हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में शून्य और शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न संतानों की वैधता के संबंध में क्या प्रावधान उत्पन्न किए गए हैं. What provision have been regarding legitimacy of children begotten of void and voidable marriages in Hindu Marriage Act 1955
शून्य और शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न संतानों की वैधता (legitimacy of children be gotten of void and voidable marriages): - विधि की प्रवृत्ति वैधता के पक्ष में होती है अर्थात विधि यथा सम्मत वैधता प्रदान करने की ओर उन्मुख होती है कि कारण यह है कि समाज में जारजा को बहुत बड़ा कलंक माना गया है इससे उत्पन्न संतान अधर्मज होती है तथा इसको भी सभी अधिकार प्राप्त नहीं होते जो संतान को होते हैं जारज संतान को बिना किसी दोष के कष्ट सहने पड़ते हैं इसलिए विधि के उप धारणा वैधता के संबंध में होती है अर्थात प्रत्येक व्यक्ति जब तक वह जारज निषिद्ध कर दिया जाए औरस माना जाता है विधि के इस सामान्य सिद्धांतों को ध्यान में रखकर धारा 16 के अंतर्गत शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न संतानों की औरसता के संबंध में प्रावधान और उपबंधित किए गए हैं।
(1) हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 (1) के अनुसार इस बात के होते हुए भी की विवाह धारा 11 के अधीन अकृत और शून्य है ऐसे विवाहों से उत्पन्न संतान वैद्य होगी यदि वह उस समय पैदा होती है जब विवाह वैध हुआ होता चाहे वह संतान विवाह विधियां (संशोधन) अधिनियम 1976 के लागू होने से पूर्व या बाद में उत्पन्न होती है और चाहे उस विवाह के संबंध में अकृतता कि डिक्री इस अधिनियम के अधीन मंजूर की गई हो या नहीं और चाहे वह विवाह अधिनियम के अधीन याचिका से भिन्न आधार पर शून्य अभिनिर्धारित किया गया है या नहीं.
इस धारा मे यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि चाहे उस विवाह के संबंध में अकृतता की डिक्री इस अधिनियम के अधीन अथवा अन्य प्रकार से मंजूर की गई हो या नहीं संतान वैद्य मानी जाती है.
उपधारा 2: - शून्यकरणीय विवाह की संतान की वैधता के संबंध में धारा 16 (2) में उपबंध किया गया है इसके अनुसार जहां धारा 12 के अधीन शून्यकरणीय विवाह के संबंध में अकृतता कि डिक्री मंजूर की जाती है वहां यदि कोई संतान डिक्री पारित किए जाने के पहले ही उत्पन्न हो जाती है या गर्भ में आ जाती है जो विवाह के पक्षकारों की वैध संतान उस समय हुई होती जब डिक्री की तारीख पर वह विवाह अकृत किए जाने की वजाये विघटित किया गया होता तो वह अकृतता कि डिक्री के होते हुए भी वैद्य मानी जाएगी.
शून्यकरणीय विवाह के संबंध में संतानों की वैधता का प्रश्न विवाह को अकृत घोषित किए जाने के पश्चात ही उठता है औरसता किसे कहते हैं यह अधिनियम में कहीं भी नहीं दिया गया है इसलिए इस संबंध में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 में दिया गया नियम लागू होगा जो इस प्रकार है.
विवाहित स्थिति के दौरान में जन्म होना और औरसता का निश्चयात्मक सबूत है यह तथ्य की किसी व्यक्ति का जन्म उसकी माता और किसी पुरुष के बीच एक मान्य विवाह के कायम रहते हुए उसके विघटन होने के उपरांत माता के विवाहित रहते हुए 280 दिनों के भीतर हुआ था इस बात का निश्चयात्मक सबूत होगा कि वह उस पुरुष का धर्मजपुत्र है जब तक कि यह दर्शित न किया जा सके कि पक्षकारों का परस्पर संपर्क ऐसे किसी समय नहीं हुआ जब उसका गर्भाधान किया जा सकता था.
संसद में उपयुक्त उपबंध कहता है कि विवाह काल तथा पति की मृत्यु के 280 दिनों के भीतर यदि माता इस बीच दूसरा विवाह नहीं करती पैदा हुई संतान वैद्य मानी जाएगी किंतु यदि यह साबित कर दिया जाए कि उस समय जब की संतान उसके गर्भ में आई होगी पति का पत्नी के पास अधिगमन नहीं था वह संतान वैद्य नहीं होगी.
धारा 16 की उप धारा (3) उपबंधित करता है की उपधारा (1) या उप धारा (2)कि किसी बात को यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह उस विवाह में अकृत और शून्य है या जिसमें धारा 12 के अंतर्गत अकृतता की आज्ञप्ति द्वारा कृत कर दिया जाता है उत्पन्न किसी संतान को अपने माता-पिता ने अन्य किसी और व्यक्ति की संपत्ति में कोई अधिकार किसी ऐसे मामले में प्रदान करती है जिसमें इस अधिनियम के पारित होने के सिवाय यह संतान अपने माता पिता की वैध संतान न होने के कारण वैद्य कोई अधिकार प्राप्त करने के अयोग्य हुई होगी होती.
इस प्रावधान का तात्पर्य यह है कि शून्य तथा शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न संतान केवल अपने माता पिता की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त करेगी किसी अन्य व्यक्ति की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त नहीं करेगी।
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