैं।


प्रकृतिवादी विचारों की विचारधारा की निम्नलिखित आलोचना की गई है:

(1) प्राकृतिक विधि एक व्यापक शब्द है, जिनसे कई अर्थ लिए जा सकते हैं जो एक दूसरे से भिन्न भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए भौतिक नियम जीव जगत के नियमों से अथवा आदर्श विषयों से भिंन्न होते हैं, इस प्रकार यदि प्राकृतिक विधि के शब्द के परस्पर विरोधी अर्थ मिल सकते हैं तो उसे राज्यों की विधि के नियमों के निरूपण पर आधार कैसे बनाया जा सकता है?


(2) आधुनिक युग में प्राकृतिक विधि का अंतर्राष्ट्रीय विधि के निरूपण में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं माना जा सकता चाहे आदि काल में जब, अंतर्राष्ट्रीय विधि अपने प्रारंभिक और अस्थिर दशा में भी प्राकृतिक विधि ने कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

(3) प्राकृतिक विधि के अर्थ को संबंध में ही लेखकों का अलग-अलग मत है। जहां कुछ लेखक इसको दैवीय विधान की संज्ञा देते हैं, वहीं कुछ लेखक इस को न्याय, विवेक तथा तर्क समझते हैं। वास्तव में प्राकृतिक विधि का अर्थ ही अनिश्चित है। इन सभी आलोचनाओं के बाद भी यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्राकृतिक विधि ने अंतर्राष्ट्रीय विधि के विकास को अत्यधिक प्रभावित किया है। यह कहना सत्य है कि प्रारंभिक अवस्था में अंतर्राष्ट्रीय विधि का विकास इसी आधार पर हुआ है। इसके बहुत से नियम प्राकृतिक विधि से ही बने हैं।


प्रभाव :उपयुक्त आलोचना के बावजूद प्राकृतिक विधि ने अंतर्राष्ट्रीय विधि को काफी प्रभावित किया। प्राकृतिक विधि के चिन्ह आज भी मिलते हैं। प्राकृतिक विधि ने आदर्शवाद के रूप में अंतर्राष्ट्रीय विधि के विकास को प्रभावित किया है।


(2) व्यवहारवादी(Positivists): इस विचारधारा के समर्थक अंतर्राष्ट्रीय विधि के विकास को मानव प्रकृति, विवेक और न्याय का परिणाम ना मानकर उसे संधियों तथा रीति-रिवाजों का परिणाम मानते हैं। इस मत के मानने वालों को इसलिए प्रत्यक्षवादी या यथार्थवादी भी कहा जाता है क्योंकि इसके अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि की उत्पत्ति राष्ट्रों की इच्छा से हुई है तथा इसके विकास का आधार विभिन्न राष्ट्रों की स्वीकृति है। इस विचारधारा का प्रमुख समर्थक 18 वीं शताब्दी का प्रसिद्ध न्यायवेक्ता विन्करशौक(Binker Shock)था। व्यवहारवादियों के अनुसार उनके सिद्धांत के निम्नलिखित  3 सूत्र हैं:

(1) राष्ट्र एक भौतिक(metaphysical) वास्तविकता है जिसकी अपनी स्वयं की उपयोगिता और विशेषता है।

(2) उपयुक्त गुण के कारण वह अपनी स्वयं की इच्छा शक्ति रखता है। यह बात प्रसिद्ध विचारक हीगल(Hegal) के सिद्धांत से प्रभावित हुई मालूम देती है।


(3) व्यवहार वादियों के अनुसार राष्ट्र की इच्छा में हे प्रभुसत्ता और अधिकार समाविष्ट है।

        व्यवहारवादियों की धारणा है कि विभिन्न राष्ट्रों के बीच हुए समझौतों का पालन होना चाहिए(pacta sunt servanda) क्योंकि उन राष्ट्रों ने अपनी स्वेच्छा  में ही अपने ऊपर आत्म नियंत्रण की क्रमिक प्रक्रियाओं को स्वीकार किया है अंतर्राष्ट्रीय विधि एक प्रकार से प्राकृतिक सिद्धांत के नियम पर बनी है।

        व्यवहारवादियों में इटली के विधि शास्त्री ऐन्जीलाटी (Anzilotti) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनके अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि की बंधनकारी शक्ति का आधार एक उच्च मौलिक सिद्धांत है। जिस पैक्टा संट सर्वेंडा(pecta sunt servanda) कहते हैं। ऐन्जीलाटी के मत में अंतर्राष्ट्रीय विधि नियम का किसी ना किसी प्रकार का आधार यह मौलिक सिद्धांत है। व्यवहारवादी यह स्वीकार करते हैं कि उनका मत अंतरराष्ट्रीय प्रथा संबंधी विधि को ठीक प्रकार से स्पष्ट करने में समर्थ नहीं है। उनका विचार है कि प्रथा संबंधी अंतर्राष्ट्रीय विधि के बारे में भी एक प्रकार की परिलक्षित सहमति है।


आलोचना: इस सिद्धांत की निम्नलिखित आलोचनाएं हुई:

(1) राष्ट्र की इच्छा(will of state ) सिर्फ एक कल्पना मात्र है क्योंकि राष्ट्र एक मूर्ति वस्तु ना होकर लोगों के सामूहिक नाम की एक संज्ञा होती है।अतः इच्छा व्यक्तियों की ही हो सकती है और राष्ट्रों की इच्छाएं कल्पना ही है।

(2) यह सिद्धांत भी अकाट्य नही है कि राष्ट्रों के बीच हुए समझौते स्वीकार किए जाने चाहिए क्योंकि रीति-रिवाजों पर आधारित नियमों के मामलों में सब राष्ट्रों की कोई सामान राय को जानना या उस पर आधारित किसी सिद्धांत को हर स्थिति में और हर एक देश से बाध्य  रूप से पालन करना असंभव है। जैसे बांग्लादेश जो अभी हाल ही में बना है पिछले उन सभी नियमों को मानने के लिए बाध्य नहीं है  विशेषकर वे नियम जो उसके अस्तित्व में आने से पहले बने थे।

(3 )अंतर्राष्ट्रीय विधि की मान्यता किसी राष्ट्र विशेष की स्वीकृति पर नहीं बल्कि उन राष्ट्रों के समाजों द्वारा दी गई स्वीकृति पर आधारित होती है।

(4) आधुनिक युग में किसी राष्ट्र विशेष की सहमति या असहमति कुछ विशेष महत्व नहीं रखती क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र से अधिकतर निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं। अतः यदि किसी  राष्ट्र की असहमति भी हो तब भी उसे अनिवार्य रूप से बहुमत के निर्णय को मानना पड़ता है।

(5) अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के संविधान में इसके विभिन्न स्रोतों में साधारण विधि सिद्धांत को भी जो भी सभ्य  राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त कर चुका हो, एक स्रोत माना है। इस प्रकार साधारण विधि सिद्धांत यथार्थ  वादी सिद्धांत से कैसे मेल खा सकता है क्योंकि विधि का वह स्रोत किसी राष्ट्र विशेष की सहमति या स्वीकृति से नहीं बल्कि सामान्य तौर पर प्रचलित होने के कारण ही माना जाता है।

(3)ग्रोशियसवाद(Grotious): इस विचारधारा के मानने वाले ग्रोशियस के दृष्टिकोण कोण और सिद्धांतों से प्रभावित हैं जिनके अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियमों को ना तो पूर्ण रूप से प्रकृति वादी माना जा सकता है ना पूर्ण रूप से यथार्थवादी। इनका आधार स्वीकृति तो है परंतु वह संपूर्ण आधार नहीं है। स्टाक ने लिखा है की अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के बाध्य  रूप से पालन होने का कारण राष्ट्रों द्वारा अन्य राष्ट्र के विरुद्ध अपने अधिकारों का आग्रह प्रस्तुत करना है क्योंकि वे समझते हैं कि उन नियमों का पालन होना चाहिए अतः अंतर्राष्ट्रीय विधि का अस्तित्व नहीं रह सकता यदि उन नियमों के प्रति आदर दिए जाने का आग्रह ना करें।




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