समान नागरिक संहिता क्या होती है. इसको अगर भारत में लागू किया जाए तो इसके क्या-क्या प्रभाव हो सकते हैं? Define the Uniform Civil Code?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने देश में नागरिकों के लिए उत्तराधिकार और विरासत के लैंगिक एवं धार्मिक दृष्टि से तटस्थ आधार की मांग करने वाली एक जनहित याचिका (public Interest Litigation: PIL) पर केंद्र से उत्तर की मांग की है.
इस जनहित याचिका के बारे में:-
यह विगत 3 महीनों में समान नागरिक संहिता के तहत शामिल किए जाने वाले विभिन्न विषयों में से कुछ को समाहित करने वाले मुद्दों पर दायर चौथी जनहित याचिका है.
पूर्व में तीन जनहित याचिकाएं समान दत्तक ग्रहण कानूनों ,समान विवाह विच्छेद, भरण पोषण और गुजारा भत्ता कानूनों तथा विवाह के लिए एक समान अलैंगिक रूप से निरपेक्ष न्यूनतम आयु से संबंधित मुद्दों से संबंधित थी.
समान नागरिक संहिता के बारे में:-(ABOUT U.C.C)
समान नागरिक संहिता ऐसे एकल कानून को संदर्भित करती है जो भारत के सभी नागरिकों पर उनके व्यक्तिगत मामलों जैसे विवाह ,विवाह विच्छेद ,अभिरक्षा दत्तक ग्रहण और विरासत के संदर्भ में लागू होता है.
समान नागरिक संहिता का उद्देश्य वर्तमान में विभिन्न धार्मिक समुदायों के भीतर पारस्परिक संबंधों और संबंधित मामलों को सूचित करने वाले विभिन्न प्रकार केव्यक्तिगत कानूनों (personal laws) के तंत्र को प्रतिस्थापित करना है.
संविधान का अनुच्छेद 44 यह प्रावधान करता है कि राज्य संपूर्ण भारत के राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सूचित करने का प्रयास करेगा.
अनुच्छेद 44 राज्यों की नीति निर्देशक तत्वों में से एक है. जैसा कि अनुच्छेद 37 परिभाषित किया गया है कि यह तत्व न्याय परक (किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय) नहीं है परंतु इनमें निर्धारित किए गए सिद्धांत शासन के मूलभूत सिद्धांत है.
भारत में व्यक्तित्व कानूनों का विधान (governance of personal law in India) :-
भारत में वर्तमान में विभिन्न धार्मिक समुदाय व्यक्तित्व कानूनों के तंत्र द्वारा शासित किए जाते हैं यह कानून मुख्य रूप से निम्नलिखित क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हैं:
(A) विवाह और विवाह विच्छेद (तलाक)
(B) अभिरक्षा (custody) और संरक्षक तत्व (guardianship)
(C) दत्तक ग्रहण (गोद लेना) और भरण पोषण, तथा
(D) उत्तराधिकार और विरासत
हिंदू वैयक्तिक कानून चार अधिनियमो में संहिताबध्द है : हिंदू विवाह अधिनियम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम हिंदू अ प्राप्तवयता और संरक्षकत्व अधिनियम (hindu minority and guardianship act) एवं हिंदू दत्तक तथा भरण पोषण अधिनियम.
इन कानूनों में हिंदू शब्द के अंतर्गत सिख जैन और बौद्ध भी सम्मिलित किए गए हैं.
मुस्लिम वैयक्तिक कानून वास्तव, में संहिताबध्द नहीं है और यह उनके धार्मिक ग्रंथों पर आधारित है।
पूर्वोत्तर में 200 से अधिक जनजातियों के अपने विधिक तथागत कानून है संविधान नागालैंड, मेघालय और मिजोरम में स्थानीय रीति-रिवाजों के संरक्षण का प्रावधान करता है यहां तक कि संशोधित हिंदू धर्म भी संहिता करण के बावजूद प्रचलित प्रथाओं का संरक्षण करता है।
वर्तमान में गोवा समान नागरिक संहिता वाला भारत का एकमात्र राज्य है।
वर्ष 1567 की पुर्तगाली नागरिक संहिता( जो वर्ष 1961 में भारत द्वारा गोवा को विलय किए जाने के उपरांत भी कार्यान्वित है) गोवा में निवास करने वाले सभी व्यक्तियों पर लागू होती है भले ही उनका धार्मिक या अन्य जातीय समुदाय कुछ भी हो।
हालांकि पुर्तगाली संहिता पूर्णतया समान नागरिक संहिता नहीं है। इसमें कुछ प्रावधान धार्मिक आधारों पर किए गए हैं सबसे विवादित उपबंध यह है कि यदि पत्नी 25 वर्ष की आयु तक किसी भी बच्चे को या 30 वर्ष की आयु तक लड़के को जन्म देने में विफल रहती है तो हिंदू पुरुष दूसरा विवाह कर सकता है।
समान नागरिक संहिता के पक्ष में दिए जाने वाले तर्क: -
यह वर्तमान में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर निर्मित किए गए भिन्न-भिन्न कानूनों जैसे कि हिंदू कोड बिल शरीयत कानून और अन्य कानूनों को सरल करती है.
(A) विवाह समारोह विरासत उत्तराधिकार व दत्तक ग्रहण से संबंधित जटिल कानूनों को सरल करती है तथा उन्हें सभी के लिए एक जैसा बनाती है.
(B) इसके चलते समान सिविल कानून सभी नागरिकों पर लागू होगा भले ही उनका धर्म संप्रदाय कुछ भी हो.
(C) उच्चतर न्यायपालिका की कई न्यायिक घोषणाओं ने किसी न किसी रूप में समान नागरिक संहिता का पक्ष लिया है.
(D) संसद इन निवाई घोषणाओं को लागू करने के लिए कानून बना सकती है कुछ प्रमुख निर्णय इस प्रकार हैं -
( 1) मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम वाद 1985: - शीर्ष न्यायालय ने यह घोषणा की कि शाहबानो इद्दत की अवधि पूर्ण होने के पश्चात भी भरण पोषण प्राप्त करने की हकदार है.
( 2) सरला मुद्गल बनाम भारत संघ वाद 1995: - शीर्ष न्यायालय ने संसद द्वारा ऐसी समान नागरिक संहिता का निर्माण करने की आवश्यकता को दोहराया था जो विचारधाराओं के आधार पर उत्पन्न होने वाले विरोधाभास ओं का निराकरण कर राष्ट्रीय एकीकरण में सहायक सिद्ध हो सके.
लैंगिक आधार पर न्याय: - अधिकतर धार्मिक या प्रचलित कानून पुरुषों के पक्ष में झुकाव रखते हैं. इन कानूनों से ना केवल अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटी कृत जीवन स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करते हैं अपितु पितृसत्तात्मक उग्रवादी विचार को भी सुदृढ़ करते हैं इसलिए लैंगिक समानता लाने के लिए समान नागरिक संहिता समय की मांग है.
धर्म कानून प्रथक और वयक्तिथक मार्ग हैं:- S. R. बोम्मई बनाम भारत संघ वाद मैं उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि धर्म व्यक्तिगत विश्वास का मामला है और इसे धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों के साथ नहीं छोड़ा जा सकता है धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को केवल राज्य द्वारा कानून बनाकर ही विनियमित किया जा सकता है।
राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देती है विभिन्न धार्मिक समूहों के लिए प्रथक प्रथक कानून संप्रदायिकता को जन्म देते हैं।
व्यक्तिगत मामलों के विभिन्न पहलुओं को शासित करने वाला एकल धर्मनिरपेक्ष कानून एकता और राष्ट्रीय चेतना की भावना सृजित करेगा।
समान नागरिकता संहिता के विरुद्ध दिए जाने वाले तर्क:-
भारतीय कानून अधिकतर सिविल मामलों में एक समान संहिता का पालन करते हैं जैसे कि भारतीय अनुबंध अधिनियम सिविल प्रक्रिया संहिता माल विक्रय अधिनियम संपत्ति अंतरण अधिनियम साझेदारी अधिनियम साक्ष्य अधिनियम आदि।
राज्यों में सैकड़ों संशोधन किए हैं और इसलिए कुछ मामलों में इन धर्मनिरपेक्ष सिविल कानूनों के अंतर्गत भी विविधता विद्यमान है।
इसलिए एक समान नागरिक संहिता व्यवहार्य नहीं।
संसद को वैयक्तिक कानूनों का अनन्य अधिकारिता प्राप्त नहीं है
यदि संविधान निर्माताओं का आशय समान नागरिक संहिता का रहा होता तो उन्होंने इस विषय को संघ सूची में शामिल करके वैयक्तिक कानूनों के संबंध में संसद को अनन्य अधिकार क्षेत्र प्रदान किए होते हैं। परंतु वैयक्तिक कानूनों का उल्लेख समवर्ती सूची में किया गया।
धर्मनिरपेक्ष राज्य को वैयक्तिक कानून में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए
समान नागरिक संहिता को कई लोगों द्वारा अनुच्छेद 25 के अंतर्गत प्रदान किए गए गारंटी कृत मूल अधिकारों( व्यक्ति का धार्मिक स्वतंत्रता का मूल अधिकार) अनुच्छेद26(b)( धर्म के मामले में प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को अपने मामलों के प्रबंधन का अधिकार) और अनुच्छेद29 (विशिष्ट संस्कृति के संरक्षण का अधिकार) के विपरीत माना जाता है.
अनुच्छेद 25 “लोक व्यवस्था स्वास्थ्य व नैतिकता” और मूल अधिकारों से संबंधित अन्य प्रावधानों के अधीन है परंतु अनुच्छेद26 के तहत किसी समूह की स्वतंत्रता को अन्य मूल अधिकारों के अधीन नहीं किया गया है.
देश की विविधता के विरुद्ध: - इसमें संशय रहा है कि क्या भारत जैसे लोकतांत्रिक और विविधता पूर्ण देश में कभी वयक्तिक कानूनों की एकरूपता हो सकती है.
राष्ट्रीय सहमति का अभाव : - समान नागरिक संहिता अभी भी राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दा है अभी भी ऐसे कई संगठन है जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों का पक्ष समर्थन करते हैं और साथ ही कई धार्मिक नेता समान नागरिक संहिता का विरोध करते हैं.
आगे की राह:
ओम शां ति का आभाव: समान नागरिक संहिता लागू नहीं की जा सकती है क्योंकि इसके लिए व्यापक सहमति की आवश्यकता है यहां तक कि संविधान सभा की बहस में भी यह उल्लेख किया गया है कि किसी भी समुदाय के प्रबल विरोध की उपेक्षा करते हुए समान नागरिक संहिता लागू करना विवेकपूर्ण होगा समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 44 के महत्व के बारे में प्रभावी सूचना शिक्षा और संचार की कार्यप्रणाली इस विषय में राष्ट्रीय सहमति विकसित करने की दिशा में सहायक सिद्ध हो सकती है.
वैयक्तिक कानूनों में सुधार:- समान नागरिक संहिता पर आम सहमति के अभाव में भारत के लिए सर्वोत्तम आगे की राह यह हो सकती है कि वैयक्तिक कानूनों की विविधता को संरक्षित किया जाए परंतु साथ ही आवश्यक सुनिश्चित किया जाए कि यह भी बताएं मूल अधिकारों के समक्ष बाधा उत्पन्न ना करें।
वर्ष 2018 में भारत के विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र में उल्लेख किया है कि देश में अभी इस अवस्था में समान नागरिक संहिता ना तो आवश्यक है और ना ही वांछनीय है। हालांकि आयोग विवाह और विवाह विच्छेद के विषय में कुछ ऐसे उपायों का सुझाव देता है जिन्हें सभी धर्मों के वैयक्तिक कानूनों में समान रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए।
ऐसी आदर्श समान नागरिक संहिता को अधिनियमित करने का प्रयास किया जाना चाहिए जिसमें सभी वैयक्तिक कानूनों के सर्वोत्तम तत्वों का समावेश किया गया हो यह विधिक प्रकार के वयक्तिक कानूनों के उत्तम भागों को मिलाकर निर्मित किया गया होना चाहिए।
निष्कर्ष
निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य धर्म की स्वतंत्रता हमारी संस्कृति का मूल है परंतु ऐसी धार्मिक प्रथाएं जो मानवाधिकारों और मानवीय गरिमा को क्षति पहुंचाती हो तथा नागरिक एवं भौतिक स्वतंत्रता को संकटग्रस्त करती हो वह स्वयं ता का नहीं बल्कि उत्पीड़न का प्रतीक है इसलिए एक ऐसी एकीकृत संहिता आवश्यक है जो लोगों को शोषण से सुरक्षा प्रदान करें और राष्ट्रीय एकता व अखंडता को बढ़ावा दें।
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