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भारत में दहेज हत्या में क्या सजा का प्रावधान है ? विस्तार से चर्चा करो।

कंपनी के अनिवार्य परिसमापन की परिस्थितियों का वर्णन करो ?describe the compulsory winding up with the decided cases.

कंपनी के अनिवार्य परिसमापन की दशाएं( conditions of compulsory winding up of  a company)

कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 271 के अनुसार निम्न दशाओं में कंपनी का अनिवार्य समापन हो सकता है:

(1) विशेष प्रस्ताव पास होने पर: कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271(1)(क) के अनुसार यदि कोई कंपनी अपने ऋण तथा दायित्वों  का भुगतान करने में विफल हो जाती है, तो उसके सदस्य विशेष प्रस्ताव पारित करके कंपनी लॉ अधिकरण में कंपनी के परिसमापन हेतु आवेदन कर सकते हैं। कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 271(1)(ख) के अनुसार, यदि किसी कंपनी ने अपनी सभा में इस आशय का प्रस्ताव पास करा लिया हो कि उसका अनिवार्य परिसमापन कंपनी लॉ अधिकरण के आदेश द्वारा करा दिया जाए तो, उस कंपनी के निदेशक कंपनी लॉ अधिकरण में इसके लिए आवेदन कर सकते हैं। इस प्रकार के आवेदन पर  परिसमापन का आदेश देना कंपनी लॉ अधिकरण के स्वविवेक पर निर्भर करता है तथा अगर कंपनी लाॅ  अधिकरण का मत है की कंपनी का परिसमापन कर देना लोकहित या कंपनी के हितों के प्रतिकूल है , तो कंपनी लाॅ अधिकरण परिसमापन का आदेश नहीं देगा।

(2) जहां कंपनी ने राष्ट्रहित के विरुद्ध कोई कार्य किया हो: कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271(1)(ग) के अनुसार, अगर कंपनी लाॅ अधिकरण यह अनुभव करता है कि कंपनी किसी ऐसे कार्य में संलग्न है जो देश की प्रभुता , अखंडता, राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेशी राज्य से मैत्रीपूर्ण संबंधों या लोकशांति या नैतिकता के विरुद्ध है तो वह कंपनी को सुनवाई का अवसर देने के बाद उसके परिसमापन का आदेश पारित कर सकता है।


(3) कंपनी की रुग्णता के आधार पर: कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271(1)(घ) के अनुसार, यदि कंपनी की सकल ऋण राशि के 50% राशि धारक ऋण दाता कंपनी लॉ अधिकरण को आवेदन करते हैं कि कंपनी अपने ऋणों का भुगतान करने में विफल एवं असमर्थ रहने के कारण वह रूग्ण कंपनी हो गई है अतः उसके परिसमापन का आदेश दिया जाए तो कंपनी लॉ अधिकरण की संतुष्टि हो जाने पर वह कंपनी अधिनियम, 2013 के अध्याय 19 के अधीन परिसमापन का आदेश पारित कर सकता है।

(4) कंपनी रजिस्ट्रार के आवेदन पर: कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271(1)(ङ) के अनुसार, यदि कंपनी रजिस्ट्रार या केंद्र सरकार द्वारा अधिकृत किसी प्राधिकारी के आवेदन पर कंपनी लॉ अधिकरण का ध्यान इस तरफ दिलाया जाता है कि कंपनी का कारोबार कपट पूर्ण तरीके से चलाया जा रहा है तथा वह अपनी गतिविधियों में संलग्न है अथवा उसका निर्माण ही कपट एवं छल पूर्वक किया गया है तथा उस कार्यरत प्रबंधक आदि दुर्चरण या कपट पूर्वक कृतियों के दोषी हैं तो कंपनी लाॅ  अधिक संबंधित कंपनी तथा उसके प्रबंधकों को उसका पक्ष प्रस्तुत करने का समुचित अवसर प्राप्त करते हुए उस कंपनी के परिसमापन हेतु आदेश पारित कर सकेगा।

(5) 1 वर्ष तक कंपनी के व्यापार प्रारंभ करने में असमर्थ रहने पर: यदि कोई कंपनी अपनी निगमन के दिनांक से 1 वर्ष की अवधि तक अपना कारोबार प्रारंभ करने में असमर्थ रहते हुए या पूरे वर्ष तक कारोबार बंद रखती है, तो कंपनी रजिस्ट्रार के आवेदन पर कंपनी अधिकरण उस कंपनी के अनिवार्य  परिसमापन का आदेश दे सकता है, परंतु इस प्रकार आदेश देना पूरी तरह कंपनी लॉ अधिकरण के विवेक का प्रश्न है। यदि उपयुक्त लिखित अवधि में अपना कारोबार प्रारंभ न करने या चालू रखने के लिए संबंधित कंपनी के पास उचित कारण हो तो कंपनी लॉ अधिकरण उसके परिसमापन का आदेश नहीं निकालेगा।


भारतीय रिजर्व बैंक बनाम अलफलाह फिनलैंड लिमिटेड,(1)2006,B.C.267(Del.) के मामले में एक नॉन बैंकिंग वित्तीय निगम ने अपना व्यापार प्रारंभ करने हेतु भारतीय रिजर्व बैंक को आवेदन किया। निगम के लेखाओं में घोर अनियमितताएं थी तथा उसने लोगों से निक्षेप लेकर उन्हें अनाधिकृत तरीके से अंशों  में परिवर्तित कर लिया था तथा उसके अनेक चेक बाउंस भी हुए थे। अतः एक शासकीय परिषमापक को कंपनी का अंतः कालीन परिसमापक नियुक्त किया गया। दिल्ली हाईकोर्ट ने सबसे पहले यह सुनिश्चित करना उचित समझा कि निगम द्वारा सभी निक्षेपकों, अंश धारियों तथा ऋण दाताओं की धन राशि का भुगतान करा दिया जाए। इसलिए निगम को आदेश दिया गया कि वह एक विस्तृत शपथ पत्र दाखिल करें जिसमें ऐसा सभी अंश धारियों, ऋणदाताओं, निवेशकों तथा निक्षेपकों का पूरा विवरण दिया गया हो। जिन  दावों का मेट्रोपॉलियन मजिस्ट्रेट ने निपटा दिया हो तथा जो निपटाए जा रहे हो उनका भी पूरा विवरण हो। अतः दिल्ली उच्च न्यायालय ने रिजर्व बैंक द्वारा व्यापार प्रारंभ करने की अनुमति न दिए जाने को उचित माना।

(6) न्यूनतम सदस्य संख्या में कमी के कारण: यदि किसी समय किस कंपनी की सदस्य संख्या घटाकर 7 से कम रह जाए किसी प्राइवेट कंपनी की 2 से कम रह जाए तो कंपनी लॉ अधिकरण ऐसी कंपनी का अनिवार्य परिसमापन कर सकता है। यदि इस प्रकार संख्या में कमी होने के पश्चात शेष सदस्य कंपनी का कारोबार 6 माह से अधिक समय तक इस घटी हुई सदस्य संख्या के साथ चालू रखते हैं,  तो उस कंपनी की समस्त देनदारियों के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदाई होंगे।


(7) कंपनी के अपने ऋणों के भुगतान करने में असमर्थ रहने पर: कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 271(1)(क) के अनुसार, यदि कंपनी अपने ऋणों का भुगतान करने में असमर्थ रहती है, तो कंपनी लॉ अधिकरण उसके अनिवार्य परिसमापन का आदेश दे सकता है। ऋणों का भुगतान करने में असमर्थता का उल्लेख कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 271(2)में किया गया है। धारा 271(2)(क) के अनुसार तीन परिस्थितियों में यह माना जाएगा कि कंपनी अपने ऋणों का भुगतान करने में असमर्थ है। यह तीन परिस्थितियां निम्नलिखित है:

(a) ऋण की डिक्री वापसी: यदि कंपनी के किसी ऋण दाता के पक्ष में दी गई ऋण  की डिक्री के आदेश का निष्पादन या कंपनी लाॅ  अधिकरण के आदेश का पूरी तरह या आंशिक रूप से परिपालन किए बिना उसे वापस लौटा दिया हो, तो यह मान लिया जाएगा कि कंपनी ऋण भुगतान करने में असमर्थ रही।


     ओपी मेहता बनाम स्टील इक्विपमेंट एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी,(1968)38 कंपनी केसेस82 के मामले में एक लेनदार ने कंपनी के विरुद्ध वाद दायर किया तथा डिक्री प्राप्त कर ली। कंपनी इस डिक्री का भुगतान करने में असमर्थ रही । इस पर लेनदार ने कंपनी के परिसमापन के लिए न्यायालय( अब अधिकरण) में आवेदन किया। कंपनी ने अपने बचाव में यह तर्क प्रस्तुत किया कि यह ऋण  अधिकारितीत होने के करण शून्य प्रभावी था तथा कंपनी ने इस डिक्री को निरस्त कराने के लिए अपील भी कर रखी थी। कलकत्ता  उच्च न्यायालय ने अपील के निर्णय तक परिसमापन का आदेश स्थगित रखे  जाने का आदेश दिया।


(b) भुगतान की मांग की अवहेलना( neglected  of demand for payment): यदि कंपनी के किसी ऋण दाता ने जिसके ऋण की राशि ₹100000 से अधिक हो तथा कंपनी के रजिस्टर कार्यालय में ऋण  का भुगतान करने की मांग की हो तथा इस दिनांक से 3 सप्ताह के अंदर कंपनी उक्त ऋण की अदायगी करने में असमर्थ रही हो या इसके बदले में उक्त   ऋण दाता को अंन्य किसी रूप में संतुष्ट ना कर पाई हो, तो यह समझा जायेगा कि कम्पनी  ऋण का भुगतान करने में असमर्थ नहीं है।



मालाबार इंडस्ट्रियल कंपनी लिमिटेड बनाम ए.जाॅन अन्र्थेयर,(1985)57 कंपनी केसेज,717( केरल) के मामले में केरल उच्च न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि कंपनी के परिसमापन के लिए न्याय संगत एवं सम्यक आधार होने चाहिए।


डाॅ.प्रिटस्च मशीन एंड पाउडर्स(प्रा.) लिमिटेड बनाम ओटाहेड्रोन  सुपर ऐबोसिब्स(प्रा.)लिमिटेड१((2011),B.C.532(Del.) के मामले में पिटीशनकर्ता ने प्रत्यर्थी कंपनी द्वारा उसके ऋण का भुगतान न किए जाने के आधार पर उसी के परिसमापन हेतु याचिका दायर की परंतु कंपनी न्यायालय (अब कंपनी लॉ अधिकरण) ने साक्ष्य के आधार पर पाया कि प्रत्यर्थी कंपनी पिटीशनकर्ता  के नाम post dated cheak जारी किए थे जिन्हें पिटीशनकर्ता ने जानबूझकर कैश नहीं कराया  जिससे प्रत्यर्थी कंपनी के प्रति उसकी ईष्या  एवं दुर्भावना साबित होती थी।प्रत्यर्थी  कंपनी ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि वास्तव में कथित देनदार उसे स्वीकार नहीं है फिर भी पिटीशनकर्ता को चैक दिया जिसे उसने जानबूझकर कैश नहीं कराया जिससे प्रत्यर्थी कंपनी के प्रति उनकी ईष्या एवं दुर्भावना साबित  होती थी।प्रत्यर्थी कंपनी नहीं है तर्क प्रस्तुत किया कि वास्तव में कथित देनदार उसे स्वीकार नहीं है फिर भी उसने पिटीशनकर्ता को चैक दिया जिसे अपने जानबूझकर नहीं भुनाया ताकि वह ऋण दाता बना रहे। दिल्ली उच्च कंपनी लाॅ  अधिकरण ने कंपनी के परिसमापन किए जाने की याचिका खारिज कर दी।

(C) व्यापारिक दिवालियापन: कोई कंपनी लड़का भुगतान करने में असमर्थ है या नहीं इस संबंध में निर्णय लेने के लिए कंपनी लॉ अधिकरण उस कंपनी की आकस्मिक  तथा भावी देनदारियों पर विचार करेगा। अधिकरण मुख्य रूप से यह देखेगा कि व्यापारिक दृष्टि से कंपनी की वित्तीय स्थिति सुदृढ़ है अथवा नहीं। कम्पनी  के वार्षिक वित्तीय विवरण के आधार पर यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कंपनी की संपत्ति उसके दायित्वों  को चुकाने के लिए पर्याप्त है अन्यथा यह माना जाएगा कि उसकी वित्तीय स्थिति सुदृढ़ नहीं है तथा न्यायालय उसके अनिवार्य परिसमापन का आदेश निकालेगा।

          अधिनियम  2013 की धारा 271(1) में प्रयुक्त ऋण  शब्द की परिधि के अंतर्गत माना जाएगा तथा इस प्रकार कंपनी के  परिसमापन का आदेश जारी किया जाना न्याय उचित होगा।

(8) कंपनी लॉ अधिकरण के विचार में कंपनी का परिसमापन करना उचित एवं न्याय संगत होने पर: कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 271(1)(छ) के अनुसार यदि कंपनी लाॅ  अधिकरण के मत में कंपनी का परिसमापन किया जाना उचित एवं न्याय संगत है तो वह उस कंपनी के परिसमापन का आदेश निकाल सकता है। इस प्रकार परिसमापन का आदेश देने के पूर्व कंपनी लॉ अधिकरण को कंपनी, उसके कर्मचारी, लेनदारों तथा अंश धारियों के हितों को सार्वजनिक हित( लोकहित) को ध्यान में रखना होगा। निम्नलिखित परिस्थितियों में कंपनी लॉ अधिकरण अपने विश्वा विवेकानुसार कंपनी का अनिवार्य  परिसमापन कर सकता है:

         अगर कंपनी के कारोबार की विषय वस्तु या उसके कारोबार का मूल आधार ही समाप्त हो जाए तो इस प्रकार की परिस्थिति में उसका परिसमापन उचित एवं न्याय संगत माना जाएगा।

(b) यदि किसी कंपनी के प्रबंधकों में आपसी मनमुटाव और जिसके कारण कंपनी के प्रबंध व्यवस्था में गतिरोध उत्पन्न हो जाए तथा कंपनी का उद्देश्य ही समाप्त हो वह तो कंपनी का परिसमापन न्याय संगत तथा उचित माना जाएगा।

          (इन रि. येनिडजी जे टुबैको कंपनी लिमिटेड (1916)2Ch.420)


(c) यदि कोई कंपनी बिना हानि उठाएं अपना कारोबार चालू नहीं रख सकती है , तो यह माना जाएगा कि उसका परिसमापन करना उचित एवं न्याय संगत है।

(d) यदि कंपनी ऋणों को चुकाने में असमर्थ रहती है तथा उसके ऋणों पर ब्याज की राशि निरंतर बढ़ती जा रही है एवं प्रबंध  से अवनति हो रही है तथा इस स्थिति में सुधार होने की संभावना नहीं है, माना जाएगा कि उसका परिसमापन करना उचित एवं न्याय संगत है।

(e) यदि कंपनी का संपूर्ण उद्देश्य ही कपट पूर्ण है।

(f) यदि कंपनी कोई ऐसा कारोबार या व्यापार कर रही है जो किसी कानून के पास हो जाने के कारण अवैध घोषित कर दिया गया है , वह कंपनी लाॅ अधिकरण ऐसे कारोबार या व्यापार में कार्यरत कंपनी का परिसमापन कर देगा तथा यह समझा जायेगा कि यह उचित एवं न्याय संगत है।


(g) यदि कंपनी के बहुमत वाले अंश धारी अल्पमत वाले अंश धारियों के प्रति दमनात्मक या आक्रामक नीति अपना रहे हो जिससे अन्य सदस्यों का अहित होने की संभावना हो, तो कंपनी लाॅ  अधिकरण द्वारा उस कंपनी का परिसमापन किया जाना न्याय संगत एवं उचित होगा।

(h) अगर कंपनी के प्रबंध व्यवस्था में  कुप्रबंध हो जिसके कारण कंपनी की पूंजी का ह्रास हो रहा हो तथा व अवन्नति की ओर अग्रसर हो तो कंपनी लॉ अधिकरण उस कंपनी का अनिवार्य परिसमापन कर सकता है और यह समझा जायेगा कि वह उचित एवं न्याय संगत होगा।


हिंद ओवरसीज लिमिटेड बनाम रघुनाथ प्रसाद झुनझुनवाला एवं अन्य A.I.R 1976, S.C. 565 मामले में उच्चतम न्यायालय आधारित किया गया कि न्यायालय कंपनी के परी समापन का आदेश उस समय कर सकता है जबकि उसकी राय में कंपनी का  परिसमापन करना न्याय संगत तथा सम्यक हो। धारा 433 के खंड(क)से(ङ) तकमें ऐसी विशिष्ट दशाओं का उल्लेख है जिसमें से किसी को प्रभावित करने के लिए पूरा किया जाना आवश्यक है किंतु यह खंड अर्थात धारा 433का उपखंड(च)( अब धारा 271(1) का खंड(छ)) पूर्ण प्रकरण को व्यापक न्यायिक विवेक पर छोड़ देता है । न्याय संगत तथा सबवे खंड पर आधारित जो अनुतोष दिया गया है वह अंतिम उपाय के रूप में उस दशा में उपलब्ध होगा जब अन्य उपचार कंपनी के समान हितों की रक्षा के लिए पर्याप्त रूप से कारगर ना हो।

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