Skip to main content

भारत में दहेज हत्या में क्या सजा का प्रावधान है ? विस्तार से चर्चा करो।

अवयस्क , संरक्षक तथा एक हिंदू अवयस्क के प्राकृतिक संरक्षक की परिभाषा बताइए. Define the terms minor guardians and natural Guardians

अवयस्क (minor): - हिंदू अवयस्क एवं संरक्षण अधिनियम 1955 की धारा 4 के अंतर्गत अवयस्क  की परिभाषा इस प्रकार दी गई है अवयस्क  का तात्पर्य उन व्यक्तियों से होगा जिन्होंने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है अतः इस अधिनियम के अंतर्गत वह सभी व्यक्ति जिन्होंने 18 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं की है अवयस्क  कहलाएंगे ।अधिनियम के द्वारा उल्लेखित नियम विवाह को छोड़कर अवयस्कता तथा संरक्षण से संबंधित सभी मामलों में अनुवर्तनीय होगा.

           अधिनियम की धारा 4 के अनुसार अवयस्कता 18 वर्ष की आयु में समाप्त हो जाएगी का नियम सभी दशाओं में लागू होगा.

संरक्षक (guardian): - संरक्षक से तात्पर्य है उन व्यक्तियों से जो दूसरों के शरीर या संपत्ति की या शरीर और संपत्ति दोनों की देखभाल का दायित्व रखते हैं हिंदू विधि अनुसार सिद्धांततः एवं मूलतः राजा  समस्त अवयस्कों का संरक्षक होता है किंतु वह स्वयं कोई कार्य  संपादित नहीं कर सकता अतः वह इसे अवयस्क के हित में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को सौंपता है जो प्रतिनिधि के रूप में इस कार्य को करते हैं उनके द्वारा कार्य सुचारू रूप से ना किए जाने पर राजा कभी भी हस्तक्षेप कर  सकता है हिंदू अवयस्कता और संरक्षण अधिनियम 1955 की धारा 4 के अंतर्गत संरक्षक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है -

        “संरक्षक से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अवयस्क के शरीर की या उसकी संपत्ति की या उसके शरीर एवं संपत्ति दोनों की देखभाल करता है .” इसमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं -

( 1 ) प्राकृतिक संरक्षक

( 2) अवयस्क के पिता और पिता के इच्छा पत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक

( 3) न्यायालय द्वारा घोषित या नियुक्त संरक्षक

( 4) कोर्ट आफ बाडर्स से संबंध किसी अधिनियम के द्वारा या अंतर्गत इस रूप में कार्य करने के लिए अधिकृत व्यक्ति.

        इस प्रकार हिंदू अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम 1956 की धारा 5 निम्नलिखित तीन प्रकार के संरक्षक कहलाती है -

( 1) प्राकृतिक संरक्षक

( 2) वसीयती संरक्षक और

( 3) न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक

( 1) प्राकृतिक संरक्षक (natural Guardian): - प्राकृतिक संरक्षक वह है जो अवयस्क से प्रकृति रूप से संबंधित होने के कारण संरक्षक बन जाता है दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्राकृतिक संरक्षक वह व्यक्ति होता है जो व्यक्ति प्रकृति की या अन्य किसी रूप से संबंधित होने के कारण उसके शरीर या संपत्ति या दोनों की देखभाल का दायित्व अपने ऊपर लेता है विधि के अंतर्गत केवल निम्नलिखित को प्राकृतिक संरक्षक माना गया है.

( 1) पिता

( 2) माता

( 3) पति

( 1) पिता पिता को अपने अवयस्क पुत्र के संरक्षक होने का सर्वप्रथम अधिकार प्राप्त है पिता के संरक्षक का कार्य करने में सक्षम और समर्थ रहने पर कोई पिता केवल इस आधार पर उसका जाति से बहिष्कार कर सकता है कोई भी उसने धर्म परिवर्तन कर लिया है अथवा उसने पुनर्विचार कर लिया है या वह अनैतिक जीवन बिता रहा है स्वतः  से अपने संरक्षकता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता वह अपने इस स्थान से तभी मुक्त किया जा सकता है जब यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया जाए कि उसका संरक्षक बना रहना अवयस्क के हित में नहीं है.

          पिता तथा माता के संरक्षक की पृष्ठभूमि में यह सवाल सवाल उठा कि क्या एक पिता जो सब भांति से पुत्र का पालन करने के योग्य है ।पुत्र का पालन पोषण नहीं करता उसका अभिरक्षण नहीं करता तथा नितांता अक्रियाशील है अपने अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक कहलाएगा जबकि इसके विपरीत माता उसकी देखभाल तथा लालन-पालन भली-भांति कर रही है उनकी प्राकृतिक संरक्षक होगी इसका उत्तर जीजाबाई बनाम पठान के वाद में न्यायाधीश वैद्यलिंगम ने दिया है कि मामले के विशेष तथ्यों को देखते हुए माता को अपने अवयस्कों का प्राकृतिक संरक्षक माना जा सकता है इस वाद के तथ्य इस प्रकार थे एक अवयस्क  के माता-पिता आपसी मनमुटाव के कारण 20 वर्ष से अलग रह रहे थे ।इस काल में माता ही  पुत्री की देखभाल तथा लालन पालन कर रही थी और वहीं पुत्री की संपत्ति की वस्तुतः  प्रबंधक थी । पुत्री रहती थी माता के पास पिता पुत्री की देखभाल से बिल्कुल उदासीन था न्यायालय ने निर्णय में कहा कि ऐसी स्थिति में प्राकृतिक संरक्षण की समस्त शक्तियां और अधिकारों का प्रयोग माता प्राकृतिक संरक्षण की तरह कर सकती है.

           श्रीमती मंजू तिवारी बनाम डॉ राजेंद्र तिवारी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय किया कि साधारणतया 5 वर्ष की कन्या का संरक्षक उसकी माता होगी इस प्रकार 5 वर्ष तक संतान अपनी माता की अभिरक्षा में रहेगी यदि माता के साथ रहना उसके हित में ना हो.

          मद्रास उच्च न्यायालय ने एन पलानी स्वामी बनाम ए पलानी स्वामी के वाद में यह संप्रेषित किया कि पिता का नैसर्गिक  संरक्षक का अधिकार पितामह एवं नाना से कहीं अधिक श्रेष्ठकर हैं। माता-पिता के अभाव में हिंदू पाठ्य ग्रंथों में अनेक संरक्षक ओं की सूची क्रम से दी गई है जैसे जेष्ठ भाई ज्येष्ठ चचेरा भाई व्यक्तिगत संबंधी इन सब के अभाव में मातृपक्ष के संबंधी किंतु इन सब संबंधियों के संरक्षकता संबंधी अधिकार माता पिता की तरह असीम नहीं थे क्योंकि इस कोटि में समस्त संरक्षकों को न्यायालय से अनुमति लेनी पड़ती थी.

        डी. राजैयाट बनाम धनपाल के प्रकरण में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह विनिश्चय किया है कि हिंदू विधि का यह नियम है कि पिता के अतिरिक्त कोई नहीं और उसके अतिरिक्त ना रहने पर माता एक अवयस्क  के हिंदू पुत्री के ऊपर संरक्षकता  और अभिरक्षा का पूर्ण अधिकार रखती है हिंदू विधि सर्वप्रथम पिता को अपनी अवयस्क पुत्री के विधिक संरक्षक तथा अभिरक्षक के रूप में स्वीकृति देती है जबकि वह जीवित है पिता के ना होने पर माता प्रकट होती है और केवल ऐसी आकस्मिकता की अवस्था में ही उसे ऐसी संरक्षकता  तथा अभिरक्षा ग्रहण करनी चाहिए.

( 2) माता अवयस्कता की संरक्षकता के लिए पिता के पश्चात माता के स्थान हिंदू अवयस्कता की संरक्षकता अधिनियम की धारा 6 (क)के अनुसार सामान्यतः  5 वर्ष तक की आयु के अवयस्कता की अभिरक्षा माता में निहित रहती है माता अपने अवयस्क  संतान की संरक्षक पिता के ना रहने पर अथवा  उसके अक्षम या  असमर्थ रहने पर ही हो सकती है अवैध संतानों की संरक्षकता  पिता की अपेक्षा माता में रहती है किंतु यदि न्यायालय ऐसे अवयस्क  पुत्रों के हित की दृष्टि से यह उचित समझता है कि वह माता की संरक्षकता में ना रखें  जाए तो उस दशा में माता के संरक्षकता से हटा लिए जाएंगे माता का अवयस्क संतान का संरक्षक होने के अधिकार पिता की ही भांति है उसका पुनर्विवाह अथवा धर्म परिवर्तन हो जाना स्वतः से ही उसे संरक्षक के अधिकार से च्युत नहीं कर सकता किंतु यदि विधवा माता ने किसी अन्य धर्मावलंबी से विवाह कर लिया है तो वह अपने हिंदू पति संतानों की संरक्षक नहीं रह सकती क्योंकि वहां वह हिंदू धर्म की परंपरा के अनुसार उनका पालन लाल शक्ति है.

       सौतेले माता पिता ना किसी प्राकृतिक  संरक्षक है और ना ही व अन्य किसी भाति से संरक्षक हो सकते हैं जब तक कि न्यायालय उन्हें विधि संरक्षक ना नियुक्त कर दे उस स्थिति में वे न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक रह जाएंगे.

( 3) पति पति अपनी अवयस्क  की पत्नी के शरीर तथा संपत्ति का संरक्षक होता है विवाह के पश्चात पत्नी की संरक्षकता चाहे वह कितनी ही आयु की क्यों ना हो माता पिता के पास से हटकर पति के पास चली जाती है।अवयस्क पति संरक्षकता  विधि के अंतर्गत पत्नी का प्राकृतिक संरक्षक है परंतु उसकी संरक्षकता  धारा 13 के अंतर्गत पत्नी के कल्याण के अधिनस्थ है। जहां अवयस्क  पत्नी के पति की मृत्यु हो जाए वहां पति के परिवार वालों को पत्नी के पिता के परिवार के संबंधियों के समक्ष प्राथमिकता मिलती है किंतु आवेश के विधान पुत्री के हितों को ध्यान में रखते हुए पिता को उस विधवा पुत्री का संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है.

          अधिनियम के अंतर्गत प्राकृतिक संरक्षक हिंदू अवयस्कता  तथा संरक्षकता अधिनियम धारा 1956 की धारा 6 के अंतर्गत संरक्षकों  की सूची दी गई है जिन्हें अवयस्क की संपत्ति तथा शरीर के संबंध में प्राकृतिक संरक्षक माना जाता है ।धारा 6 उपस्थित करती है कि हिंदू अवयस्क  के शरीर के बारे में और अविभक्त परिवार की संपत्ति में उसके अविभक्त हित से छोड़कर उसकी संपत्ति के बारे में निम्नलिखित प्राकृतिक संरक्षक हैं.

(  क ) किसी लड़के या अविवाहित लड़की की दशा में पिता और उसके पश्चात माता परंतु जिस अवयस्क में 5 वर्ष की आयु पूरी ना कर ली हो उसकी अभिरक्षा कानूनी तौर पर माता के हाथ में होगी.

(ख) अधर्मज लड़के या अधर्मज अविवाहित लड़की की दशा में माता और उसके पश्चात पिता तथा

(  ग ) विवाहित लड़की की दशा में पति 

परंतु कोई भी व्यक्ति यदि -

(  a ) वह हिंदू ना रह गया है या

(ख) वह वानप्रस्थ या पति सन्यासी होकर संसार को पूर्णता और अंतिम रूप से त्याग चुका है.

     तो इस धारा के अंतर्गत अवयस्क  के प्राकृतिक संरक्षक के रूप में कार्य करने का हकदार ना होगा.

स्पष्टीकरण इस धारा में पिता और माता बच्चों के अंतर्गत सौतेले पिता और सौतेली माता नहीं आते.

सोमादेई बनाम भीमा तथा अन्य के वाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि आवेश का पिता उसका स्वाभाविक संरक्षक है अवयस्क जो 5 वर्ष से अधिक उम्र का रहा है और माता के साथ रहा है पिता की संरक्षक ता में माना जाएगा उसकी माता अनन्य मित्र के रूप में प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती केवल उसके पिता को ही उसके विरुद्ध किसी विवाद में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार संरक्षण का प्रथम अधिकार पिता को दिया गया है.

            जब पिता जीवित रहता है माता अवयस्क  की प्राकृतिक संरक्षिका नहीं हो सकती है और यदि पिता संरक्षक होने से अस्वीकार करता है या तो प्राकृतिक संरक्षक के रूप में दायित्वों  के निर्वाह के में असावधानी करता है तब उस दशा में माता आवेश के संरक्षक होने की शक्तियों को प्राप्त करने के लिए विधिक कार्यवाहियां अपना सकती है.

        इस बात का समर्थन केरल उच्च न्यायालय ने पीटी चाचू चेत्तीदार बनाम करियत कुन्नुम्मल कानारन के वाद में किया न्यायालय के अनुसार अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक उसका पिता होगा यदि वह जीवित है यदि पिता निर्योग्य हो गया है अथवा मर चुका है तभी माता प्राकृतिक संरक्षकता का अधिकार प्राप्त करती है पिता के जीवन काल में यदि वह किसी प्रकार की निर्योग्यता का शिकार नहीं है तो माता को पिता के अधिकार में हस्तक्षेप करने की क्षमता नहीं होती पिता के जीवन काल में अवयस्क की संपत्ति का माता द्वारा अन्य संक्रामित किया जाना अनाधिकृत एवं शून्य होता है.

Comments

Popular posts from this blog

असामी कौन है ?असामी के क्या अधिकार है और दायित्व who is Asami ?discuss the right and liabilities of Assami

अधिनियम की नवीन व्यवस्था के अनुसार आसामी तीसरे प्रकार की भूधृति है। जोतदारो की यह तुच्छ किस्म है।आसामी का भूमि पर अधिकार वंशानुगत   होता है ।उसका हक ना तो स्थाई है और ना संकृम्य ।निम्नलिखित  व्यक्ति अधिनियम के अंतर्गत आसामी हो गए (1)सीर या खुदकाश्त भूमि का गुजारेदार  (2)ठेकेदार  की निजी जोत मे सीर या खुदकाश्त  भूमि  (3) जमींदार  की बाग भूमि का गैरदखीलकार काश्तकार  (4)बाग भूमि का का शिकमी कास्तकार  (5)काशतकार भोग बंधकी  (6) पृत्येक व्यक्ति इस अधिनियम के उपबंध के अनुसार भूमिधर या सीरदार के द्वारा जोत में शामिल भूमि के ठेकेदार के रूप में ग्रहण किया जाएगा।           वास्तव में राज्य में सबसे कम भूमि आसामी जोतदार के पास है उनकी संख्या भी नगण्य है आसामी या तो वे लोग हैं जिनका दाखिला द्वारा उस भूमि पर किया गया है जिस पर असंक्रम्य अधिकार वाले भूमिधरी अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते हैं अथवा वे लोग हैं जिन्हें अधिनियम के अनुसार भूमिधर ने अपनी जोत गत भूमि लगान पर उठा दिए इस प्रकार कोई व्यक्ति या तो अक्षम भूमिधर का आसामी होता ह...

पार्षद अंतर नियम से आशय एवं परिभाषा( meaning and definition of article of association)

कंपनी के नियमन के लिए दूसरा आवश्यक दस्तावेज( document) इसके पार्षद अंतर नियम( article of association) होते हैं. कंपनी के आंतरिक प्रबंध के लिए बनाई गई नियमावली को ही अंतर नियम( articles of association) कहा जाता है. यह नियम कंपनी तथा उसके साथियों दोनों के लिए ही बंधन कारी होते हैं. कंपनी की संपूर्ण प्रबंध व्यवस्था उसके अंतर नियम के अनुसार होती है. दूसरे शब्दों में अंतर नियमों में उल्लेख रहता है कि कंपनी कौन-कौन से कार्य किस प्रकार किए जाएंगे तथा उसके विभिन्न पदाधिकारियों या प्रबंधकों के क्या अधिकार होंगे?          कंपनी अधिनियम 2013 की धारा2(5) के अनुसार पार्षद अंतर नियम( article of association) का आशय किसी कंपनी की ऐसी नियमावली से है कि पुरानी कंपनी विधियां मूल रूप से बनाई गई हो अथवा संशोधित की गई हो.              लार्ड केयन्स(Lord Cairns) के अनुसार अंतर नियम पार्षद सीमा नियम के अधीन कार्य करते हैं और वे सीमा नियम को चार्टर के रूप में स्वीकार करते हैं. वे उन नीतियों तथा स्वरूपों को स्पष्ट करते हैं जिनके अनुसार कंपनी...

कंपनी के संगम ज्ञापन से क्या आशय है? What is memorandum of association? What are the contents of the memorandum of association? When memorandum can be modified. Explain fully.

संगम ज्ञापन से आशय  meaning of memorandum of association  संगम ज्ञापन को सीमा नियम भी कहा जाता है यह कंपनी का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। हम कंपनी के नींव  का पत्थर भी कह सकते हैं। यही वह दस्तावेज है जिस पर संपूर्ण कंपनी का ढांचा टिका रहता है। यह कह दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह कंपनी की संपूर्ण जानकारी देने वाला एक दर्पण है।           संगम  ज्ञापन में कंपनी का नाम, उसका रजिस्ट्री कृत कार्यालय, उसके उद्देश्य, उनमें  विनियोजित पूंजी, कम्पनी  की शक्तियाँ  आदि का उल्लेख समाविष्ट रहता है।         पामर ने ज्ञापन को ही कंपनी का संगम ज्ञापन कहा है। उसके अनुसार संगम ज्ञापन प्रस्तावित कंपनी के संदर्भ में बहुत ही महत्वपूर्ण अभिलेख है। काटमेन बनाम बाथम,1918 ए.सी.514  लार्डपार्कर  के मामले में लार्डपार्कर द्वारा यह कहा गया है कि "संगम ज्ञापन का मुख्य उद्देश्य अंश धारियों, ऋणदाताओं तथा कंपनी से संव्यवहार करने वाले अन्य व्यक्तियों को कंपनी के उद्देश्य और इसके कार्य क्षेत्र की परिधि के संबंध में अवग...