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Memorandum of association of a company (कंपनी का पार्षद सीमा नियम):

Memorandum of association of a company (कंपनी का पार्षद सीमा नियम):

कंपनी के पहले खोया दस्तावेजों में पार्षद सीमा नियम सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है जो कि किसी भी कंपनी के निगमन के लिए उसके प्रवृत्तियों द्वारा तैयार किया जाता है यह पहले क्षेत्र स्टॉक कंपनी का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है जिसमें कंपनी की मर्यादाओं और सीमाओं शक्तियों और अधिकारों व लक्षणों और उद्देश्यों का सविस्तार उल्लेख किया जाता है।


       पामर के अनुसार पार्षद सीमा नियम प्रस्तावित कंपनी से संबंधित एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।


लार्ड केयन्सर् के अनुसार किसी कंपनी का पार्षद सीमा नियम उसका चार्टर है और वह अधिनियम के अंतर्गत कंपनी के अधिकारों की सीमाओं को परिभाषित करता है। सीमा नियम में कंपनी से संबंधित आधारभूत सिद्धांतों तथा बातों का उल्लेख रहता है और केवल उन्हीं के आधार पर कंपनी के निगमन की आज्ञा दी जाती है ।इस प्रकार पार्षद सीमा नियम कंपनी की आधारशिला के समान है जिस पर कंपनी का निर्माण होता है।

             लार्ड मैकमिलन के अनुसार पार्षद सीमा नियम का कार्य अंश धारियों ऋण दाताओं तथा अन्य व्यक्तियों को जो कंपनी के साथ व्यवहार करते हैं इस योग्य बनाना है कि वे जान सके कि कंपनी का कार्य क्षेत्र क्या है?

            वास्तव में कंपनी के पार्षद सीमा नियम वह कल एक है जो कंपनी की तुम को निर्धारित करता है तथा कंपनी के उद्देश्यों को निर्धारित करता है प्रस्तावित कंपनी के संदर्भ में पार्षद सीमा नियम अत्यंत महत्वपूर्ण होता है कंपनी के पार्षद सीमा नियम द्वारा निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने की दृष्टि से ही कंपनी की रचना की जाती है कंपनी के पार्षद सीमा नियम को कंपनी का मूल प्रलय कहा जा सकता है कंपनी की रचना करते समय कंपनी के परिवर्तन को सर्वप्रथम पार्षद सीमा नियम की रचना करनी पड़ती है तथा इसे रजिस्ट्रार के पास प्रस्तुत करना पड़ता है।


पार्षद सीमा नियम की विषय सामग्री या पार्षद सीमा नियम के वाक्य( contents of memorandum of association)

भारतीय कंपनी अधिनियम 2013 के अनुसार कंपनी के पार्षद सीमा नियम में अग्रे लिखित बातों का समावेश किया जाना अनिवार्य होता है

(1) नाम खंड: कंपनी के पार्षद सीमा नियम प्रथम खंड में कंपनी का नाम बताया जाता है विधिक व्यक्ति होने के कारण पहचान के लिए कंपनी को कोई ना कोई नाम देना आवश्यक होता है कंपनी का नाम उसके व्यक्तिगत अस्तित्व का प्रतीक होता है पार्षद सीमा नियम में कंपनी जिस नाम को स्वीकार करती है उसी नाम से उसका रजिस्ट्रेशन कराया जाता है।

          कंपनी ने यदि एक नाम स्वीकार कर लिया तो साधारणतया उसमें परिवर्तन नहीं कर सकती परंतु कंपनी विधि में यह व्यवस्था है कि कंपनी केवल विशेष प्रस्ताव पारित करके अपने नाम का परिवर्तन कर सकती है इस प्रकार के नाम के परिवर्तन का अनुमोदन केंद्रीय सरकार द्वारा भी किया जाना चाहिए।


नाम में परिवर्तन: विशेष संकल्प पारित करके और केंद्रीय सरकार का अनुमोदन प्राप्त करके कंपनी अपने नाम में परिवर्तन कर सकती है इस प्रकार कंपनी को अपने नाम में परिवर्तन के लिए विशेष संकल्प पारित करना आवश्यक होता है और इसके साथ ही केंद्रीय सरकार की लिखित स्वीकृति भी आवश्यक होती है परंतु केंद्रीय सरकार की स्वीकृति प्राप्त करना वहां आवश्यक नहीं है जहां कंपनी के नाम के साथ प्राइवेट शब्द जोड़ा अथवा उसके नाम से प्राइवेट शब्द हटाया गया है और इसका कारण यह है कि कंपनी पब्लिक कंपनी से परिवर्तित होकर प्राइवेट कंपनी अथवा प्राइवेट कंपनी से परिवर्तित होकर पब्लिक कंपनी हो गई है।


(2) रजिस्ट्री कृत कार्यालय खंड: पार्षद सीमा नियम का दूसरा खंड रजिस्ट्री कृत कार्यालय खंड होता है इस खंड में कंपनी के मुख्य कार्यालय का उल्लेख होता है इस कारण में स्पष्ट रूप से उल्लेखित होता है कि प्रस्तावित कंपनी भारत राज्य क्षेत्र के किस राज्य में अपना मुख्य कार्यालय स्थापित करेगी इसके साथ ही इस खंड में उस नगर कस्बे अथवा गांव का भी उल्लेख होना चाहिए जिसमें कंपनी का मुख्य कार्यालय स्थित होगा इसी पते पर कंपनी के साथ पत्र व्यवहार होगा तथा आवश्यक सूचनाएं भेजी जाएगी कंपनी के मुख्य कार्यालय का पूरा पता कंपनियों के रजिस्ट्रार के पास होना चाहिए कंपनी के मुख्य कार्यालय का पूर्ण विवरण कंपनी के संचालकों देन दारों तथा केंद्रीय सरकार की सुविधा के लिए आवश्यक है।

(3) उद्देश्य खंड: कंपनी के पार्षद सीमा नियम का सबसे महत्वपूर्ण खंड उसका उद्देश्य खंड होता है जो उद्देश्य इस खंड में उल्लेखित होते हैं कंपनी उनके लिए ही स्थापित होती है कंपनी के उद्देश्य खंड में स्पष्ट रूप से उद्देश्य उल्लेखित होने चाहिए यदि कंपनी उद्देश्यों से परे कोई कार्य करती है तो अवैधानिक होगा सन 1965 से पूर्व कंपनी के पार्षद सीमा नियम में केवल उद्देश्य लिख दिए जाते थे परंतु सन 1965 में संशोधन करके कंपनी के उद्देश्य खंड को दो भागों में विभाजित कर दिया गया है अर्थात सन 1965 के बाद कंपनी के अपने पार्षद सीमा नियम में निम्न प्रकार से उद्देश्य का उल्लेख होना चाहिए।

(a) मुख्य उद्देश्य: कंपनी के इस उपखंड में कंपनी के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख होना चाहिए यह उद्देश्य है जिन्हें प्राप्त करना कंपनी का मुख्य उद्देश्य होता है इस उद्देश्य से प्रसंगवश  जुड़े हुए उद्देश्य भी कंपनी प्राप्त कर सकती है।


(b) अन्य उद्देश्य: कंपनियों को अब यह सुविधा प्रदान कर दी गई है कि वे मुख्य उद्देश्य के साथ अन्य उद्देश्यों को भी प्राप्त करने का उल्लेख कंपनी के पार्षद सीमा नियम में कर सकती है इस प्रकार कंपनी के कार्यक्षेत्र को व्यापक बनाया परंतु उसका उल्लेख सदैव पार्षद सीमा नियम में होना चाहिए।

              कंपनी अपने उद्देश्यों में भी परिवर्तन कर सकती है परंतु इस परिवर्तन का उल्लेख व्यापक धन से अन्यत्र किया गया है अधिनियम ने उन परिस्थितियों का उल्लेख किया है जो कंपनी के उद्देश्यों के परिवर्तन के लिए अधिकारी बनाते हैं।

(c) दायित्व खंड:  इस खंड में कंपनी के अंश धारियों के दायित्व की सीमा का उल्लेख होता है तथा स्पष्ट रूप से वर्णित होता है कि कंपनी के अंश धारी का दायित्व अंश तथा सीमित होता है। यदि किसी अंश धारी ने अंश पर देय धन का पूर्ण भुगतान कर दिया है तो उसका दायित्व समाप्त हो जाएगा। कंपनी का अंश धारी अंश के अदत्त अंश हेतु ही उत्तरदाई होता है।

(d) पूंजी खंड: कंपनी का मुख्य उद्देश्य व्यापार करना होता है तथा व्यापार के लिए पूंजी की आवश्यकता पड़ती है कंपनी को अपनी अधिकृत पूंजी का स्पष्ट उल्लेख इस खंड में कर देना चाहिए कंपनी की पूंजी अंशों में बटी होती है तथा अंश का एक निश्चित मूल्य होता है इस खंड में कंपनी को अंशों के प्रकार मूल्य तथा संख्या का उल्लेख भी कर देना चाहिए कंपनी उतनी ही पूंजी अंशों के रूप में जारी कर सकती है जितनी उसकी अधिकृत है अन्यथा उसे पार्षद सीमा नियम में परिवर्तन करना पड़ेगा।

(e)संघ खण्ड: पार्षद सीमा नियम पर पब्लिक कंपनी की दशा में 7 और प्राइवेट कंपनी की दशा में दो ऐसे व्यक्तियों के हस्ताक्षर होने आवश्यक है जो कंपनी बनाने के इच्छुक हैं यदि कंपनी ऐसी है जिसके पास अंश पूंजी है तो ऐसी दशा में संगम ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वाले सदस्यों द्वारा कम से कम एक अंश लेना आवश्यक है और ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के नाम के आगे उसके द्वारा लिए गए अंशों की संख्या का उल्लेख करना आवश्यक है प्रत्येक सदस्य का हस्ताक्षर कम से कम एक राशि द्वारा अनु प्रमाणित होना  जरूरी है।


            इस प्रकार कंपनी के उपयुक्त उल्लेखित खंड होते हैं इनको प्रथक प्रथक उल्लेखित किया जाना चाहिए।


पार्षद सीमा नियम का महत्व( important of memorandum of association):

कंपनी का पार्षद सीमा नियम कंपनी की मूल शर्तों का निर्धारण करता है जिसका उल्लंघन कंपनी द्वारा नहीं किया जा सकता है यदि कंपनी पार्षद सीमा नियम का उल्लंघन करके कोई कार्य करती है तो वह कार्य आ वैधानिक होगा। लक्ष्मी स्वरूप मुदालियर बनाम जीवन बीमा निगम के विवाद में साले ने कहा कि कंपनी वही कार्य कर सकती है जो उसके पार्षद सीमा नियम( memorandum of association )मे उल्लेखित हो तथा कंपनी उन से परे नहीं जा सकती है यदि कंपनी ने पार्षद सीमा नियम से परे जाकर कोई कार्य किया तो यदि सभी अंश धारी उसे वैध करना चाहे तो भी वैध नहीं कर सकते हैं।


इस प्रकार के प्रस्ताव भी अवैध होंगे जो कंपनी के पार्षद सीमा नियम के अनुरूप ना हो पार्षद सीमा नियम कंपनी का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रलेख है उक्त प्रलेख को कंपनी की आधारशिला कहा जा सकता है कंपनी के पार्षद सीमा नियम में कंपनी की आधारभूत शर्तें उल्लेखित होती हैं यह प्रलय कंपनी की शर्तों का मौलिक चार्टर होता है पार्षद सीमा नियम के बिना कंपनी का निगमन नहीं हो सकता है कंपनी के संस्थापक जिस समय कंपनी के रजिस्ट्रेशन हेतु प्रार्थना पत्र देते हैं उस समय उन्हें पार्षद सीमा नियम को भी प्रस्तुत करना पड़ता है कंपनी पर पार्षद सीमा नियम बाध्यकारी होता है कंपनी पार्षद सीमा नियमों का उल्लंघन कदापि नहीं कर सकती है।


परिवर्तन( alteration): Company अधिनियम 2013 के अनुसार कोई भी कंपनी निम्नलिखित परिस्थितियों में अपने उद्देश्य में परिवर्तन कर सकती है

(1) यदि कंपनी अपना व्यापार अधिक कुशलता  मितव्ययिता से चलाना चाहती है तो वह अपने उद्देश्य खंड में परिवर्तन कर सकती है ।उद्देश्य खंड में परिवर्तन करते समय यह ध्यान में रखना आवश्यक होगा कि कंपनी के सारभूत स्वरूप में कोई परिवर्तन ना हो तथा ऐसे परिवर्तन ही किए जाएं जो कंपनी की प्रगति और मितव्ययिता के लिए आवश्यक हों।

(2) कंपनी अपने मुख्य लक्ष्य में प्रगति करने के लिए अपने उद्देश्य में परिवर्तन करने के लिए आधुनिक साधनों तथा वैधानिक तरीकों को अपना सकती है।

(3) कंपनी अपने कार्य क्षेत्र में वृद्धि या उसके स्थानीय विस्तार के हेतु उद्देश्यों में परिवर्तन कर सकती है।

(4) किसी व्यापार के साथ मिलकर व्यापार करने के उद्देश्य से भी पार्षद सीमा नियम में परिवर्तन किया जा सकता है।

(5) कंपनी के उद्देश्यों  को सीमित करने के उद्देश्य से परिवर्तन।

(6) यदि कंपनी अपने संपूर्ण अथवा व्यापार के किसी अंश को बेचना चाहती हो तो परिवर्तन सीमा नियम में परिवर्तन होगा।

(7) यदि कंपनी किसी अन्य कंपनी में मिश्रित होना चाहती हो।

कंपनी के उद्देश्य खंड में परिवर्तन की प्रक्रिया( proceedure of alteration in the obsect clause)


परिवर्तन के लिए कंपनी को अंश धारी अधिवेशन में विशेष प्रस्ताव पास करना पड़ता है दूसरे स्थान पर ला बोर्ड की अनुमति लेनी पड़ती है बोर्ड के सामने यह सिद्ध करना पड़ता है कि प्रत्येक लेनदार तथा अंत धारक जिसका हित परिवर्तन से प्रभावित हो सकता है उसे पर्याप्त सूचना दे दी जाती है यदि किसी लेनदार ने आपत्ति प्रकट की है तो उसके हित को सुरक्षित करना होगा। कंपनी लॉ बोर्ड के सामने एक मामले में एक कंपनी जिसके पास  निक्षेपियो का साढे सात करोड़ रुपए था वह अपने उद्देश्य में परिवर्तन करना चाहती थी बोर्ड ने यह देखा कि वह कंपनी नए वित्त संसाधन की व्यवस्था नहीं कर रही थी और इसलिए यह संभावना थी कि नीचे पीओ का पैसा ही नए कारोबार में लगाकर जो कि में डाला जाएगा बोर्ड ने कहा कि चाहे परिवर्तन की अनुज्ञा बहुत उदारता से दी जानी चाहिए फिर भी बोर्ड का यह देखना है का कर्तव्य है कि नई योजना के लिए कंपनी अपनी विधि पूर्ण निधियों जिसे विधि पूर्ण संसाधनों से बिठाया गया हो उसी से नए व्यापार के व्यय की व्यवस्था की जाए बोर्ड को यह भी देखना चाहिए कि रजिस्ट्रार तथा राज्य सरकार को भी सूचना दे दी गई क्योंकि उन्हें आपत्ति प्रकट करने का अधिकार है।

      बोर्ड को कंपनी के अंश धारकों के हित का भी ध्यान रखना पड़ता है यदि कोई अंश धारक उचित आपत्ति प्रकट करता है तो बोर्ड यह चाहेगा कि यह तो उसके साथ समझौता कर लिया जाए या उसके हित को किसी तरह सुरक्षित किया जाए।

       बोर्ड अपने विवेका अनुसार परिवर्तन कोकार्यवाहियों शिक रूप से अनुमति दे सकता है और ऐसा प्रतिबंध भी लगा सकता है जो उसके विचार में उचित है।

         यदि कंपनी अपने नाम में ऊपर वाले धन से परिवर्तन कर लेती है तो उसे नए नाम की अधिसूचना रजिस्ट्रार को देनी होती है और रजिस्ट्रार में पूर्वर्ती नाम के स्थान पर नए नाम को दर्ज करता है और निगमन का नया प्रमाण पत्र देता है नाम में परिवर्तन उस समय से पूर्व और प्रभाव कारी माना जाता है जिस पर तिथि को निगमन का नया प्रमाण पत्र जारी किया जाता है या उल्लेखनीय है कि नाम परिवर्तन होने पर कंपनी के पूर्वर्ती अधिकारों और कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा इसके साथ ही कंपनी के द्वारा अथवा कंपनी के विरुद्ध उसके पूर्वर्ती नाम से चालू की गई विधिक कार्यवाहियोंपर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

            उपयुक्त प्रक्रिया केवल पार्षद सीमा नियम की शर्तों को बदलने के लिए माननी पड़ती है केवल वही सरते आवश्यक मानी जाती है जो धारा 13 के अनुसार पार्षद सीमा नियम में बदलना अनिवार्य है इसके अतिरिक्त कोई बात पार्षद सीमा नियम में कही गई है तो उसे केवल विशेष प्रस्ताव के जरिए बदला जा सकता है।







        

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