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भारत में दहेज हत्या में क्या सजा का प्रावधान है ? विस्तार से चर्चा करो।

निदेशक कंपनी के न्यासी, अभिकर्ता एवं प्रबंध साझेदार होते हैं. स्पष्ट कीजिए. Directors are trustees, agents and managing partner of company explain.

निदेशक वह व्यक्ति होते हैं जो कंपनी के कारोबार का संचालन तथा प्रबंधन करने के लिए कंपनी के अंश धारकों द्वारा चुने गए हों। कोई कंपनी का निदेशक या नहीं यह जानने के लिए उसके पदनाम को विशेष महत्व न देकर यह देखना चाहिए कि क्या उस व्यक्ति को कंपनी के निदेशक मंडल में निदेशक के पद पर कार्य करने के लिए नियुक्त किया गया है।


         निदेशकगण प्रबंध समिति के रूप में कार्य का संचालन करते हैं तथा अपने कार्यों के लिए अंशधारियों के प्रति उत्तरदाई होते हैं। निदेशक कंपनी का एजेंट तथा न्यासी भी कहा जाता है। पहला पद अर्थात अभिकर्ता इन्हें कंपनी की ओर से कार्य करने की दृष्टि से प्रदान किया गया है अद्वितीय पद अर्थात न्यासी इनके दायित्व को दृष्टि में रखकर प्रदान किया गया है।


कंपनी अधिनियम 2013 की धारा2(34)में निदेशक को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार निदेशक के रूप में कार्य करने वाला कोई भी व्यक्ति निदेशक कहलाता है चाहे उसे किसी नाम से ही क्यों ना पुकारा जाता हो। इसका अर्थ यह है कि निदेशक के लिए उसके पद के नाम का विशेष महत्व नहीं है। यह उसके कंपनी के प्रति अधिकारों एवं कर्तव्यों पर निर्भर करता है। किसी दूसरे व्यक्ति को भी निदेशक समझा जा सकता है यदि उसकी स्थिति से ऐसा प्रकट होता हो। ऐसा कोई व्यक्ति भी निदेशक माना जाएगा जिस के आदेश पर कंपनी का निदेशक मंडल कार्य करता हो। कंपनी के निदेशक गण सामूहिक रुप से निदेशक मंडल या संक्षेप में मंडल के नाम से जाने जाते हैं।


वैधानिक स्थिति( statutory position of director): अधिकारों एवं कर्तव्यों के आधार पर निदेशकों के अनेक रूप हैं, उन्हें कभी अभिकर्ता, कभी न्यास धारी और कभी प्रबंधक भागीदार कहते हैं।

(1) अभिकर्ता के रूप में निदेशक:

        कंपनी की ओर से की गई संविदाओं के लिए निदेशक की स्थिति एक अभिकर्ता के समान होती है, जबकि उसकी नियुक्ति अभिकर्ता की तरह नहीं की जाती है। बहुदा इनको कंपनी का एजेंट भी कहा जाता है। जिन मामलों में निदेशक की स्थिति एक अभिकर्ता की तरह होती है उनमें से कुछ इस प्रकार है:

(क) अगर संचालक( निदेशक) अपने अधिकारों के बाहर संविदाएं  करते हैं तो उनके लिए वे स्वयं व्यक्तिगत रूप से उत्तरदाई होते हैं। ठीक इसी प्रकार का संबंध अभिकर्ता तथा मालिक में भारतीय संविदा अधिनियम के अंतर्गत होता है।

(ख) यही कारण है कि संचालक कंपनी की ओर से काम करते समय यह ध्यान रखते हैं कि कोई भी कार्य अधिकारों के बाहर ना हो उनके नाम में ना हो तथा उनके हित में न हो।

(ग) निदेशक का यह कर्तव्य है कि उसके व्यक्तिगत हित तथा कंपनी के प्रति कर्तव्यों में कोई संघर्ष उत्पन्न ना हो, यह अपने निजी हित के लिए कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता जो कंपनी के हितों पर प्रहार करता हो। इन हितों में संतुलन स्थापित करने के लिए कंपनी अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं।

(अ) अगर किसी संविदा में किसी निदेशक का हित जुड़ा हुआ है तो उसे इसकी सूचना निदेशक मंडल को प्रथम बैठक में ही देनी चाहिए। ऐसी सूचनाएं प्रत्येक वर्ष देना अनिवार्य है।

(ब) निदेशक मंडल की ऐसी बैठक में जिसमें उसके हितों से संबंधित विषय पर विचार होना हो, ना तो संबंधित निदेशक भाग ले सकेगा और ना मतदान ही कर सकेगा। अपने हितों से संबंधित प्रस्ताव पर मतदान करने वाले दोषी निदेशक के मत का कोई मूल्य नहीं होगा तथा वह शून्य (Void ) होगा।

(स) कंपनी का कोई भौतिक शरीर नहीं होता। वह अपना सारा कार्य संचालन निर्देशकों के माध्यम से ही करती है। इसलिए कंपनी एवं निदेशकों के परस्पर संबंध प्रमुख और अभिकर्ता के समान होते हैं।

(द) निदेशकों  को दी गई सूचना से यह मान लिया जाएगा कि वह सूचना उस कंपनी को दे दी गयी है।

(त) निदेशकों का भी यह कर्तव्य है कि वह अपने कार्य के समय सूचनाओं को प्राप्त करें और कंपनी को भी सूचित करें। अगर एक ही व्यक्ति दो कंपनियों का निदेशक है तो यह आवश्यक नहीं है कि उसकी व्यक्तिगत जानकारी को दोनों ही कंपनियों की जानकारी मान लिया जाए, जब तक कि उसका यह विधिक कर्तव्य ना हो कि वह दूसरी कंपनी के लिए भी वही सूचना प्राप्त करें और उसे दूसरी कंपनी तक पहुंचा दें।

(थ) जो प्रसंविदा संचालकों द्वारा कंपनी की ओर से किए जाते हैं उनमें वह कंपनी के अभिकर्ता की तरह होते हैं व्यक्तिगत रूप से उनके लिए उत्तरदाई नहीं होते हैं। वह इन प्रसंविदा द्वारा कंपनी का उसी प्रकार बंद करते हैं जैसे एजेंट करता है।

श्यामसुंदर जालान बनाम राज्य,(1977)47 कंपनी केसेस 61 के मामले में अवधारित किया गया कि आयकर के प्रयोजनों के लिए निदेशक की स्थिति अभिकर्ता के समान होगी या कंपनी के प्रमुख अधिकारी की तरह यह मामले में प्रस्तुत किए गए साक्ष्य पर निर्भर करता है। परंतु यह तथ्य निर्विवाद है कि कंपनी के अंश धारियों( shareholders) के लिए निदेशक की स्थिति अभिकर्ता के समान नहीं है।

            कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 184 में निदेशक( डायरेक्टर) के ऐसे कर्तव्यों का उल्लेख है जो एक सामान्य अभिकर्ता अपने प्रधान( principal) के प्रति निभाता है। कंपनी के अभिकर्ता तथा प्रधान के मध्य परस्पर वैश्विक संबंध होने के कारण अभिकर्ता को यह ध्यान रखना होता है कि उसके व्यक्तिगत ईद तथा उसके प्रधान के प्रति कर्तव्यों में संघर्ष( disputes) की स्थिति उत्पन्न ना हो जाए। इसका तात्पर्य यह है कि कंपनी को निदेशकों के प्रधान की हैसियत प्राप्त होने के कारण निदेशक निजी हित के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकते हैं जो कंपनी के लिए हानिकारक हो।


          बैंक आॅफ पूना लिमिटेड बनाम नारायण दास,A.I.R 1961,Bom.252 के केस में बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया है कि  जब निदेशक सामूहिक रूप से निदेशक मंडल की हैसियत से कंपनी का कार्य करते हैं तब वह उसके अभिकर्ता होते हैं कि किसी अकेले निदेशक को कंपनी का अभिकर्ता नहीं माना जा सकता चाहे भले ही उसके संबंध विश्वासता था पर आधारित हों। कंपनी के निदेशक मंडल को कंपनी का अभिकर्ता होने के नाते अपने कर्तव्य सदभावना पूर्वक निभाने चाहिए।


(2) निदेशक न्यास धारी के रूप में:

       निदेशकों का कंपनी के प्रति वैश्वासिक संबंध(fiduciary relation ) रहता है। ऐसा ही संबंध न्यासियों का भी न्यास संपत्ति के प्रति रहता है इसलिए निदेशकों को बहुदा कंपनी का न्यासी कहा जाता है। लेकिन न्यास धारी शब्द का अर्थ बहुत ही व्यापक है। न्यासी का न्यास संपत्ति में कोई स्वयं का हित नहीं होता। इस दृष्टि से वास्तविक अर्थ के अनुसार निदेशक न्यास धारी नहीं होते, कंपनी के प्रति उनके कुछ कर्तव्य ही न्यास धारी के कर्तव्य से मिलते जुलते हैं। वे कंपनी के धन संबंध के न्यास धारी होते हैं उन्हें अपने अधिकारीयों  का प्रयोग सदभावना पूर्वक अंश धारियों के हितों के लिए करना होता है। इस संबंध में यार्क एण्ड नार्थ मिडलेण्ड रेल कम्पनी बनाम हडसन (1853)16Beav.485 के मामले में न्यायाधीश श्री रोमी लेके उद्गार अति महत्वपूर्ण हैं

       निदेशक वह व्यक्ति हैं जो अंश धारियों के लाभ के लिए कंपनी के मामलों में प्रबंध करने के लिए चुने गए हैं। यह एक विश्वास का पद है जिसको यदि वे स्वीकार कर लेते हैं तो उनका कर्तव्य हो जाता है कि वे उसे पूर्णरूपेण निभाए।


       रामास्वामी अय्यर बनाम ब्रह्यौया एण्ड कम्पनी ,(1966)1 Com.L.J.107(Mad) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि निदेशक कंपनी के प्रति न्यासी होते हैं अतः कंपनी के धन के दुरुपयोग के लिए उन्हें न्यासियों की तरह ही उत्तरदाई ठहराया जा सकता है और उनकी मृत्यु के बाद भी यह दायित्व उनके उत्तराधिकारी यों को वाहन करना पड़ेगा।

       ज्वाइंट स्टॉक डिस्काउंट कंपनी बनाम  ब्राउन,(1969)8Ex.D.381 के मामले में अवधारित किया गया कि  निदेशक गण कंपनी के संपत्ति संबंधी ऐसे सभी संव्यवहारों के लिए उत्तरदाई होंगे जो उनके अधिकारों से संबंधित हैं। विवेक कंपनी के वित्त का दुर्विनियोग करते हैं तो यह माना जाएगा कि उन्होंने न्यास भंग किया है तथा इसके लिए भी व्यक्तिगत तथा संयुक्त रूप से उत्तरदाई होंगे।

             निम्नलिखित नियमों से यह स्पष्ट होता है कि निदेशक केन दशाओं में न्यासी की भांति तथा किन परिस्थितियों में न्यासी की भांति नहीं होते हैं

(a) निदेशक न्यासी की तरह ना होना:

(1) निदेशक बाहरी व्यक्तियों के लिए जिन्होंने उनसे संविदाएं  की हैं न्यासी नहीं होते हैं।

(2) निदेशक अंश धारियों के लिए न्यासी नहीं होते हैं, बल्कि कंपनी के लिए न्यासी होते हैं।

(b) न्यासी की तरह होना:

(1) निदेशक उस धन या संपत्ति के लिए, जो कंपनी की ओर से उसके अधिकार में है, न्यासी माने जाते हैं। यदि निदेशक उस धन या संपत्ति का दुरुपयोग करते हैं, तो उसी प्रकार उत्तरदाई ठहराया जाएंगे जिस प्रकार न्यासी ठहराए जाते हैं।

(2) निम्नलिखित अधिकारों के प्रयोग के लिए निदेशक न्यासी होते हैं:

(क) कंपनी की राशि को कंपनी के हित में प्रयोग करने का अधिकार

(ख) कंपनी की संपत्तियों को व्यापार में प्रयोग करने का अधिकार

(ग)  अंशों के समर्पण को स्वीकार करने का अधिकार

(घ) अंशों  के आवंटन का अधिकार

(ड) लाभांश को साधारण सभा में घोषित करने का अधिकार

(च) अंशों  के हस्तांतरण को स्वीकार करने का अधिकार। विधिक दृष्टि से निवेशकों की कंपनी संबंधी स्थिति तथा किसी न्यासी को न्यास धारी की स्थिति अगर लिखित बातों में प्रथक होती है

(a) कोई भी निदेशक किसी अंश धारी का व्यक्तिगत निवासी नहीं होता है अंश धारियों को कंपनी की वास्तविक स्थिति की सूचना दिए बिना उनके अंशों का क्रय विक्रय कर सकता है।

(b) कंपनी  निदेशक एक व्यापारिक व्यक्ति मात्र होता है जो कंपनी के अंश धारियों के हितों के लिए कार्य करता है तथा स्वयं भी उस कंपनी का अंश धारी होने के कारण उसका व्यक्तिगत हित भी इसमें समाविष्ट होता है जबकि न्यासी न्यास संपत्ति को हितग्राहियों के हितों के लिए धारण करता है ना कि अपने व्यक्तिगत हित के लिए।

(c) कोई भी निदेशक कंपनी की संपत्ति का वास्तविक स्वामी नहीं होता है जबकि न्यास के अंतर्गत प्राप्त संपत्ति पर न्यासी का अधिकार वैसा ही होता है जैसा कि वास्तविक स्वामी का होता है।

(d) अगर अन्य व्यक्ति किसी कंपनी से कोई संविदा करते हैं तो उन व्यक्तियों के प्रति निदेशक का कोई कर्तव्य नहीं होता है जबकि किसी न्यास का न्यास धारी ऐसे तीसरे व्यक्ति के प्रति भी उत्तरदाई होता है जिसने न्यास गत संपत्ति को प्रतिफल के लिए सदभावना पूर्वक खरीदा हो चाहे उस व्यक्ति को इस न्यास की जानकारी या सूचना हुआ या नहीं।

         अतः कंपनी के निदेशकों की स्थिति कभी तो अभिकर्ता के समान होती है तो कभी न्यास धारी के समान। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि निदेशक कंपनी के धन एवं संपत्ति के न्यासी होते हैं तथा कंपनी की ओर से की गई सविदाओं के लिए उनकी स्थिति एक अभिकर्ता के समान होती है।

(3) निदेशक प्रबंध भागीदार के रूप में:

        निर्देशकों को कभी-कभी वाणिज्य न्यास धारी तथा प्रबंध भागीदार भी कहते हैं। इस संबंध में नाम का विशेष महत्व नहीं है महत्व उनके द्वारा संपादित कार्यों का है। के जीवन में कंपनियों का बड़ा महत्व स्थान है तथा उत्पादन और वितरण का व्यापार प्राया निगमित कंपनियों के द्वारा ही होता है। कंपनियों का कार्य संचालन कुछ व्यक्तियों द्वारा ही होता है। यह निदेशकों को इन कंपनियों का आवश्यक अंग मानना ही न्याय उचित है। इसी आधार पर उन्हें नियंत्रित कर उत्तरदाई बनाया जा सकता है। कंपनियों का प्रबंध राष्ट्रीय योजना के अनुसार राष्ट्रीय हित में होना चाहिए एवं उन पर न्यायिक नियंत्रण का क्षेत्र बढना चाहिए। यह कार्य अंग सिद्धांत की मान्यता से ही संभव है।नाथ बनाम स्टैंडर्ड लैंड कंपनी,(1910)2Ch.408 के मामले में न्यायाधीश श्री नेवली का निम्नलिखित निष्कर्ष अति महत्वपूर्ण है:

     निदेशक मंडल कंपनी के मस्तिष्क और केवल मस्तिष्क ही होते हैं और कंपनी शरीर। कंपनी केवल उन्हीं के माध्यम से कार्य कर सकती है और करती है। अतः  अधीन त ना होगा कि निदेशकों का कार्य कंपनी का ही कार्य होता है क्योंकि वे कंपनी के मस्तिष्क के समान होने के कारण उसके अविच्छिन्न अंग है। यही कारण है कि निर्देशकों से यह अपेक्षित है कि वे अपने कार्य ईमानदारी निष्ठा एवं सदभावना पूर्वक करें।

           उल्लेखनीय है कि कंपनी के कार्यों के संबंध में दायित्व का निश्चिता पूर्वक निर्धारण करने के लिए कंपनी विधि के अधीनसिद्धांत को स्वीकार किया गया है। इस सिद्धांत के अंतर्गत निदेशकों को कंपनी को अंग माना गया है। इसलिए किसी कंपनी के निदेशक के रूप में किसी या निकाय को नियुक्त करने की परंपरा समाप्त कर दी गई है तथा इसलिए निर्देशक द्वारा अपने कार्यालय पद को समानुदेशित किए जाने पर कंपनी अधिनियम के अंतर्गत प्रतिबंध है। उद्देश्य कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 149 उप बंधित किया गया है कि निदेशक पद पर केवल वास्तविक व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जा सकता है तथा किसी निगमित निकाय फरमाया अन्य कंपनी को निदेशक के पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है।

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