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क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

कुप्रबंध की स्थिति में कंपनी लॉ बोर्ड के समक्ष कौन याचिका कर सकता है who and how much minimum share holding is essential for the purpose of approaching Company Law board in the matter of mismanagement

कुप्रबंध की स्थिति में कंपनी लाॅ बोर्ड के समक्ष न्यूनतम अंशधारिता:


बहुमत के प्रशासन के विरुद्ध जो सुरक्षा फाॅस बनाम हार्बोटल के सिद्धांत के अपवादों द्वारा मिलती है, उसके अतिरिक्त आधुनिक कंपनी अधिनियमों में अन्याय पूर्ण आचरण तथा  कुप्रबंध रोकने के लिए विशेष उपबंध दिए गए हैं। कंपनी अधिनियम 2013 के अध्याय 16 के भाग प्रथम में ऐसे उपबंध मिलते हैं ।  इन उपबंधों  का मुख्य उद्देश्य कंपनियों में धन लगाने वाले व्यक्तियों तथा लोकहित की सुरक्षा करना है। जो अधिकार इन उपबंधों  द्वारा अंश धारक को दिए गए हैं  उन्हें अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकार भी कहते हैं ।इन उपबंधों में  प्रशासनिक तथा न्यायिक दोनों प्रकार के उपचार दिए गए हैं ।

अन्यायपूर्ण आचरण का निवारण( prevention of Oppression )

कौन याचिका कर सकता है( who can apply)( धारा 244): अन्याय पूर्वक आचरण के विरुद्ध पहला उपचार कंपनी विधि बोर्ड को आवेदन द्वारा प्रार्थना करना है । जब भी किसी कंपनी के कार्यकलाप का संचालन ऐसी रीति से किया जा रहा है जो एक या एक से अधिक सदस्यों के प्रति अन्याय पूर्ण है या जो लोकहित  के प्रतिकूल है, तो धारा के अंतर्गत अधिकरण को आवेदन किया जा सकता है । ऐसे आवेदन पर जितने अंश धारकों के हस्ताक्षर होने चाहिए, उनकी संख्या धारा 244 में बताई गई है। ऐसी कंपनी की दशा में जिस की अंश पूंजी से कम से कम100 अंश धारकों के या रखने कुल संख्या के 1\10 अंशधारको, जो भी कम हो, या  कंपनी की अंश पूंजी का 1\10 भाग रखने वाले अंश धारको के हस्ताक्षर होने चाहिए । ऐसी कंपनी की दशा में जिसकी अंश पूंजी नहीं है उसके सदस्यों की कुल संख्या के 1\5 अंशधारको के हस्ताक्षर होने चाहिए ।

          किसी सदस्य सदस्यों की प्रार्थना पर अधिकरण इस संख्या को कम कर सकती है अगर अधिकरण की राय में ऐसा करना न्याय संगत और साम्यपूर्ण है।( धारा 241) एक बार आवश्यक व्यक्तियों द्वारा हस्ताक्षर हो जाने पर आवेदन किसी भी एक या एक से अधिक सदस्यों द्वारा किया जा सकता है। इस प्रयोजन के लिए संपत्ति शब्द का वही अर्थ है जो संविदा अधिनियम 1972 की धारा 13 में बताया गया है, अर्थात एक ही बात पर एक ही भाव में सहमत । मद्रास उच्च न्यायालय ने इस आधार पर एक याचिका खारिज कर दी कि सदस्यों की सहमति प्राप्त करने के लिए उन्हें केवल यही बताया गया था कि उनके हस्ताक्षर एक अधिवेशन की मांग करने के लिए करवाए जा रहे थे। हस्ताक्षर कर्ताओं को उन तथ्यों  से सूचित कर देना चाहिए जिनके आधार पर अन्याय पूर्ण आचरण का अभिकथन किया जा रहा है। कोरे कागज पर हस्ताक्षर से सहमति नहीं होती। उच्चतम न्यायालय ने राजमुंद्री इलेक्ट्रिक सप्लाई कारपोरेशन लिमिटेड बनाम नागेश्वर राव में वर्णित किया है कि आवेदन पर हस्ताक्षर हो जाने के बाद चाहे कुछ हस्ताक्षर कर्ताओं ने अपने हस्ताक्षर वापस ले लिए हो, इससे आवेदन पर कोई प्रभाव नहीं आएगा। पंजाब उच्च न्यायालय ने इससे भी आगे बढ़कर जगदीश चंद्र मेहरा बनाम New india Ebroidery mills में निर्णय किया है कि उचित आवेदन पेश हो जाने के बाद इस बात का कोई प्रभाव नहीं होता कि कुछ अंश धारको ने अंश बेच दिए हैं और इसलिए वे सदस्य नहीं रह गए हैं। आवेदन की जांच उन तथ्यों के आधार पर होनी चाहिए जैसे कि वे आवेदन की तिथि के समय थे। आवेदन के बाद होने वाली घटनाओं से ना तो आवेदक के अधिकार और ना ही अधिकरण की तथ्यों के अनुसार निर्णय करने की अधिकारिता पर कोई प्रभाव होता है।

              इस प्रकार एक ट्रांसपोर्ट कंपनी के विरुद्ध आवेदन में मद्रास उच्च न्यायालय ने इस बात की ओर कोई ध्यान नहीं लगाया कि आवेदन के बाद बहुमत ने कंपनी की सभी हानियां मिटा दी थी। आवेदक भी किसी ऐसे तथ्य का लाभ नहीं उठा सकता जो आवेदन के बाद घटित हुआ है। इसी न्यायालय ने यह भी निर्णय किया है कि आवेदन प्रस्तुत हो जाने के बाद आवेदक तथा कंपनी न्यायालय की अनुज्ञा के बगैर समझौता नहीं कर सकते। याचिका पेश हो जाने के बाद उसके बारे में कोई भी समझौता न्यायालय की अनुज्ञा लेकर ही किया जा सकता है। समझौता ऐसा होना चाहिए जो कंपनी तथा इसके अंत धारकों के हितों को अच्छे से सुरक्षा प्रदान कर सके।

             जिस व्यक्ति को अपना नाम सदस्यों के रजिस्टर पर लिखवाने की डिक्री प्राप्त हुई वह भी आवेदन कर सकता है चाहे सदस्यों के रजिस्टर पर अभी उसका नाम नहीं लिखा गया है। इसी प्रकार यह भी निर्णय किया गया कि आवेदन किसी मृतक अंशधारक के उत्तराधिकारी भी कर सकते हैं। यह संभावना प्रकट की गई है कि जिस व्यक्ति ने किसी कंपनी के अंश खरीदे हैं लेकिन अंतरण रजिस्ट्री कृत नहीं हुआ है वह इस आधार पर आवेदन नहीं कर सकता कि कंपनी द्वारा अंतरण को स्वीकार न करना अन्याय पूर्ण है।

              केंद्रीय सरकार को भी आवेदन प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त है। सरकार को सदस्यों की आपेक्षित अल्पसंख्यकों की कम संख्या को अनुमति देने की विवेकीय शक्ति प्राप्त है। कंपनी के कर्मचारी चाहे कितना भी सदस्यों की भांति ना माने जाएं, वे कर्मचारी की हैसियत से इस अधिकारिता के अंतर्गत कोई राहत नहीं पा सकते। एक बार यदि धारा के अधीन याचिका दाखिल कर दी जाती है तो उसकी वापसी या उसे समझौता कंपनी विधि बोर्ड की आज्ञा से ही हो सकता है। समझौता करते समय कंपनी और उसके अंश धारकों के हित को ध्यान में रखा जाता है।


कंपनी स्वयं याचिका  नहीं कर सकती( company itself cannot apply) इस अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत, किसी उपचार के लिए, कंपनी स्वयं याचिका नहीं कर सकती है।

        अनुतोष की शर्तें( conditions of relief):( धारा 241): इस धारा के अंतर्गत प्रत्येक आवेदक को अनुतोष प्राप्त करने के लिए कुछ शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं। यह शर्तें धारा 241 के शब्दों में ही अंतर्निहित है। यह धारा तभी लागू होती है जब कंपनी के कार्यकलाप का संचालन ऐसे ढंग से किया जा रहा है।(1) जो सार्वजनिक हित के विपरीत है या किसी सदस्य या कुछ सदस्यों के प्रति अन्याय पूर्ण हैं और(2) जो कंपनी का समापन न्याय संगत तथा सम्यक बनाता है , परंतु(3) समापन पीड़ित सदस्यों के हित के प्रतिकूल है।

        याची  का आचरण एक महत्वपूर्ण तथ्य है यह जानने के लिए कि उसे क्या अनुतोष मिलना चाहिए। साधारणतया उससे यह कहा जाता है कि वह कंपनी में अपने हित का उचित मूल्य लेकर कंपनी छोड़ दें।


(1) अन्यायपूर्ण आचरण(Oppression ): उपयुक्त शर्तों के पूरा होने पर कंपनी विधि बोर्ड स्थिति के सुधार के लिए कोई भी ऐसा आदेश दे सकता है जो न्यायालय की दृष्टि में उचित है। जब यह धारा अधिनियम में नहीं थी तो अन्याय पूर्ण आचरण के विरुद्ध केवल एक ही उपचार था और वह था धारा 271 के अधिकरण तथा साम्यिक खंड के अंतर्गत समापन। यह उपाय और भी अधिक अन्यायपूर्ण  था। इसलिए अब अधिकरण को कोई भी ऐसा उचित उपाय लागू करने की शक्ति दी गई है जो परिस्थितियों के अनुसार न्याय संगत तथा साम्यिक हो। इस उपाय का लाभ यह है कि इससे एक अच्छी कंपनी का समापन करने के स्थान पर उसे बचाने का प्रयत्न किया जाता है।

           अन्याय पूर्ण आचरण जैसे कि स्काॅटिश वाद एलदर  बनाम एल्डर एण्ड वाटसन लि. में लाॅर्ड कूपर ने परिभाषित किया था वह भारतीय उच्चतम न्यायालय ने शांति प्रशांत जैन बनाम कलिंगा रयूब्स लि. मे अपनाया था। इन शब्दों का आशय यह है कि जिस आचरण के बारे में शिकायत की गई है वह कम से कम ऐसा होना चाहिए जो न्याय संगत आचरण के स्तर से नीचे है और जो ऐसी शर्तों का अतिक्रमण करता है, जो न्याय संगत व्यवहार के लिए आवश्यक है, और जिस के पालन की कमी में धन लगाने वाला प्रत्येक व्यक्ति आशा करता है। पीड़ित अंश धारक पर तानाशाही वाला, कठोर तथा अनुचित व्यवहार लादा जा रहा है। ऐसा व्यवहार साबित किया जाना चाहिए जो लगातार और बार बार किया जा रहा है।

             धारा 241 के अंतर्गत आवेदकों का परिणाम प्रत्येक स्थिति के तथ्यों पर निर्भर करता है क्योंकि ऐसी परिस्थितियां अनेकों प्रकार की हो सकती हैं जो अन्याय पूर्ण आचरण उत्पन्न करती है और उन्हें सूची में बांधा नहीं जा सकता।


नए तथा अधिक जोखिम वाले उद्देश्य: ऐसे अल्पसंख्यकों पर नए तथा अधिक जोखिम वाले उद्देश्य लादना जो इससे सहमत नहीं है कुछ परिस्थितियों में अन्याय पूर्ण आचरण बन सकता है। ऐसी परिस्थिति में हिंदुस्तान काओ. इंश्योरेंस सोसाइटी लिमिटेड रि. मे थी।


          जीवन बीमा करने वाली एक कंपनी का कारोबार जीवन बीमा निगम द्वारा अर्जित कर लिया गया था। कंपनी के निदेशक जो बहुमत अंशधारक भी थे, उन्होंने प्रतिकर का धन अंश धारकों में बांटने से इंकार कर दिया। उन्होंने विशेष प्रस्ताव द्वारा कंपनी के उद्देश्य बदलकर यह धन नये उद्देश्यों में लगाने का प्रयत्न किया। इसे अन्याय पूर्ण आचरण माना गया। न्यायालय ने कहा कि बहुमत ने अपने अधिकारों को तानाशाही ढंग से लागू किया था। उन्होंने अल्पसंख्यकों के धन को ऐसे उद्देश्यों में लगाने का प्रयत्न किया जिससे वे बिल्कुल सहमत नहीं थे। उन्होंने अपना धन जीवन बीमा के कारोबार में लगाया था जिसे कई प्रकार की कानूनी सुरक्षा प्राप्त है और उन्हें अपना धन ऐसे कारोबार में लगाने में मजबूर किया जा रहा था जिसे ऐसी सुरक्षा प्राप्त नहीं है।

             जहां निदेशकों ने केवल उन्हीं उद्देश्यों को पकड़ा जो उनकी इच्छा के हिसाब से थे। और धनराशि के अतिरिक्त किसी अन्य प्रतिफल पर बहुत बड़ी मात्रा में अंशों का आवंटन किया और निर्णय हुआ कि वह कुप्रबंध का प्रतीक था।


सदस्यता के अधिकारों से वर्जित करना: इसी प्रकार किसी सदस्य को सदस्यता के साधारण अधिकारों से वर्जित रखना भी अन्याय पूर्ण आचरण होता है। यह पंजाब उच्च न्यायालय के मोहनलाल बनाम चंदूमल बनाम पंजाब कारपोरेशन लिमिटेड में निर्णय से प्रतीत होता है।

           एक कंपनी जो अग्रिम संविदा का कारोबार कर रही थी उसे एक अधिनियम के अनुसार अपने अनुच्छेदों में परिवर्तन किया जिससे कंपनी के ऐसे सदस्य जो उस कारोबार में नहीं थे ,उनके मताधिकार, उनके कंपनी के अधिवेशन में उपस्थित होने का अधिकार, निदेशकों के चुनाव में सम्मिलित होने का अधिकार, लाभांश प्राप्त करने का अधिकार काट दिया गया था। न्यायालय ने कहा कि इससे सदस्यों के बहुमूल्य अधिकार रन दिए गए थे और यह अन्याय पूर्ण आचरण नहीं हो सकता है। लाभांश प्राप्त करने के अधिकार को छीन ना केवल अन्याय पूर्ण आचरण ही नहीं बल्कि संपत्ति समपहरण भी है।

            क्योंकि यह परिवर्तन एक अधिनियम के आदेश अनुसार किया गया था इसलिए न्यायालय ने यह आदेश दिया कि कंपनी पीड़ित सदस्यों के अंश खरीद ले ताकि वे अपनी पूंजी लेकर कंपनी से निकल सकें।

समनुषंगी कम्पनी   को दबाना : इसी प्रकार का आदेश हाउस ऑफ लार्ड्स ने स्कॉटिश कोआॅ. होलसेल सोसाइटी लिमिटेड बनाम मेयर में दिया था।

          एक सोसाइटी ने रेयौन का कारोबार आरंभ करने के लिए  एक समनुषंगी कंपनी बनाई। जब समनुषंगी कंपनी की आवश्यकता ना रही तो नियन्त्री  कंपनी ने उसके कारोबार को धीरे-धीरे कम कर देने की नीति अपनाई जिससे  अंश का मूल्य बाजार में गिर गया।


       दो आवेदक जो समनुषंगी  कंपनी में निदेशक तथा अल्पसंख्यक अंशधारक थे, उन्होंने कहा कि यह अन्याय पूर्ण आचरण था. न्यायालय ने सोसाइटी के आवेदकों के अंश उस मूल्य पर खरीदने का आदेश दिया जो मूल्य ऐसी नीति अपनाने के पूर्व लागू थे।


निदेशक बोर्ड के फैसलों को व्यक्त करना: हार्मर लि.रि में न्यायालय ने देखा कि कंपनी का बहुमत नियंत्रण बोर्ड के सभी फैसले ठुकरा देता था, बगैर उचित प्रक्रिया के कंपनी का धन नए कारोबार में लगा देता था और ऐसे व्यक्तियों को निदेशक नियुक्त करता था जो केवल नाम के लिए थे। निर्णय हुआ कि यह अन्याय पूर्ण आचरण था।


         एक कंपनी के अधीक्षक जो एक ऐसे निगमित निकाय के आदेश में थे जिससे कंपनी के अंश अंडरराइट किए गए थे, उसने कंपनी के प्रबंध निदेशक को ऐसे समय कंपनी से हटा देने की कोशिश की जबकि उसके प्रयासों के फलस्वरूप कंपनी की फैक्ट्री बन चुकी थी और उत्पादन आरंभ करने के लिए केवल कुछ दिन का इंतजार हैं अन्याय पूर्ण नीति मानी गई और लोकहित के विपरीत थी। लोकहित के इस संदर्भ में अर्थ यह होते हैं कि कंपनी का कार्यकलाप ऐसे चलाया जाए जिससे जनता का भला हो या जनता किसी हानि से बचाई जा सके। इस मामले में न्यायालय के सामने यह साक्ष्य था कि कंपनी का उत्पादन देश के लिए विदेशी मुद्रा कमा सकता था। जो लोग ऐसे उत्पादन में व्यवधान पैदा कर रहे थे, उनके बारे में केवल यही कहा जा सकता था कि वे लोक तथा कंपनी के हित को क्षति पहुंचा रहे हैं.


मामूली अनियमितताएं: मामूली अनियमितताओं को अन्याय पूर्ण आचरण नहीं कहा जा सकता । जहां तक हो सके सदस्यों को चाहिए कि अपने मामूली झगड़े आपस में ही निपटा लें। इस विशेष उपचार को अधिकरण फालतू तथा तकलीफ मंद मुकदमे बाजी का आधार नहीं बनने दे सकते।




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