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BNS की धारा 127(5)अवैध बंधक बनाकर रिट आदेश की अवहेलना का क्या मतलब है?

Women's property related important judgement supreme courts

अपने आसपास आपने भी इस बात को नोटिस किया होगा कि निसंतान विधवा स्त्रियों की प्रॉपर्टी पर उसके पति के भाई के बेटे अपना हक जमा लेते हैं लेकिन हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद आप किसी स्त्री को इस बात के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है कि वह अपनी प्रॉपर्टी का उत्तराधिकारी ससुराल के रिश्तेदारों को ही बनाए.

क्या था पूरा मामला: -

        खुशीराम बनाम नवल सिंह नामक इस मामले में एक निसंतान विधवा स्त्री के इस निर्णय को वैद्य माना गया कि वह अपने पति की संपत्ति मायके पक्ष के लोगों को दे सकती है इस केस में जागो नामक एक निसंतान विधवा स्त्री ने पति की मृत्यु के बाद स्वाभाविक उत्तराधिकारी के तौर पर प्राप्त होने वाली जमीन को पारिवारिक रजामंदी से उपहार स्वरूप उसने अपने भाई के बेटे को सौंप दिया था. इसके बाद उस स्त्री के ससुराल पक्ष के नतीजों ने अपनी चाची के इस निर्णय को न्यायालय में चुनौती देते हुए यह कहा कि उनके भाई के बेटे हमारे परिवार के लिए बाहरी व्यक्ति हैं इसलिए यह संपत्ति उन्हें नहीं दी जा सकती है और इसके असली हकदार हमें लेकिन गुरु राम की निचली अदालतों पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट और माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी यही कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम 1956 की धारा 15 और 16 के तहत कोई भी संतान स्त्री अपनी संपत्ति को अपने पिता के वारिसों को दे सकती है क्योंकि वह लोग उसके लिए अजनबी या बाहरी व्यक्ति नहीं है कुल मिलाकर यह निर्णय यही स्थापित करता है कि पति की मृत्यु के बाद अगर किसी स्त्री के पास उसकी संपत्ति हस्तांतरित होती है तो वन्य संतान विधवा स्त्री पूरी तरह से उस संपत्ति की मालिक है उसके साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वह अपनी संपत्ति ससुराल के लोगों को ही दे.


यह भी निर्णय कुछ खास है: -

     पिछले साल भी  VINITA  शर्मा VS राकेश शर्मा केस 2020 को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक और ऐतिहासिक निर्णय पास करके इस बात की पुष्टि की है कि हिंदू परिवार में जन्म लेने वाली बेटियों को पिता की संपत्ति में बेटे की तरह बराबर का अधिकार है विनीता शर्मा और राकेश शर्मा नामक भाई-बहन के बीच हुए संपत्ति विवाद के फैसले के दौरान सर्वोच्च न्यायालय 1950 सिक्स के उत्तराधिकार अधिनियम की स्पष्ट व्याख्या करते हुए यह कहा है कि अगर कोई बेटी उत्तराधिकार अधिनियम संशोधन 2005 के पहले या बाद में जन्म लेती है तो भी उसे परिवार की / पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलेगा जिस पर उसका पूरा मालिकाना हक होगा फिर उसे अपनी मर्जी से किसी अन्य व्यक्ति को दे सकती है सकती है या बेच सकती है.


          सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय निश्चित रूप से सराहनीय लेकिन व्यावहारिक रूप से आम स्त्रियां इसे तभी लाभान्वित होंगी जब वह खुद अपने हक के लिए आवाज उठाएंगे यहां स्त्री के मायके ससुराल वालों की भी यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अकेली विधवा स्त्री की संपत्ति देखकर उसे हासिल करने की कोशिश ना करें और स्त्री की इच्छा व अधिकार का सम्मान जरूरी है.


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