Skip to main content

क्या कोई व्यक्ति पहले से शादीशुदा हैं तो क्या वह दूसरी शादी धर्म बदल कर कर सकता है?If a person is already married, can he change his religion and marry again?

नारी संपदा से आप क्या समझते हैं? हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 ने इस संबंध में कौन से परिवर्तन किए हैं? What do you understand by women's Estate? What are the changes introduced in this regards by Hindu Succession Act 1956.

नारी संपदा (Woman Estate ): - नारी संपदा को स्थिर संपदा तथा सीमित संपदा के नाम से भी पुकारा जाता है यह वह संपत्ति है जिसे नारी किसी पुरुष या स्त्री से दाय में प्राप्त करती है अथवा विभाजन के समय प्राप्त करती है यह संपत्ति केवल उसे उसके जीवन काल में उपभोग के लिए प्राप्त होती है वह इसका अंतरण केवल कुछ ही निर्धारित परिस्थितियों में कर सकती है उसकी मृत्यु के पश्चात यह संपत्ति उसके अपने दायदो को ना मिलकर संपत्ति के दूसरे पूर्ण स्वामी को चली जाती है।

         नारी संपदा के विषय में मूल पाठकार कात्यायन एवं बृहस्पति थे। बृहस्पति के अनुसार पति की मृत्यु के बाद पारिवारिक पवित्रता की रक्षा करते हुए अर्थात  सदाचार करने वाली विधवा उसके अंश को प्राप्त करे। किंतु दान देने बंधक रखने अथवा विक्रय करने का अधिकार ना हो।

           कात्यायन के अनुसार पुत्रहीन सती अपने श्रेष्ठजनों के साथ निवास करती हुई विधवा अपने जीवन भर पति की  संपत्ति का संयम ढंग से उपयोग करे।उसके पश्चात पति के दायद लेंगे।

        बनारस मिथिला मद्रास बंगाल शाखाओं के अनुसार नारी द्वारा पुरुष या नारी से प्राप्त संपत्ति नारी संपदा होती है.

        बम्बई शाखा के अनुसार नारी उस परिवार में जिसमें वह ब्याह कर आई है पुरुष से जो संपत्ति प्राप्त करती है वह संपत्ति नारी संपदा कहलाती है विभाजन में नारी को प्राप्त संपत्ति भी नारी संपदा होती है.

           इस प्रकार नारी संपदा वह संपदा है जिसे नारी अपने पति या किसी नारी से दाय  में प्राप्त करती है जिसका उस पर सीमित स्वामित्व होता है तथा उसकी मृत्यु के बाद संपत्ति उसके दायदों को न्यायगत न  होकर संपत्ति के अंतिम स्वामी को न्याय गत होती है। प्रीवी काउंसिल ने यह जानकी अम्माल बनाम नारायण स्वामी में कहा है कि उसका संपत्ति संबंधी अधिकार सीमित स्वामी जैसा होता है उसकी हैसियत स्वामी की सी है फिर भी उस स्थिति में उसकी शक्तियां सीमित होती हैं किंतु उसके जीवन काल तक उत्तराधिकार में उसके अतिरिक्त और किसी व्यक्ति का नियत हक नहीं होता है वह निम्न  अवस्थाओं में संपत्ति हस्तांतरित कर सकती थी.

(1)विधिक आवश्यकता होने पर 

(2)सम्पदा प्रलाभ के लिये

(3)वाद के उत्तरभोग्यों की सम्पत्ति से

(4)धार्मिक अथवा दान के प्रयोजन के लिये

कमलादेवी बनाम बच्चूलाल गुप्ता के वाद मे यह मत व्यक्त  किया गया कि मृत पति की संपदा यदि उसकी विधवा के कब्जे में है तो वह धार्मिक कार्यों के लिए अन्य संक्रमण कर सकती है वह संपत्ति का कब्जा लेने के लिए किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध दावा कर सकती है.

परिवर्तन -: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 14 द्वारा समस्त देश में हिंदू स्त्रियों के लिए संपत्ति के संबंध में एक प्रकार के कानून की व्यवस्था कर दी गई है.

            कुछ परिस्थितियों को छोड़कर ऐसी संपत्ति धारण करने वाली स्त्री को पुरुष स्वामिनी बना दिया गया है तथा वह संपत्ति को इच्छा  अनुसार अन्वरित कर सकती है अब सीमित तथा पूर्ण स्वामिनी में कोई अंतर नहीं रह गया है.

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 14 (1) इस प्रकार है -

   “हिंदू पत्नी ने कब्जे में कोई भी संपत्ति चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व या पश्चात अर्जित की गई हो उसके द्वारा पूर्ण स्वामिनी के तौर पर ना कि सीमित स्वामिनी के तौर पर धारित की जाएगी.

    धारा 14 का प्रभाव भूतलसी है अर्थात उसको पूर्ण स्वामिनी बना दिया है चाहे स्त्री ने संपत्ति अधिनियम के पूर्व या पश्चात प्राप्त की हो.

      अब धारा 14 में स्त्री की समस्त संपत्ति के विषय में उत्तराधिकार का एक सामान्य नियम प्रदान किया है। पहले नारी संपदा स्त्री की मृत्यु के पश्चात पति के वारिसों को निगम्य होती थी ना कि स्त्री के वारिसों को अब हिंदू स्त्री के निर्वसीयत मरने पर वह चाहे भाग शाखा की हो या मिताक्षरा शाखा की उसकी संपत्ति न्याय गमन धारा 10 व 16 के अनुसार होगा संपत्ति के न्यागमन का क्रय तथा विक्रय धारा 16 के अंतर्गत होगा

Comments

Popular posts from this blog

मेहर क्या होती है? यह कितने प्रकार की होती है. मेहर का भुगतान न किये जाने पर पत्नी को क्या अधिकार प्राप्त है?What is mercy? How many types are there? What are the rights of the wife if dowry is not paid?

मेहर ( Dowry ) - ' मेहर ' वह धनराशि है जो एक मुस्लिम पत्नी अपने पति से विवाह के प्रतिफलस्वरूप पाने की अधिकारिणी है । मुस्लिम समाज में मेहर की प्रथा इस्लाम पूर्व से चली आ रही है । इस्लाम पूर्व अरब - समाज में स्त्री - पुरुष के बीच कई प्रकार के यौन सम्बन्ध प्रचलित थे । ‘ बीना ढंग ' के विवाह में पुरुष - स्त्री के घर जाया करता था किन्तु उसे अपने घर नहीं लाता था । वह स्त्री उसको ' सदीक ' अर्थात् सखी ( Girl friend ) कही जाती थी और ऐसी स्त्री को पुरुष द्वारा जो उपहार दिया जाता था वह ' सदका ' कहा जाता था किन्तु ' बाल विवाह ' में यह उपहार पत्नी के माता - पिता को कन्या के वियोग में प्रतिकार के रूप में दिया जाता था तथा इसे ' मेहर ' कहते थे । वास्तव में मुस्लिम विवाह में मेहर वह धनराशि है जो पति - पत्नी को इसलिए देता है कि उसे पत्नी के शरीर के उपभोग का एकाधिकार प्राप्त हो जाये मेहर निःसन्देह पत्नी के शरीर का पति द्वारा अकेले उपभोग का प्रतिकूल स्वरूप समझा जाता है तथापि पत्नी के प्रति सम्मान का प्रतीक मुस्लिम विधि द्वारा आरोपित पति के ऊपर यह एक दायित्व है

वाद -पत्र क्या होता है ? वाद पत्र कितने प्रकार के होते हैं ।(what do you understand by a plaint? Defines its essential elements .)

वाद -पत्र किसी दावे का बयान होता है जो वादी द्वारा लिखित रूप से संबंधित न्यायालय में पेश किया जाता है जिसमें वह अपने वाद कारण और समस्त आवश्यक बातों का विवरण देता है ।  यह वादी के दावे का ऐसा कथन होता है जिसके आधार पर वह न्यायालय से अनुतोष(Relief ) की माँग करता है ।   प्रत्येक वाद का प्रारम्भ वाद - पत्र के न्यायालय में दाखिल करने से होता है तथा यह वाद सर्वप्रथम अभिवचन ( Pleading ) होता है । वाद - पत्र के निम्नलिखित तीन मुख्य भाग होते हैं ,  भाग 1 -    वाद- पत्र का शीर्षक और पक्षों के नाम ( Heading and Names of th parties ) ;  भाग 2-      वाद - पत्र का शरीर ( Body of Plaint ) ;  भाग 3 –    दावा किया गया अनुतोष ( Relief Claimed ) ।  भाग 1 -  वाद - पत्र का शीर्षक और नाम ( Heading and Names of the Plaint ) वाद - पत्र का सबसे मुख्य भाग उसका शीर्षक होता है जिसके अन्तर्गत उस न्यायालय का नाम दिया जाता है जिसमें वह वाद दायर किया जाता है ; जैसे- " न्यायालय सिविल जज , (जिला) । " यह पहली लाइन में ही लिखा जाता है । वाद - पत्र में न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का नाम लिखना आवश्यक

अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि क्या होती है? विवेचना कीजिए.( what is the relation between National and international law?)

अंतर्राष्ट्रीय विधि को उचित प्रकार से समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि के संबंध को जानना अति आवश्यक है ।बहुधा यह कहा जाता है कि राज्य विधि राज्य के भीतर व्यक्तियों के आचरण को नियंत्रित करती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्र के संबंध को नियंत्रित करती है। आधुनिक युग में अंतरराष्ट्रीय विधि का यथेष्ट विकास हो जाने के कारण अब यह कहना उचित नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि केवल राज्यों के परस्पर संबंधों को नियंत्रित करती है। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय विधि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के संबंधों को नियंत्रित करती है। यह न केवल राज्य वरन्  अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, व्यक्तियों तथा कुछ अन्य राज्य इकाइयों पर भी लागू होती है। राष्ट्रीय विधि तथा अंतर्राष्ट्रीय विधि के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों प्रणालियों के संबंध का प्रश्न आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि में और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि व्यक्तियों के मामले जो राष्ट्रीय न्यायालयों के सम्मुख आते हैं वे भी अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हो गए हैं तथा इनका वृहत्तर  भाग प्रत्यक्षतः व्यक्तियों के क्रियाकलापों से भी संबंधित हो गया है।