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दलित व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार की अमानवीय घटना कारित करने वाले व्यक्तियों को सजा कैसे दिलायें ?

हिंदू विधि की शाखाएं: The various schools of Hindu law

हिंदू विधि की शाखाएं: - मूल रूप से हिंदू विधि की दो शाखाएं हैं प्रथम मिताक्षरा तथा दूसरी दायभागमिताक्षरा विज्ञानेश्वर द्वारा लिखित भाष्य है जो 11वीं शताब्दी में की गई याज्ञवल्क्य स्मृति की व्याख्या दायभाग किसी संहिता विशेष पर आधारित नहीं है वरन सभी सहिताओं का निबंध होने का दावा करता है दायभाग जीमूतवाहन की कृति है दायभाग के सिद्धांत बंगाल में प्रचलित है तथा मिताक्षरा के सिद्धांत भारत के अन्य भागों में समस्त भारत में  सबसे अधिक मान्य ग्रंथ है दायभाग बंगाल में सर्वोपरि माना जाता है मिताक्षरा शाखा का इतना सर्वोपरि प्रभाव है कि बंगाल और आसाम में जहां दायभाग कुछ विषयों पर कौन है वह मिताक्षरा शाखा ही मान्य है मिताक्षरा सभी स्मृतियों का सार प्रस्तुत करती है और दायभाग मूल रूप से विभाजन और उत्तरदायित्व पर एक निबंध है।

          डॉ.यू.सी.सरकार ने अपनी पुस्तक हिंदू ला में लिखा है कि मिताक्षरा ना केवल एक भाष्य है वरन् वह स्मृतियों का एक प्रकार का निबंध है जो 11वीं शताब्दी के अंत में या 12 वीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखा गया है यह जीमूतवाहन से लगभग 300 वर्ष पूर्व की रचना है जीमूत वाहन ने दाय भाग की रचना मिताक्षरा में प्रतिपादित उत्तराधिकार की निकटता के नियम के विरोध में की थी और उन्होंने इस नियम की परिमितता के संज्ञान में पारलौकिक प्रलाभ के आधार पर उत्तराधिकार का नियम प्रतिपादित किया था.

मिताक्षरा विधि की शाखा पांच उप शाखा में विभाजित हुई है -

( 1) बनारस शाखा

( 2) मिथिला शाखा

( 3)  द्रविड़ अथवा मद्रास शाखा

( 4) महाराष्ट्र अथवा मुंबई शाखा

( 5) पंजाब शाखा


( 1) बनारस शाखा: - इस शाखा को मिताक्षरा शाखा भी कहा जाता है इस शाखा के अंतर्गत उत्तर प्रदेश दक्षिण बिहार उडीसा का अधिक भाग तथा मध्यप्रदेश का कुछ भाग आता है इस शाखा के निम्नलिखित भाष्य को मान्यता प्रदान की जाती है -

(1)मिताक्षरा 

(2)मित्र मिश्र की वीर मित्रोदय

(3) दत्तक  मीमांसा

( 4) निर्णय सिंधु

( 5) वाद-विवाद तांडव

( 6) सुबोधिनी

( 7) बाल भट्टी


        वीर मित्रों दे वस्तुतः मिताक्षरा का अति निकट से अनुसरण करती है और इसमें दी गई बातों की व्याख्या करके और उसमें पाई गई कमियों को पूरा करके यह उसकी अनुपूरक के रूप में है.

( 2) मिथिला शाखा: - इस शाखा का प्रचलन उत्तर बिहार और त्रिपुरा में है इस शाखा के अंतर्गत मिताक्षरा शाखा को ही अपनाया गया है प्रीवी काउंसिल ने सुरेंद्र बनाम हरिप्रसाद के वाद में कहा था कि थोड़ी सी बातों को छोड़कर जहां मिथिला शाखा की विधि मिताक्षरा की विधि से भिन्न है वास्तव में मिथिला शाखा की विधि मिताक्षरा की विधि है.

शाखा में निम्नलिखित भाष्य मान्य है -

( 1) मिताक्षरा

( 2) चंद्रशेखर द्वारा लिखित विवाद रत्नाकर

( 3) वाचस्पति द्वारा लिखित चिंतामणि

( 4) स्मृति सार

( 5) मदन पारिजात

( 3) मुंबई अथवा महाराष्ट्र शाखा: - इस शाखा को मयूख शाखा भी कहा जाता है क्योंकि व्यवहार म्यूख इस शाखा का प्रमाणिक ग्रंथ है इस शाखा के अंतर्गत महाराष्ट्र सौराष्ट्र मध्य प्रदेश के कुछ भाग तथा आंध्रप्रदेश का कुछ भाग आता है इस शाखा में निम्नलिखित ग्रंथ है.

( 1) मिताक्षरा

( 2) नीलकंठ लिखित व्यवहार मयूख

( 3) वीर मित्रोदय

( 4) निर्णय सिंधु

( 5) पराशर माधव्य

( 6) विवाद तांडव

( 4) मद्रास अथवा द्रविड़  शाखा: - इस शाखा के अंतर्गत मद्रास प्रांत केरल प्रांत मैसूर प्रांत इत्यादि आते हैं शाखा में निम्नलिखित कृतियों को मान्यता दी जाती है -

( 1) मिताक्षरा

( 2) देवन्न भट्ट द्वारा लिखित स्मृति चंद्रिका

( 3) माधवाचार्य द्वारा लिखित पराशर माहावीय

(4)प्रताप रुद्रदेव द्वारा लिखित सरस्वती विलास 

(5)वीर मित्रोदय 

(6)व्यवहार  निर्णय 

(7)दत्तक चंद्रिका 

(8)केवल वयन्ती

(9)माधवी

(10)निर्णय सिंधु 

(11)नारद राज्य 

(12)विवाद ताण्डव

(5)  पंजाब शाखा : - इस शाखा के अंतर्गत पंजाब प्रांत राजस्थान और जम्मू तथा कश्मीर आते हैं वस्तुतः  इस शाखा में रूढियों का  प्राधान्य है इस शाखा में लिखित प्रमाण मान्य हैं

( 1) मिताक्षरा

( 2) वीर मित्रोदय

( 3) पंजाबी प्रथाएं

दायभाग: - यह शाखा समस्त पश्चिम बंगाल तथा आसाम में प्रचलित है इसे बंगाल शाखा भी कहते हैं इसका एक तीसरा नाम गौंडिय शाखा भी है क्योंकि इस भाग का प्राचीन नाम गौरव देव है इस  शाखा का सर्वोपरि प्रमाणित ग्रंथ जीमूतवाहन द्वारा रचित दायभाग है इसे अतिरिक्त रघुनंदन रचित दायित्व और श्री कृष्ण तर्काटकार द्वारा लिखित दायकर्म संग्रह भी प्रमाणित ग्रंथ हैं वस्तुत : वे दोनों अन्य भाग का ही अनुसरण  करते हैं और उसमे दी गई बातों की व्याख्या करते हैं दायभाग मे जो विषय वर्णित हैं उनमें बंगाल शाखा का सर्वोपरि प्रामाणिक ग्रंथ दायभाग   में है परंतु जिन बातों के संबंध में इसमें व्याख्या नहीं है वहां मिताक्षरा तथा वीर मित्रोदय को देखा जा सकता है मेन के अनुसार दायभाग 13वीं शताब्दी  मे लिखा गया है।


मिताक्षरा तथा दाएं भाग शाखाओं में प्रमुख भेद: - the main difference between mitakshara and dayabhaga school: -


मूल रूप से हिंदू विधि की दो शाखाएं हैं: - प्रथम मिताक्षरा तथा दूसरी दायभाग  इन दोनों पद्धतियों में पर्याप्त विभिन्नता है एक तो वे लोग जो मिताक्षरा का अनुगमन करते हैं तथा दूसरे वे लोग जो दायभाग का अनुगमन करते हैं.



मिताक्षरा: -

( 1) इसको कट्टर पंत कहा जाता है.

( 2) मिताक्षरा बंगाल को छोड़कर सारे भारतवर्ष में सर्वोच्च प्रमाण के रूप में मान्य है.

( 3) इसमें संपत्ति का अधिकार जन्म से होता है पुत्र पिता के साथ सह स्वामी होता है.

( 4) संपत्ति का अधिकार पिता को सीमित होता है.

( 5) लड़का पिता के विरुद्ध बंटवारे का दावा कर सकता है.

( 6) इसमें संयुक्त परिवार के सदस्य की मृत्यु होने पर उसका उत्तर जीवित से चला जाता है.

( 7) दाय का सिद्धांत है रक्त पर आधारित है.

( 8) मिताक्षरा एक परम्परानिष्ठ पद्धति है.

( 9) फैक्टम वैलेट के सिद्धांत को इसमें सीमित रूप से माना है.

( 10) मिताक्षरा एक टीका है.

दायभाग 


( 1) इसको प्रगतिशील तथा सुधारात्मक पंथ कहा गया है.

( 2)दायभाग  बंगाल में सर्वोच्च प्रमाण के रूप में मान्य है.

( 3) मृत्यु के बाद अधिकार उत्पन्न होता है.

( 4) पिता संपत्ति का पूर्ण स्वामी होता है अतः उसे संपत्ति हस्तांतरण का पूर्ण अधिकार है.

( 5) पिता के जीवन काल में लड़का बंटवारे का दावा नहीं कर सकता.

( 6) इसके मृतक का हिस्सा उत्तराधिकार के  वारिसों को मिलता है.

( 7) दाय पारलौकिक लाभ प्राप्त करने के सिद्धांत पर आधारित है अर्थात दाय वे ही लोग प्राप्त कर सकते है जो पिंड दान कर सकते हैं.

( 8) दाय संशोधित पद्धति है

( 9) फैक्टम वैलेट के सिद्धांत को दायभाग में पूर्णरूपेण माना गया है.

( 10) दायभाग समस्त संहिताओं का एक सार संग्रह  हैं.


               उपयुक्त बिंदुओं के अतिरिक्त मिताक्षरा और दायभाग के बीच का अन्य आधार संपिंण्ड शब्द  के अर्थ में अनेक मतभेदों से उत्पन्न है दायभाग  के अनुसार संपिंण्ड  का अर्थ वही पिण्ड और पिण्ड का अर्थ है रवीर का गोल जो एक हिंदू द्वारा अपने मृतक पूर्वजों के प्रति अंतिम संस्कार के रूप में दिया जाता है इस प्रकार संपिंण्ड  शब्द का यह अर्थ है कि वे जिन का कर्तव्य दूसरों को पिण्ड प्रादान करना है इसके विपरीत विज्ञानेश्वर  ने सपिण्ड संबंध की परिभाषा इस प्रकार की है कि यह एक ऐसा  संबंध है जो व्यक्तियों के बीच उत्पन्न होता है जो एक शरीर के द्वारा  संबंधित होते है.

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