कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियमों का वैधानिक महत्व (Legal importance of company Articles of Association )
कंपनी के पार्षद अंतर नियमों द्वारा कंपनी तथा उसके सदस्यों के मध्य परस्पर संबंध निश्चित किए जाते हैं तथा उनमें निर्धारित नियम एक दूसरे के प्रति लागू होते हैं. कंपनी अपने अंश धारियों( shareholders) के प्रति कोई भी ऐसा कार्य नहीं कर सकती जो उसके अंदर नियमों में उल्लेखित ना हो. की तरह अंश धारी भी कंपनी के विरुद्ध ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकते जिसे करने का अधिकार उन्हें अंतर नियमों में प्राप्त नहीं है. इस नियम का उल्लंघन करने पर एक पक्ष दूसरे के विरुद्ध कोर्ट में वाद चला सकता है. तो यह उल्लेखनीय है कि समानता अंतर देवों के नियम जो के बाद किसी प्रकार का अनुबंध स्थापित नहीं करते हैं फिर भी यदि कंपनी चाहे तो अपने अंतर नियमों द्वारा सदस्यों के परस्पर संबंधों को नियंत्रित कर सकती है.
कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 10(1) मे उप बंधित किया गया है कि सीमा नियम एवं अंतर नियम दोनों ही कंपनी तथा उसके सभी सदस्यों पर बंधन कारी प्रभाव रखते हैं। इस धारा के अनुसार कंपनी अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी सीमा नियम तथा अंतर नियम का पंजीकरण हो जाने के पश्चात उनका कंपनी तथा उसके सदस्यों पर ठीक वैसा ही बंधन कारी प्रभाव होगा मानो कि उन्होंने उन दस्तावेजों पर व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर किए हो और वह उक्त दोनों दस्तावेजों के उप बंधुओं का यथावत अनुपालन करने के लिए आबाध्य होंगे।
यही वजह है कि कंपनी के प्रत्येक सदस्य को सीमा नियम तथा अंतर नियम व उप बंधित प्रावधानों की जानकारी हो इसलिए उन्हें कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 17 के अधीन उपरोक्त दस्तावेजों तथा कंपनी द्वारा पारित किए गए विशेष प्रस्तावों की प्रतिलिपि निर्धारित शुल्क देकर प्राप्त करने का अधिकार है। ऐसी प्रतिलिपि की मांग किए जाने पर कंपनी से 7 दिन की अवधि में आवेदक सदस्य को उपलब्ध कराएगी। कंपनी के अंतर नियम द्वारा उत्पन्न होने वाले दायित्वों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है
(1) कंपनी का उसके सदस्यों के प्रति दायित्व: कंपनी अपने सदस्यों के प्रति बाध्य रहती है. कंपनी अपने सदस्यों के प्रति ऐसा कार्य नहीं कर सकती जिसका उल्लेख उसने अपने अंतर नियम में नहीं किया हो.
सरदार गुलाब सिंह बनाम पंजाब झमीनदारु बैंक लि. A.I.R.1942 लाहौर 47 के मामले में कंपनी ने अपने अंतर नियमों द्वारा उसे प्रदत्त अधिकार शक्ति के अंतर्गत अपने एक सदस्य की प्रबंध निर्देशक के पद पर नियुक्ति की तथा वह इस पर 11 वर्षों तक कार्यरत रहा. कंपनी द्वारा की गई उसकी पदच्युति को लाहौर उच्च न्यायालय में चुनौती दिए जाने पर न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया कि अंतर नियम कंपनियों में सदस्य के मध्य विवादित संविदा का प्रभाव रखते हैं। इसलिए कंपनी द्वारा उक्त सदस्य को पद से हटाया जाना संविदा भंग होने के कारण पक्षकार उपचार प्राप्त करने का हकदार है।
(2) सदस्यों का कंपनी के प्रति दायित्व: कम्पनी के सदस्य अंतर नियमों द्वारा कंपनी के प्रति ठीक उसी प्रकार आप बैठे रहते हैं मानो उन्होंने कंपनी के अंतर नियमों का पालन करने के लिए कंपनी के साथ संविदा की हो इसका आशय यह है कि कंपनी के अंदर नियमों में दिए गए नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है।
बोरलैण्ड ट्रस्टीज बनाम स्टील ब्रदर्स एंड कंपनी लिमिटेड1901Ch.D.279 के मामले मे प्रतिवादी कम्पनी के अन्तर्नियमों मे यह उपबन्धित था कि किसी सदस्य के दिवालिया घोषित होने पर निर्देशक को मुख द्वारा उसके अंशु को निश्चित व्यक्ति को अथवा निश्चित दर से क्रय कर दिया जाएगा। वादी इस कंपनी के 73 अंशों का धारक था। उसे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिया गया। अतः उसके लिए दिवालियापन का ट्रस्टी नियुक्त किया गया। इस ट्रस्टी ने कंपनी के विरुद्ध दावा किया कि कंपनी से संबंधित ना होने के कारण उसके प्रति उपबंध लागू नहीं होगा तथा उसे इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह उचित मूल्य पर बेच सके. न्यायालय द्वारा आधारित किया गया कि कंपनी के अशों को उनके अंतर नियम में दी गई शर्तों के साथ ही धारित किया जा सकता था अतः वादी द्वारा अंशो का क्रय इसी शर्त के साथ किया गया होने के कारण उस शब्द का पालन किया जाना अनिवार्य था।
(3) कंपनी के सदस्यों का एक दूसरे के प्रति दायित्व: अंतर नियम द्वारा कंपनी के सदस्यों के मध्य आपस में किसी प्रकार की संविदा नहीं होती है तथापि वह उनके उन अधिकारों का विनियमन करते हैं जिन्हें कंपनी के माध्यम से प्रभाव सील कराया जा सकता है. एक सदस्य किसी दूसरे सदस्य को अंतर नियम को पालन करने को बाध्य नहीं कर सकता क्योंकि इन पर आलेखों द्वारा सदस्य सदस्य के बीच संविदात्मक संबंध स्थापित नहीं होता है. जो सदस्य अंतर नियमों की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करता है उसके विरुद्ध कंपनी ही न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकती है.
खुशीराम बनारसीलाल बनाम हनुमंत मल(1948)52C.W.N.505 वादी एवं प्रतिवादी दोनों ही गनी ट्रेडर्स एसोसिएशन के सदस्य थे. कम्पनी के अंतर नियम में यह उप बंधित किया गया था कि सदस्यों के मध्य उत्पन्न होने वाले विवादों को कंपनी द्वारा नियुक्त न्यायाधिकरण( tribunal) कि मध्यस्थों से निपटाया जाएगा. वादी और प्रतिवादी के मध्य व्यापार संबंधी एक निजी विवाद उत्पन्न हो गया. न्यायालय द्वारा आधारित किया गया कि दोनों पक्षकारों के मध्य उत्पन्न हुए विवाद का निजी स्वरूप है तथा यह कंपनी के अंतर नियमों की परिधि से बाहर है अता प्रतिवादी वादी के प्रति अंतर नियमों के अधीन किसी प्रकार से दाई नहीं होगा.
(4) कंपनी का बाहरी व्यक्तियों के प्रति दायित्व:- कंपनी स्वयं या उसका कोई सदस्य बाहरी बच्चों के प्रति अंतर नियमों के किसी नियम या उप नियम का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है. दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कंपनी तथा बाहरी व्यक्तियों के मध्य संबंधों को निर्धारित करने के लिए अंतर नियमों को संविदा के समान नहीं माना जा सकता है.
दुरैस्वामी बनाम यू आई एल इंश्योरेंस कंपनी ए आई आर 1956 मेड 316 के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा आधारित किया गया है कि कोई व्यक्ति जो कंपनी के विरुद्ध किसी अधिकार को लागू करना चाहता है अंतर नियमों का सहारा नहीं ले सकता है उसे अंतर देवों के बाहर की गई किसी संविदा को सिद्ध करना होगा
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