Skip to main content

क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

क्या हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम के अंतर्गत एक बच्चे तथा वृद्ध माता-पिता को पोषण पाने का अधिकार है तथा विशुद्ध हिंदू विधि के अंतर्गत क्या अधिकार प्राप्त थे? What is the right of maintenance of children and parents under the Hindu adoption and maintenance act and under the pure Hindu law?

Right of maintenance of children and aged parents under the Hindu adoption and maintenance act ( वृद्ध माता-पिता तथा संतान के भरण पोषण का अधिकार) : - हिंदू दत्तक एवं भरण पोषण अधिनियम की धारा 20 के अंतर्गत वृद्ध माता-पिता तथा संतानों के भरण पोषण का अधिकार प्रदान किया गया है. यह धारा उपबंधित करती है कि -

( 1) इस धारा के उपबंधों  के अधीन रहते हुए कोई हिंदू अपने जीवनकाल के दौरान अपने धर्मज अवयस्को और वृद्ध तथा शिथिलांग माता-पिता का भरण पोषण करने के लिए बाध्य है.

( 2) जब कोई धर्मज अवयस्क  अप्राप्तवय रहे वह अपने माता या पिता से भरण-पोषण का दावा कर सकेगा.

( 3) किसी व्यक्ति को अपने वृध्द या शिथिलांग  माता-पिता का किसी स्त्री का जो अविवाहित हो भरण पोषण करने की बाध्यता का विस्तार वहां तक होगा जहां तक माता-पिता या अविवाहित पुत्री यथास्थिति स्वयं उपार्जन हो या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो.

            इस धारा में माता के अंतर्गत निसंतान सौतेली मां भी आती है इस प्रकार सौतेली मां भी भरण पोषण की अधिकारी है.

            इस प्रकार धारा 20 के अंतर्गत वृद्ध तथा निर्बल माता-पिता तथा औरस एवं जारत संतान को भरण पोषण का दायित्व एक व्यक्ति पर सौंपा गया है धर्मज तथा अधर्मज संताने अपने माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने के हकदार उसी समय तक है जब तक कि वह अवयस्क हैं. एक हिंदू के अपने माता-पिता तथा अविवाहित पुत्री के भरण पोषण का दायित्व वहां तक है जहां तक वह अपनी संपत्ति से भरण पोषण प्राप्त करने में असमर्थ है बलिराम बनाम मुखिया कौर के वाद में पंजाब उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अविवाहित पुत्री अपने पिता से वयस्क हो जाने के बाद भी भरण-पोषण पाने की अधिकारिणी  है हिंदू धर्म के अनुसार प्रत्येक पिता का यह कर्तव्य तथा दायित्व है कि वह अपनी अविवाहित पुत्री के ना केवल दैनिक खर्चों का वहन करें वरन उसके विवाह के लिए एक उचित खर्चे की भी व्यवस्था करें. चंद्र किशोर बनाम नानक चंद के वाद में न्यायालय ने यह कहा कि पिता का यह परम कर्तव्य है कि वह अपनी  अविवाहित पुत्री के ना केवल दैनिक खर्चे को संभाले वरन उसके विवाह के लिए एक उचित खर्चे की व्यवस्था करें. इस प्रकार प्रत्येक हिंदू अविवाहित पुत्री के विवाह संबंधी विषयों को भी वाहन करने की जिम्मेदारी रखता है और यह बात संचय संपत्ति हो या नहीं दोनों ही स्थिति में लागू होगी.

             धारा 20 (3) वर्णित सीमा के अंदर माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वयस्क हो जाने पर भी वह अविवाहित पुत्री का भरण पोषण करें.

                    इस प्रकार धारा 20 के अंतर्गत वृद्ध तथा निर्बल माता-पिता तथा औरस एवं जारत संतान का भरण पोषण करने का दायित्व प्रदान किया गया है यहां संतान शब्द पुत्र तथा पुत्री को सम्मिलित नहीं करता एक पिता का यह कर्तव्य है कि वह अपनी औरस संतानों का पालन पोषण भी करें परंतु भरण पोषण का यह दायित्व संतान के वयस्क हो जाने पर समाप्त हो जाता है इसी प्रकार पुत्री अथवा पुत्र का दायित्व भी अपने वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण के लिए समाप्त हो जाता है जहां उनकी स्वयं की संपत्ति भरण-पोषण के लिए पर्याप्त है.

                 हिंदू विधि के धर्मज अविवाहित पुत्री को भरण पोषण का अधिकार प्राप्त था पिता के मर जाने पर भी वह उसकी संपत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने की अधिकारिणी  हो जाती थी किंतु इस प्रकार का अधिकार जारस पुत्री को प्राप्त नहीं था वर्तमान विधि मे जारस तथा औरस दोनों प्रकार की पुत्रियां माता-पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने की अधिकारिणी  है पूर्व हिंदू विधि के अंतर्गत वृद्ध माता-पिता के भरण पोषण का दायित्व पुत्रों परंतु वर्तमान विधि के अंतर्गत वृद्ध माता-पिता के भरण पोषण का दायित्व पुत्री पर डाला गया है वह निर्बल एवं वृद्ध माता-पिता का भरण पोषण करें.

         माता-पिता में संतान रहित सौतेली मां सम्मिलित होती है.

बलवंत कौर बनाम चानन सिंह (आई आर 2000 एस सी 1908) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया है कि एक निराश्रित विधवा पुत्री जिसकी अपनी कोई स्वता आय नहीं है अथवा उसके पति के पास कोई संपदा नहीं थी जिससे कि वह अपना भरण-पोषण कर सके तो वह वैधानिक रूप से अपने माता पिता से उसके जीवन काल में अथवा मरने के पश्चात उसकी संपदा में से भरण-पोषण की मांग कर सकती है.


पोकसरा वेग बनाम पीकर चिन्नाह  के वाद में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि एक सौतेले पुत्र के ऊपर अपनी सौतेली माता के भरण पोषण देने का कोई विधिक दायित्व तब तक नहीं है जब तक कि उसके पिता का संयुक्त परिवार की संपत्ति में हक उसके नाम नहीं आया अथवा उसने धन नहीं लिया है किंतु दत्तक ग्रहितों अथवा औरस पुत्र के ऊपर अपनी माता को भरण पोषण देने का दायित्व दोनों में से आपस में संबंध से उत्पन्न होता है चाहे वह पैतृक संपत्ति प्राप्त करें या नहीं.

Comments

Popular posts from this blog

मेहर क्या होती है? यह कितने प्रकार की होती है. मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी को क्या अधिकार प्राप्त है?What is mercy? How many types are there? What are the rights of the wife if dowry is not paid?

मेहर ( Dowry ) - ' मेहर ' वह धनराशि है जो एक मुस्लिम पत्नी अपने पति से विवाह के प्रतिफलस्वरूप पाने की अधिकारिणी है । मुस्लिम समाज में मेहर की प्रथा इस्लाम पूर्व से चली आ रही है । इस्लाम पूर्व अरब - समाज में स्त्री - पुरुष के बीच कई प्रकार के यौन सम्बन्ध प्रचलित थे । ‘ बीना ढंग ' के विवाह में पुरुष - स्त्री के घर जाया करता था किन्तु उसे अपने घर नहीं लाता था । वह स्त्री उसको ' सदीक ' अर्थात् सखी ( Girl friend ) कही जाती थी और ऐसी स्त्री को पुरुष द्वारा जो उपहार दिया जाता था वह ' सदका ' कहा जाता था किन्तु ' बाल विवाह ' में यह उपहार पत्नी के माता - पिता को कन्या के वियोग में प्रतिकार के रूप में दिया जाता था तथा इसे ' मेहर ' कहते थे । वास्तव में मुस्लिम विवाह में मेहर वह धनराशि है जो पति - पत्नी को इसलिए देता है कि उसे पत्नी के शरीर के उपभोग का एकाधिकार प्राप्त हो जाये मेहर निःसन्देह पत्नी के शरीर का पति द्वारा अकेले उपभोग का प्रतिकूल स्वरूप समझा जाता है तथापि पत्नी के प्रति सम्मान का प्रतीक मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित पति के ऊपर यह एक दायित्व है

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद - पत्र में न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का नाम लिखना आवश्यक

अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि क्या होती है? विवेचना कीजिए.( what is the relation between National and international law?)

अंतर्राष्ट्रीय विधि को उचित प्रकार से समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि के संबंध को जानना अति आवश्यक है ।बहुधा यह कहा जाता है कि राज्य विधि राज्य के भीतर व्यक्तियों के आचरण को नियंत्रित करती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्र के संबंध को नियंत्रित करती है। आधुनिक युग में अंतरराष्ट्रीय विधि का यथेष्ट विकास हो जाने के कारण अब यह कहना उचित नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि केवल राज्यों के परस्पर संबंधों को नियंत्रित करती है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय विधि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के संबंधों को नियंत्रित करती है। यह न केवल राज्य वरन्  अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, व्यक्तियों तथा कुछ अन्य राज्य इकाइयों पर भी लागू होती है। राष्ट्रीय विधि तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों प्रणालियों के संबंध का प्रश्न आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि में और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि व्यक्तियों के मामले जो राष्ट्रीय न्यायालयों के सम्मुख आते हैं वे भी अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हो गए हैं तथा इनका वृहत्तर  भाग प्रत्यक्षतः व्यक्तियों के क्रियाकलापों से भी संबंधित हो गया है।