हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 ने उत्तराधिकारी के संबंध में एक क्रांतिकारी विचारधारा को जन्म दिया है. यद्यपि इससे पूर्व न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से पूर्व हिंदू विधि में परिवर्तन होते रहे हैं फिर भी हिंदू उत्तराधिकार की वर्तमान विधि को संहिताबध्द करने की आवश्यकता बनी ही रही. सन 1937 में हिंदू नारी की संपत्ति संबंधी अधिकार अधिनियम पारित हो जाने पर सरकार ने हिंदू उत्तराधिकार विधि में संशोधन करने के लिए राव कमेटी नियुक्त किए. राव कमेटी द्वारा स्वीकृत नीति के आधार पर अनेक अधिनियम पारित किए गए जिनमें से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 सबसे महत्वपूर्ण है. वास्तव में इस अधिनियम द्वारा हिंदुओं के उत्तराधिकार संबंधी विधि में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए गए यह महत्वपूर्ण परिवर्तन निम्नलिखित हैं -
( 1) मिताक्षरा और दायभाग शाखाएं दाय संबंधी नियमों की दृष्टि से समाप्त हो गई है अब समस्त देश के हिंदुओं के लिए दाय की एक रूप विधि है.
( 2) वर्ण के आधार पर अर्थात द्विज और शूद्र के आधार पर विधि के कतिपय उपबंधों में जो कठिनाई थी वह समाप्त हो गई हैं.
( 3) दक्षिण भारत में प्रचलित मातृप्रधान प्रणाली में दाय के नियमों के बारे में विभिन्न अधिनियम के उपबंध समाप्त हो गए हैं.
( 4)यह अधिनियम सभी हिंदू बौद्ध जैन व सिखों के लिए लागू होते हैं.
( 5) यह अधिनियम ऐसे व्यक्तियों की संपत्ति के लिए लागू नहीं होता है जिस पर विवाह के लिए विशेष विवाह अधिनियम 1954 के उपबंध लागू होते हैं.
( 6) यह अधिनियम मिताक्षरा सहभागीदार संपत्ति के लिए भी लागू नहीं होता यदि सह भागीदारी अनुसूची (1) मे उल्लिखित किसी स्त्री संबंधी अथवा ऐसी स्त्री संबंधी के माध्यम द्वारा दावे करने वाले पुरुष संबंधी को छोड़कर नहीं करता है.
( 7) हिंदू नारी की सीमित संपदा अब समाप्त हो गई है हिंदू नारी अब जो संपत्ति दाय या अन्य के रूप में प्राप्त करती है उसकी पूर्ण स्वामिनी है.
( 8) विभिन्न प्रकार की स्त्री धन और परिणाम स्वरूप उसके संबंध में उत्तराधिकारी संबंधी नियम समाप्त हो गए हैं.
( 9) हिंदू पुरुष की संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए एक रूप क्रम का उपबंध किया गया है.
( 10) हिंदू नारी की संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए एक रूप का उपबंध किया गया है.
( 11) अधिनियम द्वारा दिया गया उत्तराधिकार का क्रम पिंडदान सिद्धांत अथवा रक्त संबंध पर आधारित ना होकर स्नेह तथा सहानुभूति पर आधारित किया गया है अर्थात संपत्ति उन संबंधियों को प्राप्त होगी जिनके प्रति सामान्य मृतक का स्नेह और सहानुभूति रही है और यह जीवन काल में स्वयं भी उसको अपनी संपत्ति के प्राप्त होने की कामना रखे होगा.
( 12) यह अधिनियम स्त्री उत्तराधिकार तथा पुरुष उत्तराधिकार में कोई भेदभाव नहीं करेगा.
( 13) अधिनियम में दायभाग तथा मिताक्षरा शाखाओं के द्वारा विहित उत्तराधिकार के क्रम को समाप्त कर दिया है.
( 14) यह अधिनियम रोग दोष तथा अंग हीनता के कारण दाय प्राप्त करने से वर्जित नहीं करता है.
( 15) धर्म परिवर्तन किए हुए हिंदू का वंशज अपने संबंधियों से उत्तराधिकार प्राप्त करने के अयोग्य होता है.
( 16) अधिनियम के अंतर्गत विधवा ,अविवाहित स्त्री तथा पति द्वारा त्यागी हुई अथवा पृथक हुई स्त्री को अपने पिता के घर में रहने का अधिकार है.
( 17) किसी की हत्या करने वाले को उत्तराधिकार से वर्जित नहीं किया गया है.
( 18) हिंदू मिताक्षरा पद्धति का सदस्य इस अधिनियम के अंतर्गत अपना भाग वसीयत कर सकता है.
( 19) इस अधिनियम के अंतर्गत गर्भ में स्थित संतान को भी उत्तराधिकार का अधिकार प्रदान किया गया है.
( 20) इस अधिनियम के अंतर्गत जहां दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी निर्वसीयती संपत्ति के उत्तराधिकारी प्राप्त कर लेते हैं अपने अंश को व्यक्ति परक ना की पितृ परक रीति से सहअभोगी के रूप में प्राप्त करेंगे.
( 21) किसी संविदा अथवा करार के आधार पर (जो किसी देसी राजा और सरकार के बीच हुआ हो) अथवा किसी अधिनियम के अनुसार अकेले एक दायक के प्राप्त होने वाली संपत्ति को छोड़कर अन्य प्रकार की अविभाज्य संपत्ति भी समाप्त हो गई है दूसरे शब्दों में रूढिगत अविभाज्य संपदा प्राप्त हो गई है.
( 22) इस अधिनियम के अनुसार कोई भी सहदायिक की संपत्ति को अपने हक को वसीयत द्वारा हस्तांतरित कर सकता है.
( 23) अधिनियम की धारा 31 के अनुसार हिंदू दाय विधि अधिनियम 1929 तथा हिंदू स्त्री संपत्ति अधिनियम 1937 को निरस्त कर दिया गया है.
अधिनियम का क्षेत्र तथा विस्तार: - भारत के सभी हिंदुओं के लिए यह अधिनियम लागू किया गया है।भारत में रहने वाले हिंदुओं के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियम लागू होते हैं न्यायालय इस अधिनियम के क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सभी हिंदुओं के संबंध में इसके नियमों को लागू करेंगे.
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