दांपत्य अधिकारों का पुनरस्थापन (restitution of conjugal rights), न्यायिक पृथक्करण (judicial separation), अभित्याग (Desertion)
( 1) दाम्पत्य अधिकारों का का पुनर्स्थापना (Restitution of conjugal rights): - हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 के अंतर्गत दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना का प्रावधान किया गया है । दांपत्य कर्तव्यों में सर्वप्रथम एवं महत्वपूर्ण कर्तव्य दंपत्ति का परस्पर एक दूसरे को सहचार्य प्रदान करना है क्योंकि हिंदू विवाह का उद्देश्य दांपत्य जीवन की सुख एवं सुविधा से संबंधित है ।विवाह के पक्षकारों को एक दूसरे के साथ सहवास करने का अधिकार है ।यदि एक पक्ष दूसरे पक्ष को इस अधिकार से वंचित किया जाता है तो धारा 9 के अंतर्गत दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना के लिए न्यायालय मे प्राथना पत्र दिया जा सकता है.
धारा 9 के अंतर्गत इस अधिकार की पुनर्स्थापना के संबंध में यह कहा गया है कि जहां पर पति या पत्नी के बिना युक्तियुक्त कारण के एक दूसरे के साथ रहना त्याग दिया है तो ऐसा परित्याग व्यक्ति जिंदा न्यायालय से याचिका द्वारा दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए प्रार्थना कर सकता है और यदि न्यायालय याचिका में वर्णित प्रार्थना और तथ्यों पर विश्वास करता है और उसकी दृष्टि में ऐसा अन्य कोई वैद्य अधिकार नहीं है जिसके प्रार्थना पत्र अस्वीकार किया जा सके तो ऐसा न्यायालय याचिका की प्रार्थना के अनुसार दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना की डिक्री दे सकता है.
इस प्रकार इस धारा के अनुसार दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना के लिए न्यायालय तभी डिक्री प्रदान कर सकता है जब
( 1) दो में से किसी पक्ष ने बिना युक्तियुक्त कारण के एक दूसरे के साथ रहना त्याग दिया हो.
( 2) दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना के लिए दिए गए प्रार्थना पत्र से न्यायालय संतुष्ट हो जाए
( 3) प्रार्थना पत्र अस्वीकार किए जाने के लिए कोई वैद्य आधार ना हो.
इस प्रकार धारा 9 के अंतर्गत दिया गया अधिकार विवाह के ऐसे अधिकार के पक्ष में है जो विवाह को समाप्त नहीं करना चाहता और ना ही न्यायालय पृथक्करण चाहता है तथा ना वह यदि पत्नी है हिंदू दत्तक ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 18 के अंतर्गत पृथक निवास करती हुई भरण-पोषण का दावा करना चाहती है.
साधु सिंह बलवंत सिंह बनाम श्रीमती जगदीश कौर के वाद में न्यायालय ने यह निर्धारित किया की धारा 5 के अंतर्गत डिक्री प्राप्त करने के लिए दो बातें साबित करनी आवश्यक है - (1) प्रत्युत्तरदाता ने याची के साथ रहना छोड़ दिया है तथा (2) उसके साथ ना रहने का कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है यहां युक्तियुक्त कारण शब्दों का प्रयोग जानबूझ कर दिया गया है जिससे औचित्य पूर्ण का भी अर्थ निकलता है ।दांपत्य जीवन के अधिकारी की पुनर्स्थापना की डिक्री देने से पहले न्यायालय को इस बात से पूर्ण संतुष्ट हो जाना चाहिए कि याचिका में दिए गए तथ्य सत्य है और याची को अनुतोष न प्रदान करने का कोई अधिकार नहीं है विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम 1976 के अंतर्गत धारा 9 की उप धारा (2) को निरस्त कर दिया गया है और एक व्याख्या को सम्मिलित कर लिया गया है जो इस प्रकार है.
व्याख्या: - जहां यह प्रश्न उठता है कि विवाह के एक पक्ष कार का दूसरे पक्ष कार से अलग रहने का क्या युक्तियुक्त कारण रहा है वहां युक्तियुक्त कारण को सिद्ध करने का प्रमाण भार उस व्यक्ति पर होगा जिसने साथ रहने से इंकार कर दिया है.
अन्ना साहब बनाम ताराबाई के वाद में न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से निश्चित किया है की धारा 9 की उप धारा 1 के अनुसार अनुतोष उसी दशा में प्रदान किया जाएगा जब न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो जाएगा कि विवाह का दूसरा पक्षकार बिना किसी युक्तियुक्त कारण के अलग हो गया है इस वाद में याची ने पत्नी के विरुद्ध दांपत्य जीवन को पुनर्स्थापना के हेतु याचिका प्रस्तुत की थी । न्यायालय के अनुसार पत्नी ने नेक अभि वचनों में यह अभिवचन उसकी इच्छा के विरुद्ध उसको साथ ले जाता है वह पति के साथ नहीं जाना चाहती क्योंकि वह उसको नहीं चाहती आदि बातें पत्नी के अलग रहने का युक्तियुक्त कारण नहीं बताते.
राजेश कुमार उपाध्याय बनाम न्यायाधीश कुटुंब न्यायालय वाराणसी के वाद में पत्नी ने पति के बेरोजगार रहने के आधार पर विवाह विच्छेद से एक याचिका दायर किया जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह आदेश अभी निर्धारित किया की पत्नी द्वारा विवाह विच्छेद की याचिका का आधार पूर्णता गलत है अतः न्यायालय ने पत्नी की याचिका को निरस्त करते हुए धारा 9 के अंतर्गत दांपत्य जीवन के पुनर्स्थापना का आदेश पारित किया इसी संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने श्रीनिवास बनाम टी वासलक्ष्मी के वाद में भी दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना से संबंधित एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया न्यायालय ने यह संप्रेषित किया कि जहां पत्नी अपने पति के साथ दांपत्य पुनर्स्थापना की इच्छा रखती है लेकिन पति इसके बावजूद भी उससे अपनी दूरी रखें तथा उसे(पत्नी )को कभी भी अपने निवास स्थान पर रहने की इजाजत नही दिया तो ऐसी स्थिति को न्यायालय ने दुर्भाग्यपूर्ण बताया और पति द्वारा विवाह विच्छेद की याचिका को निरस्त करते हुये दांपत्य पुनर्स्थापना आदेश पारित किया.
विस्तार क्षेत्र: - दांपत्य अधिकारों को पुनर्स्थापना के लिए युक्तियुक्त आधारों का होना आवश्यक का होना आवश्यक है। निम्नलिखित कारणों युक्तियुक्त आधार माना गया है.
कुछ निम्नलिखित कारण युक्तियुक्त कारण है और अनुसार याची को दांपत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन की डिक्री का अनाधिकारी माना गया है.
( 1) गंभीर अभद्र व्यवहार( 2) पत्नी का अधिक खर्चीला होना जिससे पति की आर्थिक स्थिति तथा भविष्य पर कुप्रभाव पडता है.( 3) इस सीमा तक मधपान करना जिससे विवाहित जीवन के कर्तव्यों का पालन असंभव हो जाए( 4 ) प्रत्यर्थी के विरुद्ध अप्राकृतिक अपराध करने के मिथ्या आरोप पर अडे रहना ।( 5) बिना किसी पर्याप्त कारण के वैवाहिक सम्भोग को अस्वीकार कर देना( 6) याची का मस्तिष्क विकृत हो जाए जिससे प्रत्यर्थी के मारने पीटने की आशंका उत्पन्न हो जाए( 7) पृथक रहने का समझौता( 8) ऐसा दुर्व्यवहार जो क्रूरता के समान न हो किंतु उससे थोड़ा घट कर हो( 9)पति द्वारा पत्नी पर असंतात्व के लांछन पर अड़े रहना
( 2))): - न्यायिक पृथक्करण (judicial separation): - अधिनियम की धारा 10 में न्यायिक पृथक्करण का अनुतोष कुछ निश्चित परिस्थितियों में प्रदान किया गया है यह अनुतोष विवाह के दोनों पक्षकारों को प्राप्त है अर्थात पति-पत्नी दोनों इसके लिए याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 10 (1) उप बंधित किया गया है कि विवाह पक्षकारों में से कोई पक्षकार चाहे वह विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो चाहे पश्चात जिला न्यायालय की धारा 13 की उप धारा (1) में और पति की दशा में उसकी उप धारा (2) के अधीन विनिर्दिष्ट आधारों में से किसी ऐसे आधार पर जिस पर विवाह विच्छेद के लिए आवेदन पत्र दाखिल किया जा सकता है न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए आवेदन पत्र उपस्थित कर सकेगा.
जिला न्यायालय द्वारा ऐसे विवाहों को न्यायिक पृथक्करण की दशा में स्वीकृत किया जाएगा यदि याची धारा 10 के उप धाराओं के उप खंडों में से किसी भी एक शर्त को पूरा करता है.
अतः धारा 10 (1) के अंतर्गत न्यायिक पृथक्करण के निम्नलिखित आधार हैं -
( 1) जहां प्रत्युत्तरदाता ने विवाह के बाद परीक्षा से किसी दूसरे व्यक्ति के साथ लैंगिक संम्भोग किया है.
( 2) क्रूरता (cruelity): - जब याची के साथ दूसरे पक्ष ने क्रूरता का व्यवहार किया है.
( 3) अभित्याग (desertion): - जब याचि का दूसरे पक्ष ने 2 वर्ष तक लगातार अभित्याग किया हो यह समय याचिका के दायर करने की तिथि से 2 वर्ष पूर्व तक माना जाएगा ( धारा 19 - ए)
व्याख्या: - इस उप धारा 1 में अभित्याग पद का अर्थ है बिना तर्कसंगत कारण के और बिना आवेदक की सहमति या उसकी इच्छा के विरुद्ध प्रतिपक्षी द्वारा आवेदक का अभित्याग उसमें शामिल है। प्रतिपक्षी द्वारा आवेदक की दृढ़ता पूर्वक उपेक्षा (wilful neglect) और उसके व्याकरण संबंधी अनुभवों और समान पदों की व्याख्या तदनुसार की जाएगी.
( 4) कोढ (leprosy): - जब दूसरा पक्ष याचिका दायर करने के 1 वर्ष पहले घोर कोढ से पीड़ित रहा हो ( धारा 10 स)
( 5) रतिजन्य रोग (venereal diseases): - जब दूसरा पक्ष याचिका दायर करने के समय के पूर्व से ऐसे रतिजन्य रोग से पीड़ित रहा हो जो संपर्क से दूसरे को भी हो सकता है.
( 6) मानसिक विकृतता (unsound mind):: - जब प्रत्युत्तरदाता उपचार से ठीक ना होने योग्य मस्तिष्क के विकृतता से पीड़ित हो अथवा इस प्रकार की मानसिक अवस्था से लगातार अथवा बार-बार पीड़ित रहा है और जब इस सीमा तक पीड़ित रहा है कि याची प्रत्युत्तर दाता के साथ युक्तियुक्त ढंग से नहीं रह सकता.
(क ) व्याख्या: - मानसिक अव्यवस्था पद से मानसिक बीमारी मस्तिष्क का अपूर्ण अथवा प्रभावित विकास मनोवैज्ञानिक विकृति या व्याधियों अथवा इसी प्रकार की मानसिक निर्योग्यता तथा विकृति का बोध होता है इसके अंतर्गत सभी मानसिक रोग सम्मिलित हैं.
( ख ) मनोवैज्ञानिक विकृति का तात्पर्य लगातार होने वाली एक ऐसी मानसिक अव्यवस्था अथवा मानसिक निर्योग्यता से है जिससे प्रत्युत्तरदाता का असामान्य रूप से उग्र अथवा गंभीर रुप से अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण का बोध होता है चाहे वह उपचार के योग्य हो अथवा न हो.
( 7) धर्म परिवर्तन (conversion of religion): - यदि प्रत्युत्तरदाता धर्म परिवर्तन द्वारा हिंदू नहीं रह गया तो याची इस आधार पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त कर सकता है.
( 8) संसार परित्याग (renouncing the world): - विवाह का कोई पक्षकार जब संसार का परित्याग करके सन्यास धारण कर लेता है तो दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त कर सकता है.
( 9) प्रकल्पित मृत्यु: - यदि विवाह के किसी पक्ष कार के बारे में 7 वर्ष या इससे अधिक समय से उन लोगों के द्वारा जीवित होना नहीं सुना गया है जो उसके विशेष संबंधी हैं और जिन्हें यदि वह व्यक्ति जीवित होता तो उसके जीवित होने का ज्ञान होता तो विवाह के दूसरे पत्रकार को न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है.
पत्नी के लिए अतिरिक्त आधार: - न्यायिक पृथक्करण की याचिका दायर करने के लिए पत्नी को निम्न अतिरिक्त आधार प्राप्त है -
( 1) पति द्वारा बहुविवाह: - पत्नी न्यायिक पृथक्करण की याचिका इस आधार पर प्रस्तुत कर सकती है कि पति ने अधिनियम के प्रारंभ होने के पूर्व पुनर विवाह कर लिया था अथवा विवाह के पूर्व पति द्वारा विवाह की गई कोई पत्नी पर यह आधार तथा लागू होगा जबकि दूसरी पत्नी याचिका प्रस्तुत करने के समय जीवित हो.
( 2) पति द्वारा बलात्कार गुदामैथुन अथवा पशुगमन: - यदि पति विवाह संपन्न होने के बाद बलात्कार (rape) गुदामैथुन (sodomy) या पशुगमन (bestiability) का दोषी रहा हो तो इन आधारों पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित की जा सकती है.
( 3) जहां हिंदू दत्तक ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 18 के अधीन अथवा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 की कार्यवाही के अंतर्गत पति के विरुद्ध पत्नी के पक्ष में भरण-पोषण की आज्ञप्ति (Decree) अथवा आदेश पारित कर दिया गया है और इस प्रकार की आज्ञप्तियां आदेश पारित हो जाने के बाद विवाह के पक्षकारों में सहवास 1 वर्ष से अधिक वर्षों से नहीं हुआ है.
( 4) यदि उसका विवाह 15 वर्ष की आयु पूरा होने के पूर्व संपन्न हुआ है और उसकी 15 वर्ष की आयु प्राप्त करने के पश्चात किंतु 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के पूर्व विवाह को समाप्त कर दिया है.
व्याख्या: - उस हालत में भी लागू होगा चाहे विवाह विधियां संशोधन अधिनियम 1976 के लागू होने के पहले या बाद में विवाह संपन्न हुआ .
न्यायिक पृथक्करण के परिणाम: - न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त कर लेने के निम्नलिखित परिणाम होते हैं -
( 1) विवाह संबंध का विच्छेद नहीं होता है
( 2) पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ सहवास करडिे दायित्व से मुक्त हो जाते हैं किंतु न्यायालय धारा 10 (2) के अधीन ऐसी डिक्री को विखंडित भी कर सकता है यदि उस डि का आवेदन कर्ता अथवा प्रत्याशी उसे भी खंडित करने का आवेदन करता है और न्यायालय प्रार्थना पत्र में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में अपना समाधान करता है और डिक्री को भी खंडित करना न्यायोचित और युक्तियुक्त समझता है.
( 3) पति पत्नी एक दूसरे के साथ तो था सेवा शादी करने के लिए बाध्य नहीं रह जाते.
( 4) यदि स्त्री याची है तो उसे पति से एक प्रकार का निर्वाह भत्ता प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है यदि वह पति है तो धारा 25 के अंतर्गत पत्नी से भरण-पोषण का दावा कर सकता है.
( 5) पत्नी डिग्री की तिथि से लेकर जब तक पृथक्करण रहता है अपनी हर प्रकार की संपत्ति के संबंध में स्वतंत्र समझी जाती है.
जीत सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिमत व्यक्त किया गया कि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री आने का अधिकार और दायित्व को जन्म देती है इससे पति-पत्नी को अलग रहने का न्यायिक अनुमति प्राप्त हो जाती है तथा किसी पक्षकार को एक दूसरे के सहवास का अधिकार नहीं रहता है विवाह से उत्पन्न सभी अधिकार स्थगित हो जाते हैं किंतु न्यायिक पृथक्करण की डिक्री विवाह को समाप्त नहीं कर देती इसके द्वारा पारस्परिक समन्वय तथा सम्मेलन का अवसर प्राप्त हो जाता है तथा पक्षकार यदि चाहे तो अपने जीवन पर्यंत पति-पत्नी जैसा व्यतीत कर सकते हैं.
( 3): - अभी त्याग (desperation): - अभी तक की सबसे संक्षिप्त परिभाषा इस प्रकार है जब एक पक्ष कार दूसरे पक्ष कार को अकारण ही बिना दूसरे की सहमति से स्थाई रूप से त्याग या परित्याग कर देता है तो यह भी त्याग कहलाता है लाभ कौर व नाम नारायण सिंह के बाद में न्यायालय द्वारा यह निर्णय किया गया है कि अभी त्याग का अर्थ विवाह के दूसरे पक्ष कार का आशय स्थाई रूप से त्याग देना तथा उसके साथ निवास छोड़ देने का है जो कि बिना उसकी स्वीकृति तथा युक्तियुक्त कारण के होता है यह वैवाहिक आधारों का पुनर रूपण खंडन है जहां कोई पक्षकार भावा 20 अथवा क्रोध में किसी स्थाई भाव के अभाव में दूसरे पक्ष कार को त्याग देता है वह अभी त्याग नहीं माना जाएगा.
विद्या के लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है: -
( 1) बिना युक्तियुक्त कारण के अभी त्याग
( 2) बिना सहमति के अभी त्याग
( 3) याची (petitioner) की इच्छा के विरुद्ध
( 4) चाची की सुरक्षा पूर्वक उपेक्षा के बिना
( 5) याचिका देने के समय से पूर्व शीघ्र व्यतीत होने वाले 2 वर्ष से होना चाहिए.
जहां पत्नी ने पति की सहमति के बिना घर छोड़ दिया है और पति 2 वर्ष पूरा होने के पूर्व ही विवाह भंग करने की डिग्री प्राप्त करने के लिए याचिका दायर करता है वहां याचिका इस आधार पर खारिज कर दी जाएगी कि पति ने 2 वर्ष के भीतर घर लौटने का इंतजार किए बिना तो याचिका दायर कर दी जहां अपील अर्थिंग स्वयं एक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जिसमें प्रत्युत्तर दाता घर छोड़कर अलग रहने को बाध्य हो गई वहां अपील आरती प्रत्युत्तर दाता के विरुद्ध अभी त्याग की दलील देकर न्यायिक पृथक्करण का दावा नहीं कर सकता.
अभी त्याग अनुभव (constructive) भी हो सकता है अनुवाई कभी त्याग का उस अर्थ में प्रयोग होता है जब विवाह का कोई पक्ष दूसरे पक्ष कार को घर छोड़ने के लिए बाध्य कर दे तो घर छोड़ने वाला पक्षकार अभी तक के लिए अपराधी नहीं माना जाता वरन वह पक्षकार जिसमें व्यवहार से ऐसा घटित हुआ है अभी तक के लिए अपराधी है.
अभी त्याग की समाप्ति: - अभी त्याग का अपराध निम्न प्रकार से समाप्त किया जा सकता है -
( 1) दांपत्य जीवन पुनः प्रारंभ करके
( 2) मिथुन पुनः आरंभ करके
( 3) घर वापस आने की इच्छा व्यक्त करके
( 4) पुनर्मिलन का प्रस्ताव करके
( 4) ZERO विवाह (void marriage): - सुन विवाह विवाह नहीं है यह एक ऐसा संबंध है जो विधि के समक्ष विद्यमान है इसे विवाह केवल इस कारण से कहते हैं कि 2 व्यक्तियों ने विवाह के वे सभी अनुष्ठान पूरे कर लिए जो कि किए जाने चाहिए परंतु कोई भी व्यक्ति को तैयार सामर्थ्य के कारण पति-पत्नी की स्थिति केवल विवाह का अनुष्ठान करके प्राप्त नहीं कर सकता हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 0 अथवा प्रभावहीन विवाह के संबंध में उप बंधित है इसमें यह वित्त है कि यदि धारा 5 के उपखंड में और 5 की शर्तों के प्रतिकूल कोई विवाह हो नियम के लागू होने के बाद संपन्न किया गया हो तो वह विवाह सुनने तथा प्रभावहीन समझा जाएगा और किसी पक्ष के याचिका देने से प्रभावहीन घोषित कर दिया जाएगा इस प्रकार निम्न विवाह प्रारंभ से ही निष्प्रभावी समझे जाएंगे.
( 1) यदि किसी भी प्रकार के विवाह के समय दूसरा पक्ष कार जीवित है. (धारा 5 (1))
( 2) यदि पक्षकार वर्जित स्पद संबंध के अंतर्गत आते हैं किंतु यदि प्रथा ऐसा करने की अनुमति प्रदान करती है तो यह नियम लागू नहीं होगा. (धारा 5 (4))
( 3) यदि पक्षकार एक दूसरे के साथ फ्रेंड है परंतु यदि प्रथा ऐसा करने की अनुमति प्रदान करती है तो यह नियम लागू नहीं होगा.
यह धारा तभी लागू होगी जबकि विवाह अधिनियम 1976 के लागू होने के बाद किया गया है विवाह इस धारा के अंतर्गत प्रारंभ से ही शून्य होगा सोने विभाग को शून्य करार देने के लिए शून्य घोषित करने की डिग्री की आवश्यकता नहीं है.
ZEERO विवाह (valuable marriage):: - ZEERO का नहीं है विवाह विधि मान्य विवाह है जब तक कि उसके 0 करणी होने की डिक्री न्यायालय द्वारा पारित ना कर दी जाए वह वैद्य और माननीय विवाह रहता है सुनने चरणीय विवाह विवाह के पक्षकारों में से किसी भी एक पक्षकार की याद क्या द्वारा निर्धारित हो सकती है यदि उनमें से एक पक्षकार की मृत्यु हो यदि विवाह के दोनों प्रकार जीवित है और वह विवाह के सुनने के लिए घोषित कराने की कार्यवाही नहीं करते हैं तो विवाह विधि मान्य होगा सुनकर ने विवाद जब तक सुनकर नियर घोषित नहीं हो जाता है तब उसके अंतर्गत विधि मानने विवाह की सब सनी स्थितियां और सभी अधिकार और कर्तव्य तथा दायित्व यथावत रहते हैं ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान वृद्धि होती है.
धारा 12 संक्रमणीय विवाह के संबंध में उपबंध करती है इस धारा के अनुसार कोई भी विवाह चाहे वह अधिनियम के लागू होने के पूर्व या बाद में संपन्न किया गया हो निम्नलिखित आधारों पर शून्य करनी है समझा जाएगा.
( 1) यही कि विवाह के समय और उसके बाद भी कार्रवाई प्रारंभ करने के समय तक प्रत्यय उत्तर दाता नपुंसकता विवाह विधि संशोधन अधिनियम 1976 के अनुसार सुनने कर्णी है विवाह के लिए नपुंसकता को आधार बनाया गया है किंतु उसे और भी सरल कर दिया गया है संशोधन के बाद यदि प्रत्युत्तर दाता की नपुंसकता के कारण विवाह को पहुंचा नहीं पति तो याची विवाह को सोने घोषित करा सकता है.
( 2) प्रत्युत्तर दाता का स्वस्थ मस्तिष्क का होना.
( 3) विवाह के लिए सहमति प्राप्त करने के लिए बल प्रयोग अथवा वैवाहिक संस्कार के संबंध में कपट का प्रयोग करके प्रार्थी की संपत्ति प्राप्त करना.
( 4) यह कि विवाह के समय प्रत्यय उत्तर दाता याची के अन्य किसी व्यक्ति में
( 5) क्रूरता(CRUELITY): - अभी त्याग की भांति कुरूपता की भी कोई सुव्यवस्थित व्याख्या देना कठिन है न्यायालयों ने बार-बार कहा है कि क्रूरता का कृत्य और आचरण इतने विभिन्न और अनेक हो सकते हैं कि उन्हें परिभाषा की सीमा परिधि में बांध पाना असंभव होगा दरअसल बनाम रसल के बाद में यह कहा गया है कि क्रूरता ऐसा आचरण है जिसके द्वारा जीवन अंग या स्वास्थ्य को शारीरिक या मानसिक कोर्ट पहुंचे या किसी को चोट पहुंचने की संभावना हो युवांस बनाम युवा उसके बाद में यह कहा गया है कि क्रूरता का अर्थ है जीवन और स्वास्थ्य के प्रति खतरा C1 9633 ऑल इंग्लैंड रिपोर्ट 991 तदनुसार कोई व्यवहार तथा क्रूड कहा जा सकता है जब वह छोड़ दो प्रकार के स्वास्थ्य को चोट पहुंचाए और यह चोट गंभीर हो भारतीय विधि में क्रूरता सरकार को यह सिद्ध करना होगा कि प्रति पक्षी ने उसके साथ ऐसी क्रूरता का व्यवहार या आचरण किया है कि जिसके कारण उसके मस्तिष्क में यह उचित पूर्ण आशंका घर कर गई है कि उसके साथ रहना हान कर या छत पर होगा.
हिंदू विधि के अंतर्गत कुरूपता के संप्रत्यय में सब भारत की क्रूरता शारीरिक और मानसिक दोनों ही आ जाती है शारीरिक रूप से आशय ऐसी हिंसक कृत्य है जो विधिक क्रूरता के लिए पर्याप्त हो तथा जो प्रत्येक दशा में पक्षकार की स्थिति के अनुसार बदलती रहती है जहां शारीरिक प्रताड़ना दी गई है तो अब जीवन स्वास्थ्य अथवा किसी अन्य खतरे की युक्तियुक्त आशंका हो वहां क्रूरता का निर्धारण किया जा सकता है क्रूरता के लिए आवश्यक नहीं कि वह सुरक्षा से की गई हो तथा उसके पीछे कोई कारण हो विलियम्स बनाम विलियम्स के बाद में अंग्रेजी न्यायालय ने कहा है कि कुर्ता के आचरण का कृत्य किस हेतु से किया गए गए हैं कभी उन कारणों से जो प्रेम यह जानना आवश्यक नहीं हो सकता है कि वह प्रारब्ध आवेश के कारण किए गए हैं कभी-कभी उन कारणों से जो प्रेम और स्नेह की अधिकता को इंगित करता है कभी-कभी आमद प्रेम और स्नेह उसका कारण होती है यदि कटता का वातावरण हो तो यह जानना आवश्यक नहीं है कि कविता का स्रोत क्या है इस मुकदमे में सुरक्षा की आवश्यकता को अस्वीकार करते हुए न्यायाधीश रोड ने कहा है कि उसामा सामान्य व्यक्ति के विरुद्ध डिग्री पास करना ही उचित होगा इसलिए नहीं कि जो छोटी उसने पहुंचाई है उसका ज्ञान उसे होना चाहिए बल्कि इसलिए कि उसका आचरण और प्रति उसकी आशा मान्यता को देखते हुए भी ऐसे थे कि उन्हें क्रूरता की संज्ञा देना ही होगा.
यह मत हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत आने वाले वादों में व्यक्त किया गया है भगवंत विरोध भगवंत के मामले में एक बार पति ने पत्नी के भाई को गला दबाकर मार डालने का प्रयोग किया तथा दूसरा मौके पर अपने छोटे पुत्र को उसी प्रकार मार डालने की कोशिश की न्यायालय के समस्या साबित किया गया कि पति ने यह कार्य पागलपन में किया है न्यायालय ने कहा कि इस मामले में पति का आचरण ऐसा है कि मैं सुरक्षा के अभाव में भी वह कुर्ता की संज्ञा में आता है.
किसी भी व्यक्ति के निम्नलिखित कृत्य क्रूरता की श्रेणी में आते हैं -
( 1) ऐसा करती जिससे वादी को वास्तविक अथवा आंशिक की सारी चोट पहुंचे
( 2) गाली देना तथा अपमानित करना
( 3) रती संभोग अतिशय रति संभोग भी क्रूरता की श्रेणी में आता है क्योंकि इससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है
( 4) उपेक्षा करना यदि विवाह के बच्चे कारों में से एक दूसरे की उपेक्षा करता है तो यह क्रूरता की श्रेणी में आएगा.
( 5) रति जन्य रोग का सन्दर्भ यदि विवाह के पत्क्षकारों में से एक भयंकर रति जन्य रोग से पीड़ित है तो यह दूसरे पक्ष के प्रति क्रुरता होगी क्योंकि वह सहवास से वंचित हो जाएगा यदि सहवास करेगा तो उसे भी बीमारी लगने का भय होगा.
( 6) रति संभोग से अस्वीकृति
( 7) अभी अति मद्यपान जिससे दूसरे पक्ष कार के स्वास्थ्य पर मद्य सेवन के दुष्कृत्यों का प्रभाव पड़ सकता है.
( 8) किसी नैतिक व्यक्ति को सहचार्य के लिए विवश करना
( 9) पत्नी पर अनैतिकता का निराधार आरोप लगाना जब पति अपनी पत्नी को अनैतिकता तथा व्यभिचार जैसे गलत दोषों से आरोपित करता है और इन दोषारोपण को जारी रखता है जिससे पत्नी दुखी रहती है तो निश्चित है कि इससे उसके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और यह बात पत्नी के न्यायिक पृथक्करण की याचिका के लिए पर्याप्त होगी.
( 10) बच्चों को गंभीर प्रताड़ना देना.
यदि पत्नी किसी भयानक आत्मा गंभीर बीमारी से पीड़ित है और पति उसके साथ संभोग करने से वंचित हो जाता है तो विधि की दृष्टि से यह पति के प्रति विधिक कुरूपता होगी.
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