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कंपनी के आंतरिक प्रबंध का सिद्धांत( doctrine of Indoor Management)

रचनात्मक सूचना( constructive notice) के अनुसार किसी भी बाहरी व्यक्ति को कंपनी के साथ व्यवहार करते समय कंपनी के पार्षद सीमा नियम तथा पार्षद अंतर नियम का ज्ञान होना आवश्यक है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि उसे कंपनी की आंतरिक कार्यवाही हो की भी जानकारी हो क्योंकि व्यक्तियों का कंपनी के आंतरिक प्रबंध से कोई संबंध नहीं होता अर्थात बाहरी व्यक्ति कंपनी के आंतरिक प्रबंध से कोई संबंध नहीं रखते. बाहरी व्यक्तियों को यह माल लेने का अधिकार होता है कि कंपनी का आंतरिक प्रबंध नियमित रूप से चल रहा है अर्थात कंपनी के प्रबंध के शंका करना बाहरी व्यक्तियों का कार्य नहीं है. इस मान्यता को ही आंतरिक प्रबंध का सिद्धांत कहते हैं.

                 आंतरिक प्रबंध के सिद्धांत का प्रतिपादन सन 1856 में रॉयल ब्रिटिश बैंक बनाम टरक्वैंड के संदर्भ में हुआ। इस मामले में एक कंपनी के संचालकों को पार्षद अंतर नियम के अधीन बांड को निर्मित करने का अधिकार था यदि एक उचित प्रस्ताव के द्वारा कंपनी उन्हें ऐसा करने का अधिकार दे देती है। उन्होंने एक बाण्ड टरक्वैंड को दिया परंतु इस बांड के निर्गमन के पूर्व कोई भी प्रस्ताव कंपनी के द्वारा पास नहीं किया गया था। इस संबंध में न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि टरक्वाण्ड इस बोर्ड के आधार पर कंपनी पर मुकदमा कर सकता था क्योंकि बाहरी व्यक्ति होने के नाते उसे यह मानने का अधिकार था कि कंपनी के द्वारा प्रस्ताव पास किया जा चुका था।


        पंजीकरण के पश्चात कंपनी के सीमा नियम तथा अंतर नियम सार्वजनिक दस्तावेज बन जाते हैं तथा उन्हें नियमानुसार कोई भी व्यक्ति देख सकता है या इनकी प्रतिलिपि प्राप्त कर सकता है कंपनी के साथ लेनदेन करने के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को इन दोनों दस्तावेजों में वर्णित बातों की जानकारी प्राप्त कर लेना आपेक्षित है क्योंकि उनके लिए यह आंतरिक प्रबंध का सिद्धांत कहलाता है।


        आंतरिक प्रबंध के सिद्धांत( Indoor  Management Theory) के अनुसार एक ऐसे व्यक्ति से जो कि कंपनी के साथ व्यवहार कर रहा है अपेक्षा की जाती है कि वह इस बात को देखेगी अंतर नियमों के द्वारा व्यवहार करने का अधिकार उस व्यक्ति को दिया गया है जिसके साथ कि वह  बाहरी व्यक्ति व्यवहार कर रहा है किंतु इससे अधिक कुछ भी करने की आशा उससे नहीं की जा सकती। उससे इस बात की कल्पना की जा सकती है कि उसे कंपनी के संविधान की जानकारी है किंतु उसकी जानकारी से बाहर की बातें जो कुछ कंपनी के आंतरिक प्रबंध से संबंध रखती हैं उनमें क्या चीज हुई है इस संबंध में उससे जानकारी की आशा नहीं की जाती है।


             आंतरिक प्रबंध का सिद्धांत सर्वप्रथम रॉयल ब्रिटिश बैंक बनाम टारक्वाण्ड(1856)119E.R. 886 के मामले में प्रतिपादित किया गया है इस बात में निर्देशकों को पंजीकृत बंदोबस्त विलेख द्वारा यह शक्ति मिली हुई थी कि वे इसी रकम को बंद पत्र पर ऋण के रूप में ले सकते थे जैसे कि कंपनी की साधारण बैठक में एक साधारण प्रस्ताव( ordinary resolution) द्वारा पारित की गई हो. कंपनी ने रुपैया ऋण के रूप में लिया और उसने एक बंद पत्र जारी कर दिया जिस पर की दो निर्देशकों के कंपनी की मुहर सहित हस्ताक्षर थे. ऋण  दाता ने बंध पत्र पर मुकदमा चलाया तो कंपनी ने यह अभी कथन किया था कि ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं पारित हुआ है जिसमें की कथित ऋण को प्राधिकृत किया गया हो और इसलिए वह बंध पत्र बिना किसी प्राधिकार के दे दिया गया था और फल स्वरुप यह व्यवहार कंपनी के ऊपर बंधन कारी नहीं है। न्यायालय ने कंपनी के इस कथन को अस्वीकार कर दिया और कंपनी को इस ऋण के लिए बाध्य ठहराया। इस बात को सुनिश्चित करने के बाद कि इस प्रकार कर्ज कर लिया जाना कंपनी के प्रस्ताव के आधार पर प्राधिकृत किया गया होगा वादी इस बात की प्रकल्पना करने के लिए अधिकृत था कि आवश्यक प्रस्ताव पारित किया जा चुका है।


      पीवी दामोदर रेड्डी बनाम इंडियन नेशनल एजेंसीज लिमिटेड ए आई आर 1940 ,mad85 के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय में अंतर के सिद्धांत को लागू किया इस केस में किसी कंपनी के अंदर नियमों के अनुसार उसके निर्देशक केवल ऐसे सदस्यों को ही अंशों का आवंटन कर सकते थे जो वर्तमान में कंपनी के सदस्य थे तथा उन्हें कंपनी की साधारण सभा की सहमति के बिना बाहरी व्यक्तियों को आवंटन करने का अधिकार नहीं था लेकिन कंपनी के निर्देशकों ने वादी को कंपनी की साधारण सभा की सहमति प्राप्त किए बिना ही अंशों का आवंटन कर दिया। मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा आधारित किया गया कि वादी द्वारा यह मान लिया जाना उचित था कि निर्देशकों द्वारा उसे जो अंश आवंटित किए गए थे उनके लिए उन्होंने कंपनी की साधारण सभा में सहमति प्राप्त कर ली होगी।


            आता है इसी तरह दीवान सिंह हीरा सिंह बनाम मिनर्वा मिल्स लिमिटेड सोनीपत ए आई आर 1959 पंजाब 106 के मामले में कंपनी के निर्देशकों को कंपनी के अंतर नियमों द्वारा वर्ग के केवल 5000 अंशों को आवंटित करने का अधिकार शक्ति दी गई थी लेकिन निर्देशकों ने इस संख्या से काफी अधिक जा कर यह अंश 13000 की संख्या में आवंटित कर दिए पंजाब हाई कोर्ट द्वारा आधारित किया गया कि अंश बंधों ने कंपनी के साथ अंश ग्रहण का सौदा सदभावना पूर्वक किया था तथा उनके द्वारा यह मान लिया जाना न्यायोचित था कि कंपनी के निर्देशकों को उस संख्या तक आवंटित करने की शक्ति अंतर नियमों द्वारा प्राप्त होगी अंशधारियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि कंपनी के अंशों को क्रय करने से पूर्व में यह सुनिश्चित करते कि निर्देशकों को कंपनी के अंतर नियमों द्वारा वास्तव में यह शक्ति दी गई है अथवा नहीं क्योंकि यह कंपनी के आंतरिक प्रबंध का प्रश्न था।


आंतरिक प्रबंध के सिद्धांत के अपवाद( exceptions to the Doctrine of Indoor Management)

कंपनी के अंतर नियमों से संबंधित प्रबंध का सिद्धांत लगभग डेढ़ शताब्दी से भी अधिक पुराना हो चुका है और न्यायालयों द्वारा इसकी पर्याप्त व्याख्या हो चुकी है. अतः यह सिद्धांत निम्नलिखित अपवादों सहित लागू किया जाता है

(a) जालसाजी : आंतरिक प्रबंध का सिद्धांत उन मामलों में लागू नहीं होता है जो इस प्रकार के व्यवहारों से संबंधित हैं जिनमें हस्ताक्षर संबंधी जालसाजी की गई हो।इससे सम्बंधित रूबेन  बनाम ग्रेट  फिंगाल कन्सोलीडेटेड(1906)A.C.439 का मामला है . इस मामले में वादी प्रतिवादी कंपनी के अंशों का अंतरिति था। यह अंश प्रमाण पत्र कंपनी के सचिव द्वारा जारी किए गए थे जिसने कंपनी के दो निर्देशकों के जाली हस्ताक्षर स्वयं बनाए थे। दिल का यह तर्क था कि हस्ताक्षर जाली थे या सही यह कंपनी की आंतरिक व्यवस्था का प्रश्न था एवं उसकी आंतरिक व्यवस्था का भाग था। कंपनी इन हस्ताक्षरों  की मौलिकता अस्वीकार करने के लिए भी विबन्धित थी। इस मामले में निर्णय देते हुए लॉर्ड लोरबर्न ने यह मत व्यक्त किया कि आंतरिक प्रबंध का सिद्धांत इस प्रकार की जालसाजी के मामले में लागू नहीं किया जा सकता है।


(b) अनियमितता की जानकारी:
        यदि कंपनी से व्यवहार करने व मुझको कंपनी के आंतरिक प्रबंध में अनियमितता की जानकारी है तो इस सिद्धांत के अंतर्गत वह कंपनी के विरुद्ध दावा नहीं कर सकेगा. दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किसी कंपनी के आंतरिक प्रबंध में अनियमितता की जानकारी होते हुए भी यदि कोई व्यक्ति इस कंपनी से व्यवहार करता है तो इसके फलस्वरूप होने वाली हानि के लिए वह व्यक्ति स्वयं ही उत्तरदाई होगा तथा कंपनी किसी भी प्रकार से क्षतिपूर्ति के लिए दाई नहीं होगी. ई प्रकार यदि कंपनी से व्यवहार करने के इच्छुक किसी पक्ष कार को किसी विशेष परिस्थितियों में आशंका हो कि उस कंपनी की आंतरिक व्यवस्था वह तनिक नहीं है तथा फिर भी आगे जांच पड़ताल किए बिना वह उस कंपनी से व्यवहार करता है तो बाद मे अपने बचाव के लिए वह आंतरिक प्रबंध के सिद्धांत का आधार नहीं ले सकेगा।


(c) अंतर नियमों की विषय वस्तु की जानकारी ना होना: कभी अंतर नियमों में एक डेलिगेशन क्लास शामिल होता है जिसमें यह उपबंध इस किया जाता है कि निर्देशक मंडल अपने अधिकार को किसी व्यक्तिगत निर्देशक के नाम पर उचित कर सकता है यदि एक बाहरी व्यक्ति जो कंपनी के साथ व्यवहार कर रहा है डेलीगेशन क्लोज की जानकारी से युक्त है तो इस बात की प्रकल्पना कर सकता है कि डेलीगेशन की शक्ति का प्रयोग किया जा चुका है और कंपनी की तरफ से उसके साथ सम व्यवहार में प्रविष्ट होने वाले निर्देशक को इस प्रकार की संविदा करने का प्राधिकार प्रत्यायोजित किया जा चुका है यथार्थ रूप में प्राधिकार का प्रत्यायोजन किया जाना आंतरिक प्रबंध का एक मामला है और वह इस बात के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है कि वह इस बात की जांच करें कि यथार्थ उस निर्देशक को प्राधिकार का प्रत्यायोजन किया जा चुका है या नहीं।


          लेकिन इस संबंध में सबसे अधिक विवादास्पद सवाल यह है कि एक बाहरी व्यक्ति जो ऐसे निर्देशक के साथ संविदा में प्रविष्ट हो रहा है जो यह व्यक्त कर रहा है कि वह कंपनी की ओर से कार्य कर रहा है जिसे डेलीगेशन क्लाज की जानकारी नहीं है। इस बात की कल्पना कर सकता है कि डेलीगेशन की शक्ति का प्रयोग किया जा चुका है और उस निर्देशक को ऐसी संविदा करने का प्राधिकार प्रत्यायोजित कर दिया गया है। रामा कारपोरेशन बनाम प्रृव्ड टिन एण्ड जनरल इन्वेस्टमेंट कम्पनी (1952)2Q.B.147 के केस मे यह निर्धारित किया गया है कि 2 की वादी कंपनी को डेलीगेशन क्लाज की जानकारी उस समय नहीं थी जबकि संविदा  की गई थी। इसलिए उसे इस बात की कल्पना करने का हक नहीं था कि डेलीगेशन  की शक्ति का प्रयोग किया गया था और यह सभी संविदा में प्रविष्ट होने वाले निर्देशक को ऐसा करने के लिए प्राधिकृत किया जा चुका था। अतः वह संविदा प्रतिवादी कंपनी प्रबंधन कारी नहीं मानी गई।

(d) अनियमितताओं की शंका होना: अगर अनुबंध से संबंधित परिस्थितियों के बारे में शंका है और इसलिए जांच की आवश्यकता है तो आंतरिक प्रबंध का सिद्धांत लागू नहीं होता है.

(e) अधिकारों के बाहर कार्य: यदि कोई अधिकारी अपने अधिकारों की सीमा के बाहर जाकर कार्य करता है तो बाहरी व्यक्ति केवल इस आधार पर आंतरिक प्रबंध का लाभ उठा सकता है कि अंतर नियमों के अनुसार यह अधिकार उस अफसर को हस्तांतरित किया जा सकता है.

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