Skip to main content

क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

हिंदू दत्तक ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम के अंतर्गत भरण पोषण के प्रयोजन के लिए कौन व्यक्ति आश्रित है तथा इनके पोषण संबंधी नियम की व्याख्या कीजिए. Who are dependents for the purpose of maintenance under the Hindu adoption and maintenance act and also discuss the provision of maintenance of these person.

हिंदू दत्तक ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 21 में उन व्यक्तियों की सूची दी गई है जो भरण-पोषण के प्रयोजन के लिए आश्रित है इस धारा के अंतर्गत भरण पोषण के प्रयोजन के लिए मृतक व्यक्ति को निम्नलिखित संबंधी उनके आश्रित माने गए हैं -

( 1) उसका पिता

( 2) उसकी माता

( 3) उसकी विधवा जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं करती

( 4) उसका पुत्र या उसके पूर्व मृत पुत्र का पुत्र या उसके पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र का पुत्र जब तक कि वह अवयस्क है किंतु यह उस दशा में और वहां तक कि होगा जब तक कि वह और जहां तक कि वह यदि पौत्र है तो अपने पिता या माता की संपदा से और यदि प्रपौत्र है तो अपने पिता या माता की या पितामही या पिता माही की संपदा से भरण-पोषण करने में असमर्थ है.


( 5) उसकी अविवाहित पुत्री या पुत्र की अविवाहित पुत्री या उसके पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की अविवाहित पुत्री जब तक कि वह अविवाहित रहती है यह भरण-पोषण उस दशा में सीमा तक ही प्राप्त होगा जब और जहां तक वह यदि पोत्री है तो पिता या माता की संपदा से और प्रा पुत्री है तो अपने पिता या पिता या माता या माता महि या पितामह की संपदा से भरण पोषण प्राप्त करने में असमर्थ है.

( 6) उसकी विधवा पुत्री किंतु यह भरण-पोषण उसे उस दशा में और उस सीमा तक ही प्राप्त होगा जब और जहां तक वह

( क) अपने पिता की संपदा या

(ख) अपने पुत्र या पुत्री से यदि कोई हो या उसकी संपदा से या

(ग) अपने ससुर या उसके पिता से या उनमें से किसी भी संपदा से भरण-पोषण प्राप्त करने में असमर्थ है

( 7) उसके पुत्र या पूर्व मृतक पुत्र की कोई विधवा जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं करती है किंतु उसे यह भरण-पोषण उस दशा में और उस सीमा तक ही प्राप्त होगा जबकि जिस सीमा तक वह अपने पति की संपदा से या अपने पुत्र या पुत्री से यदि कोई हो उसकी संपदा से और यदि वह पत्र की विधवा है तो अपने ससुर की संपदा से भी भरण पोषण प्राप्त करने में असमर्थ है.

( 8) उसके अवयस्क अवैध पुत्र जब तक अवयस्क रहते हैं.

( 9) उसकी अविवाहित अवैध पुत्री जब तक कि विवाहित नहीं हो जाती है.

             इस प्रकार उपयुक्त प्रकार के व्यक्ति आश्रित माने जाते हैं और जो उपयुक्त सूची में आश्रित नहीं है वह अभी तक होने के आधार पर भरण-पोषण की मांग करने के हकदार नहीं है. इस धारा के अंतर्गत स्त्री की संपदा पर भी कतिपय आश्रितों के भरण-पोषण का भाव रखा गया है. इसलिए कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के द्वारा भी दायर के स्नेक संबंधियों के दाय ग्रहण करती है.


आश्रितों का पोषण: - हिंदू दत्तक ग्रहण तथा पोषण अधिनियम की धारा 22 आश्रितों के पोषण संबंधी नियमों की व्याख्या करती है यह धारा उप बंधित करती है कि (1) उप धारा (2) के उप बंधुओं के अधीन यह है कि मृत हिंदू के उत्तराधिकारी मृतक किसे उत्तराधिकारी से प्राप्त संपदा से मृतक के आश्रितों का भरण पोषण करने के लिए बाध्य है.

( 2) जहां की किसी आश्रित ने यह अधिनियम के प्रारंभ के पश्चात मत हिंदू की संपदा में कोई अंश वसीयती या  निर्वसीयती उत्तराधिकारी द्वारा अभि प्राप्त नहीं किया है वहां इन अधिनियमों  के अंतर्गत यह है कि वह आश्रित उन व्यक्तियों से भरण पोषण प्राप्त करने का हकदार होगा जो उस संपदा को लेते हैं.

( 3) जो व्यक्ति उस संपत्ति में दाय प्राप्त करेंगे और जिस हिस्से से प्राप्त करेंगे उसी हिस्से के अनुसार उन्हें पोषण का खर्च भी देना पड़ेगा.

( 4) यदि कोई व्यक्ति स्वयं आश्रित है और जो हिस्सा उसका अधिनियम द्वारा पोषण के लिए निर्धारित है वह पोषण के खर्च देने से कम हो जाता है तब वह व्यक्ति खर्च देने के लिए बाध्य नहीं होगा. दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति अपने लिए किसी संपत्ति के पोषण प्राप्त करता है वह पोषण के लिए उस समय संपत्ति में से देने के लिए बाध्य नहीं होगा.

            पूर्व में हिंदू विधि के अनुसार जिस आश्रित को मृतक पोषण देने के लिए बाध्य था उसे उसकी संपत्ति दान में प्राप्त करने वाले व्यक्ति उस संपत्ति से पोषित करने के लिए बाध्य थे वहां इस संबंध में नैतिक दायित्व एक विधिक दायित्व बन गया था.

                  समान अधिनियम के अंतर्गत जो व्यक्ति भरण-पोषण के अधिकारी थे उनके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार के व्यक्ति पूर्व विधि के अनुसार भरण पोषण के अधिकारी थे यह निम्नलिखित हैं -

( 1) अयोग्य उत्तराधिकारी: - जैसे अंधे पागल मूढ कोढी  इत्यादि तथा उनकी पत्नियां.

( 2) रखैल अथवा अवरुद्ध  स्त्री: - अवरुद्ध स्त्री वह है जो अपने संरक्षण में स्थाई रूप में रख ली गई हो और अन्य व्यक्ति के संपर्क से वंचित कर दी गई हो रखा है।रखैल  स्त्री का भी अर्थ उसी रूप में रखा जाता है इस प्रकार की स्त्री से संबंध गुप्त नहीं होना चाहिए तथा इस बात का प्रमाण होना चाहिए कि उसके परिवार में सदस्य के रूप में रहती थी.

( 3) दासी पुत्र अथवा रखैल इस्त्री: - जैसा कि मिताक्षरा विधि में प्रयुक्त है स्त्री शब्द की परिभाषा में उन स्त्रियों को सम्मिलित नहीं किया गया है जो दूसरे धर्म का अनुसरण करती हैं वर्तमान हिंदू दत्तक ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम में रखैल स्त्रियों को आश्रय देने का उपबंध नहीं किया गया है.

( 4) घर जमाई: - पूर्व विधि में घर जमाई को अपने ससुर से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार था लेकिन अब इस अधिनियम में यह प्राप्त नहीं है.

Comments

Popular posts from this blog

मेहर क्या होती है? यह कितने प्रकार की होती है. मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी को क्या अधिकार प्राप्त है?What is mercy? How many types are there? What are the rights of the wife if dowry is not paid?

मेहर ( Dowry ) - ' मेहर ' वह धनराशि है जो एक मुस्लिम पत्नी अपने पति से विवाह के प्रतिफलस्वरूप पाने की अधिकारिणी है । मुस्लिम समाज में मेहर की प्रथा इस्लाम पूर्व से चली आ रही है । इस्लाम पूर्व अरब - समाज में स्त्री - पुरुष के बीच कई प्रकार के यौन सम्बन्ध प्रचलित थे । ‘ बीना ढंग ' के विवाह में पुरुष - स्त्री के घर जाया करता था किन्तु उसे अपने घर नहीं लाता था । वह स्त्री उसको ' सदीक ' अर्थात् सखी ( Girl friend ) कही जाती थी और ऐसी स्त्री को पुरुष द्वारा जो उपहार दिया जाता था वह ' सदका ' कहा जाता था किन्तु ' बाल विवाह ' में यह उपहार पत्नी के माता - पिता को कन्या के वियोग में प्रतिकार के रूप में दिया जाता था तथा इसे ' मेहर ' कहते थे । वास्तव में मुस्लिम विवाह में मेहर वह धनराशि है जो पति - पत्नी को इसलिए देता है कि उसे पत्नी के शरीर के उपभोग का एकाधिकार प्राप्त हो जाये मेहर निःसन्देह पत्नी के शरीर का पति द्वारा अकेले उपभोग का प्रतिकूल स्वरूप समझा जाता है तथापि पत्नी के प्रति सम्मान का प्रतीक मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित पति के ऊपर यह एक दायित्व है

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद - पत्र में न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का नाम लिखना आवश्यक

अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि क्या होती है? विवेचना कीजिए.( what is the relation between National and international law?)

अंतर्राष्ट्रीय विधि को उचित प्रकार से समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि के संबंध को जानना अति आवश्यक है ।बहुधा यह कहा जाता है कि राज्य विधि राज्य के भीतर व्यक्तियों के आचरण को नियंत्रित करती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्र के संबंध को नियंत्रित करती है। आधुनिक युग में अंतरराष्ट्रीय विधि का यथेष्ट विकास हो जाने के कारण अब यह कहना उचित नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि केवल राज्यों के परस्पर संबंधों को नियंत्रित करती है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय विधि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के संबंधों को नियंत्रित करती है। यह न केवल राज्य वरन्  अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, व्यक्तियों तथा कुछ अन्य राज्य इकाइयों पर भी लागू होती है। राष्ट्रीय विधि तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों प्रणालियों के संबंध का प्रश्न आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि में और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि व्यक्तियों के मामले जो राष्ट्रीय न्यायालयों के सम्मुख आते हैं वे भी अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हो गए हैं तथा इनका वृहत्तर  भाग प्रत्यक्षतः व्यक्तियों के क्रियाकलापों से भी संबंधित हो गया है।