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कम्पनी के अधिकारातीत के सिध्दांतों की व्याख्या (Describe the doctrine of ultravires of company)

अधिकारातीत का सिद्धांत( Doctrine of Ultravires)

यह एक ऐसा महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो कि सभी कंपनियों पर लागू होता है ।इस सिद्धांत का आशय यह है कि एक कंपनी का निर्माण कुछ निश्चित उद्देश्यों के लिए होता है। जिनका वर्णन उस कंपनी के पार्षद सीमा नियम में होता है अतः कंपनी अपने पार्षद सीमा नियम में वर्णित उद्देश्यों से परे नहीं जा सकती है। यदि कंपनी कोई ऐसा कार्य करती है जो उसके पार्षद सीमा नियम में अधिकृत नहीं है तो ऐसे कार्य का कोई वैधानिक प्रभाव नहीं होगा.

            कम्पनी की ऐसी क्रियाएं जो पार्षद सीमा नियम या पार्षद अंतर नियम के क्षेत्र के परे होती हैं अथवा अधिनियम के विपरीत हैं अधिकारियों के बाहर की क्रियायें कहलाती है ।कंपनी बाह्य एवं आंतरिक संबंधों के नियमन संबंधी नियम पार्षद सीमा नियम एवं अंतर नियम में दिए हुए होते हैं। इन प्रलेखों के अंतर्गत दिए गए नियमों का उल्लंघन ही अधिकारों से बाहर आने वाले कार्य कहलाते हैं। अधिकारों के बाहर कार्यों को निम्न भागों में बांटा जा सकता है-

(1) पार्षद सीमा नियम के बाहर कार्य।

(2) पार्षद अंतर नियम के बाहर किंतु पार्षद अंतर नियम के अंतर्गत कार्य।

(3) संचालकों के अधिकारों से बाहर परंतु पार्षद सीमा नियम के अंतर्गत कार्य।


           कंपनी के संबंध में अधिकारातीत के सिद्धांत को सर्वप्रथम ऐशबरी रेलवे कैरेज एंड आयरन कंपनी लिमिटेड बनाम रिचे 1875 L.R. 7 H.I.653  के मामले में हाउस ऑफ लार्ड्स द्वारा लागू किया गया ।इस केस में ऐशबरी रेलवे कंपनी रेल के डिब्बे बनाने तथा रेल की अन्य मशीनों एवं पुर्जों को बनाने का व्यवसाय करती थी। यह कंपनी अन्य मैकेनिकल इंजीनियरिंग तथा जर्नल कॉन्ट्रैक्ट कभी कारोबार करती थी ।इस कंपनी ने मैं रिचे नामक एक फर्म से बेल्जियम में रेल की पटरी डालने के लिए कंपनी में पूजीं लगाने के सम्बन्ध  में एक संविदा( contract) की . ऐशबरी कंपनी ने उक्त संविदा को अधिकारातीत घोषित करते हुए विखंडित कर दिया ।जिसके विरुद्ध रिचे ने संविदा भंग का वाद प्रस्तुत करते हुए इस आधार पर क्षतिपूर्ति की मांग की कि संविदा शब्द सामान्य संविदाओं के भावार्थ के अंतर्गत आता है ।इसलिए यह वह कंपनी की अधिकार शक्ति की सीमाओं के अंदर है। रिचे  द्वारा यह तर्क भी प्रस्तुत किया गया कि उक्त संविदा का कंपनी के अंश धारियों के बहुमत द्वारा अनु समर्थन भी कर दिया गया था।


                इस केस में हाउस ऑफ लार्ड्स द्वारा अवधारित किया गया कि इस संविदा कंपनी की अधिकार शक्ति से बाहर होने के कारण कंपनी के प्रति अधिकारातीत थी  अतः वह शून्य (void) प्रभावी थी। इस मामले के संदर्भ में शब्द सामान्य संविदाओं से आशय सामान्यतया ऐसी  संविदाओं से था जो मैकेनिकल इंजीनियरिंग से संबंधित हो ।अगर शब्द सामान्य संविदाओं की व्याख्या ना की जाए तो कंपनी द्वारा अग्नि तथा समुद्री बीमा संबंधी तथा अन्य प्रकार की संविदाओं को भी शामिल किया जा सकेगा तथा वास्तविक स्थिति यह होगी कि कंपनी किसी भी प्रकार का कारोबार कर सकती है। इस मामले में ऐसा भावार्थ लेना अनुचित था अतः उक्त संविदा कंपनी के सीमा नियम में उल्लेखित उद्देश्यों की सीमा से बाहर थी। यदि कंपनी के सभी अंश धारी एकमत होकर उक्त संविदा का अनु समर्थन भी कर देते हैं तब भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि अधिकारातीत होने के कारण कंपनी ऐसी संविदा कर ही नहीं सकती इसलिए अनु समर्थन का प्रश्न ही नहीं उठताहै। हाउस ऑफ लार्ड्स के लाॅर्ड सेल्बोर्न द्वारा टिप्पणी की गई कि हमारे विचार से ऐसी सविदाएं जिनका उद्देश्य एवं हेतु सीमा नियम से परे तथा असंगत है स्वयं निगमित कंपनी के प्रति अधिकारातीत होने के कारण शून्य प्रभावी होंगी।


             भारत में अधिकारातीत के सिद्धांत को सर्वप्रथम मुंबई हाई कोर्ट ने जहांगीर आर.मोदी बनाम श्याम जी (1867)4 बम्बई H.C.R. 185 के मामले में लागू किया जिसमें कंपनी के निर्देशकों द्वारा कंपनी की ओर से किसी अन्य जॉइंट कंपनी को खरीदा जाना कंपनी के सीमा नियम के अधिकारातीत घोषित किया गया क्योंकि इसके लिए कंपनी के निर्देशकों को अधिकृत नहीं किया गया था ।भारत के उच्चतम न्यायालय ने यह लक्ष्मणस्वामी मुदालियर बनाम जीवन बीमा निगम ए आई आर 1963 एस सी 495 के मामले में बंबई उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय एवं अधिकारातीत के सिद्धांत का अनुसमर्थन करते हुए अवधारित किया कि जहां कंपनी के निर्देशकों को धर्मार्थ पुन्यार्थ या  पर हितैषी उद्देश्यों के लिए भुगतान करने हेतु अधिकृत किया गया हो तथा कंपनी के अंश धारियों द्वारा पारित प्रस्ताव के अनुसरण में निर्देशकों ने व्यापारिक प्रगति  के लिये तकनीकि ज्ञान संवर्धन हेतु गठित न्यास को ₹200000 का भुगतान कर दिया ऐसे भुगतान अधिकारातीत होगा क्योंकि कंपनी ने निर्देशकों को अपनी मर्जी के अनुसार मनमाने ढंग से किसी भी धर्मार्थ या हितैषी प्रयोजन के लिए धन के भुगतान के लिए अधिकृत नहीं किया था जो कंपनी के स्वयं उद्देश्य में संवर्धन करते हैं

               अतः कंपनियों से संबंधित अधिकारातीत सिद्धांत के अनुसार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कोई कंपनी केवल ऐसे कार्य ही कर सकती है जिन्हें करना उसके सीमा नियम में उल्लिखित मुख्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जरूरी हो तथा जो उसके  लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रसांगिक अनुषांगिक तथा युक्तियुक्त हो इसके अलावा कंपनी अपने कारोबार के अनुक्रम में उन कार्यों को भी कर सकती है जिन्हें करने के लिए उसे अधिनियम द्वारा अधिकृत किया गया हो।


अधिकारातीत सिद्धांत के अपवाद:-

अधिकारातीत सिद्धांत के निम्नलिखित अपवाद हैं

(1) अधिकारातीत सिद्धांत लागू करते समय सीमा नियम के द्वारा कंपनी के अधिकृत कार्यो के कारण होने वाले प्रसांगिक अनुषांगिक परिणाम तब तक अवैध नहीं माने जाएंगे जबकि वे कंपनी के अधिनियम द्वारा अभिव्यक्त रूप से प्रतिबंधित ना किए गए हो।

(2) अगर कोई कंपनी द्वारा किया गया कोई कार्य कंपनी के अंतर नियमों में उल्लेखित उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर होने के कारण अधिकारातीत हो तो कंपनी के अंतर नियमों में आवश्यक परिवर्तन करके उन्हें वैधानिकता अथवा वैधता प्रदान की जा सकती है

(3 अगर कोई कंपनी अपनी किसी संपत्ति का अर्जन अधिकारातीत विनियोग द्वारा लेती है तो भी ऐसी संपत्ति पर कंपनी का अधिकार सुरक्षित रहेगा।

(4) कंपनी विधि के अंतर्गत कंपनी को कुछ ऐसे अधिकार भी दिए गए हैं जो उसके सीमा नियम में उल्लेखित ना होने पर भी गर्भित माने जाते हैं तथा उनके प्रति अधिकारातीत का सिद्धांत लागू नहीं होगा जैसे प्रत्येक व्यापारिक कंपनी को यह गर्भित अधिकार होता है कि वह ऋण लेकर अपनी पूंजी में वृद्धि कर सकती है।

(5) अगर कंपनी के निर्देशक कंपनी से संबंधित कोई ऐसा कार्य करते हैं जो उनकी अधिकार शक्ति से बाहर है लेकिन कंपनी की अधिकार शक्ति के अंतर्गत है तो ऐसे कार्य को कंपनी के अंश धारियों( shareholders) द्वारा अनु समर्थित कर दिए जाने पर उसे वैधानिकता प्राप्त हो जाती है तथा ऐसी स्थिति में अधिकारातीत का सिद्धांत प्रभावहीन माना जाएगा।

(6) अगर कंपनी ने कोई कार्य अपनी अधिकार शक्ति के अंदर किया है परंतु उसे अनियमित( irregular) ढंग से किया गया है तो कंपनी के समस्त अंश धारियों की सहमति से उसे वैधता प्रदान की जा सकती है तथा इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि कंपनी के सभी अंश धारियों की सहमति कंपनी की एक ही सभा में एक साथ तथा एक ही स्थान पर प्राप्त की जाए।

अधिकारातीत कार्यों के परिणाम( consequence of ultra vires)
किसी कंपनी द्वारा किए गए अधिकारातीत सिद्धांत के निम्नलिखित परिणाम हो सकते हैं-

(1) आदेश:- अगर कोई कंपनी अपने सीमा नियमों में उल्लेखित उद्देश्यों से बाहर अधिकारातीत  कार्य करना चाहती है या कर रही है तो कंपनी का कोई भी अंश धारी सदस्य उसे ऐसे कार्य करने से रोकने के लिए सक्षम न्यायालय से निषेधाज्ञा अर्थात व्यादेश प्राप्त कर सकता है।

(2) निर्देशकों का वैव्यक्तिक दायित्व:- अगर कंपनी के निर्देशक कंपनी की पूंजी को सीमा नियम में उल्लेखित उद्देश्यों के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य में लगाते हैं या अपनी अधिकार शक्ति से अधिग्रहण ले लेते हैं तो कंपनी को होने वाली हानि के लिए व्यक्तिगत रूप से दाई होंगे इसी प्रकार अगर निर्देशक जानबूझकर कंपनी की पूंजी का अवांछित उपयोग करते हैं तो उनके विरुद्ध कपट या धोखाधड़ी की आपराधिक कार्यवाही भी स्थिति की जा सकती है अगर निर्देशक किसी बाहरी व्यक्ति को कंपनी के साथ किसी ऐसी संविदा करने को प्रेरित करते हैं जो कंपनी के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो तो निर्देशक उस बाहरी व्यक्ति को होने वाली हानि के लिए व्यक्तिगत रूप से दाई होंगे

(3) अपकृत्य विधि के अंतर्गत कंपनी का दायित्व:- समानता अपकृत्य विधि में किसी कंपनी से क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए वादी को यह साबित करना पड़ता है कि वादी को कंपनी के जिस कार्य के कारण क्षति कारित हुई है वह कंपनी के सीमा नियमों के अंतर्गत था तथा कंपनी के जिस कर्मचारी ने वह अपकृत्य किया है वह उसने अपने नियोजन काल के दौरान किया था।

(4) अधिकारातीत सविदाओं के संबंध में दायित्व:- अधिकारातीत संविदाये प्रारंभ से ही शून्य होती है तथा उन्हें अनु समर्थन परितुष्टि वीबंधन मौन सहमति आदि से अधिकार अंतर्गत नहीं किया जा सकता कोई भी अवैध संविदा उभय पक्षों की ओर से किए गए किसी कार्य के कारण ना तो वैधता प्राप्त करती है और ना वह किसी विवाद का आधार बन सकती है इसलिए किसी नियमित कंपनी द्वारा की गई अधिकारातीत संविधान पूर्ण रूप से शून्य होती हैं तथा उनका कोई विधि प्रभाव ना होने के कारण दायित्व का सवाल ही नहीं उठता है।

              अधिनियम 2013 की धारा 182 के अनुसार कंपनी के निर्देशक को धर्मार्थ एवं अन्य प्रयोजनों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों को चंदा देने की अधिकार शक्ति प्राप्त है लेकिन इसके लिए निर्देशक को साधारण सभी की पूर्व अनुमति लेना जरूरी होता है लेकिन इस तरह दिए जाने वाले चंदे या दान की राशि कंपनी के पूर्वर्ती वर्षों की वार्षिक औसत शुद्ध लाभ के 5% से ज्यादा नहीं होनी चाहिए इस कार्य के लिए कंपनी निर्देशक को अपनी साधारण सभा में बताओ पारित करना जरूरी होता है इस धारा के प्रयोजन के लिए दान या राजनीतिक चंदे के विषय में राजनीतिक दल से तात्पर्य ऐसे सभी राजनीतिक दलों से है जो जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 423 के अंतर्गत रजिस्टर्ड है।

             अगर कोई कंपनी निर्देशक उपयुक्त धारा 182 के प्रावधानों( provisions) का उल्लंघन करता है तो दोषी निर्देशक या अधिकारी को अर्थदंड से जो दिए गए चंदे या दान की राशि का 5 गुना होगा दंडित किया जाएगा एवं प्रत्येक दोषी निर्देशक या अधिकारी को 6 महीने के कारावास एवं अर्थदंड से जो दिए गए चंदे की राशि का 5 गुना होगा दंड आदेश दिया जाएगा।

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