कंपनी को परिभाषित कीजिए? किसी निगमित कंपनी की प्रमुख विशेषताएं बताइए. Define company give the main characteristic of incorporated company
कंपनी की परिभाषा (definition of company): - lord लिंडले के अनुसार कंपनी से आशय अनेक व्यक्तियों के ऐसे संघ से है जिसकी संयुक्त पूंजी में वे अपना धन या कोई अन्य संपत्ति लगाते हैं एवं किसी सामान्य उद्देश्य के लिए उसका उपयोग करते हैं, इस प्रकार एकत्रित की गई पूंजी धन से संबोधित की जाती है और यही कंपनी की पूंजी होती है. वो व्यक्ति जो इस पूंजी में अंशदान करते हैं कंपनी के सदस्य होते हैं. पूंजी का यह अनुपातिक भाग जिसका प्रत्येक सदस्य अधिकारी होता है उसका अंश कहलाता है.
हैने के शब्दों में ज्वाइंट स्टॉक कंपनी लाभ अर्जित करने के उद्देश्य निर्मित ऐच्छिक संस्था है जिसकी पूंजी अन्तरणीय अंशों में विभक्त होती है तथा जिसके स्वामित्व के लिए सदस्यता आवश्यक है.
निगमित कम्पनी की प्रमुख विशेषताएं (Main characteristics of a Incorporated Company)
किसी निगमित कम्पनी की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है -
( 1) विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति: - कंपनी की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उसका विधिक अस्तित्व है. विधिक अस्तित्व प्राप्त करने के लिए कंपनी का निगमन या पंजीयन कंपनी अधिनियम के अंतर्गत होना चाहिए. इस प्रकार कंपनी को अधिनियम के अधीन निगमन द्वारा विधिक अस्तित्व प्रदान किया जाता है और कंपनी एक कृत्रिम विधिक व्यक्ति (artificial legal person) हो जाती है. कंपनी को एक कृत्रिम व्यक्ति कहा गया है क्योंकि व्यापार के लिए जितने अधिकार मनुष्य प्रयोग कर सकता है और जितने उत्तरदायित्व मनुष्य पर होते हैं, उतने ही अधिकार और उत्तरदायित्व कंपनी के भी होते हैं. यह अपने नाम से किसी संपत्ति के स्वामी हो सकती है, संपत्ति का क्रय विक्रय कर सकती है, दूसरे के साथ अनुबंध कर सकती है, व्यक्तियों पर वाद कर सकती है तथा अन्य व्यक्ति इस पर वाद ला सकते हैं, धन उधार ले सकती है इसके अंशों का अंतरण किया जा सकता है इत्यादि.
(2)पृथक वैधानिक अस्तित्व : - किसी निगमित कंपनी का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि निगमित होने के पश्चात उसे स्वतंत्र वैधानिक अस्तित्व प्राप्त हो जाता है जो उन सदस्यों से भिन्न होता है जिन्होंने उस कंपनी की स्थापना की है. कंपनी की दृष्टि से कंपनी को वैधानिक व्यक्तितत्व प्राप्त होने के परिणामस्वरूप वह स्वयं के नाम से संपत्ति का क्रय विक्रय संविदा अथवा अन्य व्यवहार स्वतंत्र रूप से कर सकती है. इसी प्रकार में अपने नाम से न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकती है अथवा उसके विरुद्ध वाद प्रस्तुत किया जा सकता है. कंपनी अपने सभी व्यवहारों के लिए सामान्य व्यक्ति की तरह स्वतंत्र रूप से उत्तरदाई होती है. इसी कारण इसे कृत्रिम व्यक्ति भी कहा गया है. निगमित कंपनी को पृथक वैधानिक अस्तित्व प्राप्त होने पर एक लाभ यह भी है कि अंश धारी कंपनी के व्यवहारों के प्रति व्यक्तिगत रूप से उत्तरदाई नहीं होते हैं. किसी अंश धारी या सदस्य की मृत्यु या उसके दिवालिया हो जाने पर भी कंपनी का अस्तित्व यथावत बना रहता है तथा उसके कार्य में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पड़ती. कंपनी के पृथक वैधानिक अस्तित्व के सिद्धांत को सर्वप्रथम न्यायिक मान्यता इंग्लैंड के हाउस ऑफ लार्ड्स द्वारा सालोमन बनाम सालोमन एंड कंपनी लिमिटेड के वाद में 1897 में दी गई है. यह सिद्धांत भारत में इस वाद से पूर्व ही मान्य हो गया था. कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा निर्मित दी कंडोली टी कंपनी लिमिटेड का मामला इस विषय पर पहला वाद प्रतीत होता है
कुछ व्यक्तियों ने एक चाय का बगीचा एक कंपनी को बेचा. उन्होंने अंतरण पत्र पर स्टांप लगाने से छूट इसलिए मांगी कि वह स्वयं ही कंपनी के अंश धारक (shareholder) थे और अंतरण वास्तव में उन्हीं का होना था. इस तर्क को ठुकराते हुए न्यायालय ने कहा कि कंपनी एक भिन्न व्यक्ति थी और अंश धारको से बिल्कुल अलग और उसे संपत्ति देना वैसा अंतरण था जैसा कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को अंतरण (transfer) करता है.
( 2) सीमित दायित्व: - कंपनी विधि के अंतर्गत सीमित दायित्व के सिद्धांत को स्वीकार किया गया है. सीमित दायित्व का यह अर्थ है कि कंपनी के प्रत्येक अंश धारी का दायित्व सीमित होता है तथा उसकी सीमा का निर्धारण उसके अंश अथवा अशों से होता है. कंपनी की अपनी संपत्ति होती है जिसके स्वामी उस कंपनी के अंश धारी कदापि नहीं होते हैं. अंश धारी सिर्फ कंपनी को अपने अंश के मूल्य का भुगतान करने के लिए उत्तरदाई होते हैं. यदि किसी कंपनी के अंश धारियों ने अपने कुल अशों का भुगतान कर दिया हो तो उन अंश धारियों का उत्तरदायित्व भी समाप्त हो जाएगा. यह व्यवस्था साझेदारी नहीं होती है. साझेदारी में सभी साझेदारों का उत्तरदायित्व संयुक्त एवं सामूहिक होता है. यदि एक साझेदार दिवालिया हो जाएगा तो साझेदारी समाप्त हो जाएगी. इस प्रकार कंपनी में अंश धारी का दायित्व सीमित होता है.
( 4) शाश्वत उत्तराधिकार: - कंपनी की दूसरी विशेषता यह है कि यह चिरस्थाई होता है. इसका केवल अस्तित्व ही स्वतंत्र नहीं होता बल्कि प्रत्येक कंपनी का उत्तराधिकार शाश्वत चलने वाला होता है. कंपनी का जन्म विधि द्वारा होता है तथा कंपनी सदैव चलती रहती है. कंपनी के अंश धारियों की मृत्यु के बाद कंपनी का जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. कंपनी के जीवन को केवल विधि द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है. यदि किसी अंश धारी की मृत्यु हो जाती है तो अन्य संपत्तियों की तरह उसका अंत भी उत्तराधिकार में उसके उत्तराधिकार्यो को प्राप्त हो जाता है. कंपनी का अंश अंश धारी की संपत्ति होती है. अतः अंश का अंतरण भी हो सकता है.
( 5) ऋण प्राप्ति का अधिकार: - कंपनी को वित्तीय साधनों में वृद्धि करने के लिए ऋण पत्र जारी कर के ऋण प्राप्त करने का अधिकार है इसके अतिरिक्त व्यापारिक बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं से भी कंपनी ऋण प्राप्त कर सकती है.
( 6) कार्यक्षेत्र की सीमाएं: - एक कंपनी अपने पार्षद सीमा नियम तथा पार्षद अंतर नियमों से बाहर कार्य नहीं कर सकती है. इसका कार्यक्षेत्र कंपनी अधिनियम तथा इसके सीमा नियम व अंतर नियम द्वारा सीमित होता है.
( 7) लाभ के लिए एक ऐच्छिक संघ: - प्रत्येक कंपनी सामाजिक हित को ध्यान में रखते हुए लाभ कमाने के उद्देश्य बनाई जाती है. कंपनी के लाभों में प्रत्येक हित का भुगतान करने के पश्चात कंपनियां नियमों के अनुसार साधारण अंश धारियों में बांट दिया जाता है. कंपनी एक ऐच्छिक संघ है किसी को बलात् अंश धारी नहीं बनाया जा सकता है।
( 8) वाद योग्यता: - कंपनी को चूकिं वैधानिक व्यक्ति माना गया है अतः उसे वे सभी अधिकार प्राप्त है जो वैधानिक व्यक्ति को होते हैं. तदानुसार एक कंपनी उन कर्तव्यों से भी आबध्द होती है जिससे सामान्य व्यक्ति आबध्द है इसका अर्थ यह हुआ कि कंपनी अन्य व्यक्तियों पर व्यवहारवाद का मुकदमा दायर कर सकती है तथा कंपनी पर व्यवहारवाद का मुकदमा दायर हो सकता है.
( 9) आयकर से छूट: - किसी कंपनी द्वारा वितरित किए जाने वाले लाभांश पर आयकर नहीं लगता है अतः यह व्यवस्था का एक ऐसा विशेष लाभ है जो साझेदारी व्यवस्था में उपलब्ध नहीं है. इस प्रकार यदि कंपनी के अधिकार का उल्लंघन हुआ है तो कंपनी को मुकदमा चलाने का अधिकार है किसी अंश धारी द्वारा मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है परंतु यदि अंश धारी का अधिकार भी कंपनी अधिकार से आबध्द है तो अंश धारी अपने प्रभावित अधिकार हेतु वाद दायर कर सकता है इसी प्रकार यदि किसी अंश धारी का अधिकार भंग हुआ है तो कंपनी को मुकदमा चलाने का अधिकार नहीं होगा.
( 10) सार्वमुद्रा: - सार्व मुद्रा कंपनी के सामान्य अस्तित्व का प्रतीक है इसलिए कंपनी को बाध्य करने के लिए प्रत्येक प्रलेख पर सार्व मुद्रा का लगाना जरूरी है कंपनी द्वारा निर्मित किए हुए प्रपत्र व बिल आदि पर इसे लगाया जाता है जिस प्रपत्र पर इसे नहीं लगाया जाता है उसके लिए कंपनी उत्तरदाई नहीं है.
कंपनी का कोई शरीर नहीं होता इसलिए यह प्राकृतिक व्यक्ति की तरह हस्ताक्षर नहीं कर सकती है इसलिए कंपनी अधिनियम द्वारा कंपनी को सार्वमुद्रा रखने का अधिकार दिया गया है जो उसके हस्ताक्षर का कार्य करती है.
( 11) अंश हस्तांतरण: - साधारणतया कंपनी के अंश धारी अपने अंशों का हस्तांतरण करने का अधिकार रखते हैं अर्थात वे अपने अंशों का हस्तांतरण किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में कर सकते हैं.
( 12) अभियोग चलाने के अधिकार: - कंपनी अपने नाम से दूसरे पर अभियोग चलाने का अधिकार रखती है तथा इसी प्रकार अन्य व्यक्तियों को भी कंपनी पर अभियोग चलाने का अधिकार है.
( 13) पृथक संपत्ति: - यह निर्विवाद सत्य है कि कंपनी की संपत्ति इसके अंश धारियों की संपत्ति नहीं है अपितु कंपनी की अपनी ही संपत्ति है कंपनी अपने नाम से संपत्ति का क्रय विक्रय कर सकती है उसे अपने नाम से रख सकती है उसे बंधक रख सकती है एवं उसका उपयोग कर सकती है.
( 14) अंतर्नियम: - कम्पनी के मूल उद्देश्य पार्षद सीमा नियम में दिए गए हैं किंतु उन उद्देश्यों की पूर्ति तथा कार्य संचालन संबंधी नियम कंपनी के पार्षद अंतर्नियम में दिए होते हैं इन अंतर्नियमों की सीमा के भीतर ही संचालक मंडल कार्य करता है सामान्यतः कोई भी कंपनी अपने पार्षद सीमा नियम तथा अंतर्नियम एवं कंपनी अधिनियम के बाहर कार्य नहीं कर सकती है.
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