Skip to main content

क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

पुत्रों द्वारा पिता के ऋण को चुकाने के लिए पुनीत कर्तव्य और पिता द्वारा पूर्ववर्ती ऋणों को चुकाने के लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति नि:शेष करने की शक्ति में क्या संबंध है? What is the relationship between the Pious of obligation of son to pay fathers Dept and power of father to exhaust joint Hindu property for the payment of antecedents debts .

पिता के ऋणों  को चुकाने का पुत्र का पुनीत कर्तव्य है ।इस प्रक्रिया सिद्धांत की उत्पत्ति स्मृतियों से हुई है ।स्मृतिकारों ने लिखा है कि ऋण अदा ना करना भयंकर पाप है तथा ऋण चुकता ना करने के दुष्परिणाम होते इस सिद्धांत के अनुसार परलोक में अपने पिता की आत्मा को कष्ट से बचाने के लिए पुत्र का यह धर्म होता है कि वह पिता के ऋण को चुकता कर दे.

        इस प्रकार बृहस्पति ने कहा है कि यदि पिता अधिक समय तक जीवित नहीं है तो उसका ऋण पुत्रों द्वारा भुगतान करना चाहिए.

     मिताक्षरा विधि के अनुसार यह पुत्र का परम कर्तव्य है कि वह पिता के ऋण को चुकाये यदि ऋण परिवार की विधिक  आवश्यकता तथा संपत्ति के लाभ के लिए लिया गया है था परंतु यदि अवैध तथा अनैतिक उद्देश्य के लिए लिया गया था और ऋण के लिए जाने के समय पुत्र पिता से पृथक हो तो वह उस ऋण को भुगतान करने के लिए उत्तरदाई नहीं है.

        हिंदू धर्म शास्त्रों में तथा स्मृतियों में बारंबार इस बात पर बल दिया गया है कि ऋणी को ऋण का भुगतान करना चाहिए इसके भुगतान न करने से आत्मा दूषित होती है और परलोक में आत्मा को कष्ट होता है और पुत्र को पिता पितामह से संपत्ति प्राप्त होती है अतः पुत्र आदि पर उस सीमा तक ऐसे सभी नैतिक या व्यवहारिक ऋणों  को पूर्णतया भुगतान करने का दायित्व है ।नारद ने कहा है कि पिता के ऋणों को पुत्र को चुकता करना चाहिए नहीं तो पिता नर्क गामी होगा आचार्य बृहस्पति ने तो आगे बढ़कर यह भी कहा है कि जो व्यक्ति अपने ऋणों का भुगतान नहीं करता वह अपने अगले जन्म में ऋण दाता के घर में स्त्री दास अथवा सेवक के रूप में पहुंचेगा।पुत्रों को स्वार्थ के वशीभूत नहीं होना चाहिए उसका यह भरसक प्रयत्न होना चाहिए कि वह अपने पिता के ऋणों को चुका दे यह उसका पुनीत कर्तव्य है। पुत्र का ऐसा दायित्व पिता के जीवन काल में तथा मृत्यु के पश्चात भी होता है ।यह कर्त्तव्य पौत्र तथा प्रपौत्र का भी है ।उनके दायित्व में अंतर यह है कि पुत्र के पिता के समस्त ऋणों  को मूलधन और ब्याज दोनों को चुकता करना चाहिए।  पौत्र को पूरे मूलधन को ।हिंदू विधि में पुत्र और पौत्र का दायित्व व्यक्तिगत भी है। प्रपौत्र का मात्र उतना जितना उनकी संपत्ति में उसका भाग है न्यायालयों ने अपनी व्याख्या द्वारा हिंदू विधि में इन नियमों में परिवर्तन किए हैं अब पुत्र पौत्र और प्रपौत्र का दायित्व एक सा है और इसमें से भी किसी का भी व्यक्तिगत दायित्व नहीं है उसका उत्तरदायित्व उनके पास संयुक्त कुटुंब की संपत्ति तक सीमित है.

          ऋण दाता पिता के ऋण  की वसूली के लिए उसके जीवन काल में तथा मृत्यु के बाद भी समस्त संयुक्त परिवार के संपत्ति के विरुद्ध दावा दायर कर सकता है बशर्ते ऋण अनैतिकता द्वारा कलंकित नहीं है ।यदि ऋण अनैतिकता द्वारा कलंकित है तो पुत्र उसकी अदायगी के लिए उत्तरदाई नहीं होगा। पुनीत कर्तव्य का सिद्धांत संयुक्त परिवार की संपत्ति में के अभि व्यक्तित्व तक ही सीमित है पुत्र का कोई व्यक्तिगत दायित्व नहीं होता है।

ब्रजनारायण बनाम मगला प्रसाद बाद में पृवी काउंसिल ने यह मत प्रकट किया है कि पुत्रों का पिता के ऋणों को चुकता करने का दायित्व ऋण की संपत्ति तक होता है उनका यह दायित्व संयुक्त तथा पृथक दायित्व नहीं है यह दायित्व केवल पिता की मृत्यु के पश्चात नहीं वरन पिता की जीवित अवस्था में भी हो सकता है.

ए. आई. आर.1959 सुप्रीम कोर्ट के केस में यह निर्धारित किया गया कि पिता के विरुद्ध एक बार डिक्री पारित हो जाने के बाद पुत्रों को यह परम दायित्व हो जाता है कि वह ऋण की अदायगी में भाग लें यदि डिक्री पारित हो जाने के बाद संयुक्त परिवार में विभाजन हो जाता है तो पुत्रों का सह भागीदारी संपत्ति में अंश ऋण की अदायगी के लिए उत्तरदाई है.

सिद्धेश्वर बनाम भुवनेश्वर प्रसाद के निर्णय में न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया था कि मिताक्षरा पद्धति में किसी व्यक्ति की संतानों पर यह दायित्व होता है कि वह पिता के ऋण को अदा करें वह  अनैतिकता से आबद्ध नहीं है। पुत्र का यह दायित्व व्यक्तिगत नहीं है वस्तुतः दायित्व उसी सीमा तक होता है जिस मात्रा में संपत्ति दाय के रूप में प्राप्त की जाती है.

पन्नालाल बनाम नारायणी के निर्णय में यह प्रतिपादित किया गया कि 1 पुत्र विभाजन के बाद भी विभाजन के पूर्व के लिए पिता के ऋण की अदायगी के लिए उत्तरदाई है यदि ऋण अव्यवहारिक नहीं था तथा उसके संबंध में विभाजन की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी.

                   अभी हाल में निगफा  देसाई बनाम मदी बसपा के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया है कि पुत्र गणों पर पिता के ऋण को अदा करने का धार्मिक दायित्व है यह सिद्धांत इस अवधारणा पर आधारित है कि पिता द्वारा लिया गया ऋण व्यावहारिक था।यदि ऋण व्यवहारिक नहीं या तो यह सिद्धांत लागू नहीं होगा ।पुत्र गणों पर यह दायित्व पिता के जीवन काल तथा उसकी मृत्यु के उपरांत भी लागू होता है.

नान बच्चन बनाम सीताराम के बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि पवित्र कर्तव्य  के सिद्धांत द्वारा संयुक्त परिवार संपत्ति में पुत्रों के हित संयुक्त परिवार में अपने पिता के लिए उत्तरदाई हैं प्रतिबंध यह है कि वह किसी अवैध या अनैतिक उद्देश्य के लिए ना लिया गया हो संयुक्त परिवार संपत्ति में ऋण दाता पुत्रों के अधिकार स्वत्व  और हित को विधिक रुप में कुर्क कर सकता है और संपत्ति का विक्रय कर सकता है.

पुत्रों  के दायित्व का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है -

( 1) विभाजन के पूर्व

( 2) विभाजन के पश्चात

( 1) विभाजन के पूर्व  - यह दायित्व दो प्रकार का हो सकता है -

(a) परिवार के लिए पिता द्वारा संयुक्त परिवार के प्रबंध अथवा कर्ता के रूप में लिया गया ऋण

(b) पिता द्वारा व्यक्तिगत लिया गया ऋण

        पहले प्रकार के ऋण में पुत्र पौत्र तथा प्रपौत्र जिम्मेदार होते हैं और संयुक्त परिवार की संपत्ति में केवल पुत्र के हित की सीमा तक उत्तरदाई होते हैं.

       दूसरे प्रकार के दायित्व में सहभागीदार संपत्ति में केवल पुत्र के हित तक ही सीमित होता है तथा पूर्व संयुक्त परिवार की संपत्ति पर इस ऋण की अदायगी का दायित्व नहीं होता है.

( 2) विभाजन के पश्चात के ऋण: - इस प्रकार के ऋणों को अदा करने का दायित्व पुत्रों पर नहीं होता है परंतु केशव नंदन सहाय बनाम बिहार बैंक के वाद में पटना उच्च न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया है कि जहां पिता ने विभाजन के पूर्व कोई ऋण लिया था किंतु विभाजन के समय उसकी अदायगी के लिए कोई प्रावधान नहीं बनाया गया था वहां उसके पुत्र ऋण की अदायगी के लिए विभाजन के बाद भी उत्तरदाई हैं.

Comments

Popular posts from this blog

मेहर क्या होती है? यह कितने प्रकार की होती है. मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी को क्या अधिकार प्राप्त है?What is mercy? How many types are there? What are the rights of the wife if dowry is not paid?

मेहर ( Dowry ) - ' मेहर ' वह धनराशि है जो एक मुस्लिम पत्नी अपने पति से विवाह के प्रतिफलस्वरूप पाने की अधिकारिणी है । मुस्लिम समाज में मेहर की प्रथा इस्लाम पूर्व से चली आ रही है । इस्लाम पूर्व अरब - समाज में स्त्री - पुरुष के बीच कई प्रकार के यौन सम्बन्ध प्रचलित थे । ‘ बीना ढंग ' के विवाह में पुरुष - स्त्री के घर जाया करता था किन्तु उसे अपने घर नहीं लाता था । वह स्त्री उसको ' सदीक ' अर्थात् सखी ( Girl friend ) कही जाती थी और ऐसी स्त्री को पुरुष द्वारा जो उपहार दिया जाता था वह ' सदका ' कहा जाता था किन्तु ' बाल विवाह ' में यह उपहार पत्नी के माता - पिता को कन्या के वियोग में प्रतिकार के रूप में दिया जाता था तथा इसे ' मेहर ' कहते थे । वास्तव में मुस्लिम विवाह में मेहर वह धनराशि है जो पति - पत्नी को इसलिए देता है कि उसे पत्नी के शरीर के उपभोग का एकाधिकार प्राप्त हो जाये मेहर निःसन्देह पत्नी के शरीर का पति द्वारा अकेले उपभोग का प्रतिकूल स्वरूप समझा जाता है तथापि पत्नी के प्रति सम्मान का प्रतीक मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित पति के ऊपर यह एक दायित्व है

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद - पत्र में न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का नाम लिखना आवश्यक

अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि क्या होती है? विवेचना कीजिए.( what is the relation between National and international law?)

अंतर्राष्ट्रीय विधि को उचित प्रकार से समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि के संबंध को जानना अति आवश्यक है ।बहुधा यह कहा जाता है कि राज्य विधि राज्य के भीतर व्यक्तियों के आचरण को नियंत्रित करती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्र के संबंध को नियंत्रित करती है। आधुनिक युग में अंतरराष्ट्रीय विधि का यथेष्ट विकास हो जाने के कारण अब यह कहना उचित नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि केवल राज्यों के परस्पर संबंधों को नियंत्रित करती है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय विधि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के संबंधों को नियंत्रित करती है। यह न केवल राज्य वरन्  अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, व्यक्तियों तथा कुछ अन्य राज्य इकाइयों पर भी लागू होती है। राष्ट्रीय विधि तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों प्रणालियों के संबंध का प्रश्न आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि में और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि व्यक्तियों के मामले जो राष्ट्रीय न्यायालयों के सम्मुख आते हैं वे भी अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हो गए हैं तथा इनका वृहत्तर  भाग प्रत्यक्षतः व्यक्तियों के क्रियाकलापों से भी संबंधित हो गया है।