तथ्येन मान्यता और विधिक मान्यता मे क्या अन्तर होता है ?( What is different between defacto recognition and dejure recognition ?)
तथ्येन मान्यता (Defactor Recognition ): जब कोई राज्य पूर्ण मान्यता अथवा विधि मान्यता में देरी करना चाहता है तो वह प्रथम चरण में तथ्येन मान्यता प्रदान करता है। तथ्येन मान्यता को देने का कारण यह होता है कि मान्यता प्रदान किए जाने वाले राज्य के बारे में यह संदेह होता है कि वह स्थाई है अथवा नहीं तथा वह अंतर्राष्ट्रीय विधि के अंतर्गत अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए इच्छुक तथा योग्य है अथवा नहीं। तथ्येन मान्यता से तात्पर्य है कि मान्यता प्रदान किए जाने वाला राज्य वास्तव में मान्यता के आवश्यक गुण रखता है तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि का विषय माने जाने का अधिकारी है। ओपेनहाइम के अनुसार ,"किसी राज्य अथवा सरकार तथ्येन मान्यता तब प्रदान की जाती है, जब मान्यता देने वाले राज्य की निगाह में नई सत्ता की, बावजूद इस बात के कि वह वस्तुतः स्वतंत्र है और अपने अधीनस्थ क्षेत्र में प्रभावपूर्ण शांति रखता है।यथेष्ट स्थायित्व नहीं प्राप्त होता है और उसमें अंतरराष्ट्रीय उत्तरदायित्व को पूरा करने की योग्यता अथवा अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने की संभावना नहीं दिखलाई पड़ती है। उदाहरण के लिए प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात फिनलैंड लौटविया और इस्थीनिया की सरकारें जो कि पहले रूसी साम्राज्य के अंतर्गत थी, प्रथम चरण में तथ्येन सरकारों के रूप में मान्य हुई। उस समय उनका अंतिम क्षेत्रीय समझौता विचाराधीन था। सोवियत रूस की सरकार यद्यपि औपचारिक दृष्टि से और ताथ्यिक दृष्टि से स्थापित हो चुकी थी, फिर भी कई राष्ट्रों ने उसे केवल तथ्येन मान्यता ही दी थी, क्योंकि वह अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को पूर्ण करने के लिए अनिच्छुक थी।
तथ्येन मान्यता का प्रभाव: तथ्येन मान्यता वास्तव में अस्थाई होती है और वापस ली जा सकती है, यदि मान्यता का पूरा करने वाले तत्वों कि पूर्णता नहीं हो पाती। ब्रिटेन द्वारा किसी ने राज्य को तथ्येन मान्यता मिल जाने पर वहां की सरकार ऐसी ही बाध्य रहती है जैसी की विविधता मान्यता देने पर ही होती है।इसका कारण ए .एस. लूथर बनाम सुगोर (जेम्स ) एण्ड कम्पनी नामक वाद में न्यायाधीश वारिंगटन(Warington j.) ने इस शब्द में प्रकट किया ।उपर्युक्त दोनों ही दशाओं में तत्सम्बन्धी मान्यता प्राप्त सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि उसके साथ एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता प्राप्त सरकार की तरह ही व्यवहार किया जाये और मान्यता प्रदान करने वाली सरकार को वैसे ही यह सम्मति प्रकट करने का अधिकार नहीं रह जाता है कि नये राज्यों ने जो सत्ता प्राप्त की है कि वह विधिपूर्ण ढंग से प्राप्त की अथवा अन्य ढंग से।
(2)विधिमान्यता(DejureRecognition ): अंतर्राष्ट्रीय विधि में विधितः मान्यता (Dejure Recognition ) बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि वह स्थाई होती है और कानूनी दृष्टि से बंधनकारी मानी जाती है। इस प्रकार की मान्यता देने के बाद मान्यता प्राप्त राज्य अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सदस्य बन जाता है। विधितः या कानूनी मान्यता प्रदान करने वाले राज्य पहले निम्नलिखित बातों को देख लेते हैं:
(1) नए राज्य सरकार के स्थायित्व की पूरी संभावना है।
(2) नई सरकार या राज्य को समुचित जनमत प्राप्त है।
(3) यह अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने में समर्थ है।
विधि मान्यता अंतिम मान्यता होती है तथा एक बार दिए जाने के बाद इसे वापस नहीं लिया जा सकता। विधि मान्यता के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्त रूप से यह घोषणा की जाए और राजनयिक संबंध स्थापित करने की इच्छा प्रकट की जाए।
वस्तुतः मान्यता तथा विधित मान्यता में अंतर:
वस्तुतः अथवा तथ्येन मान्यता एवं विधित मान्यता विधिक अधिकारों तथा बाध्यताओं को प्रदान करने के लिए दी जाती है। लेकिन इन दोनों के मध्य अंतर है। जहां तक मान्यता प्राप्त प्राधिकारी के आंतरिक कार्यों का संबंध है, वहां तक विधित तथा तथ्येन मान्यता के मध्य कोई अंतर नहीं है।
ओपेनहाइम के अनुसार तथ्येन मान्यता का विधित मान्यता से कोई भेद नहीं है, क्योंकि मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के न्यायालय में तथ्येन मान्यता प्राप्त प्राधिकारी के विधायी तथा आंतरिक कार्यवाही को उसी प्रकार माना जाता है जिस प्रकार विधित मान्यता प्राप्त राज्य सरकार के विधायी तथा आंतरिक कार्यवाहियों को माना जाता है।
जहां तक मान्यता प्राप्त प्राधिकारी के विधायी या अन्य आंतरिक मामलों का संबंध है।वहाँ तक मान्यता प्राप्त राज्य के न्यायालयों के समक्ष विधित मान्यता तथा तथ्येन मान्यता में कोई अंतर नहीं है क्योंकि तथ्येन मान्यता प्राप्त राज्य सरकार के विधायी या अन्य आन्तरिक उपाय को उसी तरह माना जाता है जैसे विधित मान्यता प्राप्त सरकार के विधायी या अन्य आंतरिक उपाय को लूथर बनाम सागोर में यह नियम प्रतिपादित किया गया था कि मान्यता प्राप्त प्राधिकारी के आन्तरिक कार्यों को प्रभावी करने के उद्देश्य से वस्तुतः एवं विधित मान्यता में कोई अंतर नहीं है। इस नियम को कई अन्य मामलों में भी लागू किया गया है।
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