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क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

अव्यावहारिक ऋण (Avyavaharik debt), पूर्ववर्ती ऋण( Antecedent debt , दाम्दुपत का नियम (Rule of Damdupat short nots following

अव्यावहारिक ऋण  (Avyavaharik debt): - अव्यवहारिक ऋण  से हमारा अभिप्राय उससे है जो विधि विरुद्ध तथा अनैतिक कार्यों के लिए लिया जाता है मनु के अनुसार प्रतिभू होने से दिया जाने वाला वृथा दान (व्यंग्य विनोद में किसी को देने के लिए कहा गया )जुआ खेलने के लिए मधपान के लिए देय राजदंड और कर अथवा भाड़ा आदि का बकाया अदा करने का दायित्व पुत्र पर नहीं है.

         मिताक्षरा विधि के अनुसार यदि पिता ने जुआ खेलने मदिरा पीने अथवा नैतिक कार्य के लिए ऋण लिया हो तो उसे चुकाने के लिए पुत्र उत्तरदाई नहीं है.

            बृहस्पति का कथन है कि पुत्रों को अपने पिता के उन ऋणों को अदा  करने के लिए जो मंदिरा जुए में हारने के कारण प्रतिज्ञाओं के लिए जो बिना प्रतिफल के हों अथवा कायरता अथवा क्रोध की मन:स्थिति में की गई हो अथवा वह जमानतदार हो अथवा कोई अर्थदंड अथवा उनके किसी से इस भाग के लिए बाध्य नहीं किया गया जा सकता है.


           याज्ञवल्क्य  का कथन है कि यदि पिता की मृत्यु हो गई हो अथवा वह कहीं सुदूर चला गया है अथवा किसी असाध्य रोग में पड़ गया हो तो उसके पुत्र तथा पौत्र उसका ऋण अदा करेंगे परंतु मंदिरा के लिए कामुकता व क्रोध अथवा में आती अथवा अर्थदंड अथवा करके ना अदा किए गए भाग की तथा अन्य कार्य प्रतिभा हेतु लिए गए ऋण की अदायगी पुत्र ना करेगा.


         नारद का कथन है कि प्रतिभू पर बकाया रकम वधू के माता-पिता से प्राप्त शुल्क मंदिरा अथवा जुए के लिए लिया गया है तथा दंड की रकम के लिए ऋणकर्ता का पुत्र उत्तरदाई नहीं होगा.

          कौन सा ऋण  अव्यावहारिक है जिनको देने के लिए पुत्र उत्तरदाई नहीं है और कौन सा ऋण व्यावहारिक  है जिनको देने के लिए पुत्र  उत्तरदाई है इस संबंध में न्यायालयों द्वारा अनेक निर्णय दिये  गए हैं ।महत्वपूर्ण वाद हेमराज बनाम खेमचंद्र के वाद में  अव्यावहारिक ऋण के संबंध में पृवी काउंसिल के माननीय न्यायाधीशों ने यह निरूपित किया है कि -

     “हिंदू विधि  में अपने पिता के ऋण को ना अदा करने के निर्मित भविष्य में दण्ड से बचाने के लिए पुत्र का यह पवित्र दायित्व होता है कि वह अपने पिता के ऋण को अदा करें जैसा कि बोर्ड गिरधारीलाल बनाम कल्लूलाल के वाद में बताया है पुत्र का यह पवित्र दायित्व है कि वह अपने पिता के ऋण को अदा कर दे पैतृक संपत्ति जिसमें पुत्र का हित अपने पिता के दायद होने के  नाते जन्म से ही हो जाता है जिससे वह उसे अपने पिता के लिए उत्तरदाई बनाता है न्यायाधीशों के मत में उपयुक्त दायित्व अनर्ह नहीं है क्योंकि पिता के अव्यवहारिक ऋण  को चुकता करना आवश्यक नहीं है माननीय न्यायाधीश ने यह निर्देश दिया है कि आ व्यवहारिक ऋण वह है जिनका की समावेश अवैध अथवा अनैतिक ऋणों  में किया जा सके और इसलिए यदि ऋण इस प्रकार का हो तो पुत्र पर उसके अदा करने का कोई दायित्व नहीं होता है इसके विपरीत यदि यह वैधता तथा अनेकता से प्रभावित ना हो तो उसका दायित्व पुत्र पर होता है.

        जहाँ एक पिता का गबन के लिए अभियोजन किया गया उसने गबन की गई धनराशि की क्षतिपूर्ति के लिए संपत्ति बेच डाली और इस प्रकार कारावास से बचने के लिए बंबई उच्च न्यायालय ने यह विनिश्चय किया कि पुत्र का अंश उत्तरदाई नहीं है क्योंकि गबन हुआ था जिसके परिणाम स्वरूप संपत्ति का विक्रय हुआ था और संपत्ति के बेचने का परिणाम कारावास से बचना था यह निस्संदेह अव्यवहारिक है क्योंकि संपूर्ण संव्यवहार अनैतिकता से कलुषित है अथवा यह ऐसे मामले के लिए था जो सदाचार के विपरीत मामला था.

       निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए लिए गए ऋण को हम कानूनी या अवैध ऋण कह सकते हैं -

( 1) मंदिरा के लिए लिया गया ऋण

( 2) कामवासना  की तृप्ति  के लिए लिया गया ऋण

( 3) अर्थदंड का अवशिष्ट भाग

( 4) टालटैक्स जो की न चुकता किया गया हो

( 5) व्यर्थ उपहार तथा प्रतिफल रहित प्रतिज्ञाएं

( 6) व्यापारिक ऋण ( व्यापार संबंधी ऋण से तात्पर्य व्यापार के लिए लिया गया ऋण के लिए नहीं बल्कि सट्टेबाजी के ढंग से लेनदेन से है).

( 7)काम अथवा क्रोध में की गई प्रतिज्ञाएं

( 8) प्रतिभू होने के लिए देय धन

( 9) वे ऋण जो व्यापारिक ना हो

( 10) प्रतिभूत ऋण

       इस प्रकार आव्यावहारिक ऋण वे हैं जो अवैध तथा अवैधानिक है तथा उसके सिद्ध करने के भार की पिता द्वारा लिया गया ऋण अव्यावहारिक है पुत्र पर होता है.

( 2) पूर्ववर्ती ऋण( Antecedent debt ): - पूर्ववर्ती ऋण  का तात्पर्य उस ऋण से है जो तथ्य तथा समय दोनों की दृष्टि से पूर्ववर्ती हो अर्थात वह पिता द्वारा उसके निपटाने के लिए किए गए संपदा के अन्य संक्रमण से है (चाहे वह विक्रय द्वारा हो अथवा बंधक द्वारा अथवा अन्य प्रकार से) जो पूर्व का हो तथा स्वतंत्र उदाहरण के लिए बाद में भूमि बंधक रखने का वचन देता है तथा बाद में ऐसा करता भी है तो प्रनोट पर लिया हुआ ऋण पूर्ववर्ती नहीं होगा किंतु यदि पिता कोई ऋण लेता है और बाद में उसे चुकाने के लिए अविभाजित संपत्ति बंधक रखता है तो अथवा बेच  देता है और यदि ऋण अनैतिक नहीं है तो पिता द्वारा संपत्ति का बंधक रखना पुत्रों पर बाध्यकर होगा.

         पूर्ववर्ती  ऋण व्यवस्था एवं समय दोनों दृष्टिकोणों  से पूर्ववर्ती होता है उसको अदा करने के लिए जब अन्य संक्रमण ( चाहे वह विक्रय द्वारा हो अथवा बंधक अथवा अन्य प्रकार से) होता है तो इस प्रकार के अन्य संक्रमण से पूर्व कारण पूर्ववर्ती ऋण कहलाता है. उच्चतम न्यायालय ने प्रसाद तथा अन्य बनाम गोविंद स्वामी मुदालियर में यह मत व्यक्त किया है कि पूर्ववर्ती ऋण का अर्थ उस ऋण से हो जो घटनाक्रम में तथा समय में दृष्टिकोण से पूर्ववर्ती है अर्थात ऋण वस्तुतः एक स्वतंत्र संविदा हो और उस संव्यवहार का भाग" ब "हो जिसमें चुनौती दी गई हो.

        अत:पूर्ववर्ती ऋण  से तात्पर्य उस ऋण से है जो ना केवल काल की दृष्टि से ही पूर्ववर्ती है बल्कि तथ्य की दृष्टि से भी पूर्ववर्ती हो पहले वाला ऋण बाद वाले ऋण से पूर्णतया स्वतंत्र हो और दोनों लेनदेन के मामले में अलग-अलग हो।

( 3) दाम्दुपत का नियम (Rule of Damdupat  ): - दाम्दुपत का नियम हिंदू ऋण विधि की एक शाखा है इस नियम के अनुसार किसी भी समय ब्याज की रकम मूल से अधिक नहीं हो सकती यदि ऋण का कोई भाग अदा कर दिया जाता है तो इस नियम हेतु मूल रकम अदा की हुई रकम में घटाकर शेष रकम होगी यदि ऋण  कानूनी है तो इसकी वसूली के लिए कोई मियाद नहीं होती है इसके लिए कर्जदार अपने कर्ज के लिए हमेशा उत्तरदाई होता है और चाहे कितना ही समय क्यों ना बीत गया हो मुल्ला ने दाम्दुपत की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों में दी है -

       “ The rule of Damdupat is a branch of Hindu law of debts according to this rule the amount of interest recoverable at any one time cannot exceed the principal.”

      स्मृति कारों के अनुसार दाम्दुपत का नियम अप्रतिभूति तथा प्रतिभूति दोनों भाँति के ऋणों पर लागू होता है इस नियम के अंतर्गत किसी भी समय ब्याज के ( चाहे रोकड़ या अन्य रूप में) मूलधन से अधिक होने पर वसूल नहीं किया जा सकता है उदाहरण के लिए मोहन ,राम से ₹20 प्रति सैकड़ा का इधर से ₹6000 उधार लेता है ब्याज की राशि इकट्ठी हो जाती है और मोहन के ऊपर ब्याज ₹7000 हो जाता  राम ,मोहन पर दावा करता है कि अधिक से अधिक ₹12000 वसूल कर सकता है 6000 ऋण के तथा ₹6000 ब्याज के इनसे ज्यादा एक समय में वह वसूल नहीं कर सकेगा.

         वास्तव में दाम्दुपत का नियम न्याय साम्या  तथा अंतरण का नियम है.

        उच्चतम न्यायालय ने हुकमचंद बनाम फूलचंद के वाद में कहा है कि दाम्दुपत का नियम दो कारणों से विकसित हुआ है पहला ऋण कर्ता के लिए मूल्य और ब्याज को प्रेरणा की शीघ्रता शीघ्र अदा करने की प्रेरणा बनी रहे तथा दूसरा यह है कि ऋण दाता अपने ऋण की वसूली में सदैव जागरूक बना रहे और उचित समय के भीतर ही अपने ऋण को ब्याज सहित वसूल ले जिसे ब्याज अत्यधिक ना बढ़ने पाए जो कि उसे प्राप्त ना हो सके.

      व्यक्ति जिन पर यह नियम लागू होता है कोलकाता उच्च न्यायालय के अनुसार यह नियम वहां लागू होता है जहां संविदा करने वाले दोनों व्यक्ति हिंदू हो परंतु बंबई न्यायालय के अनुसार केवल मूल ऋणकर्ता का होना आवश्यक है.

          दाम्दुपत  का नियम मुंबई राज्य कोलकाता के शहर तथा संथाल परगना में लागू होता है निम्नलिखित व्वहारो पर यह नियम लागू होता है -

( 1) रक्षित का आरक्षित कर्ज पर

( 2) परंतु किसी कब्जा धारी बंधक पर यह नियम लागू नहीं होता यदि बंधकों पर बंधक संपत्ति के किराए तथा लाभ का लेख देने का दायित्व

( 3) दाम्दुपत का नियम बिक्री के निष्पादन की कार्यवाही पर लागू नहीं होता.


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